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LAW OF TORTS All Short Answer Useful First Semester LLB Notes in Hindi

 प्रश्न 1. अपकृत्य ( दुष्कृति) का अर्थ क्या है? What is meaning of Torts?

उत्तर- दुष्कृति का अर्थ (Meaning of Torts)- टार्ट (Tort) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘टार्टम’ (Tortum) से हुई है। ‘टार्ट’ अंग्रेजी भाषा के राँग (Wrong अनुचित) शब्द का पर्यायवाची है। हिन्दी भाषा में इसका समानार्थी शब्द ‘अपकृत्य’ है। अंग्रेजी भाषा में सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग नार्मन विधिवेत्ताओं एवं न्यायमूर्तियों ने किया। उनके मतानुसार इस शब्द का अर्थ उन कार्यों से था जिनके करने से किसी व्यक्ति विशेष को विधिक क्षति (Legal Damage) पहुँचे और क्षतिकर्ता को उसकी नुकसानी देना पड़े, चाहे वह कार्य क्षतिकर्ता ने जानबूझ कर किया हो या अनजाने में।

     अपकृत्य सम्बन्धी दायित्व संविदा भंग (Breach of Contract) से भिन्न ऐसा दायित्व है जो सामान्यत: कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने के कारण उत्पन्न होता है और जिसका उपचार नुकसानी (क्षतिपूर्ति) दे कर हो सकता है।

प्रश्न 2. अपकृत्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ? What are main features of Torts?

उत्तर – अपकृत्य की प्रमुख विशेषताएँ- अपकृत्य की दी गई परिभाषाओं के विश्लेषण से अपकृत्य की निम्न विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं-

(1) अपकृत्य किसी व्यक्ति के अधिकार का अतिलंघन है, या उसके प्रति अन्य व्यक्ति द्वारा कर्तव्य की अवहेलना है। विशेष परिस्थितियों में सभी व्यक्तियों के बीच, साधारण कानून के अनुसार अधिकार और कर्तव्य उत्पन्न होते हैं। अपकृत्य उन अनुचित कृत्यों से भिन्न होता है जो पूर्णरूप संविदा भंग के अन्तर्गत आते हैं।

(2) अपकृत्य का उपचार सिविल न्यायालय (Civil Court) में नुकसानी पाने को कार्यवाही कर के प्राप्त किया जा सकता है।

(3) सन् 1875 के पूर्व सामान्य कानून के न्यायालयों (Common Law Courts) में मुकदमा चला कर अपकृत्य के प्रति कार्यवाही पूर्णतया अन्य न्यायालयों में को जाती थी, जैसे कि कोर्ट ऑफ चान्सरी में।

(4) अपकृत्य में जिन अधिकारों का अतिलंघन होता है वे लोकबन्धी अधिकार (Right in rem) होते हैं जिन्हें वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति प्रवर्तित करा सकता है।

प्रश्न 3. अपकृत्य के आवश्यक तत्व क्या हैं? What are essential elements of Torts?

उत्तर- अपकृत्य के आवश्यक तत्व (Essential Elements of Torts) अपकृत्य एक ऐसा कृत्य अथवा चूक है जिससे किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तथा जिसका उपचार अनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated Damage है।

       इस प्रकार एक कृत्य को अपकृत्य होने के लिए उसमें निम्नलिखित तत्व या लक्षण का होना आवश्यक है-

(1) किसी व्यक्ति द्वारा कोई अनुचित कृत्य किया गया हो अथवा चूक की गई हो

(Wrongful act or Omission);

(2) उस अनुचित कृत्य अथवा चूक से किसी अन्य व्यक्ति को क्षति हुई हो;

(3) अनुचित कृत्य अथवा चूक ऐसी हो कि उससे नुकसानी का मुकदमा चलाने का विधिक अधिकार प्राप्त हो ।

प्रश्न 4. अपकृत्य के प्रकृति का वर्णन कीजिए। Explain the nature of Tort.

उत्तर- अपकृत्य (Tort) अवैध कृत्यों की ऐसी कोटि में आता है जिसके विरुद्ध ‘सामान्य विधि के न्यायालय’ (Courts of Common Law) में कार्यवाही हो सकती है। विधि की इस शाखा में विभिन्न अपकृत्य अथवा दोषपूर्ण कार्य सम्मिलित हैं। किसी व्यक्ति की ख्याति को क्षति करना अर्थात् मानहानि, हमला, प्रहार, छल, उपेक्षा आदि अपकृत्य के उदाहरण हैं। इन अपकृत्यों से अपकारी व्यक्ति दूसरों में निहित कुछ विधिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। विधिक कर्तव्यों के पालन न करने से कई प्रकार के विधि विरुद्ध अर्थात् दोषपूर्ण कार्य उद्भूत होते हैं जिन्हें मुख्यतः दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है आपराधिक अपकार तथा दीवानी अपकार ।

       अपकृत्य दीवानी अपकारों की कोटि में आता है। आपराधिक अपकार में अपकारकर्ता को दण्ड दिया जाता है जबकि दीवानी अपकार में प्रतिवादी को, वादी को हुई क्षति के लिए प्रतिकर (क्षतिमूल्य) का भुगतान करने के लिए कहा जाता है।

अपकृत्य की प्रकृति के सन्दर्भ में निम्न बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं (1) अपकृत्य विधि संहिताबद्ध अथवा अधिनियमित विधि नहीं है।

(2) अपकृत्य विधि न्यायिक कार्यवाहियों पर आधारित हैं।

(3) विधि की इस शाखा का आधार इंग्लिश कॉमन लॉ है।

(4) भारत में अपकृत्य विधि का प्रारम्भ अंग्रेजों ने किया था।

(5) अपकृत्य विधि का आधार इस परिकल्पना पर आधारित है कि जहाँ अधिकार है

प्रश्न 5. “जहाँ उपचार है, वहीं अधिकार है तथा जहाँ अधिकार है वहीं उपचार है।” इस सूक्ति की व्याख्या कीजिए। “Ubi remedium ibi jus, ubi jus ibi remedium.” Explain this maxim.

उत्तर- जहाँ उपचार है, वहीं अधिकार है तथा जहाँ अधिकार है वहीं उपचार है। (Ubi remedium ibi jus, Ubi jus ibi remedium)- अपकृत्य विधि में इस सूक्ति का बड़ा ही महत्व है। वस्तुतः अपकृत्य का विकास भी इसी सूक्ति पर आधारित है। इस सूक्ति का अर्थ है-जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार भी विधि में होने चाहिए। यह सत्य है कि अधिकारों का अस्तित्व ही उपाय पर निर्भर करता है। कोई चूक ऐसी नहीं है जिसका उपचार नहीं है।

         जब इस सूक्ति का प्रयोग अपकृत्य के सम्बन्ध में किया जाता है तो वहाँ ऐसे अधिकारों के उपचार की और संकेत होता है जो विधि द्वारा प्रदत्त होते हैं। अपकृत्यपूर्ण दायित्व तभी उत्पन्न होते हैं जब किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों को उल्लंघन हो। इस प्रकार विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों के लिए विधि उपाय भी प्रदान करती है। नैतिक अधिकारों के अतिक्रमण के सम्बन्ध में इस सूक्ति का कोई महत्व नहीं है। दूसरे शब्दों में जहाँ पर विधिकअधिकार नहीं है वहाँ विधिक क्षति भी नहीं होती तथा विधिक उपायों को सुरक्षा भी नहीं मिलती है।

          इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम ‘ऐशबी बनाम ह्वाइट’ के बाद में किया गया था। इस बाद में न्यायालय का विचार था कि यदि वादी को कोई अधिकार प्राप्त है तो उसे उसके संरक्षण के लिए उपचार भी प्राप्त अवश्य होने चाहिए। वस्तुत: उपचार के अभाव में अधिकार की कल्पना ही नहीं की जा सकती क्योंकि अधिकार और उपचार एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न 6 अपकृत्य एवं अपराध में भेद। Difference between Tort and Crime.

उत्तर– अपकृत्य तथा अपराध में अन्तर

अपकृत्य (Tort) और अपराध (Crime)

(1) अपकृत्य एक दीवानी दोष है।

(1) अपराध एक आपराधिक दोष है।

(2) अपकृत्य में वाद व्यथित पक्षकार

(2) अपराध में सरकार की ओर से लाता है। अभियुक्त का अभियोजन किया जाता

(3) अपकृत्य में उपचार सिर्फ अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए बाद है।

(3)अपराध समाज के विरुद्ध दोष माना जाता है अत: दोषी व्यक्ति को कारावास या अर्थदण्ड या दोनों से दण्डित किया जाता है। अपराध सामाजिक दोष होता है।

(4) अपकृत्य एक व्यक्तिगत दोष होता

(4) अपराध सामाजिक दोष होता है।

प्रश्न 7. “प्रत्येक दीवानी दोष अपकृत्य नहीं होता।” “Every civil wrong is not Tort.”

उत्तर– अपकृत्य एक सिविल दोष होता है जिसके लिए न्यायालय अनिर्धारित नुकसानी प्रदान करता है। परन्तु प्रत्येक दीवानी दोष अपकृत्य नहीं होता है जैसे कि संविदा भंग एक दीवानी दोष ही है किन्तु वह अपकृत्य नहीं हैं। इसी प्रकार न्यास भंग भी सिविल अपकृत्य ही है किन्तु वह अपकृत्य नहीं हैं क्योंकि इनके लिए उपचार सम्बन्धित अधिनियमों के प्रावधानों के अनुसार प्रदान किया जाता है, जबकि अपकृत्य के लिए उपचार इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के आधार पर प्रदान किया जाता है।

प्रश्न 8 विधि की भूल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। Write short note on the mistake of Law.

उत्तर – विधि की अज्ञानता क्षम्य नहीं है। यह (Ignorantia Juris non excusat) कानून की एक महत्वपूर्ण उक्ति है। भूल चाहे वह तथ्य सम्बन्धी हो अथवा विधि सम्बन्धी अपकृत्य के मामलों में बचाव का आधार नहीं हो सकती है। परन्तु इसके अपवाद भी हैं कि ऐसी परिस्थितियों में साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी वही करता जो प्रतिवादी ने किया था तो भूल से किये गये कार्य के लिए पतिवादी दायी नहीं होगा। जैसे-किसी निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध भूल से चलाये गये मुकदमे में यदि प्रतिवादी के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण विचार या कोई तर्कसंगत कारण साबित नहीं होता तो वह उत्तरदायी नहीं होगा।

प्रश्न 9. बिना हानि के क्षति। Injuria sine damnum.

उत्तर– बिना हानि के क्षति (Injuria sine Damnum) Injuria sine Damnum का अर्थ हुआ बिना हानि के क्षति। जिस व्यक्ति के विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ हो वह नुकसानी के लिए दावा कर सकता है, चाहे उसे वास्तविक क्षति हुई हो अथवा नहीं। कानून व्यक्ति के कुछ मौलिक अधिकारों को मान्यता देता है। इन अधिकारों को भंग करना स्वयं ही अनुयोज्य (Actionable) होता है। ऐसे मामलों में वादी को यह सिद्ध करना पड़ता है कि उसके किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है। यह अलग बात है कि उसके अधिकार के उल्लंघन से उसे कोई हानि हुई है या नहीं। Injuria Sine Damno सूत्र का स्पष्टीकरण ‘ऐशबी बनाम ह्वाइट’ नामक वाद करता है।

प्रश्न 10. बिना क्षति के हानि। Damnum sine Injuria.

उत्तर- बिना क्षति के हानि (Damnum sine Injuria)— Damnum Sine Injuria के सिद्धान्त के अनुसार, बिना विधिक अधिकार के उल्लंघन हुए मात्र क्षति के आधार पर वाद नहीं चलाया जा सकता, भले ही वादी को प्रतिवादी के कार्य द्वारा वास्तविक र्थिक क्षति पहुँची हो अर्थात् यदि वादी के किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है तो वह नुकसानी पाने का हकदार नहीं होगा।

उदाहरण– यदि मैं किसी क्षेत्र में कोई मिल चला रहा हूँ और उसी क्षेत्र में कोई दूसरा व्यक्ति एक अन्य मिल चलाने लगता है तो मुझे आर्थिक क्षति तो अवश्य होगी किन्तु मुझे उसके विरुद्ध कोई नुकसानी का वाद लाने का हक नहीं प्राप्त होता। क्योंकि यहाँ किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है।

        उक्त सूत्र के मामले में ग्लेसेस्टर ग्रामर स्कूल का मामला प्रमुख है।

प्रश्न 11. अपकृत्य एवं नैतिक अपराध में अन्तर, कीजिए। Distinguish between forts and moral crime.

उत्तर- अपकृत्य तथा नैतिक अपराध (Torts and Moral Crime) – अपकृत्य विधिक कर्तव्य के भंग होने पर होता है। मात्र नैतिक कर्तव्य की अवहेलना अपकृत्य नहीं होती। प्रत्येक अनुचित कार्य भी अपकृत्य नहीं होता। अपनी भूमि में एक ऊँची दीवार खड़ी करके पड़ोसी को प्राप्त होने वाली हवा एवं रोशनी को रोकना नैतिक दृष्टि से अनुचित हो सकता है, लेकिन ऐसे कार्य के विरुद्ध अपकृत्य का मामला नहीं चल सकता। कानून साधारण तथा समाज के नैतिक ज्ञान को स्पष्ट रूप देता है, लेकिन कानून और नैतिकता में भिन्नता की बहुत सी बातें हैं। कुछ नैतिक अपराध अपकृत्य नहीं हो सकते हैं और कुछ अपकृत्य नैतिक अपराध नहीं हो सकते हैं।

प्रश्न 12 कानूनी या विधिक क्षति से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Legal Injury?

उत्तर- कानूनी या विधिक क्षति (Legal Injury)-अपकृत्य के बाद में क्षति के लिए आर्थिक प्रतिकर का दावा किया जाता है। परन्तु कानूनी क्षति न तो वास्तविक क्षति के समान है और न ही यह आवश्यक है कि यह आर्थिक क्षति के रूप में हो।

      कानूनी क्षति न तो वास्तविक हानि से साम्य रखती है और न अनिवार्यतः आर्थिक हो होती है। वादी के अधिकार या सम्पत्ति पर किया गया आघात कानूनी क्षति होता है।

       कानूनी क्षति में निम्नलिखित बातें होनी आवश्यक हैं-

(1) किसी व्यक्ति द्वारा कानूनी अधिकार का अतिलंघन

(2) कानून की दृष्टि में अनुमानित क्षति या आघात

(3) क्षतिग्रस्त होने का वास्तविक प्रमाण तथा क्षतिग्रस्त व्यक्ति का नुकसानी पाने का अधिकार।

प्रश्न 13. संयुक्त अपकृत्यकर्ता से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Joint Tort-Feasors?

उत्तर- संयुक्त अपकृत्यकर्ता (Joint Tort Feasors) संयुक्त अपकृत्यकर्ता का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्ति जिन्होंने संयुक्त रूप से अर्थात् मिलकर कोई अपकृत्य किया हो। जब कई व्यक्ति किसी दोषपूर्ण या अनुचित कृत्य में सहायता करते हैं या राय देते हैं या निर्देश देते हैं या एक साथ कार्य करते हैं तो वे कानून की दृष्टि में संयुक्त अपकृत्यकर्ता होते हैं।

       उदाहरण- यदि ‘अ’, ‘ब’ की मानहानि करता है और बाद में ‘स’ भी ‘ब’ की मानहानि करता है तो ‘अ’ और ‘स’ स्वतन्त्र अपकर्ता होंगे और उनके विरुद्ध ‘ब’ अलग अलग मुकदमा चला सकता है। किन्तु यदि ‘अ’ और ‘स’ संयुक्त रूप से ‘ब’ की मानहानि करें तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता होंगे। इससे यह स्पष्ट है कि संयुक्त अपकृत्य करने के लिए एक अपकृत्यकर्ता के कार्य और दूसरे अपकृत्यकर्ता के कार्य में कोई सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए।

     संयुक्त अपकृत्यकर्ता के विषय पर विधि का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन सर्वप्रथम ‘कोर्स्क के मामले में किया गया था। इस मामले में दो जहाजों के आपस की टक्कर के कारण वादी का जहाज डूब गया था। न्यायालय ने निर्णय दिया था कि प्रतिवादीगण संयुक्त अपकृत्यकर्ता नहीं थे क्योंकि दोनों जहाजों के अलग-अलग स्वतन्त्र अपकृत्य के परिणामस्वरूप वादी के जहाज को क्षति पहुंची थी। अत: वे दोनों स्वतन्त्र रूप से उत्तरदायी थे। दोनों के विरुद्ध अलग-अलग कार्यवाही की जा सकती है।

     संयुक्त अपकृत्यों का संयुक्त दायित्व निम्नलिखित तीन अवस्थाओं में उत्पन्न होता है- (1) अभिकरण (Agency); (ii) प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious Liability); तथा (iii) संयुक्त कृत्य (Joint Action)।

       संयुक्त अपकृत्यकृर्ताओं का दायित्व संयुक्त भी होता है तथा पृथक् भी। यह क्षतिग्रस्त व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह या तो उनमें से सभी व्यक्तियों पर या कुछ पर या एक पर मुकदमा चला सकता है।

प्रश्न 14. प्रतिनिहित दायित्व से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Vicarious Liability?

उत्तर- प्रतिनिहित दायित्व (Vicarious Liability)- सामान्य नियम यह है कि कोई व्यक्ति अपने अपकृत्यों के लिए उत्तरदायी होता है, परन्तु कुछ ऐसी भी परिस्थितियाँ होती हैं जबकि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा किये गये अपकृत्य के लिए भी उत्तरदायी होता है। ऐसे दायित्व को ‘प्रतिनिहित दायित्व’ (Vicarious Liability) कहते हैं। ऐसे दायित्व में प्रमुख स्थान स्वामी का आता है, जो अपने सेवक (Servant) द्वारा किये गये अपकृत्य के लिए कानून की दृष्टि में उत्तरदायी ठहराया जाता है।

       सेवक के अपकृत्य के लिए स्वामी तथा अभिकर्ता (Agent) के अपकृत्य के लिए प्रधान या मालिक (Principal) का दायित्व, प्रतिनिहित दायित्व के अन्तर्गत आता है।

प्रतिनिहित दायित्व तीन प्रकार से उत्पन्न होते हैं-

(1) अनुसमर्थन से (By Ratification)

(2) विशेष सम्बन्ध के कारण

(Out of Special Relationship)

(3) दुष्प्रेरण से (By abetment)।

        यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ओर से बिना अधिकार पाये ही कोई कार्य करता है और बाद में वह अन्य व्यक्ति उस कार्य का अनुसमर्थन कर देता है तो वह (अन्य व्यक्ति) उस कार्य के लिए उत्तरदायी हो जाता है, भले ही वह कार्य उसके लिए लाभ का हो अथवा हानि का। इस प्रकार के दायित्व में निम्नलिखित शर्तों का होना आवश्यक होता है

(a) अनुसमर्थन करने वाले व्यक्ति को कृत्य के अपकृत्यपूर्ण होने के बारे में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।

(b) अनुसमर्थन स्पष्ट होना चाहिए।

(c) गलत और गैर-कानूनी कार्यों का अनुसमर्थन नहीं होता है।

      कभी-कभी दो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्ध इस प्रकार के होते हैं कि विधि एक के द्वारा किये गये अपकृत्य के लिए दूसरे को उत्तरदायी मानती है। ऐसे सम्बन्धों के उदाहरण हैं-

(1) स्वामी तथा सेवक (Master and Servant);

(2) स्वामी तथा स्वतन्त्र ठेकेदार (Owner and Independent Contractor);

(3) मालिक तथा एजेण्ट (Principal and Agent);

(4) कम्पनी तथा उसके निदेशक (Company and its Directors);

(5) फर्म तथा उसके साझीदार (Firm and its Partners)        स्मरणीय है कि जो व्यक्ति अपकृत्य को उत्तेजित करते हैं और अपकृत्य करने में सहायक होते हैं, वे भी अपने विरुद्ध मुकदमा चलाये जाने के लिए उत्तरदायी होते है

प्रश्न 15. गर्भस्थ शिशु Child in Womb.

उत्तर- गर्भस्थ शिशु (Child in Womb)- माँ के गर्भ में रहने के दौरान हुई क्षति के लिये अजात शिशु पैदा होने पर वाद नहीं ला सकता है। न तो इंग्लैण्ड और न ही भारत में इस विषय पर किसी न्यायालय का कोई विनिश्चय है। यह समस्या सर्वप्रथम आयरलैण्ड के एक मामले वाकर बनाम ग्रेट नार्दर्न रेलवे ऑफ नार्दर्न आयरलैण्ड, (1890) 28 एल० आर० (आयरलैण्ड) 69 के सामने आयी। इस मामले में एक गर्भवती स्त्री प्रतिवादी (रेलवे कम्पनी) की रेलगाड़ी से यात्रा कर रही थी। रेल दुर्घटना होने के कारण वह घायल हो गई जिसके परिणामस्वरूप उसके एक वदशक्त लड़का पैदा हुआ। अजात शिशु की ओर से कम्पनी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अज्ञात शिशु को नुकसानी का वाद चलाने का अधिकार नहीं था। डॉक्टर केनी इस सिद्धान्त का समर्थन दो आधारों पर करते हैं- (1) जो बच्चा अभी पैदा नहीं हुआ है वह कानून की दृष्टि में व्यक्ति नहीं होता, (2) यदि यह मान भी लिया जाय कि वह एक ‘विधिक व्यक्ति’ था तो भी सामान्य रूप से अनुचित कार्य करने वाले को उसको उपस्थिति का कोई ज्ञान नहीं हो सकता।

      किन्तु सामण्ड इस मत से सहमत नहीं हैं। वे इस बात का समर्थन करते हैं कि माँ के गर्भ में रहने वाले बच्चे को भी हुई क्षति के लिये नुकसानी पाने का अधिकार देना चाहिये। अधिकतर न्यायविद् सामण्ड के इस विचार से सहमत हैं।

प्रश्न 16. आत्म सुरक्षा |   Self Defence.

उत्तर- आत्म सुरक्षा (Self Defence)—प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर तथा सम्पत्ति की सुरक्षा करने का विधिक अधिकार प्राप्त है और ऐसा करने के लिए वह आवश्यक शक्ति तथा बल का भी प्रयोग कर सकता है। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर तथा सम्पत्ति की रक्षा करते हुए आवश्यक बल का प्रयोग करता है और किसी को क्षति पहुँचाता है तो उसके विरुद्ध कोई भी कार्यवाही नहीं की जा सकती है।

      आत्म-रक्षा में प्रयोग की गयी शक्ति के लिए दो शर्तें हैं- प्रथम यह कि आत्म-रक्षा में बल प्रयोग तभी न्यायोचित होगा जब व्यक्ति के शरीर और सम्पत्ति की कोई आसन्न खतरा उत्पन्न हो गया हो। दूसरा यह कि बल प्रयोग उपर्युक्त परिस्थितियों में जितना आवश्यक हो उतना ही किया जाये अर्थात् बल प्रयोग सम्भावित हानि के अनुपात से अधिक नहीं होना चाहिए, जैसे यदि मुझे कोई चाँटा मारता है तो आत्म-रक्षा में मैं उसके विरुद्ध तलवार या बन्दूक का प्रयोग नहीं कर सकता। उपर्युक्त परिस्थितियों में किसी व्यक्ति द्वारा अपने शरीर तथा सम्पत्ति की रक्षा में आवश्यक बल का प्रयोग किया गया है या नहीं इस बात का निर्धारण एक कठिन बात है। इसे प्रत्येक बाद के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है कि बल प्रयोग उचित अनुपात में हुआ है या आवश्यकता से अधिक हुआ है। बल का प्रयोग अत्यधिक नहीं किया जाना चाहिए।

     मौरिस बनाम न्यूजेन्ट, (1836) 7 सी० एण्ड पी० 572 के मामले में प्रतिवादी जब वादी के मकान के सामने से जा रहा था तो उसने वादी के कुत्ते को मारने के लिए बन्दूक उठाया तो कुत्ता भाग गया। किन्तु जब कुत्ता वापस लौट रहा था तो प्रतिवादी ने उसे गोली मार दिया निर्णय दिया गया कि उसका यह कार्य विधिमात्य नहीं था क्योंकि उसने कुत्ते को गोली तब मार जब वह हमला नहीं कर रहा था अतः उसने बल प्रयोग आवश्यकता से अधिक किया था।

      भारतीय दण्ड संहिता की धारा 97 से 106 तक में आत्मरक्षा से सम्बन्धित उपबन्ध दिये गये हैं।

प्रश्न 17. “क्षति की दूरवर्तिता का सिद्धान्त।” “Doctrine of Remoteness. “

उत्तर- क्षति की दूरवर्तिता के सिद्धान्त (Doctrine of Remoteness) – क्षति की दूरवर्तिता के सिद्धान्त के अनुसार वे क्षतियाँ दूरवर्ती (Remote) अर्थात् सुदूर मानी जाती हैं जहाँ प्रतिवादी के कृत्य और उस कृत्य के परिणाम में ऐसा सम्बन्ध होता है जिसे सीधा सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता। इसको प्राकृतिक एवं सम्भावित परिणामों का सिद्धान्त (Doctrine of Natural and Probable Consequences) भी कहा जाता है। इसका सम्बन्ध उपेक्षापूर्ण विधि से बहुत अधिक है और समय-समय पर न्यायिक निर्णयों द्वारा इसमें काफी परिवर्तन हुए हैं। यह सिद्धान्त इस प्रकार है-विधि में समीप की और पास की किसी घटना के कारण पर विचार किया जाता है, दूर के कारण पर नहीं (In jure non remota causa sed proxima spectatur f In law the immediate and not the remote cause of any event is to be considered.

       अतः कानून में जहाँ क्षति प्रतिवादी के कार्य का प्रत्यक्ष तथा सीधा परिणाम नहीं है वहाँ उसे दूरवर्ती क्षति कहा जाता है और प्रतिवादी उसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है। क्षति प्रतिवादी के कृत्य का सीधा स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए। मनुष्य अपने कृत्य के स्वाभाविक परिणाम की कल्पना रखता है, दूर के परिणाम की नहीं। दायित्व उसी कृत्य के लिए होना चाहिए जिसका क्षति से समीप का और सीधा सम्बन्ध हो।

प्रश्न 18 “सहमति से क्षति नहीं होती।”

“Volenti non fiu Injuria.”

उत्तर- सहमति से क्षति नहीं होती (Volenti non fit Injuria)– इस सूक्ति ‘Volenti Non fit Injuria’ का अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति जो किये जाने वाले कार्य के प्रति अपनी सहमति देता है या वह क्षति सहने का खतरा अपने ऊपर मोल लेता है वह उस कार्य या क्षति के विषय में कोई कार्यवाही नहीं कर सकता है।

उदाहरण- जब एक व्यक्ति मुक्केबाजी या कुश्ती की प्रतियोगिता में भाग लेता है या किसी मानहानिकारक वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति देता है वहाँ यह सूक्ति ‘सम्मत कार्य से क्षति नहीं होतो’ लागू होगा। इस प्रकार के बाद में प्रतिवादी यह प्रतिरक्षा (Defence) ले सकता है कि वादी ने किये जाने वाले कार्य की सहमति दी थी।

      स्वेच्छा से उठाई गई बड़ी से बड़ी हानि के लिए कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।

स्वेच्छा से उठाई गई हानि के लिए सहमति दो प्रकार से दी जा सकती है-

(क) अभिव्यक्त सहमति (Expressed Consent);

(ख) विवक्षित सहमति (Implied Consent)

Volenti Non fit Injuria के सूत्र को लागू होने के लिए निम्नलिखित शर्तें आवश्यक-

(1) सहमति स्वेच्छा से दी गई हो;

(2) कार्य प्रणाली वैध होनी चाहिए;

(3) खतरे के ज्ञान मात्र से सहमति की उपधारणा नहीं की जानी चाहिए।

     प्रथम शर्त के लिए यह आवश्यक है कि सहमति स्वेच्छा से दी गई हो। अर्थात् सहमति धोखा, दुर्व्यपदेशन, उत्पीड़न आदि गलत तरीकों से न प्राप्त की गई हो।

       जिस कार्य के लिए सहमति दी गई हो, वह गैर कानूनी नहीं होना चाहिए। जैसे-तेज धार वाले हथियारों से द्वन्द्वयुद्ध करना या मुक्केबाजी में भाग लेना आदि। इसी प्रकार मात्र खतरे का ज्ञान होने से खतरा उठाने के लिए सहमति नहीं मान ली जाती है। (Knowledge does not necessarily imply consent) !

प्रश्न 19. राज्य कृत्य से आप क्या समझते हैं? What do you understand by acts of State?

उत्तर- राज्य कृत्य (Acts of State)- सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार, “राज्य कृत्य राजाओं या विदेशी स्वतन्त्र राज्यों के शासकों द्वारा किये गये या अपनाये गये वे कार्य हैं जिन्हें वे अपनी राजनीतिक और सार्वभौम सत्ता की शक्ति और प्राप्त राजनैतिक सत्ता के अन्तर्गत करते हैं।” अर्थात् यह वह कार्य है जो शासक या सम्राट अपने विशेषाधिकार के प्रयोग के सम्बन्ध में व्यवहार में लाता है। वास्तव में यह सार्वभौम सत्ता का प्रयोग है।

स्मरणीय रहे कि ऐसे तीन अपवाद अवश्य हैं जिनमें सरकार को दायित्वपूर्ण माना जाता है-

(i) जहाँ अचल सम्पत्ति पर अनधिकार कब्जा कर लिया गया हो।

(ii) जहाँ कानून द्वारा कर्तव्य भार आरोपित किया गया हो। (iii) जहाँ यह सिद्ध हो जाये कि राज्य कर्मचारी द्वारा किये गये अपकृत्य से सरकार लाभान्वित हुई हैं।

प्रश्न 20 हेतु से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Motive?

उत्तर- हेतु (Motive)-कोई कृत्य बुरे हेतु से किये जाने के कारण गैर-कानूनी नहीं कहा जा सकता है। यदि वह कृत्य कानूनी (Legal) था तो वह कानूनी ही रहेगा, चाहे उसे करने का हेतु कुछ भी हो इसी प्रकार यदि कोई कार्य गैर कानूनी है तो वह केवल इस कारण कानूनी नहीं हो जाता है कि उसे अच्छे हेतु से किया गया है। किसी कृत्य में महत्व कार्य का होता है, हेतु का नहीं।

       विधिशास्त्र सामण्ड (Salmond) ने हेतु को एक दूरस्थ आशय बताया है, जो शीघ्र प्रकट न हो वरन् पृष्ठभूमि में पड़ा हो। सामान्य रूप से यह निर्णय करने के लिए ‘कोई कार्य अपकृत्य है या नहीं ‘ हेतु असंगत माना जाता है।

प्रश्न 21. क्षति एवं क्षतिपूर्ति। Damage and Damages.

उत्तर- क्षति एवं क्षतिपूर्ति (Damage and Damages) क्षति (damage)- प्रतिवादों के कृत्य का प्रत्यक्ष परिणाम होती है। किन्तु क्षति (damage) और क्षतिपूर्ति (damages) में अन्तर है। क्षति से तात्पर्य प्रतिवादी के दोषपूर्ण कार्य से किसी व्यक्ति को हुई हानि से है जबकि इस हानि के लिए जो प्रतिकर वादी को न्यायालय द्वारा प्रदान किया जाता है, उसे क्षतिपूर्ति या नुकसानी कहते हैं।

       क्षति के लिए जो प्रतिकर वादी को न्यायालय । प्रदान किया जाता है उसे ‘नुकसानी’ कहते हैं ‘क्षति’ का तात्पर्य किसी विधिक अधिकार के अतिक्रमण से है, और उस अधिकार के अतिक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न नुकसानी से होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी का अपमान करता है तो वह एक ‘क्षति’ है क्योंकि यह विधिक अधिकार का अतिक्रमण है इससे वह उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर समाज में आघात पहुंचाता है, यह ‘हानि’ है। इस हानि की क्षतिपूर्ति के लिए जो धनराशि न्यायालय प्रदान करता है उसे नुकसानी कहते हैं।

प्रश्न 22 अवश्यम्भावी घटनाएं क्या हैं? What are Inevitable Accidents?

उत्तर – अवश्यम्भावी घटनाएँ (Inevitable Accidents)- सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार, ” अवश्यम्भावी दुर्घटना वह घटना होती है, जिसे साधारण बुद्धि का व्यक्ति उन परिस्थितियों में आवश्यक सावधानी या सतर्कता बरतने के बावजूद भी रोक नहीं सकता जिनमें वह घटित होती है।”

      ये ऐसे कार्य हैं जिन्हें व्यक्ति साधारण बुद्धि और आवश्यक सतर्कता से भी उन परिस्थितियों में रोक नहीं सकता जिनमें ये घटित हुए। यदि सतर्कतापूर्ण ढंग से किये गये किसी कानूनी कार्य से कोई क्षति होती है और ऐसी परिस्थिति में होती है जो रोकी नहीं जा सकती थी तो नुकसानी का मुकदमा चलाने का अधिकार नहीं बनता है। मनुष्य को सम्भावित घटनाओं के प्रति जागरूक रहना चाहिए, कल्पित घटनाओं के प्रति नहीं।

     अवश्यम्भावी घटनाओं के सभी कारणों को दो रूपों में विभाजित किया जाता है-

(i) चे कार्य जो प्राकृतिक शक्तियों के द्वारा घटित होते हैं और जिनका मनुष्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

(ii) वे कार्य जो अंशतः या पूर्णतः मनुष्य से सम्बन्धित होते हैं, अर्थात् मनुष्य द्वारा या मनुष्य की गलती से होते हैं या मनुष्य की ऐसी क्रिया से होते हैं जिनका प्राकृतिक शक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 23. अपकृत्य विधि के लिए न्यायिक उपचार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। Write short note on the Judicial Remedies of Torts.

उत्तर- अपकृत्य के लिए न्यायिक उपचार (Judicial Remedies for Torts)—ये वे उपचार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को कानून के अनुसार प्राप्त हैं। क्षतिग्रस्त पक्ष न्यायालय में दावा करके नुकसानी पा सकते हैं। इस प्रकार के न्यायिक उपचारों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) नुकसानी (Damages):

(2) व्यादेश या निषेधाज्ञा (Injunctions);

(3) सम्पत्ति की पुनर्प्राप्ति (Specific restitution of property)।

प्रश्न 24. हमला या आक्रमण को परिभाषित कीजिये। Define Assault.

उत्तर हमला या आक्रमण (Assault) – हमला का अर्थ है किसी व्यक्ति के शरीर पर गैर-कानूनी ढंग हाथ छोड़ना या किसी को साशय शारीरिक चोट पहुँचाने के लिए प्रयत्न करना। हमले में शरीर से वास्तविक सम्पर्क होना आवश्यक नहीं है लेकिन, मात्र धमकी हमला नहीं होती। जब तक धमकी को प्रभावी बनाने के लिए साधन न हो तब तक धमकी हमला नहीं होती। शब्द बोलने मात्र से हमला नहीं होता। आशय तथा कृत्य दोनों को मिलाकर हमला गठित होता है।

     डॉ० विनफील्ड के अनुसार, “प्रतिवादी का वह कार्य हमला कहा जा सकता है जो वादी के मन में ऐसी युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न कर दे कि प्रतिवादी उस पर प्रहार करेगा।” इसी क्रम में सर फ्रेडरिक पोलक कहते हैं कि “सभ्य समाज में व्यक्ति के शरीर की सुरक्षा प्रथम आवश्यकता है। कानून केवल वास्तविक आघात और हिंसा से ही रक्षा नहीं करता वरन् प्रत्येक शारीरिक हस्तक्षेप और अनुचित रुकावट के विरुद्ध भी रक्षा करता है तथा उपर्युक्त किसी कारण से उत्पन्न होने वाले भय से भी बचाता है।”

प्रश्न 25. ‘प्रहार’ को समझाइए। Explain Battery.

उत्तर- प्रहार (Battery)- किसी व्यक्ति के शरीर को उसकी इच्छा के विरुद्ध वास्तविक रूप से आघात पहुँचाना, क्रुद्ध होकर बदले की भावना या अभद्र तरीके से छूना प्रहार (Battery) कहलाता है। प्रहार में दूसरे के शरीर का वास्तविक स्पर्श आवश्यक हैं। इसका कोई महत्व नहीं है कि बल सीधा या अन्य प्रकार से प्रयोग किया गया हो, या हाथ के प्रयोग से या हथियार से किया गया हो। यदि प्रतिवादी ने वादी के शरीर का स्पर्श किसी अन्य वस्तु के माध्यम से भी किया है तो भी उसका कृत्य प्रहार के अन्तर्गत आ जाता है। किसी व्यक्ति के ऊपर जानबूझ कर पानी फेंकना प्रहार (Battery) का एक रूप है।

       अतः बिना किसी विधिक कारण के किसी व्यक्ति के शरीर पर बल प्रयोग करना प्रहार या मारपीट माना जाता है, चाहे बल प्रयोग का ढंग या मात्रा कितनी भी कम क्यों न हो। किसी के हाथ से कागज छीन लेना या असावधानीपूर्वक बन्दूक चलाते हुए किसी को चोट पहुँचाना आदि सभी क्रियाएँ प्रहार मानी जाती हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 350 में प्रहार एक अपराध माना जाता है।

प्रश्न 26. प्रहार तथा संप्रहार में अन्तर बताइए। Distinguish between assault and battery.

प्रहार एवं संप्रहार में अन्तर

(Distinction between Assault and Battery)

हमला (Assault) या आक्रमण

(1) किसी के मन में प्रहार का युक्तियुक्त भय या आशंका उत्पन्न करना आक्रमण या हमला है।

(2) आमतौर पर प्रहार से पूर्व हमला या आक्रमण अवश्य होता है सिवाय उन मामलों में जहाँ प्रहार पीछे से किया जाय या प्रहार सोने की अवस्था (Sleeping Position) में किया गया हो।

(3) हमले में शरीर का स्पर्श आवश्यक तत्व नहीं है।

(4) हमला या आक्रमण को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 351 में अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है।

प्रहार (Battery)

(1) किसी के शरीर को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना किसी विधिक औचित्य के स्पर्श करना प्रहार है।

(2) प्रहार, आक्रमण के बाद की प्रक्रिया है। पहले आक्रमण होता है तब प्रहार होता है।

(3) प्रहार में शरीर का स्पर्श आवश्यक तत्व होता है।

(4) प्रहार को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 350 में अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है।

 

प्रश्न 27. ‘मिथ्या कारावास’ से आप क्या समझते हैं? What do you understand by False Imprisonment?

उत्तर- मिथ्या कारावास (False Imprisonment)- मिथ्या कारावास या बन्दीकरण किसी व्यक्ति की शारीरिक स्वतन्त्रता पर बिना किसी विधिक औचित्य के पूर्ण अवरोध लगाना है, चाहे वह कितने ही थोड़े समय के लिए क्यों न हो। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बिना विधिक औचित्य के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करना या बन्द कर देना ‘मिथ्या कारावास’ कहलाता है।

      मिथ्या कारावास के रूप में किया गया अवरोध शारीरिक हो सकता है या अधिकार प्रदर्शन द्वारा किया जा सकता है लेकिन व्यक्ति की स्वतन्त्रता में पूर्ण बाधा होनी चाहिए।

प्रश्न 28 अचल सम्पत्ति के प्रति अपकृत्य क्या है? What is Torts relating to Immovable Property?

उत्तर- अचल सम्पत्ति के प्रति अपकृत्य (Torts relating to Immovable Property) – किसी व्यक्ति की भूमि पर या घर में गलत ढंग से प्रवेश करना या उसके कब्जे में बाधा पहुँचाना अतिचार (Trespass) कहलाता है। संकुचित अर्थ में अनधिकार प्रवेश का अर्थ भूमि पर अनधिकार प्रवेश से लिया जाता है जबकि विस्तृत अर्थ में इसे स्वामित्व के अधिकार में अनाधिकार हस्तक्षेप भी मानते हैं। इस प्रकार किसी के कब्जे में बाधा पहुंचाने के कृत्य को अतिचार कहा जा सकता है। किसी भी भूमि में उसके स्वामी की इच्छा के प्रतिकूल प्रवेश करना अथवा किसी प्रकार की बाधा पहुँचाना अनधिकार प्रवेश माना जाता है। यदि कोई जमीन किसी व्यक्ति के कब्जे में है तो उसमें से किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा अनुमति के बिना मिट्टी निकालना भी अतिचार होगा। बिना विधिक औचित्य के किसी की जमीन पर पैर रखना भी अतिचार है, भले ही कोई क्षति न हुई हो लेकिन जमीन का अतिचार स्वतः अभियोज्य (actionable per se) होता है। अतिचार या तो भूमि में प्रवेश करके किया जा सकता है। अथवा किसी वस्तु के माध्यम से।

उदाहरण- किसी की दीवार में कील गाड़ना, किसी की दीवार पर लिखना, किसी की जमीन पर पत्थर फेंकना, किसी के छत मलबे छोड़ना आदि अतिचार है। इसी प्रकार यदि किसी मकान का स्वामी ऐसे मकान के उस दरवाजे अथवा खिड़की को हटाता है जो किरायेदार के कब्जे में है तो अतिचार कहलायेगा।

      अनधिकार प्रवेश की कार्यवाही में निम्नलिखित प्रतिवाद हो सकते हैं-

(1) चिरभोग (Prescription);

(2) अनुमति (Leave) एवं अनुज्ञप्ति (Licence);

(3) विधिक अधिकार (Authority of Law)

प्रश्न 29. चल सम्पत्ति के प्रति अपकृत्य क्या है? What is Torts relating to Movable Property?

उत्तर- चल सम्पत्ति के प्रति अपकृत्य (Torts relating to movable property) — चल सम्पत्ति के प्रति अतिचार चल सम्पत्ति के कब्जे में अनुचित हस्तक्षेप को कहते हैं। इसके विविध रूप हो सकते हैं, जैसे-कार से टायर निकालना, कार को गैरेज से हटाना, वस्तुओं को आघात पहुँचाना या नष्ट करना, अथवा पशुओं को पीटना अथवा मार डालना। यह एक अवैधानिक कार्य है जिसमें माल को पकड़ कर या हटा कर या सीधा नुकसान पहुँचा कर किसी की सम्पत्ति को हानि पहुँचायी जाती है।

     चल सम्पत्ति के अपकृत्य के लिए वादी को यह सिद्ध करना चाहिए कि –

(1) वह चल सम्पत्ति पर वास्तविक या आन्वयिक (Constructive) अधिकार रखता था।

(2) यह कि वादी के सम्पत्ति के कब्जे के अधिकार में गलत ढंग से बिना विधिक औचित्य के हस्तक्षेप किया गया है और यह हस्तक्षेप प्रतिवादी ने किया है या करवाया है।

     अतिचार कब्जे में हस्तक्षेप को कहते हैं, अतएव यदि वादी हस्तक्षेप के समय कब्जा नहीं रखता है, तो वह अतिचार के लिए वाद नहीं चला सकता है।

प्रश्न 30 आरम्भतः अतिचार से आप क्या समझते हैं? What do you understand by trespass ab initio?

उत्तर – प्रारम्भ से ही अतिचार (Trespass ab initio)- प्रो० विनफील्ड के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी की भूमि पर कानूनी अधिकार से प्रवेश करता है किन्तु बाद में वह इस अधिकार का दुरुपयोग करता है और उसकी भूमि पर बना रहता है तो उसे प्रारम्भ से हो अतिचारी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति के कृत्य को प्रारम्भ से ही अपकृत्य माना जाता है, भले ही दुरुपयोग के समय तक उसका आचरण कितना ही निर्दोष न रहा हो।

प्रश्न 31. ‘सम्परिवर्तन’ क्या है? What is “Conversion”?

उत्तर- सम्परिवर्तन (Conversion) सम्परिवर्तन से तात्पर्य है किसी की वस्तुओं को अनुचित रूप से परिवर्तित कर लेना। जैसे-भूमि को धन के रूप में जिससे कि वह व्यक्ति स्वामित्व से वंचित हो जाय। सामण्ड द्वारा इसको सही ढंग से परिभाषित किया गया है कि, “सम्परिवर्तन जानबूझ कर किया गया वह कार्य है जिससे किसी की वस्तुओं में बिना विधिक औचित्य के हस्तक्षेप किया जाता है जिसके फलस्वरूप वह व्यक्ति उस वस्तु के कब्जे का उपयोग करने से वंचित हो जाए।”

प्रश्न 32. उपेक्षा या असावधानी से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Negligence? 

उत्तर-उपेक्षा या असावधानी (Negligence) अपकृत्य विधि के अन्तर्गत उपेक्षा या असावधानों को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। सामण्ड के अनुसार, यह सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उन मामलों में उल्लंघन है जिसमें कानून द्वारा सावधानी बरतना अनिवार्य है। आस्टिन के अनुसार, असावधानी मस्तिष्क को एक दोषपूर्ण अवस्था है जिसमें दण्डस्वरूप क्षतिपूर्ति देनी पड़ती है।

      उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि असावधानी, सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उन मामलों में उल्लंघन है जिसमें कानून द्वारा सावधानी बरतना अनिवार्य है जिसके परिणामस्वरूप वादी को क्षति पहुँचती है।

     किसी व्यक्ति को प्रत्येक असावधानी के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, भले ही उससे किसी को कितनी ही क्षति क्यों न पहुँची हो। उपेक्षा के मामले में प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराने के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि प्रतिवादी आवश्यक सावधानी बरतने के लिए विधि द्वारा कर्तव्यबद्ध था तथा उसने अपने इस विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया है जिसके परिणामस्वरूप वादी को क्षति पहुँची। विधिशास्त्री पोलक के अनुसार, जब तक सावधानी बरतने का कर्तव्य नहीं होता, असावधानी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। अतः यह स्पष्ट है कि जहाँ सावधानी बरतने का कोई विधिक कर्तव्य नहीं है, वहाँ इसके लिए कार्यवाही नहीं की जा सकती।

प्रश्न 33. विद्वेष । Malice.

उत्तर- विद्वेष (Malice) – अपकृत्यात्मक उत्तरदायित्व में विद्वेष दो तरह का होता है। पहला-विधि के अन्तर्गत विद्वेष (Malice in Law) दूसरा-तथ्य के अन्तर्गत विद्वेष जिसका साधारण अर्थ जानबूझ कर किया गया वह कार्य है जो बिना उचित कारण और प्रतिहेतु के किया गया हो। इसका भावार्थ किसी कार्य को करने के लिए अनुचित हेतु नहीं है।

     हाल्डेन महोदय ने विधि के अन्तर्गत विद्वेष को इस प्रकार स्पष्ट किया है -“यदि एक व्यक्ति विधि का उल्लंघन करते हुए किसी दूसरे व्यक्ति पर क्षति की प्रणीति करता है तो उसे

       यह कहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है कि उसने इस कार्य को निर्दोषपूर्ण मनःस्थिति से किया था, यह माना जाता है कि वह विधिक प्रावधानों को जानता था और उसे विधि के अन्तर्गत ही कार्य करना चाहिए था। अतः ‘वह विधि के अन्तर्गत विद्वेष का दोषी है, यद्यपि जहाँ तक उसकी मन:स्थिति का प्रश्न है, चाहे उनसे अनभिज्ञता में कार्य किया हो, और इस भावबोध के अन्तर्गत उसका कार्य निर्दोषिता से परिपूर्ण हो।”

(2) तथ्य के अन्तर्गत विद्वेष या बुरा प्रयोजन (Malice in fact or Evill Motive)- यहाँ पर ‘तथ्य के अन्तर्गत विद्वेष’ से तात्पर्य किसी दोषपूर्ण का बुरा प्रयोजन है प्रतिवादी, जब कोई दोषपूर्ण कार्य घृणा, प्रतिशोध अथवा बुरी इच्छा के प्रभाव में आकर करता है, तो यह कहा जाता है कि वह कार्य ‘दुर्भावना’ अथवा ‘विद्वेष’ से किया गया है।

प्रश्न 34 उपताप क्या है? What is Nuisance?

उत्तर- उपताप (Nuisance)– उपताप (Nuisance) फ्रेंच भाषा के शब्द ‘न्यूरे (Nuire) और लैटिन शब्द ‘नोसीरे’ (Nocere) से लिया गया जिसका अर्थ हानि पहुँचान या बाधा उत्पन्न करना होता है। विधिशास्त्री सामण्ड के अनुसार, उपताप का तात्पर्य उ कृत्यों से है जिनमें कोई व्यक्ति बिना किसी विधिक औचित्य के अपनी भूमि पर से दूसरे क भूमि पर क्षति पहुँचाने वाली वस्तुओं को जाने या पहुँचाने के लिए स्वीकृति प्रदान करता है।

     यद्यपि उपताप की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है परन्तु अपकृत्य विधि में गैर-कानू हस्तक्षेप को उपताप के रूप में माना गया है जो किसी के भूमि-सम्बन्धी उपयोग या उस प्राप्त अधिकार या उसके सम्बन्ध में बाधा डालता रहे।

     उपताप को एक अनुयोज्य अपकृत्य करने के लिए यह आवश्यक है कि –

(1) कोई गलत कार्य हुआ हो; तथा

(2) उससे दूसरे को क्षति हुई हो अथवा असुविधा तथा द्वेष उत्पन्न हुआ हो। स्मरणीय रहे कि केवल दूसरे तत्व की उपस्थिति से कोई विधिक कार्यवाही नहीं सकती है। उपताप की कार्यवाही के लिए उपर्युक्त दोनों बातों का होना आवश्यक न्यायालय को इसमें यह देखना होता है कि क्या उस व्यक्ति ने, जो कर्तव्य के अधीन है, व गलती किया है और उस व्यक्ति को, जिसके प्रति गलती की गई है, कोई विधिक अधि था कि उसके सुख सुविधा में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचायी जाये।

उपताप दो प्रकार का होता है-

(i) लोक उपताप (Public Nuisance) तथा

(ii) व्यक्तिगत उपताप (Private Nuisance)

प्रश्न 35. सार्वजनिक उपताप से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Public Nuisance?

उत्तर- सार्वजनिक उपताप (Public Nuisance)- सार्वजनिक उपताप वह अ कृत्य है जिससे जनता के जीवन, सुरक्षा, स्वास्थ्य, सम्पत्ति या सुविधा के लिए संकट पैट या जिससे जनता के सामान्य सामाजिक अधिकारों के उपयोग में बाधा पहुँचती है। ऐसे व से जन-साधारण के ऊपर प्रभाव पड़ता है और समाज के सदस्यों के उपयोग किये जाने अधिकारों में हस्तक्षेप होता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 के अधीन सार्वजनिक उपताप एक दण्डनीय अपराध है। लोक न्यूसेन्स में अवरोध का पूर्ण होना आवश्यक नहीं है। केवल यही पर्याप्त है कि अवरोध युक्तिसंगत नहीं है। सिनेमा के टिकट खरीदने के लिए सड़क तक लाइन लगाना, सड़क पर काफी समय तक मोटर को छोड़ देना आदि पूर्ण अवरोध न होते हुए भी उपताप है क्योंकि अन्य लोगों को इससे असुविधा होती है।

प्रश्न 36 प्राइवेट उपताप व लोक उपताप में अन्तर कीजिए। Distinguish between Private Niusance and Public Nuisance.

उत्तर- लोक उपताप (Public Nuisance) – ऐसा विधि-विरुद्ध कृत्य जिससे जन सामान्य को जीवन, सुरक्षा, स्वास्थ्य और सम्पत्ति के लिए खतरा, आघात, व्यवधान या क्षोभ उत्पन्न हो या लोक अधिकारों में अवरोध उत्पन्न हो, लोक उपताप कहलाता है।

    प्राइवेट न्यूसेन्स- किसी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों की सुख सुविधा, स्वास्थ्य अथवा सम्पत्ति में किये गये अनुचित हस्तक्षेप को प्राइवेट न्यूसेंस कहते हैं। प्राइवेट न्यूसेंस का प्रभाव व्यक्ति या व्यक्तियों पर पड़ता है। प्राइवेट न्यूसेंस में प्रतिवादी द्वारा किए गये कृत्यों का अवैध होना आवश्यक नहीं है। प्राइवेट न्यूसेंस प्रतिवादी द्वारा अपनी भूमि पर तब किया जा सकता है जब प्रतिवादी के कार्यों का परिणाम उसकी भूमि तक सीमित न रहकर वादी की भूमि तक पहुँच जाता है।

लोक उपताप और प्राइवेट उपताप में अन्तर –

लोक उपताप –

(1) आपराधिक और विशेष परिस्थितियों में दीवानी दोनों प्रकार की कार्यवाहियों से सम्बन्धित होता है।

(2) लोक उपताप की दशा में महाधिवक्ता या न्यायालय की अनुमति से दो या अधिक व्यक्ति कार्यवाही कर सकते हैं ।

(3) लोक उपताप का प्रभाव सामान्य जनता या बहुत से लोगों पर पड़ता है।

(4) आपराधिक उपचार तथा विशेष परिस्थितियों में दीवानी उपचार उपलब्ध होता है।

 

प्राइवेट उपताप –

(1) केवल दीवानी कार्यवाही से सम्बन्धित होता है।

(2) जिस व्यक्ति को उपताप से हानि पहुँची है, वह वाद कर सकता है।

(3) प्राइवेट उपताप का प्रभाव एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों पर पड़ता है।

(4) उपशमन, नुकसानी और व्यादेश का उपचार उपलब्ध होता है।

प्रश्न 37. योगदायी उपेक्षा क्या है? What is Contributory Negligence?

अथवा (or)

संयुक्त लापरवाही ।

Contributory Negligence.

उत्तर- योगदायी उपेक्षा (Contributory Negligence)– योगदायी उपेक्षा से तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति को हानि होती है वह स्वयं भी कुछ उपेक्षा या असावधानी का दोषी है और उसने हानि में कुछ योगदान किया है। ऐसे मामलों में न्यायालय नुकसानी की मात्रा को दोनों पक्षकारों के अनुपात में विभाजित कर देता है जैसा कि वह उचित समझता है।

       कभी-कभी दुर्घटना वादी एवं प्रतिवादी दोनों की उपेक्षा से होती है। ऐसे मामलों में प्रतिवादी अपने बचाव में यह कह सकता है कि घटना वादी की उपेक्षा के कारण घटी। प्रतिवादी की उपेक्षा में बादी की उपेक्षा के योगदान को योगदायी उपेक्षा या अंशदायी असावधानी कहते हैं।

        योगदायी उपेक्षा का सिद्धान्त एक प्रसिद्ध सूत्र In jure non remote causa and proxima specture’ पर आधारित है। इसका अर्थ यह है कि विधि में निकट के कारणों पर ध्यान दिया जाता है, दूर के कारणों पर नहीं अर्थात् वादी को हुई क्षति प्रतिवादी की उपेक्षा का प्रत्यक्ष परिणाम होना चाहिए।

      प्रतिवादी की उपेक्षा में वादी की उपेक्षा के योगदान को योगदायी उपेक्षा कहते हैं। योगदायी उपेक्षा सिद्ध करने का भार प्रतिवादी पर होता है।

निम्नलिखित मामलों में योगदायी उपेक्षा बचाव नहीं होती है –

(1) वादी का दूसरे की सावधानी पर विश्वास करने का अधिकार;

(2) जब प्रतिवादी के पास दुर्घटना को टालने का अवसर हो;

(3) वैकल्पिक ख़तरे का सिद्धान्त;

(4) बच्चों की असावधानी के मामले में,

(5) सामुद्रिक विधि के मामले में।

प्रश्न 38 कठोर दायित्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। Write short note on the Strict Liability.

उत्तर- कठोर दायित्व (Strict Liability)– कठोर दायित्व का नियम सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में 1868 ई० में हाउस ऑफ लाईस द्वारा ‘राइलैण्ड बनाम फ्लैचर’ के वाद में सृजित किया गया। अतः इसे राइलैण्ड बनाम फ्लैचर का नियम भी कहा जाता है। राइलैण्ड बनाम फ्लैचर, में सृजित नियम को ‘कठोर दायित्व का नियम’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसके अन्तर्गत प्रतिवादी के दोषयुक्त आचरण के बिना ही उसका दायित्व उत्पन्न होता है। स्मरणीय रहे कि कई आपवादिक परिस्थितियों में इस नियम के अन्तर्गत दायित्व उत्पन्न नहीं होता इसलिए इसे पूर्ण दायित्व का नियम नहीं कहते हैं।

        राइलैण्ड बनाम फ्लैचर के वाद में यह नियम प्रतिपादित किया गया कि वह व्यक्ति जो अपने ही प्रयोजन के लिए अपनी भूमि पर कोई वस्तु लाता है या संचय करता है, जो यदि निकल जाये तो हानिकर हो, प्रथम दृष्ट्या उस समस्त हानि के लिए उत्तरदायी है जो उस वस्तु के निकल जाने का स्वाभाविक परिणाम हो, चाहे उसने उपेक्षा बरती हो या नहीं।

      कठोर दायित्व के नियम के प्रवर्तन के लिए निम्नलिखित तीन संघटकों की आवश्यक है –

(1) व्यक्ति द्वारा भूमि पर कुछ खतरनाक वस्तु का लाना;

(2) लाई गई वस्तु का सीमा से बाहर निकालना;

(3) भूमि का असहज-अस्वाभाविक प्रयोग।

      इस नियम के अन्तर्गत दायित्व कठोर (Strict) होता है, आत्यन्तिक (Absolute) नहीं क्योंकि आत्यन्तिक दायित्व के अन्तर्गत किसी भी परिस्थिति में दायित्व से मुक्ति मिल सकती है जबकि कुछ आधारों पर कठोर दायित्व ढीला हो सकता है। ‘राइलैण्ड्स बनाम फ्लैचर’ और कुछ पश्चात्वर्ती निर्णयों द्वारा कठोर दायित्व के नियम के निम्नलिखित अपवाद मान्य किये गये हैं –

(1) वादों का स्वयं का दोष; (2) दैवीकृत (3) वादी की सम्मति; (4) तृतीय पक्षकार का कार्य; (5) सांविधानिक प्राधिकार

प्रश्न 39: पूर्ण दायित्व की व्याख्या कीजिए। Discuss absolute liability.

उत्तर पूर्ण दायित्व (absolute liability)–‘पूर्ण दायित्व का नियम’ भारत में उच्चतम न्यायालय द्वारा एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, (1987) के वाद में सृजित किया गया, इसलिए इसे ‘एम० सी० मेहता का नियम’ भी कहा जाता है। इसको पूर्ण दायित्व का नियम इसलिए कहते हैं क्योंकि इसके अन्तर्गत बिना किसी दोष के भी दायित्व उत्पन्न होता है तथा इस नियम के अन्तर्गत वह अपवाद मान्य नहीं है जो कि रायलैण्ड्स बनाम फ्लैचर के कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत मान्य है।

      ‘पूर्ण दायित्व के नियम’ के अनुसार यदि किसी उद्योग किसी ऐसे खतरनाक अथवा स्वभाव से संकटपूर्ण व्यवसाय में रहा है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को भय की सम्भावना होती है तब उसका यह पूर्ण तथा अनियोजन (Non-delegable) कर्त्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उस कार्य से किसी को किसी प्रकार की क्षति घटित न हो। यदि उस कार्य से किसी को क्षति होती है तब वह उद्योग उस क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा तथा वह अपने दायित्व का इस दलील से निवारण नहीं कर सकता कि उसकी कोई उपेक्षा न थी। इसके अतिरिक्त यह भी निर्णय दिया गया कि रायलैण्ड्स बनाम फ्लैचर के नियम के अपवाद इस पूर्ण दायित्व के नियम पर लागू नहीं होंगे।

प्रश्न 40. षड्यन्त्र । Conspiracy.

उत्तर- जब दो या अधिक व्यक्ति बिना विधिपूर्ण न्यायानुमत के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने के प्रयोजन से संयुक्त होते हैं और तद्द्द्वारा वास्तविक क्षति प्रतिवादी को होती है तो वे षड्यन्त्र का अपकृत्य करते हैं। षड्यन्त्र का अपकृत्य पक्षकारों के बीच किसी करार मात्र से उत्पन्न नहीं होता। यह केवल तब पूर्ण होता है जब वादी को वास्तविक क्षति हुई हो।

मुगल स्टीमशिप बनाम मक्ग्रेगर, गो एण्ड कं० के मामले में प्रतिवादीगण, जो पोत स्वामियों की कुछ फर्मों थीं, चीन और यूरोप के बीच व्यापार करते थे। इन लोगों ने व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के दृष्टिकोण से जहाज के किराये में कमी कर दी, जिसका परिणाम यह हुआ कि वादी जो एक प्रतिद्वन्द्वी व्यापारी था। उसे अपना व्यापार समाप्त करना पड़ा अतएव जब संयुक्त होने वाले व्यक्तियों का प्रयोग वादी को क्षति कारित करने की अपेक्षा स्वयं अपने हित का संरक्षण अथवा संवर्धन करता रहता है तो उनका संयोजन विधिपूर्ण माना जाता है और वे उत्तरदायी नहीं होते चाहे भले हो उनके सम्मिलित कार्य से वादी को क्षति हुई हो।

प्रश्न 41. आवश्यकता। Necessity.

उत्तर- आवश्यकता (Necessity)- यदि किसी ऐसे कार्य से क्षति कारित हुई है, जिसे किसी उससे बड़ी क्षति के निवारण की आवश्यकता से अभिभूत होकर किया गया है, तो वह कार्यवाही योग्य नहीं है, चाहे भले ही वह कार्य किया गया हो।

     कोप बनाम शार्प, (1891) 1 के० बी० 496 के बाद में प्रतिवादी ने वादी की भूमि में आगे का प्रसार रोकने के उद्देश्य से वहाँ प्रवेश किया। वादी की बगल वाली भूमि में प्रतिवादी का स्वामी आखेट खेलता था। प्रतिवादी का कार्य अपने स्वामी को वास्तविक और आसन्न खतरे से बचाने के लिए युक्तियुक्तत: आवश्यकता माना गया और यह धारित किया गया कि प्रतिवादी अतिचारी के लिए उत्तरदायी न थे।

    कार्टर बनाम थामस (1891) क्यू० बी० 673 के वाद में प्रतिवादी ने वादी की भूमि पर सद्भावना के साथ अग्निशमन हेतु प्रवेश किया, परन्तु वहाँ अग्नि प्रशासन कार्यकर्ता पहले से ही कार्यरत थे। प्रतिवादी का उस भूमि पर प्रवेश उचित नहीं माना गया और वह अतिचार के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

प्रश्न 42. अवयस्क ।  Minor.

उत्तर- अवयस्क (Minor)– अवयस्क को एक वयस्क की भाँति वाद दायर करने का अधिकार प्राप्त है। इस सन्दर्भ में केवल एक प्रक्रियात्मक अन्तर है वह यह कि अवयस्क स्ययं ही वाद दायर नहीं कर सकता, ऐसा वह अपने किसी वाद मित्र के माध्यम से कर सकता है।

      अपकृत्य विधि के अन्तर्गत अवयस्कता नहीं है और अवयस्क ठीक उसी प्रकार और उसी सीमा तक उत्तरदायी है, जिस प्रकार कोई वयस्क अपने द्वारा किये गये अपकृत्य के लिए उत्तरदायी होता है। किन्तु संविदा विधि में अवयस्क द्वारा किया गया करार शून्य होता है और आपराधिक विधि में 7 वर्ष से कम उम्र के शिशुओं को किसी भी अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है जबकि 7 वर्ष से 12 वर्ष तक के शिशुओं को सीमित उन्मुक्ति प्रदान की गयी है।

      अपकृत्य विधि के अन्तर्गत आयु के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया गया है। इस प्रकार 7 वर्ष के शिशु पर अतिचार के लिए उसी प्रकार वाद दायर किया जा सकता है जिस प्रकार किसी पूर्ण आयु के व्यक्ति पर। किन्तु यदि अपकृत्य उस कोटि में आने वाला अपकार है, जिसमें विशिष्ट मानसिक तत्व की उपस्थिति होती है, जैसा कि कपट, विद्वेषपूर्ण अभियोजन अथवा षड्यन्त्र में होता है, तो किसी शिशु को उसके लिए तब तक उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता, जब तक कि उस अपकृत्य को करने की पर्याप्त परिपक्वता सिद्ध नहीं कर दी जाती। बाल्म्सले बनाम ह्यमेनिक, (1954) 2 डी० एल० आर० 232 के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादी, जो 5 वर्ष का शिशु था, उपेक्षा के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता, क्योंकि “वह उस मानसिक विकास के स्तर तक नहीं पहुँच सका था, जहाँ यह कहा जा सके कि उसे अपने अपेक्षापूर्ण कार्यों के लिए वैधानिक उत्तरदायी माना जाता है।

       कभी-कभी किसी अवयस्क द्वारा किया गया एक ही कार्य दो अपकारों में प्रतिफलित हो सकता है पहला अपकृत्य हो सकता है, और दूसरा संविदा भंग ऐसे किसी बाद में जो प्रश्न उठते हैं ये ये हैं कि- (1) क्या किसी अवयस्क के विरुद्ध अपकृत्य विधि के अन्तर्गत याद दायर किया जा सकता है, जब कि इस तरह की अनुमति देने का तात्पर्य किसी शून्य करार का प्रत्यक्ष प्रवर्तन कराना होगा ?

(2) क्या किसी अवयस्क को अपकृत्य के उत्तरदायित्व से भी इस कारण मुक्त किया जा सकता है, क्योंकि उसका कार्य-संविदा भंग की कोटि में आता है, जिसके विरुद्ध वाद दायर नहीं किया जा सकता?

      दोनों प्रश्नों का विश्लेषण करने पर कहा जा सकता है कि यदि कोई कार्य अपकृत्य व संविदा दोनों हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता तो ऐसी स्थिति में अवयस्क द्वारा किये गये कार्य के लिए वाद नहीं लाया जा सकता। इसे जानस बनाम पाप, (1665) Sid. 258 के बाद में स्पष्ट किया गया है।

       किन्तु अवयस्क द्वारा किया गया कोई कृत्य जो अपकृत्य एवं संविदा भंग दोनों है तथा अपकृत्य और संविदा को पूर्णतः एक दूसरे से अलग किया जा सकता है तो अपकृत्य के ऐसे मामलों में अवयस्क के विरुद्ध संविदा से स्वतन्त्र कार्यवाही की जा सकती है।

       बर्नार्ड बनाम हैग्गिस, (1863) 32 एल० जे० सी० पी० 189 के वाद में एक अवयस्क हैग्गिस ने इस अभिव्यक्त शर्त पर एक घोड़ी किराये पर ली कि वह उसका केवल सवारी के लिए उपयोग करेगा, कूदने अथवा फाँदने के लिए नहीं। उसने उसे एक मित्र को किराये पर दे दिया, जिसने उस पर सवार होकर उसको ऊँचे बाड़ पर कुदाया। बाड़ पर लगे काँटों पर वह गिर पड़ी और उसकी मृत्यु हो गयी। अवयस्क उपेक्षा के लिए उत्तरदायी माना गया क्योंकि उसका कार्य संविदा से स्वतन्त्र एक गलत कार्य माना गया।

प्रश्न 43. सांविधिक प्राधिकार। Statutory Authority.

उत्तर- सांविधिक प्राधिकार (Statutory Authority)- किसी अधिनियम द्वारा प्राधिकृत कार्य को करने से यदि किसी व्यक्ति को कोई हानि या क्षति पहुँचती है तो उसके लिए वह कोई कार्यवाही नहीं कर सकता। ऐसे मामलों में यदि सम्बन्धित अधिनियम में नुकसानी के लिए कोई उपबन्ध है तो क्षतिग्रस्त को नुकसानी मिलेगी अन्यथा नहीं। अधिनियम के प्राधिकार के अन्तर्गत केवल निश्चित रूप से होने वाली क्षति ही नहीं बल्कि ऐसे कार्यों से हुई तभी आनुषंगिक क्षतियाँ भी शामिल हैं जिसके लिए प्रतिकर ही नहीं मिलता है जैसे किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में हस्तक्षेप किये बिना रेलवे लाइनों का निर्माण करना या बिना किसी आवाज, धुआँ या चिन्गारी के गाड़ियों का चलाना असम्भव है। बोधम बनाम टैफ वेले रेल कम्पनी, (1860) 5 एच० एण्ड एन० (679) के मामले में एक रेल कम्पनी को रेलगाड़ियों के चलाने का कानूनी प्राधिकार प्राप्त था। एक दिन इन्जन से आग की चिन्गारियों के निकलने से अपीलार्थी के लकड़ी के ढेर में, जो कि रेलवे लाइन के बगल में था, आग लग गयी जिससे उसको काफी क्षति हुई। न्यायालय ने निर्णय दिया कि रेल कम्पनी ने रेलगाड़ियों के चलाने में आवश्यक सतर्कता से काम लिया था और उन लोगों ने अधिनियम द्वारा प्राधिकृत कार्य को युक्तियुक्त रूप से किया था, अतएव उससे हुई क्षति के लिए दायी नहीं थे।

प्रश्न 44 मानहानि से क्या तात्पर्य है ? What is meant by Defamation?

उत्तर- मानहानि (Defamation)- मनुष्य के जीवन में उसकी सामाजिक मान प्रतिष्ठा (Reputation) का महत्वपूर्ण स्थान होता है। यदि इस मान प्रतिष्ठा (Reputation) को किसी प्रकार से आघात पहुंचता है तो उसके लिए उसी प्रकार बाद लाया जा सकता है। जिस प्रकार कोई अपनी सम्पत्ति को हानि पहुँचने पर लाता है।

       यदि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अन्य व्यक्ति के सम्बन्ध में असत्य तथा असम्मानजनक बातें कहता है तो वह मानहानि के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। किसी व्यक्ति की मान-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अधिकार समग्र विश्व के विरुद्ध अर्थात् लोकबन्ध (Right-in-rem) होता है।

विधिशास्त्री डॉ० विनफील्ड के अनुसार, Defamation is the publication of a statement which tends to lower a person in the estimation of right thinking members of Society generally, or which tends to make them shun or avoid that person. अर्थात् किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में ऐसे कथन प्रकाशित किये जाते हैं जिससे वह व्यक्ति समाज के विवेकशील व्यक्तियों की दृष्टि से सामान्यत: गिर जाय अथवा जिसके परिणामस्वरूप लोग उसकी उपेक्षा करने लगे तो ऐसे कथन को ‘मानहानि कहा जाता है।

       मानहानि के वाद में सफल होने के लिए वादी को निम्नलिखित बातें सिद्ध करनी आवश्यक होती हैं –

(क) कथन मानहानिकारक हो।

(ख) कथन का सम्बन्ध वादी से हो।

(ग) कथन प्रकाशित होना चाहिए।

प्रश्न 45. वक्रोक्ति।   Innuendo.

उत्तर- वक्रोक्ति (Innuendo) – वक्रोक्ति ऐसे अपवचन या अपकथन को कहते हैं जो प्रथमदृष्ट्या तो प्रशंसात्मक लगते हैं परन्तु यदि कथन या वचन विद्यमान परिस्थितियों पर लागू हो जाता है तो वह अपमानजनक या उपहासात्मक लगता है। यहाँ कथनकर्ता की भाषा तो प्रशंसात्मक लगती है परन्तु ऐसे कथन के पीछे उसका आशय दूसरे व्यक्ति का अपमान करना होता है। ये कथन व्यंगात्मक कथन होते हैं, वक्रोक्ति ऐसे कथन होते हैं जो प्रथमदृष्ट्या निर्दोष हो सकते हैं। जब अपवचन या अपकथन का प्राकृतिक तथा सामान्य कार्य अपमानजनक नहीं होता परन्तु वादी अपमान के लिए वाद लाना चाहता है तो उसे उसके अपवचन या अपकथन के गुप्त तथा गौण अर्थ अर्थात् वक्रोक्ति को साबित करना पड़ेगा जिससे अपवचन या अपकथन अपमानजनक हो जाता है। यहाँ तक कि प्रशंसापूर्ण कथन भी किसी विशिष्ट सन्दर्भ में अपमानजनक हो सकते हैं।

      ‘अ’ कहता है ‘ब’ एक ईमानदार व्यक्ति है, वह कभी भी घड़ी नहीं चुरा सकता। यह कथन उस परिस्थिति में लागू किया जाता है जिसमें ‘ब’को बेईमान व्यक्ति समझा जाता है यह कथन अपमानजनक होगा तथा कथन को वक्रोक्ति (Innuendo) कहा जायेगा।

प्रश्न 46 अपवचन।  Stander.

उत्तर- अपवचन (Slander)-किसी व्यक्ति के प्रति मानहानिकारक वचन के प्रयोग को अपवचन कहते हैं। सामान्य रूप से अपवचन मौखिक शब्दों, संकेतों, अथवा अव्यक्त ध्वनियों द्वारा किया जाता है। जिस माध्यम से अपवचन किया जाता है, वह बहुधा अस्थायी होता है। इसलिए कहा गया है कि अपवचन कानों को सम्बोधित होता है और अपलेख नेश को अपलेख स्वतः अनुयोग्य अपकृत्य नहीं है। अपवचन के मामले में वादी को प्रतिवादी के विरुद्ध बाद चलाने के लिये विशेष क्षति का प्रमाण देना आवश्यक है। किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को पहुँची हानि मात्र ही उसे मानहानि की कार्यवाही करने का अधिकार नहीं प्रदान करती है। मानहानिकारक कचन से वादी को वास्तविक क्षति होना आवश्यक है, जो या तो आर्थिक हो या जिसका मूल्यांकन धन के रूप में किया जा सकता हो। क्षति दूरवर्ती (remote) भी नहीं होनी चाहिये, उदाहरणार्थ ‘क’ ‘ख’ के स्वामी ‘ग’ से यह कहता है कि ‘ख’ अपने मालिक मकान के बकाया किराये का भुगतान किये बगैर ही मकान छोड़ कर चला गया है, और इस बात पर विश्वास करके ‘ग’, ‘ख’ को नौकरी से निकाल देता है, तो ‘क’, ‘ख’ के विरुद्ध नुकसानी का दावा नहीं कर सकता है, क्योंकि ऐसी हानि दूरवर्ती होती है। [स्पीक बनाम हाजेज, (1904) 1 के० बी० 138]

प्रश्न 47. अपकथन ।   Libel.

उत्तर- अपकथन (Libel) — अपकथन या अपलेख में मानहानिकारक कथन का किसी स्थायी एवं दिखाई देने वाले रूप में प्रकाशन किया जाता है जैसे, लिखा हुआ, छपा हुआ, चित्र, फोटो, सिनेमा, फिल्म, कार्टून या व्यंग्य चित्र, पुतला या किसी के दरवाजे पर कुछ लिखकर चिपकाना अथवा ऐसे ही किसी रूप में होना चाहिये। यह कहा जाता है कि अपलेख आंखों को सम्बोधित किया जाता है और अपवचन कानों को सम्बोधित किया जाता है। इस प्रकार बोलने वाली फिल्म में मानहानिकारक विषय अपलेख होता है; यूसूपाफ बनाम मेट्रोगोल्डवाइन, (1934) 50 टी० एन० आर० 581 मेयर के मामले में, Slesser, L..J. ने कहा कि –

      “The photographic part of the show is a permanent matter to be seen by the eye and thus a subject of action for libel if defamatory.”

       प्रोफेसर विनफील्ड के अनुसार ग्रामोफोन में रिकार्ड किया गया मानहानिकारक कथन अपवचन होता है। लेकिन एलिम, लेविस, सामण्ड तथा पोलक के अनुसार यह अपलेख तथा अपवचन दोनों की श्रेणी में आता है।

     अपकथन स्वतः अनुयोज्य अपकृत्य है अर्थात् अपलेख के मामले में वादी को वास्तविक क्षति का प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। व्यक्ति की प्रतिष्ठा में विधिक अधिकार का आक्रमण बिना किसी वास्तविक क्षति हुए भी अनुयोज्य होता है।

प्रश्न 48 विद्वेषपूर्ण अभियोजन। Malicious Prosecution.

उत्तर- विद्वेषपूर्ण अभियोजन – विद्वेषपूर्ण अभियोजन विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग शौर्षक के अन्तर्गत आता है दीवानी प्रक्रिया खचली होती है। इसे बादी को प्रारम्भ करना होता है। इसके प्रारम्भ तथा संचालन का खर्च तथा दायित्व का भार वादी को उठाना पड़ता है। अतः यह कम सम्भावना रहती है कि कोई व्यक्ति बिना कारण सिर्फ विद्वेष या परेशान करने के आशय से दीवानी प्रक्रिया का संचालन किसी व्यक्ति के विरुद्ध करेगा। परन्तु आपराधिक या दाण्डिक प्रक्रिया का संचालन सरकार द्वारा सरकारी खर्च से किया जाता है। इसमें पीड़ित पक्षकार को कोई खर्च वहन नहीं करना होता चूँकि अपराध समाज के विरुद्ध होता है। अतः राज्य का यह दायित्व होता है कि वह विधिक प्रक्रिया का संचालन कर दोषी या अपराधी को न्यायालय के माध्यम से दण्डित कराये। यहाँ पीड़ित व्यक्ति सिर्फ अपराध की प्रथम सूचना देकर अपना दायित्व पूर्ण करता है उसके पश्चात् राज्य सम्पूर्ण प्रक्रिया का खर्च वहन करती है। इसलिए यह अधिक सम्भावना रहती है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया अभियोजन को विद्वेषता के कारण परेशान करने के आशय से प्रारम्भ कराये। इसी दुरुपयोग को समाप्त करने हेतु विद्वेषपूर्ण अभियोजन को एक अपकृत्य माना गया है तथा जिस व्यक्ति के विरुद्ध विद्वेषतापूर्वक या परेशान करने के आशय से अभियोजन प्रारम्भ कराता है तथा वादी यदि अन्तिम सक्षम न्यायालय द्वारा दोष मुक्त कर दिया जाता है तो उसे प्रतिवादी से प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार होगा।

प्रश्न 49. अतिचार।  Trespass.

उत्तर- अतिचार (Trespass) – किसी की भूमि, भवन या परिसर पर बिना किसी विधिक औचित्य के अनधिकृत प्रवेश ही भूमि के प्रति अतिचार का अपकृत्य है। भूमि, भवन या परिसर के साथ हस्तक्षेप प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से हो सकता है। किसी की भूमि पर पत्थर फेंकना या किसी की भूमि पर अनधिकृत रूप से लगाना ये सब भूमि के प्रति अतिचार के अप्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्ष उदाहरण हैं परन्तु विद्युत आपूर्ति या जल आपूर्ति काट देना भूमि के प्रति अतिचार नहीं माना जा सकता। भूमि के प्रति अतिचार के निम्न आवश्यक तत्व हैं –

(1) किसी की भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश,

(2) यह प्रवेश बिना विधिक औचित्य के हो,

(3) भूमि के प्रति अतिचार करना अपकृत्य है,

(4) भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य है।

प्रश्न 50. ” अन्तिम अवसर का सिद्धान्त।” Last Opportunity Rule.

उत्तर- अन्तिम अवसर का सिद्धान्त (Last Opportunity Rule)-इस सिद्धान्त के अनुसार, जहाँ वादी एवं प्रतिवादी दोनों उपेक्षा के लिए दोषी हों, वहाँ देखना यह होगा कि घटना को बचाने का अन्तिम अवसर किसे प्राप्त था और यदि उसने उचित सावधानी बरती होती तो यह घटना घटित न होती। यह नियम वादी एवं प्रतिवादी दोनों पर समान रूप से लागू होता है।

       इस सम्बन्ध में ‘डेविस बनाम मान’ का वाद महत्वपूर्ण है। उक्त बाद में वादी ने अपने गधे के दोनों पैरों को बाँधकर सार्वजनिक मार्ग में चरने के लिए लापरवाही से छोड़ दिया। प्रतिवादी अपनी घोड़ा गाड़ी को बड़ी तेजी से चला रहा था। परिणामस्वरूप गाड़ी गधे से टकरा गई और गधा मर गया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी के लिए वाद दायर किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा के लिए उत्तरदायी ठहराया, क्योंकि प्रतिवादी के पास अन्तिम अवसर था कि वह उचित सावधानी बरत कर घटना को टाल सकता था। यद्यपि वादी ने सार्वजनिक मार्ग पर इस तरह गधे को चरने के लिए छोड़ कर उपेक्षापूर्ण कार्य किया था, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि प्रतिवादी भी लापरवाही से कार्य करे। सड़क पर गाड़ी चलाने वाले का यह कर्तव्य होता है कि वह आने वाली घटनाओं को बचाने के लिए युक्तियुक्त सावधानी बरते। अतः अपनी उपेक्षा के बावजूद भी वादी को न्यायालय ने नुकसानी दिलायी। क्योंकि घटना को बचाने का अन्तिम अवसर प्रतिवादी को था और प्रतिवादी ने उचित सावधानी न बरत कर घटना को घटने दिया, अतः वह उपेक्षा के लिए उत्तरदायी था।

प्रश्न 51. “देवी कृत्य” को परिभाषित कीजिए। Define “Act of God”.

उत्तर – दैवी कृत्य (Act of God)-सर फ्रेडरिक पोलक ने दैवी कृत्य की परिभाषा इस प्रकार दी है-Act of God is an operation of natural forces so unexpected that no human skill could reasonably be expected to anticipate it. (दैवी कृत्य प्राकृतिक शक्तियों के अप्रत्याशित परिचालन को कहते हैं जिनको मनुष्य साधारण बुद्धि का प्रयोग करके पूर्वानुमान नहीं कर सकता है।)

       दैवी कृत्य का बचाव सामान्य वाहक को भी प्राप्त हो सकता है किन्तु उसे यह सिद्ध करना पड़ेगा कि दुर्घटना बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के तथा प्राकृतिक कारणों से घटी तथा सामान्य दूरदर्शिता एवं सावधानी से बचायी नहीं जा सकती थी।

     ‘दैवी कृत्य एक उचित प्रतिरक्षा (Defence) है। इस तर्क को कठोर दायित्व (Strict Liability) अर्थात् राइलैण्ड्स बनाम फ्लैचर, के नियम के अन्तर्गत एक वैध प्रतिरक्षा के रूप में माना गया है। किन्तु आधुनिक काल में इस बचाव की परिधि बहुत ही सीमित होती जा रही है क्योंकि वैज्ञानिक आविष्कारों एवं उपकरणों की सहायता से अब ऐसी दुर्घटना के बारे में पूर्वज्ञान हो जाता है जिनके बारे में प्राचीन काल में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती थी।

दैवीकृत्य की प्रतिरक्षा के लिए दो बातें आवश्यक हैं –

(1) प्राकृतिक शक्तियों का कार्य करना; तथा

(2) घटना असाधारण हो अर्थात् ऐसी न हो जिसका पूर्वानुमान किया जा सकता है।

प्रश्न 52. घटना स्वयं प्रमाण है’ का सिद्धान्त क्या है? What is ‘Res Ipsa Loquitur.”

उत्तर- घटना स्वयं प्रमाण है (Res Ipsa Loquitur)—ऐसे भी कुछ मामले होते हैं जिनमें वादी को प्रतिवादी की और से उपेक्षा साबित नहीं करनी पड़ती है वरन् इस बात की उपधारणा कर ली जाती है कि तात्विक परिस्थितियों में उसकी ओर से उपेक्षा हुई थी। इसे ”प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्’ सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात् कुछ परिस्थितियों में दुर्घटना स्वयं ही अपनी कहानी अपनी जुबानी कहती है और वादी को न्यायालय के समक्ष केवल उन तथ्यों को ही दे देना पर्याप्त होता है जिनमें घटना घटी थी।

प्रश्न 53. मानसिक आघात के लिए नुकसानी पर संक्षेप में चर्चा करें। Explain briefly on Damages of Nervous Shock.

अथवा (or)   तंत्रिकीय आघात।   Nervous shock.

उत्तर- मानसिक आघात के लिए नुकसानी (Damages of Nervous Shock) – मानसिक आघात से तात्पर्य मानसिक सदमें अथवा भावनात्मक संताप से है। जब किसी व्यक्ति की असावधानी अथवा अपकृत्य से मानसिक संताप होता है, मानवीय भावनाओं को ठेस पहुँचती है अथवा सदमे से शरीर को अन्य प्रकार की पीड़ा पहुँचती है तो उसे मानसिक आघात (Nervous Shock) कहते हैं और मानसिक आघात को प्राप्त हुआ व्यक्ति नुकसानी का दावा कर सकता है। इस प्रकार के संताप से शारीरिक पीड़ा अथवा कष्ट भी उत्पन्न हो सकता है और ऐसा व्यक्ति नुकसानी पा सकता है।

प्रश्न 54 मोटर यान अधिनियम, 1988 के तहत मृत्यु या स्थायी निःशक्तता के लिए प्रतिकर के दावा का अधिकार का संक्षेप में वर्णन करें।

उत्तर- अधिनियम की धारा 141 (1) के अधीन प्रतिकर के दावे का अधिकार इस अधिनियम के या तत्समय प्रवृत्त किसी इस विधि के अधीन प्रतिकर के लिए दावा करने के किसी अधिकार के अतिरिक्त होगा। उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी व्यक्ति की मृत्यु या स्थायी निःशक्तता के बारे में धारा 150 के अधीन प्रतिकर देने वाला दायी व्यक्ति त्रुटि के सिद्धान्त पर अधिकार के अनुसरण में प्रतिकर देने के लिए भी दायी है वहाँ इस प्रकार दायी व्यक्ति प्रथम वर्णित प्रतिकर का संदाय करेगा और जहाँ प्रथम वर्णित प्रतिकर की रकम द्वितीय वर्णित प्रतिकर की रकम से कम है वहाँ वह प्रथम वर्णित प्रतिकर के अतिरिक्त द्वितीय वर्णित प्रतिकर का केवल उतना संदाय करने के लिए दायी होगा, जो वर्णित प्रतिकर से अधिक है। शिवाजी दयानू पाटिल बनाम उत्तम गोरे, ए० आई० आर० (1991) एस० सी० 1769 के बाद में एक पेट्रोल टैंक 3 बजे रात में सड़क पर पलट गई। दुर्घटना के 4 घण्टे के बाद एकाएक विस्फोट हो गया जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। पिटिशनरों ने दलील दो कि दुर्घटना 4:30 घण्टे बाद घटी थी और यह मोटर यान के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली दुर्घटना नहीं थी अतः वे इसके लिए दायी नहीं थे।

      न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दुर्घटना मोटर यान के प्रयोग से ही हुई थी अतः पिटीशनर वादी को नुकसानी देने के लिए दायी है। ट्रक से भिड़कर उलट जाने और पड़े रहने के बावजूद वह मोटर यान ही रहता है और विस्फोट और आग लगने में सामान्य सम्बन्ध है।

प्रश्न 55 “मोटर यान अधिनियम, 1988 के अन्तर्गत ‘दोष रहित दायित्व की व्याख्या कीजिए। Explain ‘No fault Hability’ under Motor Vehicles Act, 1988.

उत्तर- मोटर यान अधिनियम की धारा 140 कतिपय मामलों में त्रुटि के बिना दायित्व” के एक नये दायित्व का सृजन करती है। भारत के उच्चतम न्यायालय, अनेक उच्च न्यायालयों तथा विधि आयोग ने त्रुटि के बिना दायित्व के सिद्धान्त को मोटरयान अधिनियम में समाविष्ट करने की सिफारिश की थी। धारा 140 यह उपबन्धित करती है कि यदि मोटर यानों के प्रयोग में हुई दुर्घटना के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो यान के स्वामी को 50,000 रुपये की नियत राशि प्रतिकर के रूप में देना होगा और यदि किसी व्यक्ति को कोई स्थायी निःशक्तता हो जाती है तो उसे ऐसे व्यक्ति को 25,000 रुपये की नियत रकम प्रतिकर के रूप में देना होगा। इस धारा के अधीन प्रतिकर के लिए किसी दावे में दावेदार को यह साबित करना जरूरी नहीं है कि दुर्घटना यान के स्वामी या चालक की ओर से किसी दोषपूर्ण कृत्य, उपेक्षा या व्यतिक्रम के कारण हुई थी।

प्रश्न 56. ‘उपभोक्ता’ को परिभाषित कीजिए। Define Consumer.

उत्तर- उपभोक्ता (Consumer)– उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (7) के अन्तर्गत उपभोक्ता को परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो किसी ऐसे प्रतिफल (मूल्य) के लिए कोई वस्तु क्रय करता है तथा इसका उपयोग करता है जिसका (प्रतिफल का) –

(1) संदाय किया गया है (मूल्य दे दिया गया है); या

(2) मूल्य देने का वचन दिया गया है; या

(3) मूल्य अंशत: दिया गया है या

(4) मूल्य अंशतः देने का (संदाय का) वचन दिया गया है, या

(5) जो आस्थगित संदाय पद्धति के अन्तर्गत माल क्रय करता है।

        इस प्रकार उपभोक्ता वह व्यक्ति भी है जिसने उपर्युक्त विधि से माल तो क्रय नहीं किया है परन्तु जिस व्यक्ति ने उपर्युक्त विधि से मूल्य (प्रतिफल) का भुगतान कर माल क्रय किया है, उसके अनुमोदन पर वस्तु का प्रयोग करता है। परन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी माल का क्रय स्वयं के प्रयोग करने हेतु नहीं करता तथा माल का क्रय वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए करता है, वह व्यक्ति उपभोक्ता नहीं है। संक्षेप में यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु का क्रय नहीं करता या सेवा किराये पर नहीं लेता परन्तु वस्तु को क्रय करने वाले व्यक्ति या सेवा को भाड़े पर लेने वाले व्यक्ति के अनुमोदन पर माल (वस्तु) या सेवा का उपयोग करता है, वह व्यक्ति भी उपभोक्ता होगा।

प्रश्न 57. उपभोक्ता विवाद।   Consumer dispute.

उत्तर- उपभोक्ता विवाद (Consumer dispute)- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (8) के अनुसार उपभोक्ता विवाद से तात्पर्य उस विवाद से है जब वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध परिवाद किया गया है, परिवाद में अन्तर्विष्ट अभिकथनों से इन्कार करता है या उनका प्रतिवाद करता है। ऐसे अभिकथन निम्नलिखित प्रकार के हैं –

(1) परिवाद व्यापारी के अनुचित व्यापार प्रथा के विरुद्ध होना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप परिवादी को क्षति या हानि पहुँची हो। (ii) माल में त्रुटि या सेवा में कमी से सम्बन्धित परिवाद इत्यादि।

प्रश्न 58 केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् के गठन की व्याख्या करें। Discuss the establishment of Central Consumer Protection Council.

उत्तर- केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् (Central Consumer Protection Council) – केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् से सम्बन्धित प्रावधान उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 3 से धारा 5 तक में दिये गये हैं।

धारा ३ के अनुसार, केन्द्रीय सरकार अधिसूचना जारी करके एक केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् नामक परिषद् का गठन करेगी। केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् का वर्ष में कम से कम एक अधिवेशन होना अनिवार्य है। परन्तु आवश्यकतानुसार इस परिषद् के एक से अधिक अधिवेशन हो सकते हैं।

केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् में निम्नलिखित सदस्य होंगे –

(1) केन्द्रीय सरकार के उपभोक्ता मामले के विभाग का मन्त्री जो परिषद् का अध्यक्ष होगा।

(2) उपभोक्ता हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकारी तथा गैर सरकारी सदस्य उतनी संख्या में सदस्य मनोनीत किये जायेंगे जितनी संख्या केन्द्रीय सरकार निर्धारित करे।

      धारा 5 केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् के उद्देश्य के बारे में है। इस धारा के अनुसार, केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् का उद्देश्य उपभोक्ता के अधिकारों का संवर्द्धन तथा संरक्षण करना होगा।

प्रश्न 59. जिला उपभोक्ता फोरम। District Consumer Forum.

उत्तर – जिला उपभोक्ता फोरम (District Consumer Forum)– उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 28 के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में एक जिला उपभोक्ता फोरम की स्थापना राज्य सरकार द्वारा किये जाने का प्रावधान है। राज्य सरकार यदि उचित समझे तो एक जिले में एक से अधिक जिला उपभोक्ता फोरम की स्थापना कर सकेगी।

       जिला उपभोक्ता फोरम (पीठ) का अध्यक्ष वही व्यक्ति हो सकेगा जो किसी जिला न्यायालय का न्यायाधीश है, या किसी जिला न्यायाधीश होने की योग्यता रखता है। जिला उपभोक्ता फोरम के अन्य दो सदस्यों की नियुक्ति किन्हीं ऐसे व्यक्तियों में से की जायेगी जो योग्य, सत्यनिष्ठा तथा प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति होंगे तथा जिनमें अर्थशास्त्र, विधि, वाणिज्य, लेखा, कर्म या प्रशासन का पर्याप्त ज्ञान तथा अनुभव होगा या उससे सम्बन्धित कार्य करने की योग्यता होगी। इन दो सदस्यों में से एक महिला होना आवश्यक है।

       प्रत्येक जिला उपभोक्ता फोरम को अपने जिले के स्थानीय सीमा से सम्बन्धित उन विवादों पर निर्णय का अधिकार होगा जिनमें माल या सेवा का मूल्य तथा दावा प्रतिकर एक करोड़ से अधिक नहीं है। इस प्रकार जिला उपभोक्ता फोरम की आर्थिक क्षेत्राधिकारिता ए करोड़ रुपये तक है।

    जिला उपभोक्ता फोरम का प्रत्येक सदस्य पाँच वर्ष की समयावधि या पैंसठ वर्ष की आयु तक या इनमें से जो पहले हो, अपने पद पर रहेगा।

प्रश्न 60. उपभोक्तावाद क्या है? What is Consumerism?

उत्तर- उपभोक्तावाद- उपभोक्तावाद उपलब्ध धन में माल की खरीद से अधिक सन्तुष्टि प्राप्त करने में उपभोक्ता की मदद करेगा, उन्हें प्रतिस्पर्द्धात्मक दरों पर भी बिना अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस माल प्राप्त करने में सहायक होगा, उन्हें अपने अधिकारों की सम्यक् जानकारी देगा, शिक्षित करेगा। उनके हितों की सीमा बताएगा एवं उनसे सजग रहने का उपाय भी सुझायेगा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को मूलभूत अधिकार, जीवन, व वैचारिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इस पदावली को व्यापक अर्थों में लिया जाना चाहिए। जीवन के लिए खाने-पीने, चलने-फिरने, अमन चैन से रहने, स्वास्थ्य सुविधायें प्रदान करने में किसी प्रकार का अवरोध नहीं होना चाहिए। अनुच्छेद 19 (1) भी प्रत्येक व्यक्ति को मनचाहे वृत्तिक व्यापार, कारोबार करने के अधिकार की गारण्टी देता है। लेकिन इसके दुरुपयोग पर भी अवरोध लगाता है जिससे कि सामान्य लोगों के व्यवहार पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़ सके।

प्रश्न 61. परिवाद से क्या समझते हैं? What do you understand by Complaint?

उत्तर- परिवाद (Complaint)— उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (6) के अन्तर्गत परिवादी द्वारा लिखित रूप से निम्नलिखित के बारे में लगाये गये आरोप परिवाद होते हैं –

(1) किसी व्यापारी (या सेवा प्रदान करने वाले व्यक्ति द्वारा) अनुचित व्यापार अथवा प्रतिबन्धित व्यापार प्रथा का उपयोग किया गया है;

(2) उसके द्वारा क्रय किया अथवा क्रय करने के लिए सहमत माल में एक या अधिक त्रुटियाँ हैं;

(3) उसके भाड़े पर ली गयी या उपभोगिता अथवा भाड़े पर लिये जाने या उपयोग किये जाने के लिए सहमत सेवाओं में किसी भी प्रकार की कोई कमी है;

(4) व्यापारी या सेवा प्रदान करने वाले व्यक्ति ने परिवाद में वर्जित माल या सेवा के लिए उस मूल्य से अधिक मूल्य लिया है –

(क) जिसे तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन नियत किया। गया है;

(ख) जिसे ऐसे माल या ऐसे माल को अन्तर्विष्ट करने वाले किसी पैकेज पर संप्रदर्शित किया गया है;

(ग) जिसे तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन उसके द्वारा प्रदर्शित की गई मूल्य सूची पर संप्रदर्शित किया गया है;

(घ) जिस पर पक्षकारों के मध्य सहमति हुई है:

(5) माल जो कि उपयोग के समय जीवन व सुरक्षा के लिए जोखिम पूर्ण है, को –

(क) उस समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन, ऐसे मामलों से सम्बन्धित किसी मानक जैसे अनुपालन किया जाना अपेक्षित है, के उल्लंघन में:

(ख) यदि व्यापारी सम्यक् तत्परता से यह जान सकता था कि इस प्रकार प्रस्तावित माल जन साधारण के लिए असुरक्षित है;

जन साधारण के विक्रय के लिए प्रस्तावित किया जाता है।

(6) सेवा जो कि उपयोग के समय जनसाधारण के जीवन तथा सुरक्षा के लिए जोखिमपूर्ण है या उसके जोखिमपूर्ण होने की सम्भावना है, को ऐसी सेवा प्रदान करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रस्तावित किया जाता है, जिसे ऐसा व्यक्ति सम्यक् तत्परता से उसके जीवन तथा सुरक्षा के लिए हानिकारक जान सकता था।

प्रश्न 62. अनुचित व्यापार व्यवहार क्या है? What is Unfair Trade Practice?

उत्तर- अनुचित व्यापार व्यवहार (Unfair Trade Practice)- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (47) के अनुसार, “अनुचित व्यापारिक व्यवहार” से तात्पर्य किसी माल की बिक्री, प्रयोग या आपूर्ति की वृद्धि के लिए अथवा सेवाओं को प्रदान करने के लिए निम्न को शामिल करते हुए अपनाया गया कोई अनुचित तरीका या अनुचित धोखाधड़ी, मौखिक रूप से या लिखित रूप से या प्रकट अभिवेदन की प्रथा द्वारा जिसमें निम्न बातें शामिल हों

(i) यह झूठा अभिकथन कि कोई माल विशिष्ट मानक, गुण, संरचना, किस्म या प्रतिमान का है।

(ii) यह झूठा प्रतिनिधान है कि सेवाएँ विशिष्ट स्तर, गुण या श्रेणी की हैं;

(iii) यह प्रतिनिधान करता है कि ऐसी वस्तु या सेवा का कोई प्रयोजन, अनुमोदन या सम्बद्धता प्राप्त है जबकि विक्रेता या प्रदायकर्ता को वह वास्तव प्राप्त न हो।

(iv) किसी वस्तु या सेवाओं के सम्बन्ध में उनकी आवश्यकता व उपयोगिता के बाबत गलत या भ्रामक प्रतिनिधान करता है।

(v) दूसरे व्यक्ति को वस्तु या सेवा या व्यापार के सम्बन्ध में भ्रामक या मिथ्या तथ्य देता है।

प्रश्न 63. समस्यायें। Problems.

समस्या 1. ‘अ’ और ‘ब’ संलग्न भूमि के स्वामी थे। ‘ब’ ने अपनी भूमि पर एक तालाब बिना बाँध बनाए ही खोदा जिसकी मिट्टी तालाब के चारों तरफ रख दिया। अधिक बरसात होने पर ‘अ’ की भूमि पर मिट्टी फैल गयी जिससे ‘अ’ की फसल को नुकसान हुआ। ‘अ’ ने फसल की नुकसानी के लिए वाद संस्थित किया। क्या ‘अ’ के नुकसानी का वाद स्वीकार किए जाने योग्य है?

उत्तर- उपरोक्त समस्या के तथ्यों के अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ‘अ’ का नुकसानी का वाद स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है और ‘ब’ नुकसानी का भुगतान करने के लिए दायी नहीं है क्योंकि इसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता था। प्रस्तुत समस्या अपकृत्य विधि के युक्तियुक्त पूर्वानुमान का मापदण्ड पर आधारित है। इस मापदण्ड के अनुसार वह क्षति दूरस्थ नहीं मानी जायेगी और प्रतिवादी उन सभी नुकसानों के लिए दायी होगा जो नुकसान प्रतिवादी के ऐसे कार्य से हुआ है जिसका अनुमान एक विवेकशील व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता था। इस मापदण्ड को सर्वप्रथम रिगिबी बनाम हिविट के बाद में लागू किया गया। न्यायमूर्ति वैरन ने विचार व्यक्त किया कि यदि मैं दोषपूर्ण कार्य करता हूं तो उनसे पैदा होने वाले उन्हों परिणामों के लिए दायी होऊंगा जिसका युक्तियुक्त रूप से मेरे द्वारा पूर्वानुमान किया जा सकता था।

समस्या 2. ‘अ’ और ‘ब’ एक ऐसे कृत्रिम सूत में कपड़ा बनाते आ रहे हैं जिसका में उत्पादन भारत में केवल ‘स’ कम्पनी करती है। ‘द’ भी ‘स’ के इस कृत्रिम सूत्र से कपड़ा बनाना आरम्भ कर देता है। ‘द’ के इस उत्पादन को बन्द करने के उद्देश्य से ‘अ’ और ‘ब’, ‘स’ के कृत्रिम सूत्र के सारे उत्पादन को 5 साल तक खरीद लेने के लिए एक संविदा कर लेते हैं। क्या ‘द’ किसी अपकृत्य के लिए ‘अ’, ‘ब’ और ‘स’ के विरुद्ध वाद चला सकता है?

उत्तर- उपरोक्त समस्या के विश्लेषण से यह है कि ‘द’, ‘अ’, ‘ब’ और ‘स’ के विरुद्ध कोई वाद नहीं चला सकता है क्योंकि ‘द’ को कोई विधिक क्षति नहीं हुई है अर्थात् ‘द’ के किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन ‘अ’, ‘ब’ और ‘स’ ने नहीं किया है।

अपकृत्य का वाद चलाने के लिए वादी को तीन बातें सिद्ध करनी पड़ती हैं –

(1) प्रतिवादी का कार्य दोषपूर्ण है;

(2) वादी को विधिक क्षति हुई है; और

(3) वादी को वाद लाने का अधिकार है।

      इस प्रकार यह और अधिक स्पष्ट है कि ‘द’, ‘अ’, ‘ब’ और ‘स’ के विरुद्ध किसी अपकृत्य का वाद नहीं चला सकता है।

        प्रस्तुत समस्या के सन्दर्भ में मुगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम एम० ग्रेगर का वाद उल्लेखनीय है-वादी कम्पनी को व्यापारिक क्षेत्र से बाहर करने के लिए प्रतिवादी जहाज कम्पनियों ने माल भाड़े की दर में भारी छूट दे दी है। वादी को भी अपने माल भाड़े में कमी करनी पड़ी जिससे उसे भारी हानि हुई। उसने प्रतिवादी कम्पनी पर वाद संस्थित किया। निर्णीत हुआ कि स्वस्थ व्यापारिक प्रतियोगिता से होने वाली हानि अनुयोज्य नहीं होती है क्योंकि उससे वादी के विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं होता।

समस्या 3. वादी तथा प्रतिवादी पड़ोसी थे। प्रतिवादी ने अपनी भूमि पर एक स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा एक जलाशय का निर्माण कराया। स्वतन्त्र ठेकेदार की गलती से जलाशय के नीचे कुछ गड्ढे छोड़ दिये गये। जब जलाशय में पानी भरा गया तो उसके नीचे गड्ढों से पानी निकल कर वादी की भूमि पर गया जिससे वादी के पौधों को क्षति हुई। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि चूँकि निर्माण स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था तथा उसे जलाशय के नीचे गड्ढों का ज्ञान नहीं था अतः वह उत्तरदायी नहीं था तर्क सहित उत्तर दीजिए।

उत्तर- प्रस्तुत समस्या के तथ्य रायलैण्ड बनाम फ्लेचर, (1968) एल० आर० ३ एच० एल० 330 नामक तथ्य से मिलते हैं। इस वाद में हाउस ऑफ लाईस ने इंग्लैण्ड के एक्सचेकर न्यायालय द्वारा प्रतिपादित कठोर दायित्व के सिद्धान्त को मान्यता दी। यह समस्या प्रतिनिधायो दायित्व के सिद्धान्त के एक अपवाद का वर्णन करती है। प्रतिनिधायी दायित्व के अन्तर्गत एक स्वामी सिर्फ अपने सेवक द्वारा किए गए अपकृत्य के परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है तथा वह स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा किए गए कार्य के परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता। परन्तु इस नियम के कई अपवाद हैं। उनमें से एक अपवाद यह भी है कि यदि किसी मामले पर कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू होता है तो उस मामले में स्वामी स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा किये गये कार्यों के परिणामों के लिए भी उत्तरदायी होगा। पानी की विशाल मात्रा का परिसर पर संग्रह खतरनाक वस्तु का संग्रह है तथा उसके पलायन से हुई क्षति के लिए स्वामी कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी होता है। अतः यहाँ स्वामी उत्तरदायी होगा भले ही कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था तथा भले ही खतरे की जानकारी प्रतिवादी को नहीं थी।

समस्या 4. प्रतिवादी ने अपनी घोड़ा गाड़ी एक सार्वजनिक मार्ग पर बिना देखभाल के छोड़ दिया। वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे। वादी जो एक सात वर्ष का बच्चा था गाड़ी पर चढ़ गया और उसी बीच एक दूसरे बच्चे ने घोड़े की लगाम खींच दी, घोड़े चौंक कर चल पड़े और एक बच्चा घोड़ा गाड़ी के नीचे आ गया तथा घायल हो गया। प्रतिवादी का तर्क था कि बच्चों को स्वयं का दोष था जो दुर्घटना का कारण था अतः वह उत्तरदायी नहीं हैं। कारण सहित उत्तर दें।

उत्तर- प्रस्तुत समस्या के तथ्य लिच बनाम नूराडिन, (1841) 1 क्वीन्स बेंच 29 नामक वाद के तथ्यों से मिलते हैं तथा इसका सम्बन्ध बच्चों के मामले में योगदायी उपेक्षा के सिद्धान्त से है। इस सिद्धान्त के अनुसार बच्चों के मामले में अधिक सावधानी की अपेक्षा की जाती है। बच्चे स्वभाव से जिज्ञासु तथा शरारती होते हैं, जिसके लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं होगा। इस वाद में भले ही प्रतिवादी घोड़ा गाड़ी वाला तथा वादी बच्चे दोनों की ही उपेक्षा थी परन्तु उत्तरदायित्व सिर्फ प्रतिवादी पर होगा क्योंकि उसने बच्चों के मामले में अपेक्षित सावधानी नहीं बरती।

समस्या 5. प्रतिवादी के सेवक ने एक घोड़ा-गाड़ी सार्वजनिक मार्ग में अकेला छोड़ दिया। किसी लड़के ने घोड़ों पर पत्थर फेंक दिया जिससे घोड़े चौंके तथा गाड़ी को बिना चालक के लेकर भागे। वादी एक पुलिस सिपाही था। उसने स्वयं अपनी सहमति से घोड़ा गाड़ी रोकने का प्रयास किया। ऐसा करते समय वह घायल हो गया। वाद लाये जाने पर प्रतिवादी ने सहमति का बचाव लिया। निर्णय दें।

उत्तर- प्रस्तुत समस्या के तथ्य हेयन्स बनाम हारबुड, (1935) 1 किग्स बेन्च 146 नामक वाद के तथ्यों से मिलते हैं। यह समस्या सहमति के बचाव पर आधारित है। सहमति (consent) बचाव के मामले में एक अच्छा अपवाद है। इस अपवाद के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी तात्कालिक खतरे को बचाने हेतु स्वयं अपनी सहमति से कार्य करता है तथा इसके परिणामस्वरूप क्षतिग्रस्त हो जाता है तो वह प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकारी होगा तथा प्रतिवादी को सहमति से क्षति नहीं (volenti not fit injuria) का प्रतिवाद नहीं ले सकता। इस प्रकरण में प्रतिवादी के सेवक द्वारा बिना किसी सुरक्षा के घोड़ागाड़ी सड़क पर छोड़ दी गयी थी। यह प्रतिवादी के सेवक की उपेक्षा थी। घोड़ा गाड़ी किसी कारण चलायमान हुई जिससे जनसाधारण को आसन्न खतरा महसूस करते हुए सिपाही ने अपनी सहमति से खतरा मोल लिया था तथा चोटिल हुआ था। उसका मामला सहमति के प्रतिवादी के अपवाद के अन्तर्गत आएगा तथा वह प्रतिवादी से प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकारी होगा।

समस्या 6. ‘अ’ अपनी महिला दोस्त के साथ एक दुकान में गया जहाँ उसने एक जिजर नामक शराब की शीशी अपनी महिला दोस्त को पिलाने के लिए खरीदा। शीशी के कुछ शराब उसने महिला मित्र को पिलाया लेकिन बची हुई शराब गिलास में उड़ेलने के एक घोंघा मिला। महिला दोस्त ने शराब निर्माता के खिलाफ नुकसानी पाने के लिए मुकदमा चलाया। क्या महिला दोस्त नुकसानी प्राप्त करने की हकदार है ?

उत्तर  – समस्या के तथ्यों को देखते हुए महिला दोस्त प्रतिवादी कम्पनी से नुकसानी प्राप्त करने को हकदार थी और प्रतिवादी नुकसानी का भुगतान करने के लिए दायी थी क्योंकि उसका यह विधिक कर्त्तव्य था कि वह बोतल में देखें कि बोतल में कोई जहरीली चीज न जाने पाये।

      प्रस्तुत समस्या अपकृत्य विधि के वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य के सिद्धान्त पर आधारित है। सावधानी बरतने का कर्त्तव्य विधि द्वारा आरोपित कर्त्तव्य है तथा इसके अन्तर्गत प्रतिवादी से इस बात की अपेक्षा की जाती है कि वह लापरवाही न हो तथा अन्य व्यक्तियों के प्रति सावधानी बरतें सावधानी बरतने के कर्त्तव्य का अनुपालन न किया जाना, उपेक्षा की श्रेणी में आता है। प्रतिवादी की उपेक्षा के आधार पर दायी ठहराने के लिए यह साबित करना पड़ता है कि प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य था क्योंकि धार्मिक, सामाजिक और नैतिक कर्त्तव्य भंग करने के आधार पर नुकसानी के लिए वाद दायर नहीं किया जा सकता जैसा कि पोलक का कथन है कि उपेक्षा के लिए तब तक कोई कार्यवाही नहीं हो सकती जब तक विधिक सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का भंग नहीं होता।

समस्या 7. वादी एक मतदाता था। उसे मतदान करने से मतदान अधिकारी द्वारा रोक दिया गया। परन्तु जिस प्रत्याशी को वह मत देना चाहता था, वह विजयी हुआ। अतः उसे कोई हानि नहीं हुई। क्या वह मतदान अधिकारी के विरुद्ध वाद ला सकता है?

उत्तर- प्रस्तुत प्रकरण के तथ्य ऐशबी बनाम ह्वाइट, (1703) 2 Cord Raym 938 नामक वाद से मिलते हैं। इस वाद में मतदान अधिकारी ने मतदाता को मत देने से रोका अतः उसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ। अतः वह प्रतिकर का अधिकारी था भले ही उसे कोई हानि नहीं हुई क्योंकि Injuria sine damno अर्थात् हानि से परे क्षति के अन्तर्गत प्रतिकर प्राप्त करने के लिए हानि आवश्यक नहीं है परन्तु वादी के किसी विधिक अधिकारों है का उल्लंघन हुआ है, यह साबित किया जाना आवश्यक है।

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