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 प्रश्न 1. हिन्दू विधि की उत्पत्ति पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। Write short note on the origin of Hindu Law.

उत्तर- हिन्दू विधि की उत्पत्ति (Origin of Hindu Law)-दो विचारधारायें हिन्दू विधि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित हैं-एक विचारधारा के अनुसार यह ईश्वर प्रदत्त है-दूसरी विचारधारा के अनुसार यह बहुत काल से प्रचलित प्रथाओं एवं रूढ़ियों पर आधारित विधि है।

       यद्यपि हिन्दू विधि ईश्वरीय उत्पत्ति से सम्बन्धित मानी जाती है, फिर भी यह तत्वतः बहुत काल से प्रचलित एवं सदाचार पर अवलम्बित है जो पूर्णतया धर्म निरपेक्ष है। विधि के विकास में प्रथाओं के ऊपर इतना अधिक बल दिया गया है कि यह भ्रम होना सर्वथा स्वाभाविक है कि हिन्दू विधि प्रथात्मक है।

      हिन्दुओं के अनुसार, हिन्दू विधि की दैवी उत्पत्ति है, क्योंकि यह वेदों से प्राप्त हुई बतायी जाती है और वेदों को ईश्वरीय वाणी कहा जाता है। यूरोपीय विद्वानों के अनुसार हिन्दू विधि ईश्वर प्रदत्त नहीं वरन् बहुप्रचलित प्रथाओं एवं लोकरीतियों आधारित है जो ब्राह्मणवाद के पूर्व भी विद्यमान थी। जब आर्य लोग भारत में आये तो उन्होंने देखा कि यहाँ बहुत सी प्रथायें एवं रूढ़ियाँ प्रचलित थीं जो उनकी प्रथाओं से या तो पूर्णरूपेण मेल खाती थीं अथवा उनसे पूर्णतया भिन्न भी नहीं थीं। उन्होंने उन प्रथाओं अथवा रूढ़ियों को आवश्यकतानुसार परिवर्तित अथवा संशोधित करके ग्रहण कर लिया तथा उन प्रथाओं एवं रूढ़ियों को पूर्णतया त्याग दिया, जिनको वे अपने अनुरूप नहीं कर सकते थे। बाद में ब्राह्मणवाद ने उन प्रचलित प्रथाओं में धर्म की आड़ में कुछ परिवर्तन किया। पहला, उनके धर्म-निरपेक्ष स्वरूप में धर्म का बीजारोपण करके, दूसरा, पवित्र उद्देश्यों से उचित नियन्त्रण करके तथा तीसरा उद्देश्य विशेष की पूर्ति के हेतु ब्राह्मणवाद द्वारा मान्य नीतियों के अनुसार प्रथाओं को पूर्णतया हटाकर परिवर्तन लाये गये।

प्रश्न 2. हिन्दू कौन है?

Who is Hindu ?

उत्तर – हिन्दू कौन है— हिन्दू की परिभाषा देना कठिन है। वास्तव में हिन्दू की कोई परिभाषा अपने आप में पूर्ण नहीं है। यज्ञ पुरुष दास जी बनाम मूलदास, ए० आई० आर० (1966) सु० को० के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने “हिन्दू कौन है” इस प्रश्न पर विचार किया और कहा कि ऐतिहासिक रूप में “हिन्दू” शब्द किसी धर्म विशेष का संकेत नहीं करता वरन् मूलत: एक भौगोलिक सीमा के अन्तर्गत रहने वाले व्यक्तियों को इंगित करता है। इस परिभाषा के अनुसार निम्न व्यक्ति हिन्दू हैं, क्योंकि उन्हीं पर हिन्दू विधि लागू होती है। ये निम्न है-

(1) वे व्यक्ति जो धर्मतः   हिन्दू है, जैन या बौद्ध या सिक्ख है।

(2) वे व्यक्ति जो हिन्दू, जैन, बौद्ध या सिक्ख  माता-पिता की सन्तान है।

(3)  वे व्यक्ति जो मुसलमन, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं है।

प्रश्न 3•   हिन्दू विधि क्या है?

What is Hindu Law?

उत्तर- हिन्दू विधि क्या है?-मैन के कथनानुसार, हिन्दू विधि स्मृतियों की विधि है जो संस्कृत भाष्य एवं नियों में विस्तार रूप में वर्णित है तथा जिसमें न्यायालयों द्वारा मा रीतियों एवं प्रयाओं द्वारा संशोधन तथा परिवर्द्धन किया गया है। हिन्दू विधि किसी राजा या सम्राट के द्वारा प्रवर्तमान आदेश नहीं है जैसा कि आस्टिन ने कहा था परन्तु राजाको अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपनी प्रजा से इस विधि के प्रावधानों का करवाये तथा आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन लाये। अतः विधि को राजा अथवा अधिराट् के समादेश स्वरूप कहा जा सकता है।

      हिन्दू विधि के ईश्वर-प्रदत होने के विश्वास के कारण यह सम्भव नहीं माना जाता था। कि शास्त्रोक्त विधि के नियमों को राजा अथवा राज्य परिवर्तित कर सके। इस विधि के अनुसार, राजा एवं प्रजा तथा समाज का प्रत्येक अंग विधि के नियमों से समान रूप से आबद्ध था।

प्रश्न 4. हिन्दू विधि स्थानीय विधि नहीं है। स्पष्ट करें।

Hindu Law is not a Lex Locl. Explain.

उत्तर– हिन्दू विधि स्थानीय नहीं है (Hindu Law is not a Lex Loci) हिन्दू विधि किसी एक निश्चित प्रान्त में अथवा रथान में लागू नहीं होती। यह एक व्यक्तिगत विधि है अर्थात् एक हिन्दू जिस भी देश में जायेगा, वहाँ पर वह उन विषयों के सम्बन्ध में हिन्दू विधि से ही शासित होगा जिन पर हिन्दू विधि लागू होती है। इस तरह जब कभी एक हिन्दू एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है, वह अपने पुराने स्थान की रीतियों एवं प्रथाओं से शासित होता है, न कि उस नये स्थान की रीतियों और प्रथाओं से जो विधियाँ या प्रथायें उसके मूल स्थान को छोड़ते समय उस स्थान में प्रचलित थीं, विधियाँ तथा रीति-रिवाज नये स्थान में भी उस व्यक्ति पर लागू होंगे।

प्रश्न 5. “हिन्दू जन्म से होता है, बनाया नहीं जाता।” विवेचना करें।

“A Hindu is born, not make.” Explain.

उत्तर- वे सभी व्यक्ति हिन्दू होते हैं जिनका जन्म हिन्दू माँ-बाप से होता है अर्थात् हिन्दू जन्म से होता है। इसके अतिरिक्त उन व्यक्तियों को भी हिन्दू माना जाता है जिन्होंने अपना मूल धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है या जो पहले हिन्दू थे परन्तु हिन्दू धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म में शामिल हो गये थे परन्तु अब पुनः हिन्दू धर्म अंगीकार कर लिया है जैसा कि पेरूमल और श्रीमती अश्यम्मा आदि के बाद में धर्मान्तरण द्वारा बने हिन्दू को मान्यता प्रदान करते हैं।

      अतः यह कहना कि हिन्दू जन्म से होता है, बनाया नहीं जाता उपयुक्त प्रतीत नहीं होता क्योंकि हिन्दू जन्म से भी होता है और धर्मान्तरण द्वारा बनाया भी जाता है जैसा कि अब्राहिम बनाम अब्राहिम, एम० आई० ए० 199-243 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया था कि

“हिन्दू” शब्द हिन्दू धर्म में पैदा हुए व्यक्तियों के लिए और हिन्दू धर्म में परिवर्तित व्यक्तियों दोनों के लिए लागू होता है।

प्रश्न 6. हिन्दू विधि के स्रोत क्या हैं?

What are sources of Hindu Laws?

उत्तर – हिन्दू विधि के स्त्रोत (Sources of Hindu Law)-हिन्दू विधि के स्रोतों को सुविधा के लिए मुख्यतः दो शोषंकों में विभाजित किया जा सकता है

(1) प्राचीन स्त्रोत- इसके अन्तर्गत श्रुति, स्मृति, भाष्य एवं निबन्ध तथा प्रथायें आती है और

(2) आधुनिक स्त्रोत– इसके अन्तर्गत न्याय, साम्य, सद्विवेक, विधायन तथा न्यायिक निर्णय आते हैं।

प्रश्न 7. धर्मसूत्र पर एक टिप्पणी लिखें।

Write a note on Dharmasutra.

उत्तर – धर्मसूत्र (Dharmasutra)– जो स्मृतियाँ गद्य में हैं, उन्हें धर्मसूत्र की संज्ञा दी जाती है तथा वे श्लोकों वाली रचना के पूर्व की हैं।

इन सूत्रों तथा गाथाओं का काल अनुमानतः 800 वर्ष से 200 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। इन सूत्रों में मुख्यतया मानव कर्त्तव्यों की विवेचना की गई है। इन सूत्रों की रचना देश के भिन्न-भिन्न भागों में तथा भिन्न-भिन्न काल में हुई। ये सूत्र तीन प्रकार के थे- गृह्य, सूत्र, श्रौत सूत्र तथा धर्म सूत्र तथा इन तीनों को मिलाकर उनके कल्पसूत्र की संज्ञा दी जाती है। विधि के अध्ययन की दृष्टि से धर्म सूत्र अधिक उपयोगी हैं। इनमें आपस में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। इनमें विधि की कल्पना प्राचीन गाथाओं तथा सूत्रों के आधार पर की गई तथा प्रथाओं को पर्याप्त स्थान प्रदान किया गया। गौतम, बौधायन, वशिष्ठ तथा विष्णु के धर्म सूत्र दाय, विभाजन, स्त्रीधन, दत्तक ग्रहण, विवाह, पुत्रत्व, ऋण, व्याज, व्यवहार विधि, आपराधि के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उपर्युक्त धर्मसूत्रों के अलावा शंख लिखित अपना एवं हिरण्याक्षिन तथा कश्यप के सूत्र हैं जिनमें विधि की शास्त्रीय विवेचना की गई है।

प्रश्न 8. प्रधाएँ (रूढ़ियाँ) क्या हैं?

What are Customs?

उत्तर- प्रथाएँ क्या हैं? (What are Customs)– प्रथायें वे नियम हैं जो किसी परिवार, वर्ग अथवा स्थान विशेष में बहुत पहले से चले आने के कारण विधि से बाध्यकारी मान्यता प्राप्त कर लेती हैं। प्रिवी कौंसिल की जुडीशियल कमेटी ने प्रथाओं के विषय में यह कहा था कि “प्रथायें किसी स्थान-विशेष, जाति अथवा परिवार-विशेष के चिरकालीन प्रयोग के कारण विधि के मान्यता प्राप्त नियम हैं। ये प्राचीन हो, निश्चित हों तथा विवेकपूर्ण हों, और यदि विधि के सामान्य नियमों के विरोध में हो तो उनका आशय बहुत ही सावधानी से निकालना चाहिए।” यद्यपि प्रथायें तथा रूढ़ियाँ एक-दूसरे की पर्यायवाची मानी जाती हैं, फिर भी उनमें भेद किया जाता है। प्रथायें उन नियमों का सम्बोधन करती हैं जिनका प्रमुख लक्षण प्राचीनता है तथा रूढ़ियाँ उनको अपेक्षा कम प्राचीन होती हैं तथा कुछ ही काल पहले बनी होती हैं। हिन्दू विधि के द्वारा सामान्यतः प्रथाओं को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-(अ) स्थानीय प्रधायें (देशाचार); (ब) वर्गीय प्रथायें (लोकाचार) एवं (स) पारिवारिक प्रथायें (कुलाचार)।

प्रश्न 9• न्यायिक निर्णय से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Judicial Decision?

उत्तर- न्यायिक निर्णय (Judicial Decision)—वे न्यायिक निर्णय जो हिन्दू विधि पर न्यायालयों द्वारा घोषित किये जाते हैं, विधि के स्रोत समझे जाते हैं, अब हिन्दू विधि पर भी महत्वपूर्ण बातें विधि रिपोर्ट में सुलभ हैं और इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इन न्यायिक निर्णयों ने किसी सीमा तक भाष्यों की विधि का अधिक्रमण कर दिया है। प्रिवी कौंसिल तथा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भारत के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी प्रभाव रखते हैं-भले हो यह बात सत्य है कि एक उच्च न्यायालय का निर्णय दूसरे उच्च न्यायालय के लिए बाध्यकारी नहीं है।

      इस प्रकार के स्रोतों में प्रिवो कौंसिल, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा भारत के चीफ कोर्ट के निर्णय आते हैं। किसी वाद-विशेष के निर्णय में न्यायालय उस वाद-विवाद पर प्राप्त सभी निर्णयों का सिंहावलोकन करता है तथा उसके विषय में अपने मत का विनिश्चय करता है। कोई भी पूर्व निर्णय विधि का साक्ष्य नहीं होता वरन् वह उसका स्रोत भी होता है तथा न्यायालय उस पूर्व-निर्णय से बाध्य होते हैं।

प्रश्न 10. मिताक्षरा  क्या है?

What is Mitakshara?

उत्तर- मिताक्षरा (Mitakshara) मिताक्षरा न केवल एक भाष्य है वरन् यह पर एक प्रकार का निबन्ध है जो 11वीं शताब्दी के अन्त में अथवा 12वीं शताब्दी के धारा में लिखा गया था। यह सर्वश्रेष्ठ विधिशास्त्री, आन्ध्र प्रदेश के निवासी विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित स्मृति पर आधारित एक उच्च कोटि का भाग्य है, जो हिन्दू विधि की एक शाखा के संस्थापक है। यह शाखा बंगाल और असम को छोड़कर लगभग सारे देश के हिन्दुओं पर लागू होती है। आज की स्थिति यह है कि यह शाखा बंगाल में भी उन विषयों पर जिनकी दायभाग में विवेचना नहीं की गयी है यहाँ मिताक्षरा को ही मान्यता प्रदान किया जाता है। यह जीमूतवाहन से लगभग 300 वर्ष पूर्व की रचना है। जीमूतवाहन ने ‘दायभाग’ भाष्य की रचना मिताक्षरा में प्रतिपादित उत्तराधिकार की निकटस्थता के नियम के विरोध में किया था और उन्होंने इस नियम की परिमितता से संज्ञान में पारलौकिक प्रलाभ के आधार पर उत्तराधिकार का नियम प्रतिपादित किया।

      मिताक्षरा विधि की शाखा पाँच उपशाखाओं में विभाजित हुई है। इन उपशाखाओं का जन्म दत्तक ग्रहण तथा दाय के सम्बन्ध में परस्पर मतभेद होने के कारण हुआ ये उपशाखाएँ मिताक्षरा को सर्वोपरि प्रमाण मानती हैं, किन्तु ये कभी-कभी किसी मूल ग्रन्थ अथवा भाष्य विशेष को भी अधिमान्यता प्रदान करती है। ये पाँच उपशाखाएँ इस प्रकार हैं-

(1) बनारस शाखा; (2) मिथिला शाखा; (3) द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा; (4) महाराष्ट्र अथवा बाबई शाखा: (5) पंजाब शाखा

प्रश्न 11. दायभाग क्या है ?

What is Dayabhaga?

उत्तर- दायभाग (Dayabhaga) जीमूतवाहन द्वारा रचित ‘दायभाग’ बंगाल में एक प्रमुख मान्य और प्राधिकृत ग्रन्थ माना जाता है। जीमूतवाहन बंगाल के एक बहुत बड़े विधिवेत्ता हुए। इनके रचना काल के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद हैं लेकिन सम्भवतः 11वीं शताब्दी में लिखा गया। प्रसिद्ध विधिवेत्ता काणे के अनुसार, दायभाग का लेखन काल 1090-1130 A.D. है। विभाजन, उत्तराधिकार और स्त्रीधन पर यह प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है तथा इन विषयों पर एक प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार पुत्र जन्मतः पैतृक सम्पत्ति में उत्तराधिकारी नहीं माना जाता है जैसा मिताक्षरा शाखा में, बल्कि पुत्र का हित पैतृक सम्पत्ति में पिता की मृत्यु के पश्चात् होता है। यह उन सम्बन्धियों को सपिण्ड मानता है जो मृतक को सबसे अधिक आध्यात्मिक लाभ देने की स्थिति में हो तथा ऐसे ही सपिण्डों को मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का अधिकार देता है।

     यह शाखा समस्त पश्चिमी बंगाल तथा आसाम के प्रदेशों में प्रचलित है।

प्रश्न 12 स्मृति । Smriti.

उत्तर- स्मृति (Smriti)- स्मृति का अर्थ है जो कुछ स्मृत या याद है। स्मृतियों का आधार मुख्यत्या वेद हैं। स्मृतियों के लेखक यह दावा नहीं करते कि स्मृतियाँ शब्दशः दैवी वाणी हो हैं परन्तु उनका कहना है कि प्रथागत रूप से सुने गये दैवी नियम को उन्होंने संग्रहित किया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्मृतियों का उद्गम दैवी न होकर मानवीय है। स्मृतियों में मनुस्मृति सबसे अग्रणी है। मनुस्मृति के पश्चात् याज्ञवल्क्य, नारद, परासर तथा बृहस्पति की स्मृतियों का स्थान विधि को सुनिश्चित करने के प्रयोजन से प्रमुख है।

स्मृतियाँ दो प्रकार की हैं-

(1) भाष्य रूप में जिसके लेखक गौतम, बौधायन, वशिष्ठ तथा परासर हैं। इन्हें धर्मसूत्र कहा जाता है। (गद्य रूप में)

(2) जो स्मृतियाँ श्लोकों में हैं, उन्हें धर्मशास्त्र कहा जाता है। मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, विष्णु इसके लेखक हैं। (श्लोकों में)

प्रश्न 13. साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण भी हिन्दू-विधि के स्रोत हैं। Equity, Justice and good conscience are also sources of Hindu Law.

उत्तर- साम्या, न्याय तथा सद्विवेक (Equity, Justice and Good Conscience)- भारत में साम्या का उद्गम हिन्दू काल में भी मिलता है। इस समय के विधिज्ञ पुराने नियमों एवं विधियों की व्याख्या करने में तथा नवीन नियमों को प्रतिपादित करने में साम्या का सहारा लेते हैं। विभिन्न नियमों में एक बिन्दु पर मतभेद के समय उसका समाधान करने हेतु साम्या का सहारा लिया जाता था तथा यह विचार किया जाता था कि परिस्थितियों में क्या उचित होगा जैसे स्मृतियों के मध्य मतभेद होने पर उसका समाधान तर्क, न्याय तथा साम्या के सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता था। अतः साम्या, न्याय तथा सद्विवेक भी हिन्दू विधि का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 14. मिताक्षरा तथा दायभाग में अन्तर स्पष्ट करें। Distinguish between Mitakshara and Dayabhaga?

उत्तर- मिताक्षरा तथा दायभाग  में प्रमुख अन्तर निम्न हैं- 

मिताक्षरा (Mitakshara)

(1) मिताक्षरा शाखा विज्ञानेश्वर की व्याख्या पर आधारित है।

(2) मिताक्षरा का प्रचलन उत्तर भारत में अधिक है।

(3) मिताक्षरा में सहदायिक (Copar cener) को सम्पत्ति का अधिकार जन्म से मिलता है अतः पिता तथा पुत्र सहदायिकी होते हैं तथा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सह-स्वामी

(Co-owner) होते हैं। (4) मिताक्षरा शाखा के अन्तर्गत पिता को पैतृक सम्पत्ति का संयुक्त परिवार में हस्तान्तरण (Transfer alienation) का सीमित अधिकार होता है।

(5) मिताक्षरा शाखा में पुत्र संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में पिता के विरुद्ध विभाजन की माँग करने का अधिकार रखता है।

दायभाग (Dayabhag)

(1) दायभाग जीमूतवाहन की व्याख्या पर आधारित है।

(2) दायभाग का प्रचलन बंगाल तथा आसाम प्रदेश में है।

(3) दायभाग शाखा के अन्तर्गत सम्पत्ति पर अधिकार अन्तिम स्वामी की मृत्यु पर उत्पन्न होता है अतः पिता के जीवन काल में पुत्र को पैतृक सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं है।

(4) दायभाग शाखा के अन्तर्गत पिता की पैतृक सम्पत्ति के हस्तान्तरण का पूर्ण अप्रतिबन्धित अधिकार होता है।

(5) दायभाग शाखा में पिता के जीवन काल में पुत्र को संयुक्त परिवार सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति में विभाजन की माँग करने का अधिकार नहीं होता।

प्रश्न 15. विवाह की परिभाषा दीजिए।

Define Marriage.

उत्तर (क) – विवाह (Marriage)-“वर के द्वारा कन्या को स्त्री के रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति विवाह है।” वस्तुतः हिन्दू धर्म में कन्या विवाह की पक्षकार नहीं होती। पक्षकार कन्या का पिता तथा वर होता है जिसको दान में कन्या दी जाती है। हिन्दू विधि में कन्या के स्वामित्व का सम्पूर्ण अधिकार उसके पिता अथवा संरक्षक को प्राप्त होता है। परन्तु हिन्दू धर्म में कन्या कोई वस्तु अथवा सामग्री नहीं समझी जाती जिसे पिता किसी को भी दे दे कन्या का दान एक सुयोग्य व्यक्ति को होना चाहिए। मनु के अनुसार, कन्या भले हो यौवनावस्था को प्राप्त कर ली हो, भले उसे जीवन पर्यन्त पिता के घर रहना पड़े, किन्तु पिता उसे विवाह में किसी ऐसे व्यक्ति को न दे जो निर्गुणी अथवा गुणविहीन हो।

प्रश्न 16. हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें।

Essentials of a Hindu Marriage.

उत्तर – हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें– हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में एक वैध हिन्दू विवाह के लिए कुछ शर्तों का निर्धारण किया गया है जिनका निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है-

(1) एक पत्नी विवाह– हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (1) के अनुसार एक विवाह के लिए यह आशा को जीवित पत्नी या पति पहले से न हो। एक जीवित पत्नी के रहते हुए किसी पुरुष द्वारा किया गया दूसरा विवाह शून्य तथा अमान्य होगा।

(2) पक्षकारों की सहमति- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5(ii) के अन्तर्गत वैध विवाह की द्वितीय शर्त प्रतिपादित की गई है। इस अधिनियम को सन् 1976 में संशोधन के पश्चात् सम्मति को यह विवाह के पक्षकारों की सहमतिको प्रधानता दी गई।

(3) विवाह की आयु (Age of marriage)- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 को धारा 5 (iii) के अन्तर्गत वैभववाहको तीसरी शर्त प्रतिपादित की गयी है। इसके अनुसार एक वैध हिन्दू विवाह के लिए यह आवश्यक है कि विवाह के समय वर की उम्र कम से कम 21 वर्ष तथा वधू की उम्र कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए। परन्तु यदि 15 वर्ष से कम उम्र को बधू का वह सम्पन्न होता है तो यह विवाह न तो शून्य है न ही शून्यकरणीय (Voidable) परन्तु यह विवाह 15 वर्ष से कम उम्र की लड़की के विवाह को सम्पन्न कराने वाले लोगों को दण्डित करने का प्रावधान करता है।

(4) प्रतिबन्धित डिग्री के ऊपर विवाह होना चाहिए-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (4) चौधी या पाँचवी शर्त को प्रतिपादन करती है, जो निम्न है-

(1) विवाह के पक्षकार वर या वधू प्रतिबन्धित नातेदारों के अन्तर्गत नहीं होने चाहिए। परन्तु यदि उनमें प्रतिबन्धित नातेदारी में विवाह करने की प्रथा या रीति है तो यह शर्त लागू नहीं होगी धारा 5 (4) (2) विवाह के पक्षकार वर तथा वधू सपिण्ड नहीं होने चाहिए परन्तु यदि उनके मध्य प्रचलित प्रथा या रीति-रिवाज के अनुसार सपिण्ड नातेदारियों में भी विवाह की अनुमति है तो यह शर्त लागू नहीं होगी। (धारा 5 (5) )

प्रश्न 17. “सप्तपदी हिन्दू विवाह का एक आवश्यक अनुष्ठान है और उसके बिना विवाह पूर्ण नहीं होता।” व्याख्या कीजिये।

Saptapadi is an essential ceremony of Hindu Marriage and without it marriage is not complete.” Elucidate.

उत्तर- हिन्दू विवाह अधिनियम में विवाह के लिए किसी प्रकार के संस्कार का विवरण नहीं दिया गया है। अधिनियम की धारा 7 में यह उल्लेख किया गया है कि हिन्दू विवाह उसमें के पक्षकारों में से किसी प्रथागत आचारों और संस्कारों के अनुरूप किया जा सकेगा। जहाँ ऐसे आचार एवं संस्कार के अन्तर्गत सप्तपदी आती है, जिसमें विवाह अग्नि के सम्मुख वर और वधू द्वारा मिलकर सात फेरे घूमना अनिवार्य है, वहाँ विवाह पुरा और बाध्यकारी तब होगा जबकि सातवाँ फेरा पूरा कर लिया जाता है। यहाँ “अग्नि” शब्द सामान्य अग्नि के अर्थ में नहीं प्रयुक्त किया गया है। विवाह के समय प्रज्जवलित की गई अग्नि का विशेष अर्थ है और उसी अर्थ में उसका प्रयोग किया गया है। मंत्रों से देवताओं को आहत करके प्रज्जवलित की गई अग्नि विवाह अग्नि होती है जिसके सम्मुख वर तथा कन्या को सात बार घूमना विवाह की पूर्णता के लिए आवश्यक है।

      यदि विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई भी सप्तपदी को नहीं मानता तो उस दशा में जो भी अनुष्ठान उनको जाति में उनकी प्रथाओं के अनुसार विवाह को पूर्णता प्रदान करते हैं, उनका पूरा होना आवश्यक है और यदि वे पूरे किये गये हैं तो विवाह के पक्षकारों के मध्य विवाह पूर्ण एवं बाध्यकारी हो जाता है। अनुष्ठयों की अनिवार्यता पर न्यायालयों के मत अब स्पष्ट हो चुके हैं। भाऊराव शंकर लोखडे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, ए० आई० आर० (1965) एस० सी० 1564 वाले बाद में उच्चतम न्यायालय ने निरूपित किया कि विवाह संस्कार को करने का अर्थ होता है कि विवाह संस्कार को विधिवत् सम्पन्न किया जाय जो उचित अनुष्ठानों एवं उपयुक्त तरीकों में युक्त हो। किसी विवाह को साबित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे सम्पन्न करने में धार्मिक अनुष्ठानों को विधिवत् किया जाय अथवा प्रधागत रीति-रिवाजों के माध्यम से पूरा किया जाय सप्तपदी द्वारा विवाह सम्पन्न करने की स्थिति में पवित्र विवाहाग्नि के सम्मुख सात बार फेरा किये जाने पर ही विवाह पूरा माना जाता है।

श्रीमती माग्रेट पल्ली बनाम सावित्री, ए० आई० आर० (2010) उड़ीसा 45 पल्ली के मामले में न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि हिन्दू विवाह के अन्तर्गत विवाह के रीति रियाजों के साथ-साथ पक्षकारों के बीच संस्कारात्मक स्वरूपों का भी पूरा होना आवश्यक है। उपरोक्त मामले में वादी जो ईसाई समुदाय की महिला थी, उसने अपना विवाह एक हिन्दू पुरुष से किया जो न्यायालय के समक्ष हिन्दू रीति-रिवाजों के साक्ष्य को प्रस्तुत करने में असमर्थ रही। उपरोक्त बाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसका विवाह वैध नहीं था जिसके फलस्वरूप वह उस पुरुष को पैतृक सम्पत्ति में किसी तरह का कोई हिस्सा प्राप्त न कर सकेगी।

चन्द्राभगा बाई गनपति करवार बनाम सम्भा जी नरहरि करवार, ए० आई० आर० (2007) बम्बई 201 के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि जहाँ पर किसी निम्न जाति के लोगों के प्रथा के अन्तर्गत विवाह संस्कार अथवा धार्मिक अनुष्ठान आवश्यक नहीं है, वहाँ इसके बिना भी विवाह विधिमान्य होगा।

प्रश्न 18 सपिण्ड् से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by “Sapindas”?

उत्तर- सपिण्ड (Sapindas)-हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 3 में सपिण्ड को परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

(1) किसी व्यक्ति के प्रति सपिण्ड ‘निर्देश से इसका विस्तार माता से ऊपर वाली परम्परा में तीसरी पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत तीसरी पीढ़ी भी है) पिता से ऊपर वाली परम्परा में पाँचवी पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत पाँचवीं पीढ़ी भी है) होता है। प्रत्येक अवस्था में परम्परा सम्बन्धित व्यक्ति से ऊपर गिनी जायेगी जिसे कि पहली पीढ़ो गिना जाता है।

(2) यदि दो व्यक्तियों में से सपिण्ड सम्बन्ध की सीमाओं के भीतर दूसरे परम्परागत अग्रपुरुष है या यदि उनका ऐसा ही परम्परागत अग्रपुरूष है जो कि एक-दूसरे के प्रति सपिण्ड सम्बन्ध की सीमाओं के भीतर है। इस प्रकार सपिण्ड सम्बन्ध निम्नलिखित को भी सम्मिलित करता है

(1) सहोदर, सौतेला तथा सगा सम्बन्धी।

(2) वैध तथा अवैध रक्त से सम्बन्धित।

(3) दत्तक ग्रहण अथवा रक्त से सम्बन्धित है।

प्रश्न 19: दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापना पर चर्चा करें। Discuss on Restitution of Conjugal Rights. उत्तर- दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना (Restitution of Conjugal  Rights)- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के अन्तर्गत दाम्पत्य अधिकार की Rights) नर्स्थापना का प्रावधान किया गया है। इस धारा के अनुसार दाम्पत्य अधिकार को पुनर्स्थापना के लिए न्यायालय में प्रार्थना पत्र दिया जा सकता है। वास्तव में हिन्दू विवाह का उद्देश्य दाम्पत्य जीवन के सुख एवं सुविधा से सम्बन्धित है। विवाह के पक्षकारों को एक दूसरे के साथ रहने तथा सहवास करने का अधिकार है। ये एक-दूसरे से बिना किसी युक्तियुक्त कारण के अलग नहीं रह सकते धारा 9 के अन्तर्गत इस अधिकार की पुनर्स्थापना के विषय में यह कहा गया है, “अहाँ पर पति या पत्नी ने बिना युक्तियुक्त कारण के एक-दूसरे के साथ रहना त्याग दिया हो तो ऐसा परित्यक्त व्यक्ति जिला न्यायालय में याचिका द्वारा दाम्पत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए प्रार्थना कर सकता है और यदि न्यायालय याचिका में वर्णित प्रार्थना तथा तथ्यों पर विश्वास करता है और उसकी दृष्टि में ऐसा अन्य कोई वैध अधिकार नहीं है जिससे प्रार्थना पत्र अस्वीकार किया जा सके तो ऐसा न्यायालय याचिका की प्रार्थना के अनुसार दाम्पत्य-अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए आज्ञप्ति दे सकता है।”

प्रश्न 20. सिविल मृत्यु | Civil death.

उत्तर- सिविल मृत्यु (Civil death)-कोई भी व्यक्ति जिसने पूर्णतया अन्तिम रूप से संसार त्याग दिया है अथवा यती अथवा संन्यासी हो चुका है, वह अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होने का अधिकारी नहीं रह जाता। कोई व्यक्ति संन्यासी अथवा यती कह देने मात्र से संन्यासी या यती नहीं हो जाता संसार का त्याग यथार्थ रूप में पूर्णतया अन्तिम होना चाहिए। संन्यास ग्रहण करने को संसार परित्याग या सिविल मृत्यु कहा जाता है।

       “वह व्यक्ति जो संन्यासी अथवा यती होने की इच्छा करता है, उसे अपना मृत्यु संस्कार तथा श्राद्ध विधिवत् करना चाहिए तथा अपनी सभी सम्पत्ति को अपने पुत्रों तथा ब्राह्मणों में विभाजित कर देना चाहिए। उसके पश्चात् होम आदि की क्रिया करके जल में खड़ा होकर उस उद्देश्य का मन्त्र तीन बार पढ़ना चाहिए कि उसने संसार की समस्त वस्तुएँ पुत्र तथा सम्पत्ति आदि को त्याग दिया।”  [शीला बनाम जीवन लाल, ए० आई० आर० (1988) एक पी० 275]

प्रश्न 21. द्विविवाह  Bigamy.

उत्तर-द्विविवाह (Bigamy)–पति या पत्नी के जीवन काल में पुनः विवाह करना द्विविवाह कहलाता है जिसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 में दण्डनीय बनाया गया है। यह धारा द्विविवाह को प्रतिबंधित करती है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (2) (i) के अन्तर्गत पत्नी को पति द्वारा दूसरा विवाह करने पर विवाह विच्छेद की याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदत्त किया गया है। आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने नमन्ना बनाम लक्ष्मीबाई, ए० आई० आर० (1963) ए० पी० 82 के मामले में यहाँ तक कहा है कि पत्नी की विवाह-विच्छेद की याचिका खारिज नहीं की जा सकती भले ही पत्नी द्वारा विवाह विच्छेद की याचिका प्रस्तुत करने के बाद पति ने दूसरी पत्नी से विवाह विच्छेद कर लिया हो।

प्रश्न 22. न्यायिक पृथक्करण क्या है?

What is Judicial Separation?

उत्तर- न्यायिक पृथक्करण (JudicialSeparation) – हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 में न्यायिक पृथक्करण का अनुतोष निम्नलिखित परिस्थितियों में याची को प्राप्त है (1) प्रत्युत्तरदाता द्वारा विवाह के बाद किसी अन्य से लैंगिक सम्भोग; (2) क्रूरता; (3) अभित्याग; (4) कोढ़ [ स्वीय विधि (संशोधन) अधिनियम, 2019 द्वारा कोढ़ या कुष्ठ शब्द का लोप किया गया] (5) रतिजन्य रोग; (6) मानसिक विकृतता; (7) धर्म-परिवर्तन (8) संसार- परित्याग (9) प्रकल्पित आयु ।                  स्मरणीय रहे कि न्यायिक पृथक्करण की याचिका दायर करने के लिए पत्नी को निम्न अतिरिक्त आधार प्राप्त हैं –

(क) पति द्वारा बहुविवाह

(ख) पति द्वारा बलात्कार, गुदा मैथुन अथवा पशुगमन

(ग) न्यायालय द्वारा डिक्री पारित करने के एक वर्ष या अधिक वर्षों में विवाह के पक्षकारों से सहवास न हुआ हो।

(घ) यौवनागमन का विकल्प।

प्रश्न 23 तलाक के आधार बतलाइये।

Discuss the basis of Divorce.

उत्तर- तलाक के आधार (Basis of Divorce)– वर्तमान हिन्दू विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अन्तर्गत तलाक के निम्नलिखित आधार प्रस्तुत किये गये-

        (1) जारता; (2) क्रूरता; (3) अभित्याग; (4) धर्म परिवर्तन (5) मस्तिष्क विकृतता; (6) कोढ़ [स्वीय विधि (संशोधन) अधिनियम, 2019 द्वारा तलाक के आधार में कुष्ठ रोग को निकाला गया है जो फरवरी 22 वर्ष 2019 से लागू है ]; (7) रतिजन्य रोग; (8) संसार- परित्याग; (9) प्रकल्पित मृत्युः (10) दाम्पत्य अधिकार के पुनर्स्थापन की आज्ञप्ति का पालन न करना।

      स्मरणीय रहे कि विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के पास तलाक देने के लिए पत्नी को चार अतिरिक्त आधार प्रदान किये गये हैं –

(क) पति द्वारा बहुविवाह

(ख) पति द्वारा बलात्कार, गुदा मैथुन अथवा पशुगमन

(ग) न्यायालय द्वारा डिक्री पारित करने के एक वर्ष या अधिक समय तक सम्भोग न हुआ हो।

(घ) यौवनागमन का विकल्प।

प्रश्न 24. शून्य विवाह पर चर्चा करें।

Discuss on Void Marriage.

उत्तर- शून्य विवाह (Void Marriage)- हिन्दू विवाह  अधिनियम  की धारा 11 में  यह विहित है कि यदि धारा 5 के उपखण्ड 1, 4 और 5 की शर्तों के प्रतिकूल विवाह हो जो इस अधिनियम के लागू होने के बाद सम्पन्न किया प्रभावहीन समझा जायेगा और किसी पक्ष के याचिका देने से होकरदया जायेगा। इस धारा के अधीन विवाह का कोई पक्षकार विवाह को एवं करवा सकता है। इस प्रकार के मामले में यह आवश्यक नहीं कि पीड़ित काही बद दायर करे यह धारा बाद दायर करने का अधिकार विवाह के प्रत्येक पक्षकार को प्रदान करत है। इस प्रकार निम्न विवाह प्रारम्भ से ही प्रभावहीन समझे जायें-

(1) यदि किसी भी पक्षकार के विवाह के समय दूसरा पक्षकार जीवित है।

(2) जम विवाह प्रतिषिद्ध सम्बन्धों के भीतर (किसी प्रथा के अभाव में होता है।

(3) जब विवाह सपिण्ड के साथ किसी प्रथा के अभाव में) होता है।

      यह धारा तभी लागू होती है जबकि विवाह अधिनियम, 1955 लागू होने के बाद विवाह किया गया है। विवाह इस धारा के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही शून्य होगा।

प्रश्न 25 शून्यकरणीय विवाह पर टिप्पणी लिखें।

Write note on Voidable Marriage.

उत्तर- शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriage)- धारा 12 के अनुसार, कोई भी विवाह चाहे वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व या बाद में सम्पन्न किया गया हो, निम्नलिखित आधारों पर शून्यकरणीय समझा जायेगा –

(1) विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के पूर्व यह कि विवाह के समय और इसके बाद भी कार्यवाही प्रारम्भ करने के समय तक प्रत्युत्तरदाता नपुंसक था विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अनुसार भी शून्यकरणीय विवाह के लिए नपुंसकता को एक आधार बनाया गया, किन्तु उसे और भी सरल कर दिया गया है। संशोधन के बाद यदि प्रत्युत्तदाता की नपुंसकता के कारण विवाह को पूर्णता नहीं दी जा सकती है तो याची विवाह को शून्य घोषित कर सकता है।

(2) प्रत्युत्तरदाता का अस्वस्थ मस्तिष्क का होना।

(3) यहाँ याची अथवा कन्या के संरक्षक की सहमति वैवाहिक संस्कार के सम्बन्ध में जैसा कि बाल विवाह अवरोध (संशोधन) अधिनियम, 1978 के लागू होने के पूर्व आवश्यक था, बल प्रयोग द्वारा अथवा कपट द्वारा प्राप्त की गई थी, वहाँ विवाह शून्य घोषित करवाया जा सकता है।

(4) यह कि विवाह के समय प्रत्युत्तरदाता याची के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति के सम्भोग से गर्भिणी थी।

प्रश्न 26 अभित्यजन से आप क्या समझते हैं?

What do you mean by ‘Desertion’?

उत्तर- अभित्यजन (Desertion)- अभिल्यजन का तात्पर्य विवाह के पक्षकारों के सम्बन्ध में जानबूझकर एक दूसरे की करने से है। यदि पति या पत्नी एक दूसरे के सम्बन्धों को निभाने में जानबूझकर उपेक्षा करते हैं तो अभिव्यजन कहा जायेगा। इस प्रकार जब पति-पत्नी एक ही घर में रहते हैं परन्तु स्थायी रूप से वैवाहिक दायित्वों तथा कर्त्तव्यों का पालन करना छोड़ देते हैं तो कहा जायेगा कि एक ने दूसरे का अभित्यजन कर दिया है। इस प्रकार विवाह के पक्षकार द्वारा स्थायी रूप से वैवाहिक दायित्व तथा कर्तव्यों के पालन का परित्याग ही अभित्यजन है। एक पक्षकार द्वारा दूसरे की जान-बूझकर उपेक्षा करना भी अभिव्यजन की परिभाषा में आता है। इस प्रकार अभित्यजन एकपक्षीय भी हो सकता है। वैवाहिक विधि (संशोधन) अधिनियम, 1978 से अभित्यजन को विवाह विच्छेद का आधार बना दिया गया है परन्तु यह अभिव्यजन निरन्तर 2 वर्षों तक की अवधि का होना आवश्यक है।

प्रश्न 27. ‘क्रूरता’ से आप क्या समझते हैं?

What do you mean by ‘Cruelty’?

उत्तर- क्रूरता (Cruelty)- क्रूरता की संकल्पना को भारतीय विधायिका ने किसी भी विवाह या विवाह-विच्छेद विषयक अधिनियम में परिभाषित नहीं किया है तथा न्यायालयों का मानना है कि क्रूरता के संकल्प को परिभाषा की परिधि में बाँधना इसलिए खतरनाक तथा अवांछनीय है क्योंकि क्रूरता का विनिश्चयन प्रत्येक मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर छोड़ देना चाहिए। यद्यपि क्रूरता की परिभाषा देना कठिन है फिर भी हम कह सकते हैं कि क्रूरता एक ऐसा आचरण है जिससे किसी के जीवन, अंग या मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य को खतरा हो या इस प्रकार के खतरे आशंका हो। क्रूरता विवाह-विच्छेद तथा न्यायिक पृथक्करण दोनों उपचारों का एक आधार है।

प्रश्न 28. “पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। Write short note on the Divorce by Mutual Consent.

उत्तर – पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद (Divorce by Mutual Consent) – विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 13-ब के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद अथवा तलाक के लिए एक और आधार प्रदान कर दिया गया है। इस धारा के अनुसार विवाह के दोनों पक्षकारों के द्वारा जिला अदालत में विवाह विच्छेद के लिए इस आधार पर, याचिका दायर की जा सकती है कि वह दोनों पक्षकार एक वर्ष से अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं। वे एक साथ नहीं रह सके तथा आपस में यह तय कर चुके हैं कि विवाह विघटित कर दिया जाय, विवाह चाहे इस संशोधन अधिनियम, 1976 के पूर्व में अथवा बाद में सम्पन्न किया गया रहा हो।

      इस प्रकार की याचिका प्रस्तुत किये जाने के छ: महीने बाद तथा 18 माह पूर्व दोनों पक्षकारों द्वारा किये गये प्रस्ताव पर यदि याचिका वापस नहीं ली गई है तो न्यायालय पक्षकारों की सुनवाई करने तथा इस प्रकार की जाँच करके, जैसा वह उचित समझता है, यदि इस बात से सन्तुष्ट है कि विवाह का विघटन करना आवश्यक है तो वह उसे विवाह की आज्ञप्ति की तिथि से विघटित कर सकता है।

प्रश्न 29. भरण-पोषण से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Maintenance?

उत्तर- भरण-पोषण (Maintenance)- भरण-पोषण का अधिकार संयुक्त परिवार के सिद्धान्त से उत्पन्न होता है। परिवार का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों के भरण-पोषण संस्कारों की पूर्ति तथा विवाह के खर्चों की पूर्ति के लिए जिम्मेदार होता है। भरण-पोषण का अधिकार उन व्यक्तियों को भी प्राप्त होता है जो अयोग्यताओं के कारण दाय के अधिकारी नहीं रह जाते।

    भरण-पोषण के अधिकार में जीवन की युक्तियुक्त आवश्यकतायें, जैसे-खाना, कपड़ा तथा निवास के लिए आश्रय आदि आती हैं। यह एक प्रकार का आधार है जो विधिक सम्बन्ध से उत्पन्न होता है।

      धर्मशास्त्रों के अनुसार वे व्यक्ति जो भरण-पोषण के अधिकारी हैं,  दो वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं-प्रथम, वह वर्ग जिनके विषय में शास्त्रों का विचार है कि उनका भरण पोषण किया जाय और द्वितीय, वह वर्ग जिनके भरण-पोषण का बाध्यकारी दायित्व है। प्रथम वर्ग में माता-पिता, गुरू, पत्नी, सन्तान, अभ्यागत, अतिथि तथा अग्नि वृद्ध माता-पिता, साध्वी स्त्री एवं अवयस्क शिशु आते हैं जिनके विषय में मनु का कथन है कि उनका भरण-पोषण सैकड़ों अपकृत्य करके भी करना चाहिए।

       हिन्दू विधि के अन्तर्गत एक हिन्दू का दूसरे व्यक्तियों का भरण-पोषण करने का दायित्व कुछ दशाओं में एवं व्यक्तियों के सम्बन्ध मात्र से उत्पन्न होता है जिसमें सम्पत्ति का होना या न होना कोई अर्थ नहीं रखता अन्य दूसरी दशाओं में यह दायित्व अथवा पूर्ण दायित्व या सम्बन्धजात दायित्व कहा जा सकता है, जिसे सीमित दायित्व कहा जाता है।

प्रश्न 30. विवाह-विच्छेद एवं न्यायिक पृथक्करण में अन्तर Difference between divorce and judicial separation.

उत्तर- विवाह-विच्छेद एवं न्यायिक पृथक्करण में अन्तर –

न्यायिक पृथक्कर

(1) न्यायिक पृथक्करण में विवाह का अस्तित्व अप्रभावित रहता है और पति-पत्नी के सम्बन्ध स्थगित रहते हैं, समाप्त नहीं होते।

(2) न्यायिक पृथक्करण के बाद पक्षकारों को दूसरा विवाह करने का अधिकार नहीं होता अगर पक्षकार दूसरा विवाह करता है तो धारा 17 के अन्तर्गत दूसरा विवाह शून्य होता है और दूसरा विवाह करने वाला भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 और 495 के अधीन दण्ड का भागी होगा।

(3) न्यायिक पृथक्करण में पक्षकारों को पुनः वैवाहिक जीवन शुरू करने का अवसर उपलब्ध होता है अर्थात् पक्षकार पुनः सहवास प्रारम्भ कर वैवाहिक जीवन शुरू कर सकते हैं।

(4) न्यायिक पृथक्करण की याचिका विवाह के बाद किसी भी समय प्रस्तुत की जा सकती है।

विवाह-विच्छेद

(1) जबकि विवाह विच्छेद में विवाह विघटित हो जाता है और पक्षकारों के पति-पत्नी के सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं।

(2) जबकि विवाह-विच्छेद की डिक्री के बाद पक्षकार को दूसरा विवाह करने का अधिकार मिल जाता है और दूसरा विवाह विधिमान्य होता है तथा पक्षकार किसी दण्ड का भागी नहीं होता ।

(3) जबकि विवाह-विच्छेद में पक्षकारों को वैवाहिक जीवन शुरू करने का अवसर उपलब्ध नहीं होता।

(4) विवाह-विच्छेद की याचिका कुछ असाधारण परिस्थितियों के अलावा विवाह सम्पन्न होने की तिथि के 1 वर्ष पूर्व संस्थित नहीं की जा सकती।

प्रश्न 31. शून्य विवाह तथा शून्यकरणीय विवाह के बीच अन्तर बतलाइये। Distinguish between void and avoidable marriage.

उत्तर- शून्य विवाह तथा शून्यकरणीय विवाह के बीच अन्तर (Distinction between void and voidable marriage)

शून्य विवाह

(1) शून्यता सम्बन्धी – शून्य विवाह को विवाह की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह आरम्भ से ही शून्य और प्रभावहीन होता है।

(2) न्यायालय की दृष्टि मे शून्य विवाह न तो अस्तित्व में होता है और न ही कभी अस्तित्व में आया हुआ होता है।

(3) शून्य विवाह में कोई भी पक्षकार कभी भी पुनर्विवाह कर सकता है। इसके लिए वह न तो किसी दण्ड का भागी होता है और न ही द्वि-विवाह करने का दोषी, क्योंकि शून्य विवाह स्वतः एवं प्रारम्भत: शून्य होता है।

(4) शून्य विवाह से कोई अधिकार अथवा C दायित्व, उत्पन्न नहीं होते क्योंकि शून्य विवाह न तो पक्षकारों की प्रास्थिति को प्रभावित करता है और न ही परिवर्तित कर सकता है।

(5) शून्य विवाह में विवाह का कोई पक्षकार धारा 11 के अन्तर्गत विवाह को शून्य घोषित करवाने के लिए याचिका प्रस्तुत कर सकता है।

शून्यकरणीय विवाह

(1) जबकि शून्यकरणीय विवाह तब तक वैध समक्षा जाता है जब तक पीड़ित पक्ष को याचिका पर अकृत नहीं घोषित कर दिया जाता ।

(2) जबकि शून्यकरणीय विवाह किसी सक्षम न्यायालय द्वारा अकृत न घोषित किए जाने तक अस्तित्व में होने के साथ-साथ वैध होता है।

(3) जबकि शून्यकरणीय विवाह का पक्षकार न्यायालय द्वारा विवाह को अकृत घोषित करने के पूर्व यदि पुनर्विवाह करता है तो वह दण्ड का भागी होगा और द्वि विवाह करने का अपराधी ।

(4) जबकि शून्यकरणीय विवाह से वे सभी अधिकार अथवा दायित्व उत्पन्न होते है जो वैध विवाह से उत्पन्न होते हैं जब तक कि शून्यकरणीय विवाह किसी सक्षम न्यायालय द्वारा अकृत घोषित नहीं कर दिया जाता।

(5) जबकि शून्यकरणीय विवाह में केवल पीड़ित पक्षकार ही धारा 12 के अन्तर्गत विवाह को अकृत घोषित करवाने के लिए प्रार्थना पत्र दे सकता है।

प्रश्न 32. जारता । Adultery.

उत्तर- जारता (Adultery)– भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 497 में जारकर्म को परिभाषित किया गया है। धारा 497 के अनुसार जारकर्म से तात्पर्य ऐसे संभोग से है जो किसी पुरुष द्वारा अन्य की पत्नी के साथ उस व्यक्ति की सम्मति के बिना अथवा उसकी मौन स्वीकृति के बिना किया जाता है। जिस महिला के साथ संभोग किया जाय वह किसी व्यक्ति की विधितः विवाहिता पत्नी हो। जारकर्म पति या पत्नी को विवाह विच्छेद का एक आधार होता है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार विवाह-विच्छेद के आधार के लिए जारकर्म में रहना शब्द का उल्लेख था जिसे सन् 1976 के संशोधन द्वारा जारकर्म में रहने की” शब्दावली के स्थान पर “दम्पति के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ स्वैच्छिक संभोग” पदावली जोडी गयी।

      इस प्रकार अद्यतन विधि के अनुसार यदि कोई पक्षकार वैध विवाह सम्पन्न होने के पश्चात् अपने दम्पति (पति-पत्नी) के तथा पत्नी-पति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से स्वैच्छिक सम्भोग करने का दोषी है तो इस व्यथित पति या पत्नी को विवाह-विच्छेद के लिए न्यायालय में प्रार्थना करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

      चन्द्रमोहिनी श्रीवास्तव बनाम अविनाश प्रसाद, (1967) में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जारकर्म को प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकता है। सभी मामलों में जारकर्म साबित करना होगा। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी पत्नी को प्रेम पत्र लिखता है जिसमें अश्लीलता है तो उसे विवाह-विच्छेद का आधार नहीं बनाया जा सकता क्योंकि जहाँ पुरुष एक विवाहित स्त्री को प्रेम पत्र लिखता है इससे आवश्यक रूप में अवैध सम्बन्ध साबित नहीं हो जाता।

     श्रीमती आनन्दी देवी बनाम राजाराम, ए० आई० आर० 1937 राज० 14 के बाद में पति की याचिका पर पत्नी के जारता की दोषी होने के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री प्रदान कर दी गई क्योंकि पत्नी ने उस स्थिति में एक बच्चे को जन्म दिया था जबकि पति से सम्पर्क सम्भव नहीं था।

प्रश्न 33. वृद्ध माता-पिता का भरण-पोषण।

Maintenance of aged Parents.

उत्तर- वृद्ध माता-पिता का भरण-पोषण- हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 के अन्तर्गत वृद्ध तथा निर्बल माता-पिता तथा औरस एवं जारज सन्तान को भरण-पोषण करने का दायित्व प्रदान किया गया है। किसी व्यक्ति का अपने वृद्ध माता-पिता का भरण-पोषण करने का दायित्व उसी सीमा तक है जहाँ तक कि वे अपने सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इस धारा में माता-पिता शब्द सौतेली माँ को भी सम्मिलित करता है। निर्बल एवं वृद्ध माता-पिता का भरण-पोषण करना पुत्र एवं पुत्रों के ऊपर एक दायित्व माना गया है। यह केवल वर्तमान विधि के ही अन्तर्गत प्रदान किया गया है कि पुत्री भी निर्बल एवं वृद्ध माता-पिता का भरण-पोषण करे। पूर्व विधि के अन्तर्गत केवल पुत्र का ही यह विधिक दायित्व था।

      उच्चतम न्यायालय ने आनन्दी डी० जाधव बनाम निर्मल चन्द कोर, ए० आई० आर० (2000) एस० सी० 1386 के बाद में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस बाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ माता-पिता अत्यन्त दयनीय स्थिति में हो तो उनका भरण पोषण उनके पुत्रों द्वारा किया जायेगा। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह भी सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई पुत्र अपने व्यक्तिगत प्रयास से किसी सम्पत्ति का निर्माण करता है जो कि पैतृक सम्पत्ति नहीं है, तो ऐसी निर्माण की गयी सम्पत्ति में वह अपने माता-पिता को निवास करने से वंचित नहीं कर सकता।

      एस० जगजीत सिंह भाटिया बनाम बलबीर सिंह भाटिया, ए० आई० आर० (2003) एन० ओ० सी० 450 के बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि वृद्ध माता-पिता का भरण-पोषण करना पुत्र का व्यक्तिगत दायित्व है चाहे वह अपने पिता की सम्पत्ति दाय में प्राप्त किया हो अथवा न किया हो।

प्रश्न 34. वादकालीन भरण-पोषण।

Pendente life maintenance.

उत्तर- वादकालीन भरण-पोषण- भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ते से सम्बन्धित कार्यवाही के दौरान मजिस्ट्रेट यह आदेश दे सकता है कि पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति अपनी पत्नी या ऐसी सन्तान, पिता या माता के अन्तरिम भरण-पोषण और ऐसी कार्यवाहियों के लिए खर्चे की ऐसी राशि दे जिसे मजिस्ट्रेट ठीक समझे और उस राशि का संदाय ऐसे व्यक्ति को करें जिसको संदाय (देने का) करने का मजिस्ट्रेट समय-समय पर निदेश दें।

       यह अन्तरिम भरण-पोषण व कार्यवाही का खर्चा आवेदन पत्र के निस्तारण ऐसे आवेदन के ऐसे व्यक्ति पर सूचना की तामील हो जाने से 60 दिन के भीतर, यथासम्भव कर दिया। जायेगा।

प्रश्न 35. विधवा पुत्रवधू का भरण-पोषण।

Maintenance of widowed daughter-in-law.

उत्तर- विधवा पुत्रवधू का भरण-पोषण- हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 19 के अनुसार-(1) कोई हिन्दू पत्नी, चाहे वह इस अधिनियम के आरम्भ से पूर्व या बाद में विवाहित हो, अपने पति की मृत्यु के बाद अपने श्वसुर द्वारा भरण-पोषण के लिए हकदार होगी, (धारा 19 )

      परन्तु यह तब जब कि उस विस्तार तक जहाँ तक कि वह स्वयं अपने अर्जन से या अन्य सम्पत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है या, जहाँ कि उसके पास अपनी स्वयं की कोई सम्पत्ति नहीं है, वह –

(क) अपने पति या अपने पिता या माता की सम्पदा से, या

(ख) अपने पुत्र या पुत्री से, यदि कोई हो, या उसकी सम्पदा से भरण-पोषण करने में असमर्थ है।

      बलवीर कौर बनाम हरिन्दर कौर, ए० आई० आर० 2003 पंजाब 174 के बाद में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम के अन्तर्गत अपने ससुर के विरुद्ध विधवा बह द्वारा भरण-पोषण के दावे का अधिकार ससुर के पास उपलब्ध सहदायिकी सम्पत्ति की सीमा तक सीमित है, जिसमें विधवा बहू ने किसी अंश को नहीं लिया।

(2) यदि श्वसुर के अपने कब्जे में किसी समांशित सम्पत्ति से जिसमें से पुत्र-वधू को कोई अंश अभिप्राप्त नहीं हुआ है, श्वसुर के लिए करना साध्य नहीं है, तो उपधारा (1) के अधीन किसी आभार का अनुपालन नहीं कराया जा सकेगा और ऐसा कोई आभार पुत्र वधू के पुनर्विवाह पर न रहेगा।

प्रश्न 36. दत्तक ग्रहण से आप क्या समझते हैं ?

What do you understand by Adoption?

उत्तर- दत्तक ग्रहण (Adoption)-मनु के अनुसार दत्तक ग्रहण किसी पुत्र को पुत्र के अभाव में ग्रहण करना है। इस प्रकार किसी पुत्र को उसके माता-पिता के घर से दत्तक ग्रहण करने वाले व्यक्ति के घर में पुत्र के रूप में नियोजित करना दत्तक ग्रहण किया जा सकता है जिसके अनुसार यह समझा जाता है कि दत्तक ग्रहण में ग्रहीत पुत्र का दत्तक ग्रहण करने वाले पिता के घर फिर से जन्म हुआ है तथा पूर्व पिता के घर से उसका सम्बन्ध विच्छेद हुआ मान लिया जाता है। “वह पुत्र जिसे उसके माता-पिता किसी व्यक्ति को पुत्र रूप में दान कर देते हैं, जो पुत्रहीन हैं तथा जो प्रदत्त पुत्र की ही जाति का हो तथा जल के साथ स्नेहपूर्वक दिया गया है, तो वह दत्तक पुत्र माना जाता है।” राम सुब्बाय बनाम चेंचुरमया वाले वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह कहा था कि दत्तक ग्रहण इस सिद्धान्त पर आधारित है कि प्रत्येक हिन्दू का यह धर्म माना जाता है कि वह वंश परम्परा को बनाये रखे जिससे वह पूर्वजों के प्रति कर्त्तव्यों को निभा सके। पुत्र के न होने पर आध्यात्मिक कारणों से एक दत्तक पुत्र द्वारा इस अभाव की पूर्ति दत्तक ग्रहण की प्रथा का सार है तथा दत्तक ग्रहण का उत्तराधिकारी होना इस बात का स्वाभाविक परिणाम है।

प्रश्न 37. हिन्दू पुरुष की दत्तक लेने की सामर्थ्य।

Capacity of a male Hindu to take adoption.

उत्तर – हिन्दू पुरुष की दत्तक लेने की सामर्थ्य – हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 7 में पुरुष द्वारा दत्तक ग्रहण का विधान किया गया है। इस धारा के अनुसार कोई भी स्वस्थचित्त वाला हिन्दू यदि अवयस्क नहीं है, किसी भी पुत्र अथवा पुत्री को दत्तक ग्रहण में ले सकता है।

       परन्तु यदि उसकी पत्नी जीवित है तो जब तक कि पत्नी ने पूर्ण तथा अन्तिम रूप से संसार को त्याग न दिया हो अथवा हिन्दू न रह गई हो अथवा सक्षम क्षेत्राधिकार वाले किसी न्यायालय द्वारा विकृतचित्त वाली घोषित न कर दी गई हो तब तक वह अपनी पत्नी की सहमति के बिना दत्तक ग्रहण नहीं करेगा अर्थात् पत्नी अथवा पत्नियों की सहमति एक वैध दत्तक ग्रहण के लिए आवश्यक बतायी गयी है। वर्तमान में पुत्र के अलावा पुत्री को भी दत्तक ग्रहण में लिया जा सकता है। है

       एस० रम्मपा बनाम गुरुत्वा, ए० आई० आर० 2004 कर्नाटक 237 के बाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वर्तमान अधिनियम की धारा 7 के अन्तर्गत पत्नी के मौजूद होने पर यदि पति द्वारा दत्तक ग्रहण में कोई संतान लेता है तो उसके ग्रहण करने के पूर्व पत्नी की सहमति आवश्यक होगी। इस प्रकार की सहमति के अभाव में कोई दत्तक ग्रहण अमान्य समझा जायेगा। निम्नलिखित दशाओं में सहमति आवश्यक नहीं है –

(1) यदि पत्नी पूर्व तथा अन्तिम रूप से संसार से विरक्त हो गई हो, अथवा

(2) वह हिन्दू नहीं रह गई हो, अथवा

(3) सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा विकृत मस्तिष्क की घोषित की जा चुकी हो।

प्रश्न 38 हिन्दू नारी की दत्तक लेने की सामर्थ्य ।

Capacity of a female Hindu to take adoption.

उत्तर- हिन्दू नारी की दत्तक लेने की सामर्थ्य- हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण घोषण अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत स्त्रियों को भी दत्तक ग्रहण करने का अधिकार दिया गया है जिसमें उन्हें मृत पति से प्राधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रही। ऐसा प्राधिकार 1956 के पूर्व विधि में आवश्यक था।

      इस अधिनियम के अन्तर्गत एक अविवाहिता स्त्री भी दत्तक ग्रहण कर सकती है। हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधि०, 1956 की धारा 8 के अनुसार स्त्री के द्वारा दत्तक ग्रहण करने के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक बताया गया है –

(1) वह स्वस्थ चित्त की हो,

(2) वह वयस्क हो

(3) उसका पति मर चुका हो, अथवा

(4) वह विवाहिता न हो अर्थात् अविवाहिता हो, अथवा

(5) यदि वह स्त्री विवाहित हो तो उसने अपना विवाह-विच्छेद कर लिया हो

(6) वह पूर्ण तथा अन्तिम रूप से संसार त्याग चुका हो, अथवा

(7) उसका पति हिन्दू नहीं रह गया हो, अथवा

(8) पति किसी सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा विकृत मस्तिष्क का घोषित किया जा चुका हो।

        इस प्रकार स्त्रियों का दत्तक ग्रहण सम्बन्धी अधिकार सीमित है। यह अधिकार अविवाहितावस्था में अथवा पति के मर जाने की दशा में अथवा कुछ शर्तों के साथ विवाहिता होने की स्थिति में प्रयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 39. संरक्षक कौन है?

Who is Guardian ?

उत्तर- संरक्षक (Guardian)– “संरक्षक” से तात्पर्य हिन्दू विधि में उन व्यक्तियों से है जो दूसरों के शरीर या सम्पत्ति या शरीर और सम्पत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं। संरक्षक तथा वार्ड अधिनियम के अन्तर्गत भी संरक्षक की परिभाषा इसी अर्थ में की गई है। वर्तमान अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है –

(1) प्राकृतिक संरक्षक।

(2) अवयस्क के पिता या माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक।

(3) न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक

(4) कोर्ट ऑफ वाईस से सम्बद्ध किसी अधिनियम के द्वारा या अन्तर्गत इस प्रकार के कार्य करने के लिए अधिकृत व्यक्ति यह उल्लेखनीय बात है कि अधिनियम में अवयस्क के लिए संयुक्त परिवार में उसके अविभक्त हित हेतु पा संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता है। धारा 11 के अनुसार, जहाँ किसी अवयस्क का अविभक्त हित संयुक्त परिवार में है तथा यह सम्पत्ति परिवार के किसी एक वयस्क के सम्बन्ध में है तो ऐसी अविभक्त सम्पत्ति के विषय में अवयस्क के लिए कोई संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता।

      परन्तु इस धारा में कोई बात इस प्रकार के हितों के विषय में संरक्षक नियुक्त करने क लिए उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को प्रभावित नहीं करती

प्रश्न 40 वसीयती संरक्षक कौन है?

Who is Testamentary Guardian?

उत्तर- वसीयती संरक्षक (Testamentary Guardian)-  बमोयती संरक्षक से तात्पर्य उस संरक्षक से है जो अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक की इच्छा से नियुक्त किये जाते हैं तथा अवयस्क के लिए संरक्षक के रूप में कार्य करने के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार के संरक्षक प्राकृतिक संरक्षकों की मृत्यु के बाद ही क्रियाशील हो सकते हैं। हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के अनुसार निम्नलिखित प्रकार के व्यक्ति किसी को अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त कर सकते हैं –

(1) पिता, नैसर्गिक अथवा दत्तक ग्रहीता।

(2) विधवा माता, नैसर्गिक अथवा दत्तक ग्रहीता।

     कोई भी हिन्दू पिता जो नैसर्गिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का अधिकारी है तथा जो अपनी इच्छा अधिनियम द्वारा अवयस्क का नैसर्गिक संरक्षक होने के अयोग्य नहीं हो गया। द्वारा अवयस्क के शरीर अथवा उसकी विभक्त सम्पदा अथवा दोनों के लिए संरक्षक नियुक्त कर सकता है।

प्रश्न 41. प्राकृतिक संरक्षक की शक्तियाँ

Powers of Natural Guardian.

उत्तर- नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ (Powers of Natural Guardian )— हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-8 एक अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के सम्बन्ध में नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियों के बारे में प्रावधान करती है।

      हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अनुसार नैसर्गिक संरक्षक उन सभी कृत्यों के सम्पादन का अधिकारी होगा जो अवयस्क की सम्पत्ति को सुरक्षा, संरक्षण तथा कल्याण के लिए आवश्यक तथा (उपयुक्त) युक्तियुक्त (Necessary and reasonable) हो। परन्तु किसी भी परिस्थिति में व्यक्तिगत संव्यवहारों में नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क को बाँध नहीं सकता अर्थात् व्यक्तिगत संव्यवहारों के माध्यम से एक नैसर्गिक संरक्षक को अवयस्क पर दायित्व डॉलने का अधिकार नहीं होगा। धारा 8 के अन्तर्गत प्रदत्त यह शक्ति अति व्यापक है जिसके अन्तर्गत नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क के कल्याण के लिए सब कुछ कर सकता है जो आवश्यक तथा उपयुक्त है। अवयस्क के कल्याण के लिए आवश्यक तथा उपयुक्त क्या है, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

       न्यायालय की अनुमति के बिना अवयस्क (अपत्य) की अचल सम्पत्ति का किसी भी भाँति अन्तरण या हस्तान्तरण नहीं कर सकता तथा वह अपत्य (अवयस्क) की सम्पत्ति को पाँच वर्ष की अवधि के या अपत्य (Ward) के वयस्क होने के पश्चात् एक वर्ष की अवधि से अधिक के लिए पट्टे (lease) पर नहीं दे सकता। [धारा 8 (2) ] ।

    न्यायालय यह अनुमति तभी देगा जब ऐसा हस्तान्तरण अवयस्क या अपत्य (Ward) के कल्याण के लिए आवश्यक है तथा अवयस्क या अपत्य के प्रत्यक्ष लाभ के लिए है। [ धारा 8 (4)]

प्रश्न 42. न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक।

Guardian appointed by court.

उत्तर- न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक-यद्यपि हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 12 एक संयुक्त मिताक्षरा परिवार की संयुक्त सम्पत्ति के निमित्त उसे परिवार के अवयस्क सदस्य के हितों के लिए न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त करने पर प्रतिबन्ध है फिर भी संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के प्रावधानों के अनुसार न्यायालय को एक हिन्दू अवयस्क की शारीरिक तथा साम्पत्तिक हितों की रक्षा के लिए संरक्षक नियुक्त करने की शक्ति जिला न्यायालय को प्रदान की गई है। यद्यपि उच्च न्यायालय को भी यह अन्तर्निहित शक्ति प्राप्त है।

     संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 एक अवयस्क की सम्पत्ति तथा शरीर के हिस्से की रक्षा के लिए संरक्षक नियुक्त करने का न्यायालय को विस्तृत अधिकार देता है।

    संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के अन्तर्गत जिला न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त किये जाते हैं। जब भी न्यायालय किसी अवयस्क के कल्याण के लिए किसी व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त करना आवश्यक समझता है तो जिला न्यायालय ऐसा करने का अधिकार रखता है। न्यायालय संरक्षक नियुक्त या घोषित करने से पूर्व अवयस्क की आयु, लिंग, इच्छा और वैयक्तिक विधि, माता-पिता की इच्छा और संरक्षक की योग्यता पर ध्यान देना [धारा17]

     परन्तु संरक्षक की नियुक्ति करते समय न्यायालय के मस्तिष्क में बालक का कल्याण सर्वोपरि आधार होगा।

प्रश्न 43. “फैक्टम वेलेट का सिद्धान्त” बतलाइये।

Explain “Doctrine of Factum Valet.”

उत्तर- फैक्टम वैलेट का सिद्धान्त (Doctrine of Factum Valet)- फैक्टम वैलेट का सिद्धान्त दत्तक से सम्बन्धित है। इस सिद्धान्त के अनुसार तथ्य सैकड़ों शास्त्रों से परिवर्तित नहीं हो सकते। जहाँ नियम सिर्फ विवेकात्मक है तथ्य बाध्यकारी नहीं होते, दत्तक ऐसे विवेकात्मक नियम (Discretionary rule) के प्रतिरोध में किया जा सकता है। फैक्टम वैलेट के सिद्धान्त का प्रयोग लाभप्रद रूप से किया जा सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति महमूद ने कहा, “दत्तक के मामले में इस सिद्धान्त का प्रवर्तन औपचारिक समारोह, वरीयता तथा चुनाव एवं अन्य ऐसे ही नैतिक धार्मिक बिन्दुओं के प्रश्न तक ही सीमित होता है अर्थात् फैक्टम वैलेट का सिद्धान्त दत्तक के विधिक तरीके तक सीमित होता है। कोई विधिक महत्व नहीं होता। दूसरे शब्दों में इस नियम या सिद्धान्त के अनुसार दत्तक की नैतिक, धार्मिक तथा अन्य औपचारिकताओं के बारे में यदि कोई बाध्यकारी नियम नहीं है तो लाभप्रद प्रथागत नियमों का पालन कर दत्तक की औपचारिकताएँ निभाई जा सकती हैं। हिन्दू विधि में दत्तक एक प्रकार का दान है। इसके तीन आवश्यक तत्व है-

(1) दान (दत्तक) देने की क्षमता; (2) दान या दत्तक लेने को सक्षमता; (3) दान या दत्तक की विषय वस्तु होने की सक्षमता अर्थात् विषय वस्तु दत्तक दिये जाने के योग्य हो। ये सभी फैक्टम वैलेट के सिद्धान्त के बाहर हैं।

प्रश्न 44. वस्तुतः संरक्षक। De facto guardian.

उत्तर- वस्तुतः संरक्षक (De factb guardianship)– अवयस्क का वस्तुत: संरक्षक न कोई विधिक संरक्षक है, न कोई वसीयती संरक्षक है तथा न किसी न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक है। वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है जिसने स्वयं अवयस्क की सम्पदा तथा मामलों की देखरेख का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया है तथा प्राकृतिक संरक्षक की तरह आचरण करने लगा है। रालिंग पदयाची बनाम श्री निवासालु, ए० आई० आर० (1955) मद्रास 657 वाले वाद में यह कहा गया था कि अवयस्क के वस्तुत: संरक्षक को यह अधिकार नहीं प्राप्त है कि वह किसी बाध्यकारी ऋण के लिये अवयस्क की ओर से कोई प्रामिसरी नोट लिख दे तथा वह अवयस्क की सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण हो कर दे। किन्तु यदि कोई नोट पहले से लिखा गया हो और उससे सम्बन्धित आभारों को समाप्त करने के लिए कोई अन्यसंक्रामण किया गया हो तो वह मान्य होगा।

      जगदेव प्रभात भाई जेठा भाई व अन्य बनाम परमार कोसन भाई, इल्हा भाई व अन्य, ए० आई० आर० (2002) गुजरात के बाद में गुजरात उच्च न्यायालय की पूर्ण खण्ड पीठ ने यह सम्प्रेक्षित किया कि किसी अवयस्क के वस्तुतः संरक्षक को यह अधिकार नहीं प्राप्त है कि वह अवयस्क की सम्पत्ति बिना किसी विधिक आवश्यकता के किसी अन्य व्यक्ति को हस्तान्तरित कर दे। यदि उसके द्वारा ऐसा कोई हस्तान्तरण किया गया है तो ऐसा हस्तान्तरण अवैध माना जायेगा, साथ ही अवयस्क को इस बात का अधिकार प्राप्त होगा कि वह वयस्क होने के पश्चात् ऐसी हस्तान्तरित सम्पत्ति को वापस ले सकता है।

प्रश्न 45. शून्य एवं शून्यकरणीय विवाह के संतानों की धर्मजता को समझाइये।

Explain the legitimacy of children of void and voidble marriages.

उत्तर- शून्य तथा शून्यकरणीय विवाहों में सन्तानों की धर्मजता-शून्य विवाह विधि की दृष्टि में विवाह नहीं माना जाता है। परन्तु विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तानों को वैध घोषित करती है। अतः धारा 16 उन प्रकार की सन्तानों के हितों की रक्षा करती है जो धारा 11 और 12 के अन्तर्गत शून्य एवं शून्यकरणीय विवाहों को आज्ञप्ति प्राप्त करने के पूर्व उत्पन्न हुए अथवा गर्भ में आये। इस धारा के अन्तर्गत अपेक्षित संशोधन करने के पूर्व विद्यमान अनियमितता को समाप्त कर दिया गया। अब शुन्य विवाहों में न्यायालय से अकृतता की आज्ञप्ति ली जाय अथवा न ली जाय, उससे उत्पन्न संताने धर्मज मानी जायेंगी। जहाँ धारा 12 के अधीन शून्यकरणीय विवाह के सम्बन्ध में अकृतता को डिक्री मंजूर की जाती है, वहाँ डिक्री से पूर्व उत्पन्न हुई अथवा गर्भ मे आई हुई संतान यदि विवाह डिक्री की तारीख को अकृत किये जाने के बजाय विघटित किया गया होता तो विवाह के पक्षकारों की धर्मज सन्तान होती, अकृतता की डिक्री के बावजूद उनकी धर्मज संतान मानी जायेगी (विवाह विधि संशोधन अधिनियम, 1976 के अनुसार) धारा 12 की आज्ञप्ति के पूर्व उत्पन्न हुई अथवा गर्भ में आयी संतानों को वैध घोषित करती है। इस प्रकार की वैधता प्राप्त सन्ता के दाय अधिकारों को धारा 16 के अन्तर्गत संकुचित कर दिया गया है। इस प्रकार की संता। दाय अधिकार के सम्बन्ध में संकुचित वैधता प्राप्त की हुई समझी जायेंगी, अर्थात् उन्हें अपने माता-पिता के अरक्त अन्य किसी की भी सम्पत्ति में किसी प्रकार का अधिकार नहीं प्राप्त होगा।

      शान्ताराम तुकाराम पाटिल बनाम श्रीमती डागूबाई, ए० आई० आर० (1987) वा 182 के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त प्रतिपादना को स्वीकार करते हुए संपेक्षित किया कि शून्य विवाह की सन्तान, चाहे अकृतता की आज्ञप्ति पास की जाय अथवा नहीं, एक वैध सन्तान मानी जाती है।

       किंचीगीडा बनाम के० बी० कृष्णप्पा व अन्य, ए० आई० आर० (2009) एन० ओ० सी० 277 कर्नाटक के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पर किसी व्यक्ति की अवैध सन्तान है वहाँ ऐसी सन्तान अपने माता-पिता की सम्पत्ति में वैध सन्तानों के बराबर हिस्सा प्राप्त करेगी, उनको ऐसी वैधता हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 16(3) के अन्तर्गत प्रदान की गई है। लेकिन ऐसी अवैध सन्तान संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति तथा सहदायिक सम्पत्ति पर किसी भी प्रकार से सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने की माँग नहीं कर सकती और न ही वह अपने पिता की स्वअर्जित सम्पत्ति में उनके जीवित रहने के दौरान ऐसी सम्पत्ति का विभाजन कराने की माँग कर सकती है। उन्हें ऐसी सम्पत्ति तभी प्राप्त होगी जब ऐसी सम्पत्ति पिता के द्वारा निर्वसीयती छोड़ी जाती है और सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत होता है।

प्रश्न 46. दहेज की परिभाषा दीजिये। Define “Dowry”.

उत्तर- दहेज (Dowry)- सामान्य रूप से दहेज का अर्थ उस सम्पत्ति से लगाया जाता है जो सम्पत्ति दुल्हन विवाह के समय अपने साथ लाती है। दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 में दहेज को परिभाषित किया गया है। इसमें कहा गया है कि ‘दहेज’ से कोई ऐसी सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति अभिषेत है जो विवाह के समय या उसके पूर्व या विवाह के पश्चात् किसी समय विवाह के एक पक्षकार द्वारा विवाह के दूसरे पक्ष को, या विवाह के किसी भी पक्ष के माता-पिता द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा विवाह के किसी भी पक्ष को या किसी अन्य व्यक्ति को उक्त पक्षकारों के विवाह के सम्बन्ध में या तो प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः दी गई है या दी जाने के लिए करार की गई है।

प्रश्न 47. संयुक्त हिन्दू परिवार से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Joint Hindu Family?

उत्तर- संयुक्त हिन्दू परिवार (Joint Hindu Family)- संयुक्त हिन्दू परिवार का निर्माण एक पूर्वज और उसकी एक लाइन के समस्त नर-वंशज द्वारा (बिना निचली डिग्रियों की सीमा के) और उनकी पत्नियों तथा अविवाहिता पुत्रियों द्वारा होता है। अतः संयुक्त परिवार की परिभाषा में वे सभी व्यक्ति आते हैं जिनसे परिवार निर्मित होता है। संयुक्त हिन्दू परिवार उन सभी पुरुष सदस्यों से जो एक समान पूर्वज की सन्तान हैं तथा उनकी माता, पत्नी अथवा विधवा तथा अविवाहिता पुत्रियों से निर्मित होता है, यह सपिण्डता के मूल सिद्धान्त पर आधारित होता है।

प्रश्न 48 संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य में कौन-कौन सम्मिलित हैं? Who may the members of Joint Hindu Family?

उत्तर- संयुक्त परिवार के सदस्यों में निम्न शामिल होंगे-

पुरुष में –

(1) वे पुरुष जो पुरुष वंशानुक्रम में आते हैं।

(2) साम्पाश्विक

(3) दत्तक ग्रहण से सम्बन्धित

4) दीन, आश्रित तथा

(5) वे पुत्र जो विशेष विवाह अधिनियम के अन्तर्गत एक हिन्दू पुरुष तथा ईसाई माता से उत्पन्न हुए हैं।

स्त्री में –

(1) पुरुष सदस्यों की पत्नी एवं विधवा पत्नी तथा

(2) उसकी कुमारी (कुँवारी) पुत्रियाँ ।

प्रश्न– 49 संयुक्त हिन्दू परिवार का कर्ता कौन हो सकता है?

Who can be the Karta of a Joint Family?

उत्तर- संयुक्त परिवार का कर्त्ता कौन हो सकता है? (Who can be Karta of Joint Family?)– पिता यदि जीवित है तो सामान्यत: वही अपने संयुक्त परिवार का कर्त्ता हो सकता है। न्यायालयों ने निर्णीत किया है कि सभी मामलों में पिता स्वाभाविक रूप से परिवार का कर्त्ता होता है। शिशुओं के मामले में संयुक्त पारिवारिक परिसम्पत्ति का आवश्यक रूप से कर्त्ता इस शिशु का पिता ही होता है। यदि सुयंक्त परिवार में पिता जीवित नहीं है तथा संयुक्त परिवार में कई भाई हैं तो सबसे बड़ा भाई उस संयुक्त परिवार का कर्त्ता होगा एक अवयस्क संयुक्त परिवार का कर्ता नहीं हो सकता। [मोहिदीन इब्राहिम नाची बनाम मोहम्मद इब्राहिम साहिब (39 मद्रास 608) ]।

      सामान्यतः संयुक्त परिवार का वरिष्ठ सदस्य उस परिवार का कर्त्ता होता है परन्तु संयुक्त परिवार के अन्य सहदायिकों (Coparcenars) की सहमति से कनिष्ठ सदस्य भी कर्त्ता हो सकता है।

प्रश्न 50. सहदायिकी सम्पत्ति से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Coparcenary Property?

उत्तर- संयुक्त परिवार सम्पत्ति या सहदायिकी सम्पत्ति (Joint Family Property or Coparcenary Property)- संयुक्त परिवार सम्पत्ति या सहदायिकी सम्पत्ति उस सम्पत्ति को कहते हैं जिसमें सभी सहदायिकों का सामुदायिक हित तथा कब्जे की एक्यता रहती है। ऐसी सम्पत्ति में निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

(1) पैतृक सम्पत्ति (Ancestral Property);

(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त अर्जित सम्पत्तिः

(3) ऐसी सम्पत्ति जो संयुक्त परिवार के किसी ऐसे सदस्य द्वारा अर्जित है, जिसे संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से मिला दिया गया है (Thrown into common store):

(4) संयुक्त परिवार की निधि से किसी या सभी सहदायिकों द्वारा अर्जित सम्पत्ति ।

भगवान पी० सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सुलाखे, ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 79 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संयुक्त परिवार की स्थिति में परिवर्तन से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के लक्षण में परिवर्तन नहीं होता। जब तक संयुक्त परिवार सम्पत्ति का अस्तित्व है तथा यह सहभागीदारों में विभाजित नहीं होती, संयुक्त परिवार सम्पत्ति अपना संयुक्त परिवार का चरित्र बनाये रखती है। एकतरफा कार्यवाही द्वारा कोई भी सदस्य संयुक्त परिवार सम्पत्ति को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति में परिवर्तित नहीं कर सकता।

प्रश्न 51. सहदायिकी सम्पत्ति एवं पृथक सम्पत्ति में अन्तर कीजिए।

Differentiate between ‘Coparcenary Property’ and ‘Separate Property’.

उत्तर- सहदायिकी सम्पत्ति एवं पृथक् सम्पत्ति में अन्तर- वह सम्पत्ति जो संयुक्त नहीं होती, पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। पृथक से आशय ऐसे परिवार से है जो पहले संयुक्त था, किन्तु अब पृथक् हो चुका है। जब कोई व्यक्ति अपने भाइयों से अलग हो जाता है तो वह सम्पत्ति, जिसका वह स्वयं उपयोग करता है, भाइयों के प्रसंग में पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। जहाँ तक उसके पुत्रों का सम्बन्ध है, उस सन्दर्भ में वह संयुक्त सम्पत्ति होगी।

(1) जो सम्पत्ति परिवार के अन्य सदस्यों के संयुक्त श्रम का परिणाम होती है, वह संयुक्त परिवार को सम्पत्ति कही जाती है जबकि अपने स्वयं के श्रम से अर्जित की गई सम्पत्ति पृथक् सम्पत्ति होगी।

जैसे-जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना कोई सहायता लिये हुये स्वयं एक चिकित्सक के रूप में आयुर्वेदिक औषधि का व्यवसाय करता है, उससे बहुत सारी सम्पत्ति अर्जित करता है और उसकी आय से बन्धक पर ऋण भी देता है और उससे बहुत सारी सम्पत्ति अर्जित करता है वहाँ उसको सम्पत्ति एवं आय को उसकी पृथक् सम्पत्ति माना जायेगा। [एस० ए० कुद्दुस बनाम एस० वीरप्पा, ए० आई० आर० (1994) कर्नाटक 20]

(2) वह सम्पत्ति जो अपने पिता, पितामह तथा प्रतितामह से दाय में प्राप्त होती है संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है जबकि इसके अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से दाय में प्राप्त होती है तो पृथक् सम्पत्ति कही जाती है।

      मदन लाल फूलचन्द्र जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० (1992) एस० सी० 1254 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई हिन्दू पुरुष पैतृक सम्पत्ति में एक अंश होने के साथ-साथ अपनी पृथक् सम्पत्ति भी रख सकता है। यदि वह कोई भूमि अपने चाचा से दाय में प्राप्त करता है और उसे उस सम्पत्ति को बेचने का अधिकार प्राप्त है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति होगी।

प्रश्न 52 हिन्दू सहदायिकी से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Hindu coparcenary?

उत्तर – हिन्दू सहदायिकी (Hindu Coparcenary)- एक हिन्दू सहदायिकी संयुक्त परिवार से संकुचित निकाय है। यह केवल उन्हीं सदस्यों को सम्मिलित करती है जिनको जन्म से संयुक्त अथवा सहदायिको सम्पत्ति में हक प्राप्त होता है। नरेन्द्र बनाम डब्ल्यू० टी० कमिश्नर, ए० आई० आर० (1970) ए० सी० 14 के बाद में यह निरूपित किया गया है कि हिन्दू सहदायिकी एक लघु संगठन है जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति में हक रखने वाले वे पुरुष सन्तान आते हैं, जो तीन पीढ़ी तक के वंशानुक्रम में हैं। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के पश्चात् महिला वंशज भी इसमें सम्मिलित हैं।

अब मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में सहदायिक की पुत्री –

(क) जन्म से उसी ढंग में अपने अधिकार में सहदायिक होगी, जैसे पुत्र (ख) को सहदायिकी सम्पत्ति में वही अधिकार होगा, जैसा उसे होता, यदि वह पुत्र होती।

(ग) उक्त सहदायिकी सम्पत्ति के सम्बन्ध में उन्हीं दायित्वों के अध्यधीन होगी, जैसे-पुत्र का दायित्व है।

प्रश्न 53 सप्रतिबन्ध दाय से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by obstructed heritage?

उत्तर- सप्रतिबन्ध दाय- वह सम्पत्ति जिसमें जन्म से नहीं वरन् गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सप्रतिबन्ध दाय कही जाती है। इसको सप्रतिबन्ध दाय इसलिए कहा जाता है क्योंकि सम्पत्ति में हक गत स्वामी के अस्तित्व में होने के कारण बाधित होता है। इस प्रकार वह सम्पत्ति जो पिता, भाई भतीजा तथा चाचा को गत स्वामी की मृत्यु के बाद न्यागत होती है, उसे सप्रतिबन्ध दाय कहा जाता है।

प्रश्न 54. ‘अ’ और ‘ब’ दो भाइयों का एक संयुक्त हिन्दू परिवार है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पहले ही ‘अ’ विभाजन के लिए बाद लाता है, परन्तु वाद के चलते रहने के दौरान ‘अ’ की मृत्यु हो जाती है। ‘अ’ की विधवा पति के स्थान पर वाद में स्थानापन्न की मांग करती है और वाद के चलते रहने देने को कहती है। उसकी माँग का ‘ब द्वारा उत्तरजीविता के आधार पर विरोध किया जाता है कि ‘अ’ का हित ‘ब’ में मिल गया है। निर्णय दीजिए।

उत्तर- प्रस्तुत समस्या संयुक्त परिवार की सहदायिकी सम्पत्ति और हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 से सम्बन्धित है।

हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के अन्तर्गत सहदायिकी सम्पत्ति में अविभक्त हित उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा को उत्तराधिकार में प्रदान कर दिया गया है। अतः विधवा की स्थिति एक सहदायिकी जैसी हो गयी।

      प्रस्तुत समस्या में ‘अ’ हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने के पूर्व अपने भाई ‘ब’ से सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन के लिए वाद लाता है अतः स्पष्ट है कि इस समस्या में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू नहीं होगा।

        दी गयी समस्या में जिस दिन विभाजन का वाद’अ’ ने संस्थित किया उस दिन से वह संयुक्त प्रास्थिति से पृथक् हुआ माना गया और वाद के लम्बन के दौरान ‘अ’ की मृत्यु हो जाती है और ‘अ’ के स्थान पर बाद में स्थानापन्न होने के लिए ‘अ’ की विधवा माँग करती है तो विधवा को स्थानापन्न किया जा सकेगा क्योंकि हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के अन्तर्गत ‘अ’ की मृत्यु पर वह सम्पत्ति, जो वाद संस्थित होने के दिनांक से सहदायिकी से पृथक हुई है, को उसकी पत्नी उत्तराधिकार में प्राप्त करेगी अतः ऐसी स्थिति में उत्तरजीविता का सिद्धान्त लागू नहीं होगा और ‘ब’ का यह कहना कि ‘अ’ का हित उत्तरजीविता के आधार पर उसमें (‘ब’ में) निहित हो गया, निराधार है।

निष्कर्ष-‘अ’ की विधवा अपने पति का अधिकार प्राप्त करेगी और बाद पोषणीय होगा।

प्रश्न 55 सहदायिकी क्या है?

What is coparcenary?

उत्तर- सहदायिकी (Coparcenary)- सहदायिकी एक ऐसा संगठन है जिसमें केवल पुरुष सदस्य आते थे। यह एक समान पूर्वज से प्रारम्भ होता है तथा तीन पीढ़ी तक के पुरुष दायादों को सम्मिलित करता है। परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के पश्चात् इसमें महिला दायादों को भी सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार अन्तिम सम्पत्तिधारक पूर्वज के साथ उसका पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र सहदायिकी के सदस्य होते हैं। प्रपौत्र का पुत्र सहदायिकी का सदस्य नहीं होता तथा सहदायिकी में स्त्रियाँ भी हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा सम्मिलित की गई हैं। हालांकि पत्नी तथा माता को विभाजन हो जाने पर एक निश्चित अंश प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 56 हिन्दू विधि में पूर्ववर्ती ऋण से क्या तात्पर्य है।

What do you mean by antecedent debt in Hindu Law.

उत्तर- पूर्ववर्ती ऋण (Antecedent Debt)—पूर्ववर्ती ऋण से तात्पर्य है जो पूर्वकालिक अथवा समय की दृष्टि से पूर्ववर्ती होता है परन्तु हिन्दू विधि में पूर्ववर्ती ऋण दो बातों का द्योतक है –

(अ) समय की दृष्टि से पूर्ववर्ती तथा

(ब) तथ्यतः तथा प्रकृति से पूर्व

      अर्थात् ऋण को विवादग्रस्त व्यवहार का भाग न होकर पूर्णतया स्वतन्त्र होना चाहिए। किसी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का विक्रय उस ऋण की अदायगी हेतु उसी समय लिया गया हो तथा विक्रय का एक भाग हो, अवैध होगा क्योंकि इस परिस्थिति में ऋण पूर्ववर्ती नहीं है। इस बात का पुष्टिकरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाबूलाल बनाम चन्द्रिका प्रसाद के मामले में किया है।

प्रश्न 57. अव्यावहारिक ऋण से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Avyavaharik Debt?

उत्तर- अव्यवहारिक ऋण – अव्यावहारिक ऋण शब्द के सही अर्थ पर मतभेद है, परन्तु मुखर्जी द्वारा दिया गया अर्थ सर्वोत्तम है-“ॠण जो कि वैध, सामान्य तथा रूढ़ियों के अनुकूल न हो।”

      कोलब्रुक ने इसका अर्थ बताया है कि “वह ऋण जो नैतिक कारणों के विरुद्ध लिया गया है।” कोई ऋण अनैतिक है अथवा नहीं, परन्तु वाद की परिस्थितियों के अनुसार इसे लागू करना चाहिए पुत्र तथा पौत्र के अव्यावहारिक ऋण को अदा करने के लिए बाध्य नहीं है।

      संक्षेप में कहें तो अव्यावहारिक ऋण अवैध तथा अनैतिक प्रयोजनों के लिए लिया गया। ऋण है। अव्यवहारिक ऋण का भुगतान करने के लिए पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र बाध्य नहीं है।अनैतिकता का कारक सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि असम्यक् प्रभाव, कामुकता, अनुचितता या सदाचार के अभाव में लिया गया ॠण अपने आप अव्यावहारिक ऋण नहीं हो जाता जब तक कि वह अनैतिक न हो।

प्रश्न 58 उत्तर भोगी। Reversioners.

उत्तर – उत्तर भोगी (Reversioners)–हिन्दू विधि के अन्तर्गत उत्तरभोगी वह है जो अन्तिम पूर्व स्वामी का दायाद हो विधवा या सीमित दायाद की मृत्यु के बाद सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकारी या यदि वह उस समय जीवित होता, उत्तरभोगी कहलाता था चाहे वह पुरुष हो या स्त्री।

निकटस्थ तथा दूरस्थ उत्तरभोगी-यदि विधवा स्त्री मर जाये ती व्यक्ति तत्क्षण उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकारी होता है वह उपधारक अथवा समयपस्त उत्तरभोगी होता है जबकि उत्तरभोगी प्रयुक्त (उत्तरभोगी) के बाद में आते हैं, दूरस्थ उपभोगी कहलाते हैं।

प्रश्न 59. हिन्दू विधि में ऋण की अवधारणा।

Concept of debt under Hindu Law.

उत्तर- सामान्य अर्थ में ऋण किसी संविदा के भंग होने पर अथवा अपकृत्य के परिणामस्वरूप क्षतिपूर्ति में प्राप्त किये गये निर्धारित धन से भिन्न होता है। ऋण एक निर्धारित रकम होती है सकी अदायगी के लिए प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी है। लेकिन हिन्दू विधि में पिता अथवा पितामह के ऋणों के हेतु पुत्र उत्तराधिकारी के रूप में मृत द्वारा छोड़ो गयी परिसम्पत्ति की सीमा तक उत्तरदायी होता है।

      मेन के अनुसार किसी हिन्दू को अन्य व्यक्ति द्वारा दिये गये ऋण को चुकता करने के दायित्व के तीन विभिन्न स्रोत हैं –

(1) धार्मिक दायित्व

(2) नैतिक दायित्व

(3) विधिक दायित्व

धार्मिक दायित्व– ऋणों को अदा करने का धार्मिक दायित्व पुत्रों तथा पौत्रों पर होता है। इसके अन्तर्गत अपने पिता द्वारा अर्जित ऋणों को चुकता करना पुत्र का एक पवित्र कर्तव्य होता है।

नैतिक दायित्व – दायाद होने के नाते जिस व्यक्ति की सम्पत्ति उसे मिली हो उसके ऋणों को अदा करने का एक नैतिक दायित्व होता है। अतः एक हिन्दू दायाद पर मृतक के ऋण को जिसकी सम्पत्ति उसे मिली हो, अदा करने का दायित्व होता है।

विधिक दायित्व – धार्मिक दायित्व तथा अनैतिक दायित्वों के अतिरिक्त पिता के ऋण को अदा करने का एक विधिक दायित्व भी होता है। पिता से रुपयों के ऋण के लिए न्यायालय में उचित कार्यवाही करके ऋणदाता पुत्रों को उत्तरदायी ठहरा सकता है।

प्रश्न 60 विभाजन से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by partition?

उत्तर- विभाजन का अर्थ सम्पूर्ण संयुक्त सम्पत्ति में विभिन्न हितों को व्यवस्थित कर सम्पूर्ण सम्पत्ति के विशिष्ट अंशों का वितरण या विभाजन ही विभाजन या बँटवारा है। मिताक्षरा शाखा के अन्तर्गत विभाजन की परिकल्पना के दो अर्थ है –

(1) सम्पूर्ण परिवार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न सदस्यों के विभिन्न अधिकारों के अनुसार उनके विशिष्ट अंशों को व्यवस्थित करना।

(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों की संयुक्त स्थिति को इस प्रकार पृथक् करना कि जिससे विधिक परिणाम उत्पन्न होता है। विभाजन की परिभाषा देते हुए कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में संयुक्त परिवार के सहदायिकों (सदस्यों के अस्थिर (घटते-बढ़ते) हितों को स्थिर करना ही विभाजन है। जैसे ही सहदायिकों या संयुक्त परिवार के सदस्यों का संयुक्त परिवार में अंश सुनिश्चित हो जाता है यह कहा जायेगा कि संयुक्त परिवार में विभाजन हो गया।

प्रश्न 61. समर्पण से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by surrender?

उत्तर- कोई विधवा अथवा अन्य सीमित स्वामी निकटस्थ उत्तरभोगी के पक्ष में अपने हक का समर्पण कर सकता था। यदि एक ही उत्तरभोगी हो, अथवा यदि एक से अधिक थे, तो सभी उत्तरभोगी निकट के माने जाते थे। वह स्वेच्छा से अपनी जीवन सम्पदा को समाप्त करके उसको पूर्णरूपेण अभिहस्तान्तरित कर सकता था। इस प्रकार के अभिहस्तान्तरण की क्रिया को समर्पण की संज्ञा दी जा सकती है। समर्पण विधंवा के द्वारा अपने अधिकारों का उत्तरभोगियों के पक्ष में अन्यसंक्रामण नहीं है वरन यह केवल विधवा के अधिकारों का निर्वापन (Extinction) है।

प्रश्न 62 पुनः एकीकरण से क्या तात्पर्य है? स्पष्ट करें।

What is Re-Union? Explain.

उत्तर- पुनः एकीकरण (Re-union) जितनी स्वतन्त्रता से सहदायिकों को विभाजन का अधिकार है, उतनी स्वतन्त्रता से उन्हें पुनर्मिलन का अधिकार नहीं है। मिताक्षरा एवं दायभाग दोनों पुनः एकीकरण (पुनर्मिलन) को मान्यता देती हैं परन्तु पुनर्मिलन किन्ही स्थितियों में ही हो सकता है। बृहस्पति ने कहा है कि वह व्यक्ति जो अपने कुटुम्ब से विभाजित हो चुका है यदि प्रेम और स्नेहवश अपने पिता, भाई या चाचा (या ताऊ) के साथ पुनः रहने लगता है तो यह पुनर्मिलन कहलाता है।

        मिताक्षरा के अनुसार, वह सम्पत्ति जो एक बार विभक्त की जा चुकी है, पुनः मिला दी जाती है तो यह सम्पत्ति का पुनः मिश्रण कहलाता है। इस प्रकार पुनर्मिलन या पुनः एकीकरण से तात्पर्य पक्षकारों में सम्पत्ति एवं हितों के विभाजन के पश्चात् उनके सम्बन्ध फिर से एक होने की भावना से है। भगवान दयाल बनाम रेवती देवी, ए० आई० आर० (1962) एस० सी० 296 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि पुनः एकीकरण की विचारधारा में यह अन्तर्निहित है कि पक्षकारों के मध्य सम्पत्ति को लेकर एकीकरण का समझौता हुआ जिससे वे पूर्व स्थिति में वापस होने के लिए तैयार हुए। यह स्पष्टतया या आचरण से भी प्रकट हो सकता है।

प्रश्न 63. सगा, सौतेला एवं सहोदर से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Full blood, half blood and Uterine blood.

उत्तर- सगा, सौतेला एवं सहोदर (Full blood, half blood and uterine blood) –

(1) कोई दो व्यक्ति एक दूसरे के सगे सम्बन्धी तब कहलाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज तथा उसकी एक ही पत्नी की सन्तान हों।

(ii) कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सौतेले सम्बन्धी तब कहे जायेंगे जबकि वे एक ही पूर्वज किन्तु उनकी भिन्न पत्नियों से उत्पन्न हुए हों।

(iii) कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सहोदर सम्बन्धी तब होते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज से किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों से उत्पन्न हुए हों।

        यहाँ पूर्वज शब्द से तात्पर्य पिता एवं पूर्वजा से तात्पर्य माता से है।

प्रश्न 64. पैतृक सम्पत्ति क्या है?

What is ancestral Property?

उत्तर- पैतृक सम्पत्ति – पैतृक सम्पत्ति ऐसी सम्पत्ति का द्योतक है जिसमें निकटतम तीन पूर्वजों अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति शामिल है।

      संक्षेप में पैतृक सम्पत्ति से तात्पर्य ऐसी सम्पत्ति से है जिसे कोई व्यक्ति अनिर्बन्धित दाय के रूप में प्राप्त करता है।

      ‘अनिर्बन्धित दाय’ से तात्पर्य उस दाय से होता है जिसके प्राप्त करने में प्राप्तकर्ता के लिए कोई निर्बन्धन नहीं होता है। पैतृक सम्पत्ति में व्यक्ति जन्म से अधिकार प्राप्त करता है।

     ‘पैतृक सम्पत्ति’ से की गयी सारी बचत उसकी आय से अथवा उसे बेच कर किया गया लाभ अथवा क्रय की गयी सम्पत्ति ‘पैतृक सम्पत्ति’ होती है। ‘पैतृक सम्पत्ति’ की अभिवृद्धि द्वारा आई हुई सम्पत्ति भी पैतृक सम्पत्ति कहलाती है।

प्रश्न 65. पवित्र दायित्व का सिद्धान्त क्या है?

What is theory of pious obligation?

उत्तर– पवित्र दायित्व का सिद्धान्त इस सिद्धान्त की उत्पत्ति स्मृतियों से हुई है। स्मृतिकारों ने लिखा है कि ऋण अदा न करना एक भयंकर पाप तथा ऋण न चुकता करने के दुष्परिणाम परलोक में भी होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार परलोक में अपने पिता को आत्मा को कष्ट से बचाने के लिए पुत्र का यह धर्म होता है कि वह पिता के ऋण को चुकता कर दें।

        किसी व्यक्ति द्वारा अपने ऋणों को चुकता करने के पूर्व अपने पिता के ऋण चुकता करने चाहिए परन्तु इन दोनों के पहले भी पितामह के ऋणों को चुकता करना चाहिए। पिता के ऋण सिद्ध हो जाने के पश्चात् उसे अपना ऋण समझकर पुत्र को उसे चुकता करना चाहिए, अपने पितामह के ऋण को पौत्र द्वारा बिना किसी ब्याज के अदा करना चाहिए, परन्तु पौत्र के पुत्र द्वारा ऋण का अदा किया जाना आवश्यक नहीं है। पुत्र को अपने पिता द्वारा अर्जित ऋणों को चुकता करना आवश्यक नहीं है, यदि वह ऋण मदिरा, व्यर्थ उपहारों, प्रेम, काम प्रेरणा से युक्त मनः स्थिति में किये गये वादों अथवा प्रतिभूत से उत्पन्न हो। पुत्र को पिता पर लगे अर्थदण्ड अथवा कर के किसी भाग को चुकता करने की आवश्यकता नहीं है।         यहाँ उल्लेखनीय है कि पवित्र दायित्व का सिद्धान्त स्त्रियों के प्रति लागू नहीं होता भले ही विभाजन होने पर उन्हें सम्पत्ति का एक अंश प्राप्त हुआ रहा हो। यदि पत्नी पति तथा पुत्रों के बीच बँटवारा होने पर सम्पत्ति में एक अंश प्राप्त करती है तो वह उस विभाजन के आधार पर ऋण को अदा करने के लिए उत्तरदायी नहीं हो जाती।

प्रश्न 66 आंशिक विभाजन क्या है?

What is Partial Partition?

उत्तर- आंशिक विभाजन (Partial Partition)—किसी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का विभाजन –

(1) सम्पत्ति के सम्बन्ध में अथवा

(2) पृथक् होने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में आंशिक विभाजन हो सकता है।

(1) सम्पत्ति के सम्बन्ध में आंशिक विभाजन– संयुक्त परिवार के सदस्य संयुक्त सम्पत्ति के एक भाग में आंशिक विभाजन कर सकते हैं तथा शेष सम्पत्ति संयुक्त तथा अविभाजित रह सकती है। यदि परिवार के सदस्य किसी विशेष सम्पत्ति का बँटवारा करते हैं तथा अन्य सम्पत्ति को संयुक्त छोड़ देते हैं तो कोई अवैधता नहीं होती।

        श्रीमती लीलावती बनाम परसराम, ए० आई० आर० 1977 हिमा० प्र० के बाद में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि सहदायिकों में विभाजन सम्पत्ति के सम्बन्ध में होता है अथवा सदस्यों के सम्बन्ध में आंशिक हो सकता है। संयुक्त परिवार के सदस्यों के लिए यह सम्भव है कि संयुक्त सम्पत्ति के किसी एक भाग का ही बँटवारा हो, जबकि शेष सम्पत्ति संयुक्त रखी जा सकती है।

(2) पृथक् होने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में आंशिक विभाजनसंयुक्त परिवार के किसी सदस्य को पृथक् होने का तथा अपना अंश निर्धारण करा कर विभाजन कराने का अधिकार होता है। शेष सहदायिकी बिना किसी विशेष समझौते के भी संयुक्त परिवार बनाये रख सकते हैं, परन्तु उनके संयुक्त रखने के विषय में कोई प्रकल्पना नहीं की जा सकती है।

      इस विषय पर प्रिवी कौंसिल द्वारा विभिन्न वादों में दिये गये विनिश्चयों का यहाँ दिया जाना उचित होगा –

      किसी एक सहदायिकी के अन्य सहदायिकों से अलग हो जाने पर यह प्रकल्पना नहीं की जा सकती कि शेष बचे सहदायिक संयुक्त हैं। अन्य तथ्यों के समान संयुक्त अथवा पुनर्गठित होने के विषय में कोई विशेष समझौता भी प्रमाणित करना होगा।

प्रश्न 67. धर्मदाय से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Charitable endowments?

उत्तर- धर्मदाय – यह वह सम्पत्ति है जो किसी विशेष देवता की पूजा-अर्चना के लिए या किसी धार्मिक तथा परोपकारी संस्थान की स्थापना के लिए या उसके खर्च एवं निर्वाह के लिए या धर्मज्ञान, व्यापार, स्वास्थ्य सुरक्षा या मानव जाति के लाभ के लिए निर्दिष्ट की जाती है। कमिश्नर ऑफ इनकम टैक्स बनाम पेमसल, 1891 ए० सी० 537 देवता की पूजा के लिए मूर्ति को स्थापना करना, अस्पताल, विद्यालय, ब्राह्मणों या भूखों को भोजन बाँटने के संस्थान आदि धर्मदाय एवं परोपकारी दाय के उदाहरण है।

       राभवाचार्य के अनुसार धार्मिक तथा परोपकारी उद्देश्यों के हेतु सम्पत्ति का समर्पण धर्मदाय कहलाता है, जिसमें एक कर्ता तथा एक निश्चित वस्तु होती है जिसको निर्धारित किया जा सकता है।

प्रश्न 68 नारी सम्पदा से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by women’s estate?

उत्तर- नारी सम्पदा (Women’s Estate) – नारी सम्पदा एक ऐसी सम्पत्ति है जिसमें नारी को सौमित स्वामित्व प्राप्त होता है अर्थात् उसे सौमित अधिकार प्राप्त होता है जैसा कि पूर्व में बताया गया है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 14 के द्वारा नारी सम्पदा को समाप्त कर दिया गया है फिर भी नारी सम्पदा को प्रकृति एवं अर्थ इस प्रकार है

       विधवा जो सीमित दायाद होती है, सम्पत्ति को अपने जीवन काल के लिए आभोगी के रूप में नहीं ग्रहण करती, किन्तु वह दाय में प्राप्त सम्पत्ति की स्वामिनी होती है। किन्तु उस सम्पत्ति के अन्य संक्रामण के सम्बन्ध में उसके अधिकार सीमित होते हैं तथा उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति उसके दायादों को न्यागत न होकर सम्पत्ति के अन्तिम स्वामी को न्यागत होती है। जानकी अम्माल बनाम नारायन सामी, (1916) 43 आई० ए० 207 के बाद में प्रिवी कॉसिल ने यह निरूपित किया है कि उसका सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार सीमित स्वामी जैसा होता है, उसकी स्थिति स्वामी जैसी होती है, फिर भी उस स्थिति में उसकी शक्तियाँ सीमित होती हैं, किन्तु उसके जीवन काल तक उत्तराधिकार में उसके अतिरिक्त और किसी व्यक्ति का निहित हक नहीं होता है।

प्रश्न 69. पूर्व-क्रयाधिकार से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Pre emption?

उत्तर- हकशुफा या पूर्व-क्रयाधिकार – यह एक ऐसा वरीयता प्राप्त अधिकार है, जिसके द्वारा सहस्वामी, सहभागीदार या पड़ोसी अपनी अचल सम्पत्ति अपरिचित क्रेता को बेचने पर उस सम्पत्ति पर क्रेता का स्थान, उस सम्पत्ति का मूल्य चुका कर ग्रहण कर सकता है। न्यायमूर्ति महमूद-गोविन्द दयाल बनाम इनायतुल्लाह, (1885) 7 इलाहाबाद 755 हकशुफा या पूर्वक्रयाधिकार एक ऐसा अधिकार हैं जो अचल सम्पत्ति के स्वामी को यह अधिकार देता है कि वह ऐसी अन्य अचल सम्पत्ति को खरीद ले जिसका विक्रय किसी अन्य (अपरिचित व्यक्ति को किया जा चुका है।

      हकशुफा से आशय है बेची गई भूमियों का उतने मूल्य पर स्वामी हो जाना जितने पर क्रेता ने उसे खरीदा हो चाहे भले ही वह न बेचता हो-हिदाया।

प्रश्न 70. निर्वसीयती उत्तराधिकार से क्या तात्पर्य है?

What do you understand by Intestate succession?

उत्तर – निर्वसीयती उत्तराधिकार– निर्वसीयती उत्तराधिकार शब्दावली ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर लागू होती है जो बिना वसीयती अन्तरण के मर जाता है। जब एक व्यक्ति अपने जीवन काल में अपनी सम्पत्ति का निस्तारण वसीयत या इच्छा पत्र द्वारा नहीं करता है तथा अपने पीछे वारिसों को छोड़कर मर जाता है तो उसकी सम्पत्ति उसके वारिसों पर निर्वसीयती उत्तराधिकार के नियमों के अन्तर्गत न्यायमित होगी।

प्रश्न 71. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत अनुसूची के वर्ग 1 एवं वर्ग 2 के वारिसों को लिखिए।

Write the Heirs in Class 1st and Class 2nd of Schedule under the Hindu Succession Act, 1956.

उत्तर – हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 9 के अनुसार अनुसूची के प्रथम वर्ग के दायाद एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में ये दायादों का एक समूह निर्मित करते हैं तथा एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। द्वितीय वर्ग के दायाद तब तक अपवर्जित किये जाते हैं जब तक प्रथम वर्ग का कोई भी दायाद प्राप्त होता है।

      “वर्ग (1) के दायाद एक साथ और अन्य सब दायादों को अपवर्जित करके अंशभागी होंगे वर्ग 2 में प्रथम प्रविष्टि में के दायाद दूसरी प्रविष्टि में के दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे। द्वितीय प्रविष्टि में के दायादों को तृतीय प्रविष्टि में के दायादों की अपेक्षा अधिमान्यता प्राप्त होगी और इसी प्रकार से अन्य प्रविष्टि के लोग क्रम से अधिमान्य होंगे।”

वर्ग ( 1 ) में उल्लिखित दायादों की सूची– वर्ग (1) में उल्लिखित मृतक के दायादों की सूची इस प्रकार है –

(1) पुत्र।

(2) पुत्री।

(3) विधवा पत्नी।

(4) माता।

(5) पूर्व मृत पुत्र का पुत्र।

(6) पूर्व मृत पुत्र की पुत्री।

(7) पूर्व मृत पुत्री का पुत्र।

(8) पूर्व मृत पुत्री की पुत्री।

(9) पूर्व मृत पुत्र की विधवा पत्नी।

(10) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र ।

(11) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री।

(12) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा पत्नी।

अनुसूची के वर्ग 2 में उल्लिखित दायादों की सूची

(1) पिता।

(2) (क) पुत्र की पुत्री का पुत्र, (ख) पुत्र की पुत्री की पुत्री, (ग) भाई, (च) बहिन ।

(3) (क) पुत्री के पुत्र का पुत्र, (ख) पुत्री के पुत्र की पुत्री, (ग) पुत्री की पुत्री का पुत्र, (घ) पुत्री की पुत्री की पुत्री।

(4) (क) भाई का पुत्र (ख) बहिन का पुत्र, (ग) भाई की पुत्री तथा (घ) बहिन की पुत्री ।

(5) (1) पिता का पिता तथा (2) पिता की माता।

(6) (1) पिता की विधवा तथा (2) भाई की विधवा पत्नी

(7) (1) पिता का भाई तथा (2) पिता की बहिन।

(8) (1) माता का पिता तथा (2) माता की माता।

(9) (1) माता का भाई तथा (2) माता की बहिन।

प्रश्न 72. ‘अ’ तथा ‘य’ दो भाई हिन्दू विधि की मिताक्षरा संयुक्त परिवार के सदस्य हैं। अ’ एक पुत्री छोड़कर मर जाता है। ‘अ’ शाखा से प्रशासित का अंश किसे मिलेगा? निर्धारित कीजिए।

उत्तर –’अ’ की मृत्यु हो जाने पर संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में ‘अ’ का अंश उसके उत्तरजीवी भाई ‘ब’ को चला जायेगा न कि उसकी पुत्री को किन्तु यदि ‘अ’ तथा ‘ब’ पृथक् होते तो ‘अ’ की सम्पत्ति उसकी पुत्री को दायभाग में प्राप्त होती न कि भाई को ।

प्रश्न 73. स्त्रीधन।   Stridhan.

उत्तर- स्त्रीधन (Stridhan) – ‘स्त्रीधन’ शब्द में स्त्री तथा धन दो शब्द सम्मिलित हैं, जिनका संयुक्त अर्थ नारो की उस सम्पत्ति से है जिस पर उसका पूर्ण स्वामित्व होता है। विभिन्न शाखाओं द्वारा यह भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया गया है, फिर भी यह एक में पारिभाषिक अर्थ रखता है। यह शब्द सर्वप्रथम स्मृतियों तथा बौधायन के धर्मसूत्र में प्रयुक्त किया गया है जिसका अर्थ है-स्त्री की पूर्ण सम्पत्ति वर्तमान हिन्दू विधि में ‘स्त्रीधन’ शब्द किसी विशेष प्रकार की सम्पत्ति के विषय में प्रयुक्त नहीं किया गया वरन् उस सम्पत्ति का बोध कराता है जिस पर स्त्री का पूर्ण स्वामित्व होता है तथा जो उसके अपने दायादों को न्यागत होती है।

     मनु के अनुसार स्त्री धन– किसी स्त्री, पुत्र अथवा दास की कोई सम्पत्ति नहीं होती तथा जो कुछ धन वे अर्जित करते हैं, वह उसका होता है जिसकी वह स्त्री, पुत्र अथवा दास होता है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे कोई सम्पत्ति नहीं रख सकते मनु के अनुसार वधू के विवाह के बाद जाने के समय पिता, माता एवं भाई के द्वारा दिया गया छह प्रकार का उपहार स्त्रीधन की कोटि में रखा गया है।

       याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्रीधन– पिता, माता, पति एवं भाई द्वारा दिया गया उपहार तथा अध्यग्नि एवं अधिवेदनिका में प्राप्त उपहार आदि स्त्री की सम्पत्ति कही जाती हैं। जबकि याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिखने वाले विज्ञानेश्वर ने स्त्रीधन की सूची और भी अधिक बढ़ा दी है और स्त्रीधन में दाय, विक्रय, विभाजन तथा अभिग्रहण से प्राप्त सम्पत्ति को भी स्त्रीधन की कोटि में रखा है। न्यायिक निर्णय के अनुसार स्त्रीधन –

भगवान दीन बनाम मैना बाई, 11 एम० आई० ए० 407 में प्रिवी कौंसिल ने यह प्रतिपादित किया कि पति से दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसका स्त्रीधन नहीं होती। अतः स्त्री की मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति पति के दायादों को न्यागत होती है न कि उसके दायादों को।

प्रश्न 74 दमदूपत का सिद्धान्त।

Doctrine of Damdupat’.

उत्तर- दमदूपत का नियम हिन्दू ॠण विधि की एक शाखा है। इसका कारण यह है कि हिन्दू विधि ऋण के नियम में अवधि नियम को मान्यता नहीं देती। प्रत्येक ऋण बन्धनकारी तथा वसूली योग्य थी, चाहे कितनी ही अवधि क्यों न बीत गयी हो। इसकी वसूली पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था केवल इसके अतिरिक्त कि किसी भी समय ऋण से दूनी रकम से अधिक रकम नहीं वसूल की जा सकती थी। यह नियम न्याय, साम्य तथा शुद्ध अन्तःकरण का नियम है।

       दमदूपत नियम का क्या अर्थ है? – यह हिन्दू विधि का एक नियम है जिसके अनुसार किसी समय ब्याज की रकम मूल से अधिक नहीं हो सकती। यदि ऋण का कोई भाग अदा कर दिया गया हो तो इस नियम हेतु मूल रकम अदा की हुई रकम में से घटा कर शेष रकम होगी। परन्तु दमदूपत नियम के अनुसार पुनः नवीन समझौते द्वारा ब्याज की बकाया रकम के पंजीकरण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। बाद प्रस्तुत करने के पश्चात् इस नियम का कोई उपयोग नहीं होता है।

       हुकुम चन्द बनाम फूल चन्द्र, ए० आई० आर० 1955 एस० सी० 1697- के निर्णय में निरूपित किया गया कि दमदूपत का नियम दो कारणों से विकसित हुआ प्रथम यह कि ऋणकर्ता के लिए मूल और ब्याज को शीघ्रातिशीघ्र अदा करने की प्रेरणा बनी रहे तथा दूसरा यह कि ऋणदाता अपने ऋण की वसूली में सदैव जागरूक बना रहे और उचित समय के भीतर ही अपने ऋण को ब्याज सहित वसूल कर ले लिससे कि ब्याज अत्यधिक न बढ़ने पाये जो कि वह न प्राप्त कर सके।

प्रश्न 75 दान के आवश्यक तत्व।

Essential elements of Gift.

उत्तर-दान के आवश्यक तत्व- हिन्दू विधि के अन्तर्गत दान में निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं- (1) दाता (2) आदाता (3) दातव्य वस्तु (4) स्वीकृति (5) औपचारिकताएँ।

( 1 ) दाता- दान देने वाले को दाता कहते हैं। दाता स्वस्थ्य मस्तिष्क का तथा वयस्क होना चाहिये। उसे दान में देने वाली वस्तु को देने का अधिकार होना चाहिए।

( 2 ) आदाता– दान में वस्तु को प्राप्त करने वाला आदाता कहलाता है। आदाता को अस्तित्व में होना आवश्यक है।

( 3 ) दान का विषय – निम्नलिखित सम्पत्ति दान के द्वारा निर्वर्तित की जा सकती है —

पृथक अथवा स्वार्जित सम्पत्ति

स्त्री धन

अविभाज्य सम्पदा, यदि प्रथाओं द्वारा निषिद्ध न हों।

दायभाग के अन्तर्गत सहदायिक का हक।

दायभाग के अन्तर्गत पिता द्वारा समस्त पैतृक सम्पत्ति।

       हिन्दू विधवा द्वारा दाय में प्राप्त सम्पत्ति का कोई अंश जो वह अपनी पुत्री अथवा दामाद को विवाह के समय दे सकती है।

(4) स्वीकृति – दान की वैधता के लिए स्वीकृति की आवश्यकता के सम्बन्ध में मिताक्षरा एवं दायभाग में मतभेद है। मिताक्षरा के अनुसार दान की पूर्णता के लिए आदाता की स्वीकृति अनिवार्य है। दायभाग के अनुसार स्वीकृति आवश्यक नहीं है।

(5) औपचारिकताएँ- आदाता के कब्जे में सम्पत्ति को दान के हेतु आवश्यक समझा जाता है चल सम्पत्ति के सम्बन्ध में दाता के कब्जे से आदाता के कब्जे में सम्पत्ति का हस्तान्तरण पर्याप्त है।

प्रश्न 76 मुमूर्ष दान (मृत्यु शैय्या दान)। Death Bed gift.

उत्तर- मुमूर्ष दान (Donatio Mortis Causa) – मुमूर्ष दान को हिन्दू विधि के अन्तर्गत मान्यता प्रदान की गई है। मुमूर्ष दान से तात्पर्य मृत्यु की आशा में दिया गया दान मान्य समझा जाता है। सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 129 अनुसार दान के अध्याय से इस प्रकार के दान को अपवर्जित कर दिया गया है। दान के लिए विधिक आवश्यकता इस बात की होती है कि वह इस उद्देश्य से दिया जाय कि सम्पत्ति प्रतिग्राही में चली जाय, चाहे दान मौखिक रूप से किया जाय अथवा लेखबद्ध हो।

प्रश्न 77. दान कब पूर्ण (वैध) होता है?

When does gift become valid?

उत्तर- दान कब पूर्ण होता है? – हिन्दू विधि में दान तभी पूर्ण होता है जब सम्पत्ति कब्जे के साथ हस्तान्तरित की जाती है। दान मौखिक तथा लिखित दोनों रूप में हो सकता है। दान की वैधता के लिए प्रतिग्राही द्वारा स्वीकृति का होना अत्यन्त आवश्यक होता है।

      लल्लू सिंह बनाम गुरुनरायण, (1923) 45 इलाहाबाद के मामले में कहा गया कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम ने हिन्दू विधि के दान-सम्बन्धी नियम को अब अतिक्रमित कर दिया है। सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अनुसार दान किसी अचल सम्पत्ति का दाता द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को स्वेच्छया बिना प्रतिफल के हस्तांतरण है। इसमें आदाता द्वारा स्वयं उसकी ओर से स्वीकृति प्रदान करके दान पूरा किया जाता है। ऐसी स्वीकृति दाता के जीवन काल में और जब तक वह देने के लिए समर्थ हो, की जानी चाहिए।

        अतः हिन्दू विधि में दान तभी पूर्ण होता है जब सम्पत्ति कब्जे के साथ हस्तान्तरित की जाती है।

प्रश्न 78 दान एवं वसीयत में अन्तर ।

Difference between Gift and Will.

उत्तर-दान एवं वसीयत में अन्तर- मिताक्षरा विधि के अनुसार किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी सम्पत्ति में अपने हित का परित्याग, प्रतिफल के बिना करना दान कहलाता है। इससे प्रतिग्राही के पक्ष में एक अधिकार उत्पन्न हो जाता है। प्रतिग्राही का अधिकार उसकी स्वीकृति के बाद ही उत्पन्न होता है न कि अन्य किसी और प्रकार से। डॉ० सेन का भी यही मत है कि दान से सम्पत्ति के स्वामित्व का विलय हो जाता है, किन्तु सम्पत्ति में दूसरे का अधिकार तभी उत्पन्न होता है जब वह स्वीकृति की अनुमति दे देता है।

     सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम की धारा 122 में दान की परिभाषा की गई है। इसके अनुसार दान किसी अचल सम्पत्ति का दाता द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को स्वेच्छापूर्वक बिना प्रतिफल के हस्तान्तरण है। इसमें आदाता द्वारा स्वयं या उसकी ओर से स्वीकृति प्रदान करके दान पूरा किया जाता है।

वसीयत – इच्छा पत्र (वसीयत) लिखने वाले द्वारा सम्पत्ति के सम्बन्ध में उस उद्देश्य की एक विधिक घोषणा है जिसको वह अपनी मृत्यु के बाद सम्पन्न हुआ इच्छित करता है। प्राचीन हिन्दू विधि के ग्रन्थों में यह इच्छा पत्र द्वारा सम्पत्ति निर्वर्तन का लेख नहीं प्राप्त होता फिर भी आधुनिक विद्वानों ने यह प्रतिपादित किया कि हिन्दू इच्छापत्र द्वारा सम्पत्ति का निर्वर्तन कर सकता है। कात्यायन का कथन है कि जो कुछ मृत्यु अथवा बीमारी में धार्मिक उद्देश्य से दिये जाने के लिए प्रतिज्ञा की जाती है वह अवश्य दिया जाना चाहिए यदि वह दिये। बिना ही मर जाता है तो उसके पुत्र निश्चय ही उसको दान के लिए बाध्य किये जायेंगे। यदि जाने के बाद जो अवशिष्ट होता है, वह मृतक के दायादों में विभाजित कर दिया जाता है।

प्रश्न 79. हिन्दू स्त्री के सम्बन्ध में उत्तराधिकार के नियम ।

Rules of succession in case of Hindu females.

उत्तर- हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15 एक ऐसी स्त्री की सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार के सामान्य नियमों का प्रतिपादन करती है जो निर्वसीयती (Intestate) मरती है क्योंकि यदि कोई महिला वसीयत करके मरती है तो उसके उत्तराधिकार के निर्धारण में उसकी इच्छाओं का सम्मान होता है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 16, धारा 15 में विहित विभिन्न श्रेणी के वारिसों (Various categories of heirs) में उत्तराधिकार के क्रम का निर्धारण करती है। धारा 16 की उपधारा (1) के अन्तर्गत स्त्री के उत्तराधिकार पाँच प्रविष्टियों में बाँटे गये हैं। पाँचों प्रविष्टियों में उत्तराधिकारियों के न होने पर सम्पत्ति सरकार को जाती है।

    हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15 निम्न है –

      एक हिन्दू स्त्री जो निर्वसीयती मरती है उसकी सम्पत्ति इस अधिनियम की धारा 16 के अन्तर्गत निर्धारित नियमों के अनुसार निम्न पर न्यागमित होगी –

(1) प्रथमतः पुत्रों तथा पुत्रियों पर (जिसमें किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री की सन्तानें सम्मिलित हैं) तथा उसके पति पर।

(2) द्वितीयतः उसके पति के वारिसों पर।

(3) तृतीयतः उसकी माता तथा पिता पर।

(4) चतुर्थत: यदि निर्वसीयती मृतक स्त्री के पुत्र, पुत्री, पति या पति के वारिस या माता-पिता नहीं है तो उसकी सम्पत्ति उसके पिता के वारिसों को प्राप्त होगी।

(5) अन्त में यदि उसके पुत्र, पुत्री, पति, पति के वारिस, माता-पिता या पिता के बारिस नहीं हैं तो उसकी सम्पत्ति उसकी माता के वारिसों को प्राप्त होगी।

प्रश्न 80. गर्भस्थ शिशु का अधिकार।

Rights of child in womb.

उत्तर- हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 20 में गर्भस्थ बालक के विषय में नियम प्रदान किया गया है जो इस प्रकार है –

          “जो बालक निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में स्थित था और तत्पश्चात् जीवित हुआ है, निर्वसीयत के दायभाग के विषय में उसके वही अधिकार होंगे जो यदि निर्वसीयत की मृत्यु से पूर्व उत्पन्न हुआ होता तो उसके होते और ऐसी अवस्था में दाय निर्वसीयत की मृत्यु की तिथि से प्रभावशील होकर उसमें निहित समझी जायेगी।”

      इस धारा के अनुसार गर्भस्थ बालक उस दशा में दाय प्राप्त करता है, यदि –

(1) इस प्रकार का बालक निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में आ गया था।

(2) इस प्रकार का बालक बाद में जीवित उत्पन्न हुआ था।

       यदि उपर्युक्त दोनों शर्तें पूरी हो गयी हैं तो इस प्रकार का बालक उसी प्रकार से दाय प्राप्त कर सकता है जैसे कि वह यदि निर्वसीयत की मृत्यु के पूर्व जीवित होता तो प्राप्त करता। कोई भी पुत्र अथवा पुत्री, जो निर्वसीयत की मृत्यु के समय मात के गर्भ में है, विधि की दृष्टि में वह वास्तविक रूप से अस्तित्व में समझा जाता है तथा अपने जन्म के बाद वह ऐसे व्यक्ति को सम्पत्ति से अनिहित कर देता है जिसने कुछ काल के लिये सम्पत्ति ले ली थी और जो सम्पत्ति में उससे ऊपर हक रखता था।

प्रश्न 81. समस्यायें ।   Problems.

समस्या 1. ‘क’ नामक एक हिन्दू व्यक्ति अपनी पत्नी ‘ख’ के जीवित रहते एक दूसरी महिला ‘ग’ के साथ विवाह करता है। क्या ‘क’ द्वारा किया गया दूसरा विवाह हिन्दू विधि के अनुसार वैध है, जहाँ कि विवाह पूर्णतः हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार किया गया है।

उत्तर – हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (1) के अनुसार विवाह की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि दोनों पक्षकारों में से किसी का पति या पत्नी विवाह के समय जीवित नहीं होने चाहिए अर्थात् स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि हिन्दू अब केवल एक ही विवाह कर सकता है। यदि किसी हिन्दू पुरुष की एक पत्नी है तो उसके जीवित रहते वह हिन्दू पुरुष किसी दूसरी महिला के साथ विवाह नहीं कर सकता। इसी प्रकार एक स्त्री भी एक पुरुष के जीवित रहते किसी दूसरे पुरुष के साथ विवाह नहीं कर सकती। यदि कोई इस प्रकार विवाह करता है तो वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 एवं 495 के अन्तर्गत दण्डनीय होगा।

       उपरोक्त समस्या के तथ्यों से स्पष्ट है कि ‘क’ की प्रथम पत्नी ‘ख’ जीवित है। इसलिए वह ‘ग’ नामक दूसरी महिला के साथ विवाह नहीं कर सकता है। इसलिए ‘क’ द्वारा ‘ग’ के साथ किया गया विवाह अवैध है।

समस्या 2. ‘अ’, नामक एक हिन्दू पुरुष, ‘ब’ नामक एक हिन्दू महिला से जो कि लाखों रुपयों की स्वामिनी है, ‘ब’ की सम्मति लेकर विवाह कर लेता है। यदि ‘ब’ के संरक्षक यह साबित कर देते हैं कि ‘ब’ चित्तविकृति के परिणामस्वरूप विधिमान्य सम्मति देने में सक्षम नहीं है तो क्या उपरोक्त विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार अवैध होगा?

उत्तर- विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि विवाह के समय विवाह का कोई पक्षकार (क) मस्तिष्क विकृति के परिणामस्वरूप एक विधिमान्य सहमति देने के अयोग्य नहीं है, अथवा (ख) यदि सहमति देने के योग्य है। किन्तु वह इस प्रकार की मानसिक विकृति अथवा इस सीमा तक की मानसिक विकृति से पीड़ित नहीं है कि विवाह तथा सन्तान उत्पत्ति के अयोग्य हो अथवा (ग) पागलपन के दौरे से बार-बार पीड़ित रहता हो, (घ) जो व्यक्ति बौद्धिक शक्ति में इतना कमजोर हो कि वह सही बात न समझ सकता हो।

       उपरोक्त समस्या के तथ्यों में जहाँ ‘ब’ के संरक्षक यह साबित कर देते हैं कि ‘ब’ विधिमान्य सम्मति देने में समर्थ नहीं है, ‘अ’ द्वारा ‘ब’ के साथ किया गया विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 5 (1) के अन्तर्गत वैध नहीं होगा।

समस्या 3. ‘अ’ नामक हिन्दू जिसकी आयु 19 वर्ष है, का ‘ख’ नामक एक हिन्दू लड़की के साथ विवाह होता है जिसकी आयु 16 वर्ष है। क्या यह विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार पूर्ण विधिमान्य है?

उत्तर- नहीं। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1978 में किए गए संशोधन के अनुसार एक विधिमान्य विवाह के समय वर की आयु 21 वर्ष तथा कन्या की आयु 13 वर्ष होनी चाहिए।

        उपरोक्त समस्या में ‘क’ जो कि वर है, की आयु 19 वर्ष तथा ‘ख’ जो कि कन्या है, की आयु 16 वर्ष है जो अधिनियम के प्रावधान के अनुसार, 21 वर्ष तथा 18 वर्ष से कम है। इसलिए दोनों का विवाह विधिमान्य नहीं है।

समस्या 4. ‘क’ ने अपनी पत्नी ‘ख’ से हिन्दू वैदिक रीति से विवाह किया जिसके परिणामस्वरूप उसके दो सन्तानें भी हुई। ‘क’ एक अभिमानी एवं शंकालु प्रकृति का व्यक्ति था जिसके कारण उसका अपने परिवार में माता-पिता एवं भाई से आपसी वैमनस्य भी रहता था। इन्हीं वैमनस्यताओं के कारण वह अपने परिवार से अलग होकर एक किराये के मकान में रहने लगा। कुछ समय बाद पति एवं पत्नी के सम्बन्ध में कटुता आने लगी जिसके परिणामस्वरूप पत्नी का पति के साथ रहना अनिष्टकारी हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि वह पत्नी के साथ-साथ बच्चों को भी परेशान करने लगा, जो कि पत्नी एवं बच्चों के लिए असहनीय हो गया जिससे उन लोगों को घोर मानसिक क्लेश पहुंचता था और उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता था। क्या ऐसी स्थिति में पति को क्रूरता के लिए दोषी ठहराते हुए पत्नी के पक्ष में न्यायिक पृथक्करण आज्ञप्ति पारित की जानी चाहिए।

उत्तर- उपरोक्त समस्या हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 10 से सम्बन्धित है। उपरोक्त समस्या के तथ्यों को देखते हुए पति को क्रूरता का दोषी ठहराते हुए न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति पारित की जानी चाहिए। पति का अपने माता-पिता एवं भाई से वैमनस्य होना, अपने परिवार से अलग रहना तथा पत्नी के साथ-साथ बच्चों को भी प्रताडित करके उनको घोर मानसिक क्लेश पहुँचाना, पति की क्रूरता को सिद्ध करते हैं। इसलिए पति के विरुद्ध न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति पारित किया जाना न्यायसंगत होगा।

समस्या 5. ‘क’ नामक पुरुष का ‘ख’ नामक स्त्री के साथ विवाह सम्पन्न होता है परन्तु विवाह के उपरान्त ‘क’ नपुंसक पाया जाता है। क्या विवाह शून्यकरणीय है?

उत्तर- हाँ अधिनियम की धारा 12 के अनुसार उपरोक्त विवाह शून्यकरणीय है। धारा 12 के अनुसार कोई भी विवाह, चाहे वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व या बाद में सम्पन्न किया गया हो, निम्नलिखित आधारों पर शून्यकरणीय समझा जाएगा

(1) विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के पूर्व-यह कि विवाह के समय और इसके बाद भी कार्यवाही प्रारम्भ करने के समय तक प्रत्युत्तरदाता नपुंसक था।

(2) प्रत्युत्तरदाता का अस्वस्थ मस्तिष्क का होना।

(3) जहाँ याची की अथवा कन्या के संरक्षक की सहमति, जैसा कि धारा 5 उपधारा (VI) में अपेक्षित है, बल प्रयोग द्वारा अथवा वैवाहिक संस्कार के सम्बन्ध में अथवा प्रत्युत्तरदाता से सम्बन्धित किसी तात्विक तथ्य के सम्बन्ध में कपट द्वारा सहमति प्राप्त की गयी है।

समस्या 6. ‘अ’ नामक एक पुरुष का विवाह ‘ब’ नामक एक स्त्री से हुआ। विवाह के एक वर्ष के अन्दर ही ‘अ’ को यह पता चला कि उसकी पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के संसर्ग से गर्भवती है तो क्या ‘अ’ ऐसी स्थिति में विवाह को प्रभावहीन घोषित करवा सकता है? उत्तर- हाँ अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत ‘अ’ विवाह को प्रभावहीन घोषित करवा सकता है। इस धारा के अन्तर्गत प्रार्थना पत्र की सफलता हेतु यह सिद्ध करना आवश्यक है कि याची विवाह के समय प्रत्युत्तरदाता के गर्भवती होने की बात से अनभिज्ञ था तथा प्रार्थना पत्र विवाह होने के एक वर्ष के भीतर दिया जाना चाहिए। विवाह की अकृतता के लिए यह आवश्यक है कि याची यह प्रमाणित करे कि विवाह के समय वह प्रत्युत्तरदाता के गर्भवती रहने की बात स पूर्णतया अनभिज्ञ था।

समस्या 7. जहाँ एक मामले में एक दम्पत्ति ने वादी को बिना औपचारिकता पूरी किये दत्तक ग्रहण किया। दत्तक ग्रहण करने के पश्चात् दत्तकग्रहीता पिता ने अपनी सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से अपने दत्तकग्रहीता पुत्र को दे दिया तथा अपनी सम्पत्ति में नैसर्गिक पुत्रियों को कोई हिस्सा नहीं दिया। पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्रियों ने उसकी सम्पत्ति में अपने अधिकार का दावा किया। क्या ऐसा दत्तक ग्रहण विधिमान्य होगा?

उत्तर- उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस मामले में दत्तक ग्रहण के समय वादी नैसर्गिक माता-पिता एवं दत्तकग्रहीता माता-पिता के बीच वास्तविक रूप से पुत्र के लेन-देन की शर्तों का अनुपालन नहीं किया गया था। अतः ऐसा दत्तक ग्रहण अविधिमान्य होगा क्योंकि एक वैध दत्तक ग्रहण के लिए लेन-देन का संस्कार आवश्यक है। दत्तकग्रहीता पिता के द्वारा सम्पत्ति के सम्बन्ध में लिखी गयी वसीयत निष्प्रभावी होगी और उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति उसके नैसर्गिक पुत्रियों के बीच विभाजित होगी।

समस्या 8. ‘क’ एक हिन्दू पुरुष पैतृक तथा पृथक् सम्पत्ति का स्वामी है। वह ‘स नामक पुत्र को दत्तक ग्रहण लेता है। क्या ‘स’ के दत्तक ग्रहण से ‘क’ की पृथक सम्पत्ति प्रभावित होगी?

उत्तर- उपरोक्त समस्या के तथ्यों के आधार पर ‘स’ के दत्तक ग्रहण से ‘क’ की पृथक सम्पत्ति प्रभावित नहीं होती। वह उस सम्पत्ति को जिस प्रकार चाहे प्रयोग कर सकता है। ‘स’ दत्तक ग्रहण के बाद पैतृक सम्पत्ति में उसी प्रकार हक प्राप्त कर लेगा जैसा कि एक नैसर्गिक पुत्र उस परिवार में प्राप्त किए होता अर्थात् ‘स’ तथा ‘क’ को पैतृक सम्पत्ति में समान रूप से हक प्राप्त हो जायेगा। ‘स’, ‘क’ के द्वारा पैतृक सम्पत्ति को दत्तक ग्रहण पूर्व हस्तान्तरित किये जाने पर उस हस्तान्तरण से उसी सीमा तक बाध्य होगा जिस सीमा तक उस परिवार में एक नैसर्गिक पुत्र बाध्य होगा।

समस्या 9. ‘अ’ जो ‘ब’ का नैसर्गिक पिता था। उसने अपने पुत्र ‘ब’ को ‘स’ को दत्तक ग्रहण में दिया। दत्तक ग्रहण के पूर्व दत्तकग्रहीता पिता ने अ’ को इस आशय की जानकारी पत्र के माध्यम से दिया कि उसकी तथा उसकी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् उसका दत्तकग्रहीता पुत्र उसकी सम्पूर्ण चल एवं अचल सम्पत्ति का स्वामी होगा। क्या बाद में ‘अ’ एवं ‘व’ दत्तकग्रहीता पिता पर इस बात का दबाव डाल सकते हैं कि वह सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने जीवनकाल में ही अपने दत्तकग्रहीता पुत्र को अन्तरित कर दे?

उत्तर- ‘ब’ तथा ‘ब’ के नैसर्गिक पिता ‘अ’ दत्तकग्रहोता पिता ‘स’ पर इस बात का दबाव नहीं बना सकते कि वह अपनी सम्पूर्ण चल एवं अचल सम्पत्ति का तत्काल प्रभाव से हस्तान्तरण कर दे। दत्तक ग्रहण अधिनियम की धारा 13 इस मामले में लागू नहीं होती क्योंकि सम्बन्धित पक्षकारों के बीच इस तरह के आशय का कोई समझौता नहीं हुआ था अतः दत्तकग्रहीता पुत्र को वह सम्पत्ति दत्तक ग्रहण करने वाले माता-पिता के मृत्योपरान्त ही प्राप्त होगी।

समस्या 10. जहाँ 5 माह की अपनी पुत्री को माता जिसने पति से तलाक ले लिया था और जो अपनी पुत्री को अपनी अभिरक्षा में रखती थी, पिता-माता की देखभाल में देकर स्वयं कुछ समय के बाद विदेश चली गई। पुत्री नाना-नानी के साथ रहने लगी तथा उनसे उसका अटूट स्नेह हो गया था। बाद में पुत्री के पिता ने इस आशय का वाद दायर किया कि पुत्री की अभिरक्षा उसके पास होनी चाहिए, क्योंकि वह पुत्री का नैसर्गिक संरक्षक है। क्या पुत्री को पिता की अभिरक्षा में दिया जाना चाहिए?

उत्तर – प्रस्तुत समस्या में अवयस्क के हितों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि पिता जो कि पुत्री के कल्याण कार्यों में अत्यन्त उत्सुक है, उसको पुत्री की अभिरक्षा सौंपी जानी चाहिए। यहाँ अभिरक्षा के प्रश्न पर चयन अवयस्क के नाना-नानी तथा उसके पिता के बीच है, अतएव ऐसी स्थिति में पिता की ही अभिरक्षा में पुत्री को देना अधिक श्रेयस्कर होगा।

समस्या 11. जहाँ एक मामले में एक विधवा 3 पुत्र एवं 4 पुत्रियों और एक उसके पुत्री का पुत्र (नाती) एक संयुक्त परिवार के सदस्य थे। परिवार की कर्त्ता विधवा महिला थी जो घर की व्यवस्था को देखती थी, विधवा की तीनों पुत्रियाँ अवयस्क थीं। विधवा अपने पति के द्वारा छोड़ी गई सम्पूर्ण सम्पत्ति की मालकिन होना चाहती थी और इस सम्बन्ध में उसने एक विक्रय-पत्र के माध्यम से सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने पक्ष में कर लिया था, जिसका प्रतिफल उसने मात्र 1,000 (एक हजार रुपये) दिखाया था जबकि इस तरह की कोई आवश्यकता उसके परिवार में नहीं थी। क्या विधवा के उपरोक्त संव्यवहार को गलत बताते हुए उसे निरस्त करने की आज्ञमि पारित की जानी चाहिए?

उत्तर- अधिनियम की धारा 8 (2) के अनुसार प्राकृतिक संरक्षक न्यायालय की पूर्ण अनुज्ञा के बिना अवयस्क की किसी अचल सम्पत्ति के किसी भाग को बन्धक या भारित या विक्रय, दान अथवा अन्य प्रकार से हस्तान्तरित नहीं करेगा तथा पाँच वर्ष से अधिक के लिए पट्टे पर नहीं देगा। इस प्रकार प्राकृतिक संरक्षक तथा इच्छा पत्र द्वारा नियुक्त किये गये संरक्षकों के अधिकार पर नियन्त्रण रखा गया है। उपरोक्त समस्या में जहाँ कि इस तरह की कोई आवश्यकता उसके परिवार में नहीं थी, और उसने अवयस्क सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई अनुमति न्यायालय से भी नहीं लिया था, उसके संव्यवहार को गलत मानते हुए निरस्त करने की आज्ञति पारित की जानी चाहिए।

समस्या 12. ‘अ’ अपनी सम्पत्ति अपनी अवयस्क सन्तान को वसीयत द्वारा उसके भरण-पोषण हेतु प्रदान कर उस सम्पत्ति की वसीयती संरक्षक उसकी माता को नियुक्त कर देता है। कुछ समय पश्चात् ‘अ’ की मृत्यु हो जाती है। मृत्योपरान्त अवयस्क सन्तान की माता जो कि वसीयती संरक्षक थी, उसने संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में वसीयती संरक्षक की हैसियत से ऐसी सम्पत्ति का विभाजन कराना चाहती थी। क्या अवयस्क सन्तान की माता को विभाजन कराने की अनुमति दी जानी चाहिए?

उत्तर- प्रस्तुत समस्या के तथ्यों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि संयुक्त हिन्दू परिवार का विभाजन अभी नहीं हुआ है। इसलिए वसीयती संरक्षक को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भी अविभाज्य सम्पत्ति का विभाजन करा सके। इसलिए अवयस्क सन्तान की माता को विभाजन कराने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

समस्या 13. जहाँ एक मामले में एक हिन्दू स्त्री एक पुत्र को जन्म देकर मर गई । पुत्र का पालन-पोषण उसके नाना ने किया। नाना ने पुत्र के पिता को यह वचन दिया कि उसे दो वर्ष की आयु पूरी करने पर पिता के यहाँ भेज दिया जायेगा। उसके दो वर्ष की आयु का हो जाने पर पिता के पास उसे नहीं भेजा गया। इस बीच पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और उसको दूसरा पुत्र भी पैदा हुआ। पिता अपने पहले पुत्र से एक बार मिलने गया तो पुत्र ने पिता के साथ रहने से इन्कार कर दिया। यदि पिता अपने पुत्र को प्राप्त करने हेतु वाद दायर करता है तो क्या पुत्र को पिता की अभिरक्षा में दिया जाना चाहिए?

उत्तर – धारा 13 के अनुसार अवयस्क का कल्याण एवं हित ही सबसे विचारणीय बात होती है और उसी आधार पर उसकी संरक्षकता एवं अभिरक्षा निर्धारित की जाएगी उपरोक्त समस्या में पिता के बाद को खारिज किया जाना चाहिए तथा पुत्र को पिता की अभिरक्षा में नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि पुत्र ने स्वयं पिता के साथ रहने से इन्कार भी कर दिया है इस प्रकार पुत्र का हित नाना के साथ ही रहने में है। पिता ने दूसरा विवाह भी कर लिया है और उससे भी उसे एक पुत्र है। इसलिए किसी भी परिस्थिति में पुत्र को पिता की अभिरक्षा में नहीं दिया जाना चाहिए।

समस्या 14. ‘अ’ अपने पिता से दायरूप में सम्पत्ति प्राप्त करता है। बाद में को पुत्र उत्पन्न हुआ। क्या ‘अ’ की सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय है?

उत्तर – पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में अप्रतिबन्ध दाय लागू होता है। इसके अन्तर्गत पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र को, यदि कोई जीवित है तो सम्पत्तिजनक के जीवनकाल में ही सम्पत्ति में एक अंश प्राप्त करने का हक उत्पन्न हो जाता है।

       उपरोक्त समस्या में पुत्र ‘अ’ की सम्पत्ति का जन्मतः सहदायिक हो जाता है तथा अपने पिता के साथ बराबर, अर्थात् आधे अंश का हकदार हो जाता है। इसलिए ‘अ’ की सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय है, क्योंकि ‘अ’ का जीवनकाल उसकी सम्पत्ति में उसके पुत्र को हकदार होने से बाधित नहीं करता।

        यदि ‘अ’ को कोई पुत्र न होता और केवल भाई ही होता तो उस दशा में ‘अ’ की सम्पत्ति में उसके जीवन काल में उसका भाई कोई हक नहीं प्राप्त कर सकता था। यहाँ ‘अ’ का जीवनकाल उसके भाई की सम्पत्ति को प्राप्त करने में एक बाधा थी।

समस्या 15. ‘अ’, ‘ब’ तथा ‘स’ के बीच संयुक्त हिन्दू सहदायिकी है और बाद में ‘अ’ की मृत्यु पत्नी तथा एक पुत्री को छोड़कर हो जाती है। उसके बाद में ‘ब’ की भी मृत्यु हो गई किन्तु उसके कोई स्त्री दायाद नहीं थी। वहाँ ‘ब’ का सहदायिकी हिस्सा किसको न्यागत होगा?

उत्तर- जहाँ ‘अ’ की मृत्यु पत्नी तथा एक पुत्री को छोड़कर हो जाती है। उसके बाद में ‘ब’ की भी मृत्यु हो गई किन्तु उसके कोई स्त्री दायाद नहीं था तो ऐसी स्थिति में ‘ब’ का सहदायिकी हिस्सा एकमात्र ‘स’ को उत्तरजीविता में न्यागत होगा न कि ‘अ’ की विधवा तथा उसकी पुत्री को क्योंकि ‘अ’ की विधवा अथवा पुत्री सहदायिकी के सदस्य नहीं हो सकते जो उसके पति के साथ निर्मित था ऐसी स्थिति में ‘अ’ की विधवा तथा पुत्री मिलकर सहदायिकी सम्पत्ति का 1/3 अंश लेंगे।

समस्या 16. ‘अ’ एक विधवा ‘ब’, एक पुत्र ‘य’ ‘क’, ‘ख’, ‘ग’, पुत्री ‘त’ तथा पूर्व मृत पुत्री ‘थ’ की दो पुत्रियों को छोड़कर मरता है। इनमें हिस्से का विभाजन किस प्रकार होगा?

उत्तर-‘अ’ की सम्पत्ति में ‘ब’, ‘य’ तथा ‘त’, ‘अ’ की सम्पत्ति का 1/5 अंश प्रत्येक ग्रहण करेंगे तथा पुत्री की प्रत्येक पुत्रियाँ 1/10 अंश प्राप्त करेंगी।

समस्या 17. ‘अ’ नामक एक हिन्दू स्त्री की निर्वसीयत मृत्यु हो गई। उस स्त्री के कोई सन्तान नहीं थी। उसके कुटुम्ब में उसकी सगी बहिन तथा सौतेले भाई-बहिन मौजूद थे। स्त्री की मृत्यु के उपरान्त कौन सम्पत्ति दाय में प्राप्त करेगा?

उत्तर – अधिनियम में उत्तराधिकार के कुछ सामान्य नियम दिये गये हैं जो धारा 18 से 22 तक में उपबन्धित हैं। ये नियम सभी प्रकार की अवस्थाओं में लागू होंगे। चाहे उत्तराधिकार किसी हिन्दू पुरुष के निर्वसीयत मर जाने के बाद प्रारम्भ हो अथवा हिन्दू स्त्री के निर्वसीयत मरने के बाद शुरू हो। प्रस्तुत मामले में जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न सगी बहिन एवं सौतेले भाई-बहिनों के बीच है, वहाँ सगी बहिन सौतेली भाई बहिन को अपवर्जित करके सम्पत्ति दाय में प्राप्त करेगी।

समस्या 18. ‘क’ के तीन पुत्र हैं—प, फ, ब। फ के दो पुत्र ‘च’, ‘छ’ होते हैं तथा ‘ब’ के दो पुत्र ‘म’, ‘न’ होते हैं। ये सभी सन्तानें ‘क’ के साथ सहदायिकी निर्मित करते हैं। इनमें यदि ‘फ’ तथा ‘ब’ की मृत्यु हो जाय और वे अपनी पृथक् सम्पत्ति छोड़कर मर जाते हैं। इसके बाद मृत ‘फ’ के दोनों पुत्र ‘च’ तथा ‘छ’ मिलकर एक सहदायिकी अलग से तथा ‘ब’ के दोनों पुत्र ‘म’ एवं ‘न’ एक सहदायिकी अलग से निर्मित करेंगे जो अपने मृत पिता की पृथक् सम्पत्ति को सहदायिकी के रूप में अलग से प्राप्त करते हैं। क्या यदि इनमें से ‘च’ अथवा ‘छ’ एवं ‘म’ तथा ‘न’ के कोई पुत्र उत्पन्न होता है तो वह अपने मृत पितामह ‘फ’ एवं ‘ब’ की पृथक् सम्पत्ति में जन्म से अधिकार सहदायिक रूप में प्राप्त कर लेंगे?

उत्तर – उपरोक्त समस्या में यदि ‘च’ अथवा ‘म’ तथा ‘न’ के कोई पुत्र उत्पन्न होता है तो वह अपने पितामह (Grandfather) ‘फ’ एवं ‘ब’ की पृथक् सम्पत्ति में जन्म से अधिकार सहदायिक के रूप में प्राप्त कर लेंगे तथा ‘क’ प्रपितामह (Great Grandfather) के साथ भी सहदायिकी का निर्माण करेंगे; क्योंकि ‘क’ से नीचे की तीन पुरुष पीढ़ी के अन्तर्गत वे आते हैं और इस प्रकार ‘क’ की सम्पत्ति में भी जन्म से अधिकार प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार एक सहदायिकी ‘क’ के साथ निर्मित होता है। दूसरा सहदायिकी मृत पिता ‘फ’ एवं ‘ब’ के साथ उनकी पृथक् सम्पत्ति के कारण निर्मित होता है।

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