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प्रश्न 1. अपकृत्य विधि के विकास पर संक्षित निबन्ध लिखें। “जहाँ उपचार है वहाँ अधिकार है तथा जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है।” इस सूक्ति का क्या तात्पर्य है। भारत में अपकृत्य विधि के धीमे विकास के क्या कारण हैं ? Write down short essay on development of Law of Torts. “UBI REMEDIUM IBI JUS, UBI JUS IBI REMEDIUM” What is meant by these maxims? What are reasons for slow development of Law of Torts in India.

उत्तर – अंग्रेजी विधि का महत्वपूर्ण विकास नार्मन विजय के पश्चात् हुआ। इसके पूर्व अपराध (Crime) तथा अपकृत्य विधि में कोई अन्तर नहीं था। इस काल में अधिकतर मामले प्रतिकर तथा प्रशमन (समझौते) के आधार पर तय किए जाते थे। नार्मन विजय के पश्चात् हेनरी द्वितीय के शासन काल में राजा को शांति भंग के मामलों में सभी प्रकार की हिंसा को दण्डित करने का अधिकार प्राप्त हुआ तथा इस निमित्त न्यायालय स्थापित किए गए। 13वीं शताब्दी में अतिचार की याचिका (Writ of Trespass) का प्रारम्भ हुआ। इसमें सम्पत्ति के विरुद्ध अतिचार तथा व्यक्ति के विरुद्ध अतिचार अर्थात् दीवानी अतिचार तथा अपराधिक अतिचार में कोई अन्तर नहीं था। अतिचार की याचिका (Writ of trespass), जिसे याचिकाओं की जननी (Mother of Writs) कहा जाता था प्रतिकर तथा दण्ड दोनों अपने में समाविष्ट किये थी।

          चूँकि भारतीय अपकृत्य विधि, अंग्रेजी अपकृत्य विधि (Law of Torts) पर आधारित है अत: अंग्रेजी अपकृत्य विधि के विकास का अध्ययन आवश्यक है। प्रारम्भिक काल में अंग्रेजी कामन लॉ (English Common Law) मुख्यतया अधिकारों से सम्बन्धित न होकर उपायों से सम्बन्धित था। किसी व्यक्ति की शिकायत पर उसे तभी उपचार (Remedy) उपलब्ध हो पाता था जब न्यायालय के पास उसकी व्यथा या शिकायत के लिए उपचार पहले से उपलब्ध था। इस प्रकार 14वीं शताब्दी में वादों या शिकायतों की सफलता रिटों (writs) या उपचार की उपलब्धता पर निर्भर रहती थी। उस समय सूक्ति या सिद्धान्त था ‘जहाँ उपचार है। वहीं अधिकार है’ (UBI REMEDIUM IBI JUS) । इस सूक्ति के अनुसार किसी व्यक्ति की व्यथा का परिहार या परिमार्जन इस तथ्य पर निर्भर रहता था कि क्या उस व्यक्ति की शिकायत या व्यथा के परिमार्जन के लिए न्यायालय के पास कोई उपचार (याचिका-writ) पहले से उपलब्ध है कि नहीं? यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक होता था तो उस परिस्थिति में व्यथित व्यक्ति को कोई उपचार प्राप्त नहीं हो पाता था। दूसरे शब्दों में कोई भी व्यक्ति अधिकारपूर्वक न्याय की माँग नहीं कर सकता था। न्याय की उपलब्धता व्यथा या शिकायत के लिए उपचार की उपलब्धता पर निर्भर रहती थी। यदि एक व्यथित व्यक्ति यह सिद्ध नहीं कर पाता था कि उसकी शिकायत या रिट के अनुरूप न्यायालय के पास उपचार उपलब्ध है तो उसकी शिकायत कितनी भी न्यायसंगत क्यों न हो उसे उपचार प्राप्त नहीं हो पाता था। इस प्रकार यदि न्यायालय के पास उपचार (Remedy) उपलब्ध रहता था तभी उसकी शिकायत या व्यथा के लिए उपचार प्राप्त करने के उसके अधिकार को मान्यता दी जाती थी अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त बादी को सही प्रकार की रिट का चयन करने में सावधानी लेनी पड़ती थी क्योंकि यदि उसने अपनी व्यथा के लिए गलत रिट (writ) का चुनाव किया है जिसके अन्तर्गत उसकी व्यथा नहीं आती थी तो उसका बाद असफल हो जाता था। संक्षेप में इस अवधि में व्यथित पक्षकार को उपचार या न्याय अधिकारपूर्वक प्राप्त नहीं होता था न्याय की उपलब्धता, न्यायालय के पास उपचार (writs) की उपलब्धता पर निर्भर होती थी तथा सिद्धान्त था जहाँ उपचार है वहाँ (अधिकार) न्याय है।

      इस प्रकार न्याय की उपलब्धता प्रक्रिया पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति पाँच सौ वर्षों तक चलती रही। सन् 1832 तथा 1833 के दौरान विधि में कुछ परिवर्तन किया गया तथा अन्त में सन् 1852 में कामन ला प्रोसिजर एक्ट, 1852 (Common Law Procedure Act. 1852) पारित किया गया। इस अधिनियम द्वारा रिटों को समाप्त कर दिया गया। अब यह आवश्यक नहीं था कि उपचार की उपलब्धता के लिए व्यथित पक्षकार यह साबित करे कि उसकी व्यथा के अनुरूप उपचार या रिट न्यायालय के पास उपलब्ध है। सन् 1873 के जुडीकेचर अधिनियम में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया कि व्यथित पक्षकार के शिकायत पत्र (अभिवचन-Pleadings) में सिर्फ सारवान् तथ्यों का संक्षेप सम्मिलित होना चाहिए, जिस पर वादी अपना मामला आधारित करना चाहता है। अब स्थिति यह है कि जहाँ न्यायालय इस तथ्य से सन्तुष्ट है कि, किसी व्यक्ति का विधिक अधिकार है तथा उस विधिक अधिकार का उल्लंघन, हनन या अतिक्रमण हुआ है तो उसके लिए उपचार उपलब्ध होगा। इस प्रकार अब स्थिति यह है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों को मान्यता दी जानी थी। कोई व्यक्ति उपचार, रिटों की उपलब्धता के आधार पर नहीं परन्तु विधिक अधिकार की उपलब्धता के आधार पर उपचार (Remedy) प्राप्त कर सकता था। अब यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है (UBI JUS IBI REMEDIUM) इस प्रकार व्यथित पक्षकारों की शिकायतों के आधार पर विभिन्न परिस्थितियों तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुए नवीन रिटों के विकास का युग प्रारम्भ हुआ। अब रिटें या उपचार सीमित न होकर विभिन्न परिस्थितियों तथा तथ्यों के आधार पर भिन्न-भिन्न होने लगे। अब कोई व्यक्ति अधिकारपूर्वक न्याय या उपचार की माँग करने के लिए सक्षम हो गया। संक्षेप में अब स्थिति यह हो गई कि जहाँ कहीं भी न्यायालय को यह प्रतीत होता है। कि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का हनन या उल्लंघन हुआ है न्यायालय उसके विधिक अधिकारों को मान्यता देते हुए उसे उपचार प्रदान करेगा। अर्थात् अब उपचार प्राप्त करने का आगर रिटों (writs) की उपलब्धता न होकर उसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हो गया। अब वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि उसके किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है यदि न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि शिकायतकर्ता के किसी विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है तो न्यायालय उसे उपचार उपलब्ध कराने के लिए। बाध्य है।

     इस “जहाँ अधिकार है वहीं उपचार है” (UBI JUS IBI REMEDIUM), की सूक्ति का उपयुक्त (appropriate) उदाहरण, ऐशबी बनाम व्हाइट (Ashbyv White, (1703) 2LD. Reus 738) नामक बाद है। इस बाद में एक मतदान अधिकारी ने वादी मतदाता को द्वेषपूर्ण रूप से उसके मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था। यद्यपि जिस उम्मीदवार को वादी मत देना चाहता था वह चुनाव जीत गया था तथा बादी को किसी प्रकार की आर्थिक हानि नहीं हुई थी फिर भी मुख्य न्यायाधीश होल्ट (Holt C.J.) ने यह निर्णय किया कि यदि वादी का कोई अधिकार है तो उसे आवश्यक रूप से उस अधिकार को बनाये रखने का कोई साधन (उपाय) भी होना चाहिए तथा यदि वह उस विधिक अधिकार का उपयोग करने से रोक दिया जाता है तो उसके इस अधिकार हनन के विरुद्ध उसे कोई उपचार आवश्यक रूप से उपलब्ध होना चाहिए क्योंकि उपचार के अभाव में अधिकार की उपलब्धता निरर्थक है। इस प्रकार मतदाता को उपचार उपलब्ध कराया गया। इस वाद में जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है (UBI JUS IBI REMEDIUM) के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके न्यायमूर्ति होल्ट ने विधि विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भारत में अपकृत्य विधि का विकास (Development of Law of Tort in India)— भारतीय अपकृत्य विधि अंग्रेजी विधि पर आधारित है। अपकृत्य विधि का भारत में प्रवेश, अंग्रेजों द्वारा अपने शासन काल में कराया गया। सन् 1726 में प्रथम ब्रिटिश न्यायालय, मेयर न्यायालय, स्थापित हुआ जिसका जन्म ब्रिटिश सम्राट के द्वारा प्रदत्त अधिकार के अन्तर्गत हुआ। यह प्रथम न्यायालय था जिसको ब्रिटेन ने मान्यता प्रदान की तथा उसके निर्णयों की अपील इंग्लैण्ड में स्थित प्रिवी काउन्सिल को जाती थी। इस न्यायालय द्वारा अंग्रेजी विधि ही प्रयोग में लाई जाती थी परन्तु जहाँ उपयुक्त (appropriate) विधि उपलब्ध नहीं होती थी वहाँ उस न्यायालय के न्यायाधीश न्याय, साम्या तथा सद्विवेक के सिद्धान्तों के आधार पर निर्णय देते थे। यह सिद्धान्त अत्यन्त विस्तारित था तथा इन सिद्धान्तों की आड़ में ब्रिटिश या अंग्रेजी विधि भारत में प्रविष्ट करायी गयी। अपकृत्य विधि चूँकि ब्रिटिश कामन लॉ का अंग थी अतः इस आड़ में अपकृत्य विधि भारत में प्रवेश करती गयी। भारत में आज भी अपकृत्य विधि संहिता बद्ध विधि नहीं है तथा यह इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के नियमों पर आधारित है।

भारत में अपकृत्य विधि के धीमी विकास गति के कारण -इसके प्रमुख कारण निम्न हैं-

(1) जागरूकता की कमी (Lack of Consciousness) अधिकांश भारतीय जनता आज भी साक्षर नहीं है, जो साक्षर है उनमें भी अपने अधिकारों प्रति जागरुकता की कमी है। अधिकांश भारत गाँवों में निवास करता है तथा अधिकांश ग्रामीण जनता अपने •विधिक अधिकारों को जानती ही नहीं है, जो विधिक अधिकारों से भिज्ञ भी हैं उनमें सहन शक्ति की भावना अधिक है। इंग्लैण्ड में जहाँ एक नाई की उपेक्षा के कारण चर्म रोग होने पर उसके विरुद्ध उपचार के लिए वाद लाया जाता है वहीं भारत में यदि नाई की उपेक्षा के कारण कुछ हो जो पर भी उसे सहन कर लिया जाता है। इसी प्रकार यदि अंतः वस्त्र के पहनने पर कोई चर्मरोग या परेशानी हो जाती है तो उसके विरुद्ध इंग्लैण्ड में मुकदमा हो जायेगा परन्तु भारत में इस स्थिति को सहन कर लिया जायेगा। परन्तु अब भारत भी अपकृत्य के मामले में कुछ जागरूक व्यक्ति न्यायालय की शरण में जाने लगे हैं। एक मामले में बस स्टाप पर हाथ देने पर भी दिल्ली नगर निगम की बस के न रोकने पर एक वकील ने वाद संस्थित किया तथा दिल्ली के न्यायालय द्वारा उसे डेढ़ रुपये के साथ-साथ बाद खर्च तथा शारीरिक तथा मानसिक कष्ट एवं अन्य बातों के लिए प्रतिकर दिलाया।

(2) अत्यधिक खर्च (Undue Expenses) तथा विलम्बकारी न्यायिक प्रक्रिया – भारत में विधिक प्रक्रिया विदेशों की अपेक्षा अधिक खचलो है। न्यायिक प्रक्रिय अधिक खचली होने के कारण यह आम भारतीय की पहुँच के बाहर है। श्यामसुन्दर बनाम राजस्थान (ए० आई० आर० 1974 सु० को० 890) नामक बाद में एक विधवा को प्रतिक्रय प्राप्त करने हेतु उच्चतम न्यायालय तक जाना पड़ा तथा उसे 21 वर्षों पश्चात् अपने पति को मृत्यु के कारण सिर्फ 15,000 रुपये प्रतिकर प्राप्त हुआ।

      इस विषय में एक उदाहरण देना चाहूँगा। एक अध्यापक को प्रबन्ध तन्त्र ने वैध नियुक्ति के पश्चात् भी पद ग्रहण नहीं करवाया। उसने बाद किया। वह बाद 30 वर्षों से अधिक अवधि तक चला। जब बाद का निर्णय हुआ तब वह अध्यापक सेवा-निवृत्ति की आयु प्राप्त कर चुका था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि चूँकि अध्यापक सेवा-निवृत्ति को आयु प्राप्त कर चुका है अत: उसे उसके पद पर स्थापित तो नहीं किया जा सकता परन्तु उसे उसका वेतन तथा अन्य भत्ते उस अवधि के लिए प्राप्त होंगे जो उसे तब प्राप्त होते यदि उसे नियुक्ति के पश्चात् पद ग्रहण करा दिया गया होता।

(3) क्षमाशीलता की प्रवृत्ति – भारत में एक प्रवृत्ति यह भी है कि अपराध करने वाले को दण्ड भगवान देगा इसलिए हम अपराधी को अपने स्तर पर क्षमा कर देते हैं। साथ ही भारतीय लोग छोटे-छोटे अधिकारों के अविलंघन को चुपचाप सहन कर लेते हैं जबकि इसके विपरीत इंग्लैण्ड में अपने अधिकारों के प्रति सजगता देखी गयी है जिसका परिणाम है कि वहाँ अपकृत्य विधि विकसित है।

( 4 ) निर्धनता – भारत की जनसंख्या का अधिकांश भाग गाँवों में रहता है और उनमें भी ज्यादातर गरीब एवं अनपढ़ है, कुछ तो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में कोई ज्ञान नहीं है। जिन्हें थोड़ा बहुत ज्ञान है भी वे इतने निर्धन हैं कि न्यायालयों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। वैसे भारतीय न्यायालयों एवं विधिज्ञों ने गरीबों के लिए सस्ता न्याय सुलभ कराने की व्यवस्था की है लेकिन यह भी जानकारी के. अभाव में लोगों की पहुँच से बाहर है।

(5) अपकृत्य विधि का संहिताबद्ध न होना- यह सुविदित है कि अपकृत्य विधि एक सॉहताबद्ध विधि नहीं है। संहिताबद्ध विधि न होने के कारण इसके नियमों और सिद्धान्तों में निश्चितता और एकरूपता का अभाव है। किसी विधि की अनिश्चितता उस दशा में और भी बढ़ जाती है जब इसमें पूर्व निर्णयों का अभाव होता है। इंग्लैण्ड में यद्यपि पूर्व निर्णय अधिक सुलभ हैं, किन्तु भारत की परिस्थितियों में वे सब लागू नहीं किये जा सकते हैं। भारत में इस विधि पर निर्णयज विधि का अभाव है। इंग्लैण्ड में यद्यपि पूर्व निर्णय अधिक सुलभ हैं, किन्तु भारत की परिस्थितियों में वे सब लागू नहीं किये जा सकते हैं। भारत में इस विधि पर निर्णयज विधि का अभाव है। इसलिए भारत में अपकृत्य विधि धीरे-धीरे एक विकासशील विधि के रूप में अपना अस्तित्व कायम कर रही है जबकि इंग्लैण्ड में यह एक विकसित विधि के रूप में अस्तित्व में है।

     उपर्युक्त कठिनाइयों के बावजूद भारत में अपकृत्य विधि विकासोन्मुख है। मोटर यान अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत अब काफी मामले न्यायालय के समक्ष आ रहे हैं। भोपाल गैस काण्ड के कारण व्यक्ति व्यक्तियों को भारतीय न्यायालयों ने उपयुक्त प्रतिकर दिलाया तथा उनके लिए अस्पताल निर्माण का दायित्व यूनियन कारबाइड पर डाला गया। एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1987 सू० को० 1086) नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने यहाँ तक कहा कि हम रैलेण्ड बनाम फ्लैचर नामक बाद में सन् 1868 में हाउस ऑफ लाईस द्वारा प्रतिपादित कठोर दायित्व के सिद्धान्त को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं तथा न्यायालय ने आगे बढ़ कर पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

      इसी तरह के० एम० बनाम ईस्ट इण्डिया होटल्स लि०, ए० आई० आर० 1997 दिल्ली 201 के बाद में दिल्ली के पाँच सितारा होटल के तरणताल में नुक्स के कारण एक जर्मन अतिथि द्वारा उस ताल में गोता लगाने के लिए छलाँग लगायी गयी और उसे सिर में गम्भीर चोटें आई व 13 वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूर्ण दायित्व सिद्धान्त के तहत होटल मालिक को दोषी ठहराया।

प्रश्न 2. अपकृत्य की परिभाषा दीजिए। अपकृत्य तथा अपराध एवं अपकृत्य तथा संविदा भंग में अन्तर स्पष्ट करें। अपकृत्य विधि, अपकृत्य की विधि (Law of Tort) है, या अपकृत्यों की विधि (Law of Torts) है?

Define Tort? Distinguish between Tort and Crime, and Tort and Breach of Contract. Whether Law of Tort is Law of Tort or Law of Torts?

उत्तर- सामान्य रूप से अपकृत्य एक ऐसा वक्र (Twisted) या दुष्टतापूर्ण (wicked) कार्य या चूक है जिससे किसी के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। भारत में अपकृत्य या दुष्कृति की परिकल्पना अंग्रेजी विधि की देन है। अपकृत्य, अंग्रेजी शब्द (Tort) टार्ट या (wrong) राँग का हिन्दी रूपान्तरण है। अंग्रेजी शब्द टार्ट (Tort) लैटिन शब्द Tortum (टार्टम) से लिया गया है जिसका अर्थ है, वक्र करना या घुमाना। इसका अर्थ है कि टार्ट या अपकृत्य एक ऐसा कार्य है जो सीधी न होकर घुमावदार या वक्र है। संक्षेप में टार्ट या अपकृत्य एक ऐसा कार्य है जो विधिपूर्ण न होकर अविधिपूर्ण है, जो सीधा न होकर वक्र या घुमावदार है, जो सद्भावपूर्ण न होकर दुर्भावपूर्ण है।

      अपकृत्य विधि विधि की वह शाखा है जो विभिन्न अपकृत्यों से सम्बन्ध रखती है। इस विधि के अन्तर्गत वे मामले आते हैं जहाँ एक व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण या हनन किया होता है। विधि सभी व्यक्तियों पर यह कर्तव्य अधिरोपित करती है कि वह दूसरे के विधिक अधिकारों का सम्मान करे तथा इस कर्तव्य का उल्लंघन करने वाले कृत्य या चूक को ही हम अपकृत्यपूर्ण कार्य कहते हैं। अपराध एक ऐसा कृत्य है जो आपराधिक विधि द्वारा मान्य कृत्य कर्तव्यों के उल्लंघन से सम्बन्धित है जबकि संविदा भंग, पक्षकारों द्वारा आपसी सहमति से अधिरोपित कर्तव्यों के उल्लंघन या भंग से सम्बन्धित है।

     चूँकि अपकृत्य विधि के अन्तर्गत सम्मिलित किए गए विभिन्न अपकृत्यों की विभिन्न प्रजातियाँ हैं तथा उनकी अलग पृष्ठभूमि होती है अतः अपकृत्य को परिभाषित किया जाना कठिन है। परन्तु विभिन्न विधि शास्त्रियों ने अपकृत्य को निम्न रूप से परिभाषित किया है।

     “अपकृत्य एक दीवानी अपकृत्य है जिसके लिए उपचार सामान्य विधि के अनुसार अपरिनिर्धारित नुकसानी की कार्यवाही करना है तथा जो एकमात्र संविदा भंग तथा न्यास भंग या केवल किसी अन्य साम्यिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।”- सामण्ड

       Tort is a civil wrong for which the remedy is a common law action for unliquidated damages and which is not exclusively breach of contract, breach of trust or the breach of other merely equitable obligation.”-Solmond

      सामण्ड अपकृत्य को एक दीवानी अपकृत्य (civil wrong) मानते हैं। इसका अर्थ है सामण्ड के अनुसार अपकृत्य, आपराधिक कृत्य या अपराध से भिन्न है। अपकृत्य तथा अपराध में मुख्य अन्तर यह है कि अपराध में दोषी व्यक्ति को कारावास या अन्य दण्ड से दण्डित किया जाता है जबकि दीवानी कार्यवाहियों का अन्त सामान्यतः अधिकारों का पुनःस्थापन या प्रतिकर दिलाये जाने से होता है। सामण्ड के अनुसार अपकृत्य एक दीवानी (अप) कृत्य है। परन्तु उस दीवानी (अप) कृत्य के लिए उपचार सिर्फ अपरिनिर्धारित प्रतिकर के लिए वाद है। इस प्रकार अपकृत्य एक दीवानी (अप) कृत्य होते हुए अन्य दीवानी दायित्वों के भंग से भिन्न है। अपकृत्य, संविदा भंग, न्यास भंग तथा अन्य साम्यिक दायित्वों से भिन्न है। अपकृत्य में वाद सिर्फ अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ण के लिए लाया जा सकता है। जबकि संविदा भंग जैसे दीवानी अपकृत्य में बाद परिनिर्धारित (liquidated) या अपरिनिर्धारित (unliquidated) क्षति या प्रतिकर के लिए लाया जाता है। सामण्ड अपकृत्य को अपराध, संविदा भंग, न्यास भंग तथा अन्य साम्यिक दायित्वों के भंग से भिन्न (अप) कृत्य मानते हैं। संक्षेप में सामण्ड की परिभाषा के विश्लेषण से अपकृत्य (Tort) के लिए निम्न आवश्यकताएँ हैं –

(1) अपकृत्य एक दीवानी दोष है।

(2) इसका उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए लाया जाने वाला वाद है।

(3) अपकृत्य अन्य दीवानी दोष जैसे, संविदा भंग, न्यास भंग तथा अन्य साम्यिक दायित्व भंग से भिन्न होता है।

     “अपकृत्य पूर्ण दायित्व विधि द्वारा पूर्व निश्चित कर्तव्य भंग से उत्पन्न होता है। यह कर्तव्य सामान्य व्यक्तियों के प्रति होता है। इसके उल्लंघन के लिए उपचार अपरिनिर्धारित नुकसानी या प्रतिकर या क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages) के लिए चलाया जाने वाला वाद है।’- विनफील्ड

       “Tortious liability arises from the breach of duty primarily fixed by law, this duty is towards persons generally and its breach is redressible by an action for unliquidated damages.” – Winfield

      विनफील्ड व्यक्ति को लक्ष्य में रख कर अपकृत्य को परिभाषित करते हैं। विनफील्ड के अनुसार अपकृत्य एक ऐसा कृत्य है जो कर्तव्य भंग है, यह कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं होना चाहिए जैसा कि आमतौर पर संविदा भंग के मामलों में होता है। अपकृत्य एक ऐसे कर्तव्य का भंग है जो विधि द्वारा अधिरोपित होता है व्यक्ति द्वारा नहीं। विधि द्वारा अधिरोपित यह कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के प्रति न होकर सभी (सामान्य) आम व्यक्तियों के प्रति होता है। यह तत्व अपकृत्य को अपराध के निकट लाता है। परन्तु फिर विनफील्ड कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति उस कर्तव्य को भंग करता है तो व्यथित पक्षकार को सिर्फ यही उपचार है कि वह अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध अपरिनिर्धारित (Unliquidated) नुकसानी या प्रतिकर के लिए वाद लाये। यह लक्षण अपकृत्य को अपराध से भिन्न करता है क्योंकि अपराध में नुकसानी के लिए वाद नहीं लाया जाता। अपराध में दोषी व्यक्ति को उसके कृत्य (दोष) के लिए न्यायालय द्वारा दण्डित किया जाता है। इस प्रकार विनफील्ड भी अपकृत्य को एक दीवानी दोष या कर्तव्य भंग मानते हैं परन्तु यह कर्तव्य भंग अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए बाद के उपचार में परिणत होता है। संक्षेप में विनफील्ड की परिभाषा के विश्लेषण से अपकृत्य के निम्न लक्षण हैं –

(1) अपकृत्य पूर्ण दायित्व विधि द्वारा पूर्व निश्चित कर्तव्य के भंग से उत्पन्न होता है।

(2) ये विधिक कर्तव्य सभी व्यक्तियों के प्रति समान रूप से होते हैं। (3) विधिक कर्तव्य भंग के लिए अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए वाद लाया जाता है।

      सामण्ड की परिभाषा से मिलती-जुलती परिभाषा परिसीमन अधिनियम, 1963 की धारा 2 (अ) में दी गई है। इस परिभाषा के अनुसार अपकृत्य एक ऐसा सिविल (दीवानी) अपकार है जो केवल संविदा भंग या न्यास भंग नहीं है- धारा 2 (एम) परिसीमन अधिनियम, 1963

     Tort means a civil wrong which is not exclusively a breach of contract or breach of trust.-Section 2(m) Limitation Act, 1963.

        किसी भी विद्वान द्वारा दी गई अपकृत्य की परिभाषा पूर्ण नहीं है। परन्तु अधिकतर विद्वान विनफील्ड की परिभाषा को बेहतर मानते हैं। संक्षेप में कहें तो अपकृत्य एक ऐसी चूक या कार्य है जिससे विधि द्वारा आम जनता को प्राप्त (जिसमें व्यथित पक्षकार भी हैं) किसी विधि अधिकारों का उल्लंघन होता है। परन्तु यह दीवानी दोष होने के कारण इसमें उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए लाया जाने वाला वाद है तथा यह संविदा भंग या न्यास भंग या अन्य साम्यिक भंग से भिन्न है।

अपकृत्य तथा अपराध में अन्तर –

अपकृत्य (Tort)

(1) अपकृत्य एक दीवानी दोष है।

(2) अपकृत्य में वाद व्यथित पक्षकार लाता है।

(3) अपकृत्य में उपचार सिर्फ अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए वाद है।

(4) अपकृत्य एक व्यक्तिगत दोष होता है।

अपराध (Crime )

(1) अपराध एक आपराधिक दोष है।

(2) अपराध में सरकार की ओर से अभियुक्त का अभियोजन किया जाता है।

(3) अपराध समाज के विरुद्ध दोष माना जाता है अतः दोषी व्यक्ति को कारावास या अर्थ दण्ड से दण्डित किया जाता है।

(4) अपराध सामाजिक दोष होता है।

अपकृत्य तथा संविदा-भंग में अन्तर –

अपकृत्य

(1) अपकृत्य एक ऐसा कर्तव्य भंग है जहाँ कर्तव्य विधि द्वारा अधिरोपित है।

(2) अपकृत्य में व्यथित पक्षकार को उपचार के रूप में अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति हेतु वाद लाना है।

(3) अपकृत्य में कर्तव्य एक विशिष्ट व्यक्ति के प्रति न होकर सामान्य जन के प्रति होता है।

(4) अपकृत्य में कोई भी व्यक्ति जिसके विधिक अधिकारों का हनन हुआ है क्षतिपूर्ति हेतु वाद ला सकता है।

संविदा भंग

(1) संविदा भंग में कर्तव्य सक्षम पक्षकारों की आपसी सहमति से अधिरोपित होते हैं ।

(2) संविदा भंग के लिए उपचार के रूप में वाद परिनिर्धारित तथा अपरिनिर्धारित दोनों प्रकार की क्षतिपूर्ति प्रदान करने हेतु वाद लाया जाता है।

(3) संविदा भंग के मामले में संविदा पूरा करने का कर्तव्य सिर्फ उसी व्यक्ति का होता है जिसने संविदा पालन का वचन दिया है।

(4) संविदा भंग के लिए वह व्यक्ति जो संविदा का पक्षकार नहीं है वाद नहीं ला सकता ।

       क्या अपकृत्य विधि अपकृत्य की विधि है या अपकृत्यों की विधि? (Is it Law of Tort or Law of Torts!)– अपकृत्य विधि के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि अपकृत्य विधि, अपकृत्यों की विधि है या अपकृत्य की विधि है? दूसरे शब्दों में क्या अपकृत्य विधि के अन्तर्गत वे विशिष्ट अपकृत्य ही सम्मिलित हैं जिसके परे विधि की इस शाखा में कोई दायित्व अस्तित्व में नहीं है (अपकृत्यों की विधि) या क्या प्रत्येक अपकृत्यपूर्ण कार्य जिसका कोई औचित्य या अपवाद नहीं है अपकृत्य माना जाना चाहिए।

     उपरोक्त विभेद या मतभेद सामण्ड तथा विनफील्ड के मध्य अपकृत्य विधि को प्रकृति के बारे में विद्यमान मतभेद से उत्पन्न हुआ। सामण्ड ने अपनी पुस्तक “अपकृत्यों की विधि (Law of Torts)” में अपकृत्य विधि को अपकृत्यों की विधि माना है। सामण्ड के अनुसार अपकृत्य विधि कुछ विशिष्ट अपकृत्यों की विधि है तथा व्यथित पक्षकार को सफल होने के लिए यह साबित करना होता है कि उसका मामला कुछ निर्धारित या निश्चित अपकृत्यों में से एक है जिसके लिए पहले से ही उपचार की व्यवस्था है। अर्थात् सामण्ड जहाँ उपचार है वहीं अधिकार (न्याय) है (UBI REMEDIUM IBI JUS) के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं। सामण्ड कबूतर के दरबों (Pigeon hole) के सिद्धान्त को मान्यता देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक कबूतरों के लिए उनके दरबे निर्धारित होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक अपकृत्य के निर्धारित उपचार होने चाहिए। इससे निश्चितता बनी रहती है तथा वादी एवं प्रतिवादी दोनों को निश्चितता के साथ यह विदित रहता है कि उसे सफल होने के लिए क्या साबित करना होगा तथा प्रतिवादी को यह विदित रहता है कि उसे कौन से बचाव उपलब्ध हैं। सामण्ड के सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इससे अपकृत्य विधि का विकास बाधित होता है क्योंकि एक बार अपकृत्य विधि को अपकृत्यों की सीमा में बाँध देने से नवीन अपकृत्य विकसित नहीं हो पाते। सामण्ड के समर्थक उसे अपकृत्यों में सीमित करने का लाभ भारतीय दण्ड संहिता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं जहाँ विधि निश्चित अपराधों को परिभाषित करती है तथा उन अपराधों के लिए निश्चित दण्ड का प्रावधान करती है।

      दूसरी ओर विनफील्ड अपनी पुस्तक अपकृत्य विधि के अन्तर्गत अपकृत्य विधि को अपकृत्य की विधि मानते हैं। विनफील्ड के अनुसार अपकृत्य विधि के अन्तर्गत वह प्रत्येक अपकृत्यपूर्ण कार्य अपकृत्य है जिसके लिए कोई औचित्य या अपवाद (Justification or (excuse) नहीं है। विनफील्ड के समर्थकों के अनुसार अपकृत्य विधि को किन्हीं निश्चित अपकृत्यों की सीमा में बाँधना उचित नहीं है। विनफील्ड के अनुसार विधि एक विकसित विधि है। प्रत्येक व्यक्ति जिसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है उसे उपचार प्राप्त करने का अधिकार है। UBI JUS IBI REMEDIUM जहाँ अधिकार (न्याय) है वहाँ उपचार है नामक सिद्धान्त को विनफील्ड ने मान्यता दी 1702 में एशबी बनाम ह्लाइट के बाद में इस सिद्धान्त को मान्यता दी गई थी। इस बाद में मुख्य न्यायाधीश होल्ट (Holt) ने कहा “यदि क्षति कई प्रकार की हो सकती है तो बाद भी कई प्रकार के होंगे तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षति के लिए उपचार प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए”। चाहे उसका मामला निर्धारित उपचारों के अन्तर्गत आता हो या नहीं।

     चैपमैन बनाम पिकरसगिल, (1762) केवाद में मुख्य न्यायाधीश प्राट ने कहा है कि ” अपकृत्य असीम है, अनन्त है, न तो वे सीमित है और न ही नियन्त्रित है।”

      दोनों सिद्धान्तों में कुछ-कुछ सच्चाई की मात्रा है। दोनों सिद्धान्तों के समर्थक भी अनेक हैं। प्रारम्भ में अपकृत्यों की एक निश्चित संख्या थी जिसके आधार पर ही कार्यवाही की जा सकती थी। कालान्तर में इसका विकास हुआ और अपकृत्यों की संख्या में वृद्धि हुई है। डॉ० ग्लेनविल विलियम्स ने दोनों के मतभेद को संक्षेप में निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है

       पहला सिद्धान्त कहता है कि दायित्व के नियम विस्तृत हैं और दूसरा सिद्धान्त कहता है कि दायित्व की अनुपस्थिति के नियम भी विस्तृत हैं, लेकिन किसी सिद्धान्त में कोई सामान्य नियम नहीं दिखाई देता है। डॉ० ग्लेनबिल विलियम्स के अनुसार विधि को निश्चित अपकृत्यों (Pigeon Holes) में एकत्र किया जा सकता है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पीजियन होल में अपकृत्यों की कमी हैं या उनमें और अपकृत्य जोड़े नहीं जा सकते हैं।

      प्रो० विनफील्ड भी सर जॉन सामण्ड के सिद्धान्त को कुछ हद तक मान्यता देते हैं। प्रोफेसर विनफील्ड कहते हैं कि संकुचित दृष्टिकोण पर व्यावहारिक दृष्टिकोण से सामण्ड का सिद्धान्त यथेष्ट है, लेकिन विस्तृत दृष्टिकोण में पहला सिद्धान्त हो वैध है। यदि हम वर्तमान अपकृत्य विधि को इसके भूत और भविष्य के समस्त विकास से अलग करके देखें तो यह दूसरे सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है। लेकिन यदि हम विस्तृत दृष्टिकोण से देखें कि अपकृत्य विधि हजारों वर्षों से विकसित होती आयी है और आज भी विकासशील है, तो पहला सिद्धान्त ही उचित है।

      अतः इससे स्पष्ट है कि प्रो० विनफील्ड का सिद्धान्त अधिक उचित एवं व्यावहारिक है। यदि हम मानते हैं कि अपकृत्य विधि का विकास हुआ है तो हम इस सिद्धान्त की सत्यता को मानने से इन्कार नहीं कर सकते हैं कि अपकृत्य विधि का विकास हो रहा है।

प्रश्न 3. अपकृत्य के आवश्यक तत्वों (लक्षणों) को बताइये। क्या एक हा कृत्य अपकृत्य तथा अपराध, एवं अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों हो सकता है? उदाहरण से समझाइए।

Discuss the essential characteristic (elements) of Tort. Can an act be Tort as well as crime, can an act be Tort as well as breach of contract? Explain with the help of examples.

उत्तर – अपकृत्य की सामान्य संक्षिप्त परिभाषा के अनुसार अपकृत्य एक ऐसा कृत्य या चूक है जिससे किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तथा जिसका उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति है।

      इस प्रकार एक कृत्य को अपकृत्य होने के लिए निम्न लक्षण या तत्व का होना आवश्यक हैं –

(1) प्रतिवादी की ओर से कोई कृत्य या चूक होनी चाहिए।

(2) इस (कार्य) कृत्य या चूक के परिणाम स्वरूप कोई विधिक क्षति (injury) होनी चाहिए अर्थात् वादी के किसी विधिक अधिकारों का उल्लंघन होना चाहिए।

(3) इस विधिक क्षति के उल्लंघन का उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति होनी चाहिए।

(1) प्रतिवादी की ओर से कोई कृत्य या चूक (Some act or omission on the part of defendant)—किसी व्यक्ति को अपकृत्य के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि उसने कोई ऐसा कार्य किया है जो विधितः उसे नहीं करना चाहिए था या उसने ऐसा कुछ करने में चूक की है जो करना विधितः उसका कर्तव्य था। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति किसी की भूमि पर अनधिकृत प्रवेश करता है या अपमानजनक कथन का प्रकाशन करता है, या किसी व्यक्ति को अनधिकृत रूप से निरुद्ध करता है वह क्रमशः अतिचार, अपमान या मिथ्या कारावास का दोषी माना जायेगा। उसी प्रकार यदि कुछ करना किसी व्यक्ति का विधिक कर्तव्य है तथा वह अपना विधिक कर्तव्य करने में असफल रहता है तो वह उस चूक (omission) के लिए उत्तरदायी होगा। ग्लासगो कारपोरेशन बनाम टेलर [ (1992) 1 अपील केसेज 440] नामक बाद में एक औषधिक उद्यान जो नगर निगम द्वारा संस्थित था, नगर निगम का कर्तव्य था कि वह उद्यान की उचित घेराबन्दी करे जिससे बच्चे जहरीले पौधों पर पहुँच न सकें। नगर निगम ऐसा करने में असफल रहा। एक बच्चा एक विषैला फल खाकर मर गया। नगर निगम को उसकी उस चूक या असफलता के लिए उत्तरदायी ठहराया गया। यह उल्लेखनीय है कि इस शीर्षक के अन्तर्गत चूक ऐसे कर्तव्य की होनी चाहिए जिसको विधि द्वारा मान्यता प्राप्त हो अर्थात् कर्तव्य नैतिक या धार्मिक कर्तव्य न होकर विधिक कर्तव्य होना चाहिए। इस प्रकार यदि कोई भूखे व्यक्ति को खाना देने में चूक करता है या डूबते बच्चे को बचाने में चूक करता है तो ये कर्तव्य नैतिक या सामाजिक प्रकृति के होने के कारण इनके सम्बन्ध में की गई चूक उन्हें उसके परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं बनाती।

      विधिक क्षति (Legal Damage)- अपकृत्य के बाद में सफल होने के लिए वादी को यह साबित करना होगा कि उसे विधिक क्षति हुई है। दूसरे शब्दों में कोई कार्य या चूक हुई है जिससे या तो विधिक कर्तव्य का भंग हुआ है या किसी व्यक्ति में निहित विधिक अधिकारों का उल्लंघन या हनन हुआ है। जब तक विधिक अधिकारों का उल्लंघन या हनन नहीं होता अपकृत्य के अन्तर्गत कोई बाद नहीं लाया जा सकता। इसी प्रकार यदि किसी कार्य या चूक के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वह अपकृत्य के लिए प्रतिकर पाने का हकदार होगा भले ही उसे कोई आर्थिक क्षति हुई हो या न हुई हो। इसी प्रकार, यदि किसी कार्य या चूक के फलस्वरूप किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है परन्तु उसे आर्थिक नुकसान होता है तो वह अपकृत्य के बाद में सफल नहीं हो पायेगा क्योंकि अपकृत्य के वाद में सफल होने के लिए विधिक अधिकारों का उल्लंघन साबित करना आवश्यक है, न कि आर्थिक क्षति। उपरोक्त बातों को निम्न दो सूक्तियों (Maxims) द्वारा प्रकट किया जाता है –

(1) हानि से परे क्षति (INJURIA SINE DAMNO) बिना हानि के क्षति।

(2) क्षति से परे हानि (DAMNUM SINE INJURIA) बिना क्षति के हानि।

(1) हानि से परे क्षति (INJURIA SINE DAMNO) बिना हानि के क्षति (Injury without damage) – सूक्ति, हानि से परे क्षति अपकृत्यके उन मामलों में लागू होती है जो स्वतः अनुयोज्य होते हैं। ऐसे मामलों में वादी द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी के किसी अपकृत्य पूर्ण कार्य या चूक द्वारा उसे आर्थिक हानि हुई है। वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि प्रतिवादी के कार्य या चूक द्वारा उसके किसी विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, जैसे भूमि के प्रति अतिचार।

    इस सूक्ति के अनुसार क्षति का तात्पर्य विधिक अधिकारों के उल्लंघन से है। जहाँ क्षति या विधिक अधिकारों का अतिक्रमण या उल्लंघन प्रतिवादी द्वारा किया गया होता है तो उसे उसके परिणामों का दायित्व भुगतना पड़ेगा चाहे उसके कार्य या चूक के कारण वादी को कोई आर्थिक हानि न हुई हो। इस सूक्ति के अनुसार वादी को सिर्फ यह साबित करना होगा कि उसे कोई विधिक अधिकार प्राप्त था तथा प्रतिवादी के अपने कार्य या चूक से उसके इस विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है। इसमें आर्थिक नुकसान साबित करना आवश्यक होता है।

      एशबी बनाम ह्वाइट [(1703) 3 Lord Raym | Sim LC 13th Ed.) नामक वाद इस बिन्दु पर प्रमुख है। इस वाद में वादी संसद चुनाव का अर्ह (eligible) मतदाता था परन्तु प्रतिवादी मतदान अधिकारी ने अपकृत्य पूर्ण ढंग से उसे मतदान से वंचित कर दिया। जिस प्रत्याशी को वह मत (Vote) देना चाहता था वह विजयी हुआ। इस प्रकार उसे कोई नुकसान नहीं हुआ। परन्तु न्यायालय ने मतदान अधिकारी को अपकृत्य के लिए उत्तरदायी माना। मुख्य न्यायमूर्ति होल्ट ने कहा; यदि किसी व्यक्ति को कोई विधिक अधिकार प्राप्त है तो उसे अपने विधिक अधिकार के प्रयोग करने तथा उसे बनाये रखने का साधन उपलब्ध होना चाहिए तथा यदि उसे उसके अधिकारों के प्रयोग से वंचित किया जाता है तो उसके निमित्त उसे कुछ उपचार उपलब्ध होना चाहिए। उपचार के बिना किसी अधिकार का अस्तित्व व्यर्थ है। विधिक अधिकारों के उल्लंघन में ही नुकसान अन्तर्निहित है। यह आवश्यक नहीं है कि नुकसान आर्थिक ही हो। यहाँ वादी की सफलता का तात्पर्य उसके विधिक अधिकारों को मान्यता देना है। यहाँ जो प्रतिकर दिया जाता है वह प्रतीकारात्मक होता है जो नाममात्र (Nominal) भी हो सकता है। एक रुपया प्रतिकर भी वादी के विधिक अधिकारों को मान्यता देने के लिए पर्याप्त है।

(2) क्षति से परे हानि (DAMNUM SINE INJURIA) बिना क्षति के हानि- इस सूक्ति के अनुसार यदि किसी कार्य या चूक द्वारा किसी व्यक्ति को आर्थिक हानि होती है परन्तु उस व्यक्ति के किसी भी विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होता तो वह व्यक्ति अपकृत्य के लिए प्रतिकर प्राप्त नहीं कर सकता। इस प्रकार अपकृत्य के बाद में सफल होने के लिए किन्हीं विधिक अधिकारों का उल्लंघन होना एक अपरिहार्य आवश्यकता है। परन्तु यदि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है साथ ही साथ उसे हानि भी होती है तो वह अपकृत्य के बाद में सफल होगा तथा प्रतिकर का अधिकारी होगा। कुछ ऐसे अपकृत्य हैं जिनमें प्रतिकर प्राप्त करने हेतु विधिक अधिकार के उल्लंघन के साथ-साथ आर्थिक नुकसान (damage) भी साबित किया जाना आवश्यक है। इस सूक्ति को स्पष्ट करने हेतु ग्लाइसेस्टर ग्रामर स्कूल बाद [(1410) Y.B. Hill 11 Hen. 4g 47P. 21-36) नामक बाद महत्वपूर्ण है। इस बाद में एक स्कूल अध्यापक ने वादी के स्कूल के सामने एक प्रतिस्पर्धी स्कूल स्थापित किया इसके फलस्वरूप वादी को शुल्क 40 पेन्स से 12 पेन्स शुल्क घटाना पड़ा। इस नुकसान या आर्थिक क्षति के लिए वादी को कोई उपचार नहीं प्रदान किया गया न्यायमूर्ति हैंकफोर्ड ने कहा आर्थिक हानि विधिक अधिकारों के उल्लंघन के बिना भी हो सकती हैं। अपकृत्य के बाद में सफलता के लिए विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है। यह साबित करना आवश्यक है न कि आर्थिक नुकसान।

(3) अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damage)- अपकृत्य का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि इसके उपचार के रूप में न्यायालय द्वारा अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति उपचार के रूप में प्रदान किया जाता है। अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति वह है जिसका निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जाता है, पक्षकारों द्वारा नहीं। यही तत्व या लक्षण अपकृत्य को संविदा भंग से पृथक् करता है।

क्या एक ही कृत्य अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों हो सकता है?

      कुछ कृत्य ऐसे हो सकते हैं जो अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों हो सकते हैं तथा व्यथित पक्षकार अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों के अन्तर्गत कार्यवाही कर सकता है। उदाहरण के लिए क, अपने पुत्र की चिकित्सा एक चिकित्सक से कराता है। चिकित्सक उपेक्षापूर्ण कार्य करते हुए उसे गलत दवा दे देता है जिससे के के पुत्र की मृत्यु हो जाती है। यहाँ चिकित्सक उपेक्षा (Negligence) के अपकृत्य के अन्तर्गत दोषी होगा तथा क, स्वयं चिकित्सक के साथ उचित चिकित्सा करने की विवक्षित संविदा करता है। जिसका चिकित्सक द्वारा पालन न किए जाने के कारण चिकित्सक संविदा भंग का दोषी होगा। इस प्रकार के चिकित्सक के विरुद्ध उपेक्षा के अपकृत्य तथा संविदा भंग के कारण हुई हानि के लिए नुकसानी का वाद चला सकता है। इसी प्रकार यदि मैं अपना घोड़ा व को उधार देता हूँ तथा व घोड़े को अत्यधिक सवारी लाद कर घायल कर देता है। यहाँ व अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों के लिए दोषी होगा। संविदा के अन्तर्गत इसलिए क्योंकि उसने संविदा की शर्तों के अनुससार घोड़े की सावधानीपूर्वक सवारी नहीं की और अपकृत्य में इसलिए क्योंकि उसने अत्यधिक सवारी द्वारा घोड़े को चोट पहुँचाई।

क्या एक ही कृत्य अपराध एवं अपकृत्य दोनों हो सकता है?

      कई अपकृत्यों को भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। अतः उन्हें अपकृत्य तथा अपराध दोनों माना गया है। अपकृत्य के अन्तर्गत उपचार के रूप में अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति देय होगी जबकि अपराध के अन्तर्गत दोषी व्यक्ति को दण्डित किए जाने के लिए कार्यवाही की जा सकती है। उदाहरणार्थ आक्रमण, अपलेख, अतिचार, उपेक्षा उपताप आदि ऐसे अपकृत्य हैं जिन्हें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अन्तर्गत अपराध के रूप में भी परिभाषित किया गया है। आक्रमण एक व्यक्ति के शरीर के विरुद्ध अपकार है तथा उसके लिए उसे अपकृत्य के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति भी प्राप्त हो सकती है। जबकि आक्रमण समाज की सुरक्षा के प्रति संकट है। अतः दोषी व्यक्ति को आपराधिक विधि के अन्तर्गत दण्डित किया जा सकता है।

प्रश्न 4. बिना हानि के क्षति एवं बिना क्षति के हानि से आप क्या समझते हैं? समझाइये ।

What do you understand by Injuria Sine Damnum and Damnum Sine Injuria? Explain it.

उत्तर– अपकृत्यात्मक दायित्व के लिए क्षति का होना आवश्यक है। क्षति प्रतिवादी के कृत्य का प्रत्यक्ष परिणाम होती है। सामान्यतया किसी व्यक्ति को पहुँचायी गई सभी क्षति अपकृत्य होती है जब तक कि इसके लिए कोई विधिक औचित्य न हो किन्तु कानून की दृष्टि में प्रत्येक क्षति ‘क्षति’ नहीं होती। अपकृत्य की कार्यवाही करने के लिए वादी को यह साबित करना आवश्यक होता है कि प्रतिवादी के कृत्य से उसे कोई विधिक क्षति हुई हैं। संक्षेप में बिना क्षति के भी किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण हो सकता है। किन्तु क्षति विधिक अधिकार की अवहेलना के बिना नहीं हो सकती है। इस विधिक क्षति का स्पष्टीकरण दो सूत्रों द्वारा किया जाता है –

(i) बिना हानि के क्षति (Injuria Sine Damnum)

(ii) विना क्षति के हानि (Damnum Sine Injuria) |

(i) बिना हानि के क्षति ( Injuria Sine Damnum)- Injuria Sine Damnum का अर्थ हुआ बिना हानि के क्षति। किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों पर हुआ कोई भी हस्तक्षेप अनुयोज्य (actionable) होता है, चाहे उससे उसे कोई वास्तविक हानि हुई हो या नहीं। सामण्ड के अनुसार, अपकृत्य दो प्रकार के होते हैं- एक जो स्वतः अनुयोज्य होता है और दूसरे वे जो केवल वास्तविक क्षति के साबित होने पर ही अनुयोज्य होते हैं। बिना हानि के क्षति, स्वतः अनुयोज्य की श्रेणी में आता है। सारांशतः विधि द्वारा सुरक्षित व्यक्तिगत अधिकारों के अतिक्रमण के लिए अपकृत्य का वाद चलाया जा सकता है, भले ही उससे धन, स्वास्थ्य आदि के रूप में किसी को कोई हानि हो अथवा नहीं। कुछ अधिकार ऐसे होते हैं। जिनके अतिक्रमण के विरुद्ध प्रतिवादी पर बाद तभी चलाया जा सकता है जब उससे वादी को कोई वास्तविक क्षति हुई हो। इसे संक्षेप में इस प्रकार भी कह सकते हैं- बिना हानि के क्षति का तात्पर्य है कि हालांकि वादी को क्षति (विधिक क्षति) हुई है, अर्थात् उसमें निहित किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ है, किन्तु उसको कोई हानि कारित न हुई हो, यह फिर भी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद ला सकता है।

      ऐशबी बनाम ह्वाइट (1703) 2 एल० ओ० रेमण्ड 938 का वाद ‘बिना हानि की क्षति’ सूत्र का स्पष्टीकरण करता है। इस वाद में वादी एक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता था प्रतिवादी ने, जो एक निर्वाचन अधिकारी था, भूल से वादी के मत को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिससे वह अपने इच्छित प्रत्याशी को मत नहीं दे सका इसके बावजूद उसका प्रत्याशी विजयाँ रहा। वादी ने प्रतिवादी पर नुकसानी को वाद संस्थित किया। प्रतिवादी ने यह दलील दी कि उसके द्वारा मत को न लेने के कारण वादी को कोई हानि नहीं हुई थी क्योंकि उसका प्रत्याशी सफल हुआ था अतएव वह किसी प्रकार की नुकसानी पाने का हकदार नहीं था। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी है।

      मुख्य न्यायाधिपति होल्ट ने कहा कि, “प्रत्येक विधिक अधिकार के अतिक्रमण से हानि होती है चाहे उससे किसी को एक पैसे का भी नुकसान न हो। हानि केवल धन की ही नहो होती है। किसी व्यक्ति के अधिकार के उपयोग में बाधा डालना स्वयं में ही एक हानि है। मानहानि के मामले में व्यक्ति को एक पैसे का भी नुकसान नहीं होता फिर भी वह अनुयोज्य है, क्योंकि इससे उस व्यक्ति के विधिक अधिकार का अतिक्रमण होता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दूसरे का कान पकड़ता है जिससे उसे तनिक भी चोट नहीं पहुँचती फिर भी उसको इसके लिए वाद संस्थित करने का अधिकार है क्योंकि यह उसके व्यक्तिगत अधिकार का अतिलंघन है।”

     म्युनिसिपल बोर्ड आगरा बनाम अशर्फीलाल, (1921) 1 आई० एल० आर० 44 इलाहाबाद 202 के मामले में वादी एक वैध मतदाता के रूप में मतदाता सूची में अपना नाम शामिल किये जाने का हकदार था, किन्तु उसका नाम अवैध रूप से मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया था। इसके परिणामस्वरूप वह अपना मत देने के विधिक अधिकार का प्रयोग करने से वंचित रह गया था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसे विधिक क्षति हुई है और वह इसके लिए नुकसानी पाने का हकदार है।

(ii) बिना क्षति के हानि (Damnum Sine Injuria)- Damnum Sine Injuria का तात्पर्य हानि जो बिना क्षति के अर्थात् विधिक अधिकारों के अतिक्रमण के बिना होती हैं। विधिक अधिकार के उल्लंघन के बिना जो हानि होती है वह चाहे कितनी ही अधिक क्यों न हो अपकृत्य में अनुयोज्य नहीं होती।

      केवल धन या सम्पत्ति की हानि से क्षति नहीं होती है। ऐसे अनेक कार्य होते हैं जो हानिकारक तो होते हैं किन्तु अनुचित नहीं होते और उनके आधार पर अपकृत्य में बाद नहीं चलाया जा सकता है। अपकृत्य में अनुचित कृत्य वे होते हैं जिनके द्वारा वादी के विधिक अधिकारों का किसी प्रकार उल्लंघन होता है। किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे को बड़ी से बड़ी पहुँचायी गयी हानी या क्षति के लिए वाद संस्थित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि ऐसे अनुचित कृत्य द्वारा बादी के किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण न हुआ हो। यदि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकार के प्रयोग से किसी दूसरे व्यक्ति की हानि होती है तो उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति उचित सीमा के भीतर अपने सामान्य अधिकारों का प्रयोग करते हुए किसी अन्य व्यक्ति को कोई हानि पहुँचाता है तो उसके विरुद्ध अपकृत्य के लिये कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इस सम्बन्ध में सर फ्रेडरिक पोलक ने कहा है कि मनुष्य ऐसे अनेक कार्य करता है जिनसे दूसरों को कुछ न कुछ असुविधा या हानि पहुँचती है या उनसे हानि या असुविधा पहुंचने की सम्भावना रहती है किन्तु इनको किये बिना उसके लिए समाज में अपने साधारण क्रियाकलापों को चलाना भी असम्भव है, अतएव इस प्रकार की हानि या असुविधा के लिए शिकायत नहीं की जा सकती है।

      ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल का मामला – इस बाद में प्रतिवादी ने जो एक अध्यापक था, बादी की प्रतिद्वन्द्विता में एक नया विद्यालय स्थापित किया। प्रतियोगिता के कारण वादी को छात्रों के शुल्क में अत्यन्त कमी करनी पड़ी। जहाँ वह प्रति छात्र तिमाही शुल्क के रूप में 40 पेंस लेता था वहीं इस नयी परिस्थिति के कारण उसे प्रति छात्र तिमाही शुल्क 12 पेंस ही निर्धारित करना पड़ा। यह धारित किया गया कि इस हानि के लिए वादी को कोई उपचार नहीं मिल सकता। न्यायाधीश हेन्कफोर्ड ने अभिमत व्यक्त किया कि हानि यदि किसी ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप होती है, जो विशुद्ध प्रतियोगिता के अन्तर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए किया गया है, तो वह अवैध नहीं है, चाहे भले ही ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष को हानि उठानी पड़ी हो। ऐसे कार्यों को निरपेक्ष अपकृत्य की संज्ञा दी जा सकती है।

      सीतारमैया बनाम महालक्षम्मा, ए० आई० आर० 1958 ए० पी० 103 इस वाद में चार प्रतिवादियों ने एक जल प्रवाह से आने वाली जलधारा को अपनी भूमि में न आने देने के लिए अपनी ही भूमि में एक खाई बाँधकर बाँध बना दिया। पाँचवें प्रतिवादी ने भी इसी प्रकार स्वतन्त्र रूप से अपनी भूमि पर एक बाँध बनवाया, ताकि जल का प्रवाह उसकी भूमि में भी न आ सके। पाँचों प्रतिवादियों के इन कार्यों के परिणामस्वरूप वर्षा का जल, वादी की भूमि में प्रवाहित होने लगा जिसके परिणामस्वरूप उसे हानि भी कारित हुई। वादी ने न्यायालय से निवेदन किया कि आज्ञापक व्यादेश जारी करके प्रतिवादियों द्वारा अपनी भूमि में बनाये गये बाँधों को तोड़वा दिया जाय तथा खाइयों को भरवा दिया जाये। उसने स्थायी व्यादेश की भी माँग की जिसमें उसने भविष्य में प्रतिवादियों द्वारा खाई और बाँध बनवाने से निवारित करने का निवेदन किया। उसकी भूमि में जल प्रवाह के कारण उसे जो हानि हुई थी, उसकी पूर्ति के निमित्त उसने 300 रुपये के क्षति मूल्य की भी माँग की उच्च न्यायालय ने यह धारित किया कि किसी नदी के समीप भू-स्वामी को यह अधिकार है। भू वह अपनी भूमि पर बाँध बनवा कर नदी के जल प्रवाह को मोड़कर अपनी हानि का निवारण करे, चाहे भले ही उसके ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप नदी का प्रवाह मुड़कर पड़ोस की भूमि पर चला जाय और उसको हानि कारित करे यह चूँकि “बिना क्षति के हानि” सूत्र के अन्तर्गत आने वाला एक स्पष्ट वाद था, अतः बादी को कारित हानि के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराये गये।

     इस प्रकार उषाबेन बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्र मन्दिर, ए० आई० आर० 1978 गुजरात 13 के मामले में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद दायर करके न्यायालय से प्रार्थना किया कि प्रतिवादी को ‘जय संतोषी माँ’ नामक चलचित्र को प्रदर्शित करने से रोक दे क्योंकि इससे उसका धार्मिक भावना को ठेस पहुँचती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि धार्मिक भावना कोई विधिक अधिकार नहीं है इसलिए वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं हुआ। अतः प्रतिवादी को दायी नहीं ठहराया गया।

प्रश्न 5. ” सहमति से क्षति नहीं”इस सूक्ति के अन्तर्गत उपलब्ध बचाव को समझाते हुए इस बचाव के अपकारों को वादों की सहायता से समझाइए। क्या आप इस बात से सहमत हैं कि सूक्ति यह है कि “जो स्वेच्छया सहमति देता है उसे क्षति नहीं होती न कि जो जानता है कि उसे क्षति नहीं होगी ?

Explaining the defence available under maxim “VOLENTI NON FIT INJURIA” discuss the exception to this maxim with helps of cases. Do you agree with the view that maxim is Volunti non fit injuria and not scienti not fit Injuria?

उत्तर – यदि कोई व्यक्ति क्षति के लिए सहमति देता है तो वह उस क्षति के विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति को जिसने किसी क्षति (कार्य) के लिए सहमति दी है। अपकृत्य के अन्तर्गत उपचार प्राप्त नहीं कर सकता। यहाँ वादी स्वेच्छया कोई क्षति सहन करता है तो उसकी सहमति उसके विरुद्ध एक अच्छा बचाव होती है। सामण्ड के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे अतिचार को प्रवर्तित (लागू) नहीं करवा सकता जिसका उसने स्वेच्छया परित्याग कर दिया है। इस प्रकार यदि आप किसी व्यक्ति को अपने घर आमन्त्रित करते हैं तो आप उस व्यक्ति के विरुद्ध भूमि के अतिचार के लिए वाद नहीं ला सकते। इसी प्रकार यदि आपने किसी सर्जन को सर्जरी के सामान्य खतरों के प्रति सहमति दी है तो आप सर्जन के विरुद्ध उन सामान्य क्षतियों के लिए शिकायत नहीं कर सकते जो सर्जन द्वारा सद्भावपूर्वक कार्य करते हुए घटित होती है।

       इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने ही प्रतिकूल किसी मानहानि विषय के प्रकाशन की सहमति दे देता है तो वह ऐसे प्रकाशन के लिए प्रकाशक को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता।

      सहमति विवक्षित या अभिव्यक्त हो सकती है। विवक्षित सहमति (Consent) वह है जो पक्षकारों के आचरण के आधार पर अनुमानित की जाती है। उदाहरण के लिए यदि किसी खिलाड़ी ने किसी खतरनाक खेल में सम्मिलित होने की सहमति दी है तो वह उस विशिष्ट खेल में सामान्य चोटों के विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकता। इसी प्रकार क्रिकेट या मोटर रेस सका दर्शक उस क्षति के लिए शिकायत नहीं कर सकता जो उसे क्रिकेट बॉल लगने के कारण या मोटर कार के ट्रैक पर आने के कारण होती है। इसी प्रकार सहमति अभिव्यक्त रूप से बोल कर या लिख कर दी जा सकती है। यह उल्लेखनीय है कि कोई भी व्यक्ति अवैध कार्य या अपराध किए जाने के लिए सहमति नहीं दे सकता। अतः यह तथ्य कि वादी ने स्वयं आक्रमण या प्रहार या हत्या या चोरी किये जाने की सहमति दी थी बचाव के रूप में स्वीकार नहीं होगा।

     हाल बनाम ब्रुकलैण्ड्स आटो रेसिंग क्लब, [(1932) आल० ई० आर० 208.] नामक बाद में वादी प्रतिवादी की भूमि पर आयोजित मोटर रेस का दर्शक था। यहाँ रेस के दौरान दो कारों की भिड़न्त हो गई। एक कार दर्शकों के मध्य घुस गई जिससे वादी को चोट आई। यह निर्णय किया गया कि दर्शक ऐसे खतरनाक खेलों के आयोजन में सम्मिलित होकर उन खतरों के लिए विवक्षित सहमति देते हैं जो ऐसे खेलों में आमतौर पर अन्तर्निहित होते हैं। अतः वादी उपचार का अधिकारी नहीं है।

     पद्मावती बनाम दुग्गा नाइका ( (1975) ए० सौ० जे० 222 | नामक बाद में एक जोप जब पेट्रोल पम्प पर ले जायी जा रही थी अचानक उस जीप के अगली पहिया का एक बोल्ट निकल गया जिससे जीप पलट गई तथा दो यात्री मर गए। बाद लाने पर न्यायालय ने प्रतिकर से इन्कार कर दिया क्योंकि एक तो यह एक अपरिहार्य दुर्घटना थी तथा दूसरे यात्री स्वेच्छा से (सहमति से) जीप में सवार हुए थे।

   न्यायमूर्ति पोलक ने कहा यदि मैं अपने मनोरंजन के लिए विस्फोटक सामग्री (पटाखें) के निर्माण के कारखानों को देखने जाता हूँ। दुकान में विस्फोट हो जाता है, ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने उस खतरे के प्रति अपनी सहमति दी थी जो विस्फोट के कारण मुझे हुई है और मेरे पास शिकायत का कोई कारण नहीं है।

सहमति (consent) बचाव के रूप में तभी उपलब्ध होगी यदि यह साबित कर दिया जाय कि –

(1) सहमति स्वतन्त्र थी- यदि सहमति दबाव (उत्पीड़न), कपट या भूल के अन्तर्गत प्राप्त की गई थी तो सहमति स्वतन्त्र नहीं कहीं जा सकती। क्षति उसी कार्य के कारण हुई होनी चाहिए जिसके लिए सहमति दी गई थी। इस प्रकार यदि मैंने किसी व्यक्ति को बैठक में आने के लिए आमन्त्रित किया है परन्तु वह बिना किसी औचित्य के शयनकक्ष में चला जाता है तो वह अतिचार के अपकृत्य का दोषी होगा।

   सिर्फ ज्ञान (जानकारी) होने मात्र से सहमति अनुमानित नहीं की जा सकती क्योंकि सूक्ति है सहमति से क्षति नहीं न कि यह कि ज्ञान से क्षति नहीं है। (The maxim is volunti non fit Injuria not scienti non fit Injuria)- सहमति से क्षति नहीं (volunti non fit injuria) के बचाव का सफलतापूर्वक दावा करने के लिए दो बातें साबित की जानी आवश्यक है-

(1) वादी यह जानता था कि जोखिम (Risk) का अस्तित्व था। (2) जोखिम के अस्तित्व की जानकारी होते हुए भी उसने क्षति सहन करने की सहमति दी थी।

      यदि उपरोक्त शर्तों में से एक शर्त विद्यमान है अर्थात् वादी को खतरे का सिर्फ ज्ञान (जानकारी) थी तो सहमति का बचाव प्रतिवादी को प्राप्त नहीं होगा क्योंकि इस कारण कि वादी को खतरे की जानकारी थी यह अनुमानित नहीं किया जा सकता कि वादी ने खतरों से होने वाली क्षति के लिए अपनी सहमति दी थी क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है कि खतरे को जानते हुए भी व्यक्ति मजबूरी में सहमति देता है

     बाउटर बनाम रॉले रेगिस कार्पोरेशन [(1994) के० बी० 476.] नामक वाद में वादी द्वारा एक घोड़ा-गाड़ी के चालक को उस घोड़ा-गाड़ी को चलाने के लिए कहा गया जिसका घोड़ा भागता था। वादी ने मालिक के आदेश का पालन करते हुए घोड़े को बाहर निकाला घोड़ा उछला और वादी क्षतिग्रस्त हो गया। यहाँ घोड़ा निकालने की सहमति वादी द्वारा नौकर होने की मजबूरी के अन्तर्गत दी गई थी। ऐसी सहमति स्वतन्त्र नहीं हो सकती। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी को सहमति का बचाव उपलब्ध नहीं होगा। वादी प्रतिकर का हकदार है।

      स्मिथ बनाम बाकर ((1891) ए० सी० 325.] इस बाद में वादी प्रतिवादी की खदान में चट्टानों को काटने के लिए छेद करने के लिए नियोजित था। रस्से की सहायता से क्रेन द्वारा पत्थर के टुकड़ों को एक ओर से दूसरी ओर ले जाया जा रहा था। क्रेन वादी के सर के ऊपर में होकर गुजरती थी जब वह कार्य में व्यस्त था क्रेन से एक परिसर पर गिरा, उसे चोट लगी यहाँ नियोजक प्रतिवादी घटना के समय वादी को चेतावनी न देने की उपेक्षा का दोषी यद्यपि वादी को सामान्यतः जोखिम की जानकारी थी। हाउस ऑफ लाईस ने निर्णय दिया कि यहाँ वादी को सिर्फ खतरे की जानकारी थी। अतः “सहमति से क्षति नहीं” का प्रतिवाद प्रतिवादी को उपलब्ध नहीं होगा। इस प्रकार यदि जानकारी के बचाव को सहमति के लिए स्वीकार कर लिया जाय तो आमतौर पर नियोजक अपने दायित्व से बचने के लिए जानकारी के तर्क का प्रयोग करेंगे। था

     डैन बनाम हेमिल्टन [ (1939) 1 के० बी० 509.] नामक बाद में एक महिला एक ऐसी कार में यह जानते हुए चढ़ी कि चालक नशे के अन्तर्गत है। चालक की उपेक्षा के कारण हुई दुर्घटना के फलस्वरूप चालक की मौत तथा उस महिला को चोट लगी। वाद लाये जाने पर महिला के विरुद्ध सहमति का तर्क दिया गया। परन्तु न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया तथा महिला को प्रतिकर दिलाया। न्यायालय ने कारण बताते हुए कहा कि चालक के नशे का स्तर इतना नहीं था कि यह माना जा सके कि महिला ने स्पष्ट खतरे के प्रति अपनी सहमति दी थी।

सहमति के बचाव के अपवाद या सीमाएँ।

(Limitations or Exceptions of Defence of Consent)

सहमति के बचाव के विरुद्ध निम्न अपवाद या सीमाएँ हैं –

(1) बचाव के मामले (Rescue cases)

(2) अनुचित संविदा शर्तें अधिनियम, 1977 (इंग्लैण्ड) ।

(1) बचाव के मामले (Rescue Cases)- “सहमति से क्षति नहीं” सूक्ति का एक अपवाद बचाव के मामले में है। यदि कोई व्यक्ति बचाव करते समय सहमति से भी कोई कार्य करता है तथा उसके परिणामस्वरूप यह क्षतिग्रस्त हो जाता है तो उसे प्रतिकर प्राप्त होगा तथा प्रतिवादी, वादी के विरुद्ध सहमति का बचाव, प्रतिवाद लेकर अपने दायित्वों से बच नहीं सकता। इस अपवाद को लागू होने की महत्वपूर्ण शर्त यह है कि जस खतरे से बचाव किया गया है वह खतरा आसन्न (Imminent) था।

       इस विषय पर प्रमुख वाद हेयन्स बनाम हारवुड [ (1935) 1. किंग बेन्च 146.] है। इस वाद में प्रतिवादी के नौकर ने दो घोड़ा-गाड़ी बिना किसी देख-भाल के सड़क पर छोड़ दी थी, एक लड़के ने घोड़ों पर एक पत्थर फेंका जिससे घोड़े बिदक गये। ऐसा होने से सड़क पर उपस्थित महिलाओं तथा बच्चों के प्रति खतरा उत्पन्न हो गया। एक पुलिस कान्स्टेबिल ने जो निकट थाने पर अपनी ड्यूटी पर था, वह देखते ही दौड़ कर घोड़ों को रोकने लगा। ऐसा करते समय उसे चोट लगी। इसके लिए प्रतिवादी ने सहमति का बचाव लेते हुए कहा कि कान्स्टेबल ने अपनी सहमति से कार्य किया था अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था। न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए वादी को प्रतिकर दिलाया। लार्ड न्यायमूर्ति ग्रोवर ने कहा कि जोखिम स्वीकार करने का सिद्धान्त उस समय लागू नहीं होता जहाँ वादी को प्रतिवादी के अपकृत्य पूर्ण कार्य द्वारा उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए अपनी सहमति से बचाव कार्य करते हुए क्षति हुई थी।

    वेगनर (Wagner) बनाम इन्टरनेशनल रेलवे [(1921) 232 New York 176 ] नामक बाद में रेलवे कम्पनी की उपेक्षा के कारण एक यात्री चलती हुई गाड़ी से नीचे गिर गया। जब गाड़ी रुकी तो उसका साथी उसकी खोज में नीचे उतरा, अन्धेरा होने के कारण वह गिर पड़ा। यह निर्णय दिया गया कि यह बचाव का मामला होने के कारण रेल कम्पनी उत्तरदायी थी भले ही वादी स्वेच्छया अपने साथी के बचाव के लिए नीचे उतरा था।

(2) उपेक्षा (Negligence)- उपेक्षा Volenti non fit injuria सिद्धान्त का अपवाद है, अर्थात् जहाँ प्रतिवादी उपेक्षापूर्ण आचरण द्वारा वादी को क्षति पहुँचाता है वहाँ प्रतिवादी यह तर्क नहीं ले सकता कि वादी खतरा जानता था और खतरा जानते हुए उसने खतरे से होने वाली हानि सहन करने की सम्मति दी। सम्मति का यह अर्थ नहीं होता कि प्रतिवादी कोई भी उपेक्षा बरतने के लिए स्वतन्त्र है, विधि की मान्यता यह है कि सम्मति देने के बावजूद, प्रतिवादी को असावधानी नहीं बरतनी चाहिए, और यदि प्रतिवादी असावधानी बरतता है तो उसे सम्मति के बचाव का लाभ उपलब्ध नहीं होगा। यदि किसी व्यक्ति ने शल्य चिकित्सा हेतु सम्मति दी है तो शल्यक्रिया असफल होने पर चिकित्सक के विरुद्ध कोई मामला नहीं बनता, परन्तु यदि चिकित्सक की उपेक्षा के कारण शल्य चिकित्सा असफल रहती है तो चिकित्सक सम्मति का बचाव ले कर अपने दायित्व से नहीं बच सकता।

उदाहरण-‘अ’ एक महिला है जिसके गुर्दे में पथरी है। वह सर्जन ‘ब’ से आपरेशन कराती है। आपरेशन से पहले ‘अ’ नामक महिला खतरा सहन करने की सम्मति देती है। सर्जन ‘ब’ आपरेशन करते समय उपेक्षा से कैंची ‘अ’ के पेट में छोड़ देता है और पेट सिल देता है। ‘अ’ को इससे बहुत हानि होती है, दुबारा आपरेशन कराना पड़ता है। ‘सर्जन’ ‘ब’ दायी होगा क्योंकि उसने आपरेशन में उपेक्षा बरती थी।

सहमति से क्षति नहीं तथा योगदायी उपेक्षा (Contributory Negligence) में अन्तर –

सहमति से क्षति नहीं

(1) सहमति एक पूर्ण अपवाद है। इसके अन्तर्गत प्रतिवादी दायित्व से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है।

(2) सहमति का तर्क दोषी प्रतिवादी नहीं ले सकता अर्थात् यदि प्रतिवादी दोषी है तो वह यह तर्क नहीं ले सकता।

(3) सहमति के प्रतिवाद में दी जिस खतरे को उठाता है उसके खतरे के स्तर को जानता है।

सहदायी या योगदायी उपेक्षा

(1) योदायी उपेक्षा में वादी तथा प्रतिवादी के मध्य उनके दोष के अनुपात में प्रतिकर का विभाजन हो जाता है वादी के दोष के अनुपात में उसे देय प्रतिकर कम हो जाता है।

(2) योगदायी उपेक्षा में वादी तथा प्रतिवादी दोनों दोषी होते हैं ।

(3) योगदायी उपेक्षा में वादी खतरे से अनभिज्ञ हो सकता है जबकि उसे खतरों की जानकारी होनी चाहिए थी।

प्रश्न 6. (i) अवश्यम्भावी दुर्घटना से आप क्या समझते हैं? क्या प्रतिवादी अवश्यम्भावी दुर्घटना का बचाव ले सकता है? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।

(ii) क्या दैवकृत्य एक उचित प्रतिरक्षा है? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।

Is good defence an act of God? Explain with the help of decided cases.

उत्तर – (i) अवश्यम्भावी दुर्घटना (Inevitable Accident)- ऐसी दुर्घटना जिसका कि पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता उसे अवश्यम्भावी दुर्घटना की संज्ञा दी जाती है। “दुर्घटना” से तात्पर्य अप्रत्याशित क्षति से है।

       प्रतिवादी द्वारा अवश्यम्भावी दुर्घटना का बचाव लिया जा सकता है। सर फ्रेडरिक पोलक द्वारा अपनी पुस्तक ‘अपकृत्यों की विधि’ (Law of Torts) में कहा है कि अवश्यम्भावी दुर्घटना से तात्पर्य ऐसी दुर्घटना से है जिसे किसी भी सतर्कता द्वारा बचाना सम्भव नहीं था।

      अतः प्रतिवादी यदि यह साबित कर देता है कि न तो उसका आशय बादी को क्षति पहुंचाना था और न ही वह युक्तियुक्त सावधानी बरत कर वादी को क्षति से बचा सकता है, तो यह एक उचित प्रतिरक्षा मानी जाएगी। स्टैनले बनाम पॉविल, (1891) 11 क्यू० बी० के बाद में बादी और प्रतिवादी एक आखेट पार्टी के सदस्य थे और दोनों चिड़ियों तथा चकोर के शिकार पर गये थे। प्रतिवादी ने चकोर पर गोली चलायो परन्तु उसके बन्दूक से निकली हुई गोली एक वृक्ष से टकरा गई और वहाँ से पलट कर वादी को जा लगो जिसे परिणामस्वरूप बादी को क्षति पहुंची। यह अभिनिर्धारित किया गया कि बादी की क्षति दुर्घटनात्मक थी और प्रतिवादी उसके लिए उत्तरदायी नहीं थाfenney

      होम्स बनाम मेथर, (1975) एल० आर० 10 एक्स० 261 के बाद में प्रतिवादी के घोड़ों को उसका सेवक एक राजमार्ग पर चला रहा था। एक कुत्ते के भौंकने से घोड़े इतने भड़क गये कि उन पर नियन्त्रण स्थापित करना कठिन हो गया, अन्ततः उन्होंने बादी को ठोकर मार दी। यह धारित किया गया कि यह एक दुर्घटना थी जिसे सम्यक् सतर्कता एवं सावधानी बरत कर भी टाला जा सकता था, अतः प्रतिवादी उत्तरदायी न थे।

     ब्राउन बनाम केन्डल, (1850) 6 Cush के बाद में बादी और प्रतिवादी के कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। प्रतिवादी जय उन्हें एक दूसरे को छड़ी से अलग करने का प्रयास कर रहा था तब दुर्घटनात्मक ढंग से उसके द्वारा वादी की आँख में चोट लग गई जो उसके समीप ही खड़ा था। वादी को हुई क्षति विशुद्ध दुर्घटना का परिणाम माना गया, और यह धारित किया गया कि उसके लिए कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।

      पद्मावती बनाम डुग्गानाइका, (1975) 1 कर्ना० एल० जे० 93 के बाद में दो अपरिचित व्यक्ति एक जीप में सवार हो गया। उसके कुछ ही देर बाद जीप के सामने के दाहिने पहिये को घुरे से जोड़ने वाला वोल्ट निकल गया और पहिया अक्ष दण्ड (axle) से अलग हो गया। जीप दुर्घटनाग्रस्त हो गई और ये दोनों अपरिचित व्यक्ति गम्भीररूप से घायल हो गये जिसमें से बाद में एक की मृत्यु हो गई। जाँच के परिणामस्वरूप यह ज्ञात हुआ कि यह एक विशुद्ध दुर्घटना का मामला था और कोई साक्ष्य नहीं था, जो यह प्रदर्शित करता कि जीप की खराबी प्रकट थी और ऐसा सांविधिक जाँच के परिणामस्वरूप उसे माना जा सकता था। प्रतिवादी अर्थात् जीप का चालक और उसका स्वामी उत्तरदायी नहीं माने गये।

      श्रीधर तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम, (1987) ए० सी० जे० 636 के मामले में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस जब एक गाँव के करीब पहुँची तो एक साइकिल सवार अचानक बस के सामने आ गया और जब बस के चालक ने उसे बचाने के लिए ब्रेक लगाया तो बस सड़क से उछल गई और इस बस का पिछला भाग दूसरी दिशा से आने वाली बस के अगले भाग से टकरा गया। वर्षा होने के कारण सड़क भीग गई थी। यह पाया गया कि दोनों बसें मध्यम गति से चल रही थीं और दोनों बसों के चालको की पूर्ण सावधानी के बावजूद दुर्घटना घटी थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह एक अवश्यम्भावी दुर्घटना थी जिसके लिए निगम दायी नहीं है।

(ii) दैवकृत्य (Act of God) – एक उचित प्रतिरक्षा है। दैवकृत्य की परिभाषा देते हुए। पोलक ने कहा कि “दैव कृत्य प्राकृतिक क्रियाओं के अप्रत्याशित परिचालन को कहते हैं जिनका मनुष्य असाधारण बुद्धि का प्रयोग करके भी पूर्वानुमान नहीं कर सकता है।” दैवकृत्य भी एक प्रकार की अनिवार्य दुर्घटना है, अन्तर केवल यह है कि दैवकृत्य के अन्तर्गत प्रतिफलित क्षति अत्यधिक वर्षा, आँधी, तूफान, ज्वार-भाटा और ज्वालामुखी फोस्फो विस्फोट जैसे प्राकृतिक बलों से कारित होती है। निकोलस् बनाम मार्सलैण्ड (1876) 2 एक्स० डी० का मामला इस विषय पर प्रमुख मामला है। प्रतिवादी की भूमि पर वर्षा का पानी एकत्र होने से स्वतः एक कृत्रिम झील बन गयी थी। इसमें पानी एक प्राकृतिक स्रोत से आता था जो कहीं ऊपर से प्रारम्भ होकर प्रतिवादी की झील में आता था। एक वर्ष असाधारण वर्षा होने के कारण यह झील भर गयी और पानी उसके कगारों को तोड़ कर वादी की भूमि पर बहने लगा। पानी के बहाव में वादी के चार पुल बह गये। वादी ने प्रतिवादी पर नुकसानी का दावा दायर किया।

     न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी दायी नहीं था, क्योंकि उक्त दुर्घटना एक दुर्घटना थी जिसका पूर्वानुमान प्रतिवादी किसी भी तरह नहीं कर सकता था।

     रामलिंगा नादर बनाम नारायण रेडियार, ए० आई० आर० 1973 केरल 197 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी अनियन्त्रित भीड़ के आपराधिक कार्यकलाप को, जिसके अन्तर्गत प्रतिवादी की लारी द्वारा परिवहन किये गये माल को लूट लिया गया था, दैवकृत्य नहीं माना जा सकता और सामान्य वाहक के रूप में प्रतिवादी इस माल की हानि के लिए उत्तरदायी है। इस वाद में न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि “दुर्घटना या तो प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव के कारण हो सकती है, अथवा वह मानव अभिकरणों के हस्तक्षेप अथवा दोनों कारणों से हो सकती है।

      इसी प्रकार कल्लू लाल बनाम हेमचन्द्र, ए० आई० आर० 1958 म० प्र० 48 में सामान्य वर्षा से दोवाल गिरने से दो बच्चों की मृत्यु को दैवकृत्य नहीं माना गया क्योंकि दैवकृत्य के लिए असामान्य वर्षा या प्राकृतिक प्रकोप होना आवश्यक है। ग्रीनाक कारपोरेशन बनाम कैलेडोनियन रेलवे, (1917) ए० सी० 556 के बाद में भी प्रतिवादी को दैवकृत्य का बचाव नहीं दिया गया था क्योंकि इस वाद में भी घटना मानवीय क्रियाओं के कारण हुई थी न कि प्राकृतिक प्रकोप से।

     श्रीराम एजूकेशन ट्रस्ट बनाम सीताबेन अनिल भाई पटेल, ए० आई० आर० (2011) एन० ओ० सी० 221 गुजरात के बाद में भूकम्प के परिणामस्वरूप एक विद्यालय भवन गिर गया और कुछ बच्चों की मृत्यु हो गयी न्यायालय के समक्ष विद्यालय प्राधिकारियों द्वारा “दैव कृत्य” का प्रतिवाद लिया गया जिसे कि न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया व निर्णय दिया कि विद्यालय भवन का निर्माण निर्धारित मानक स्तर के अनुसार नहीं था, प्राधिकारियों से भवन उपयोग की अनुज्ञा नहीं प्राप्त की गयी थी, एवं नगर निगम की उपविधियों के अधीन आपेक्षित भवन स्थल की मिट्टी की जाँच व भार सहन करने सम्बन्धी जाँच भी नहीं करायी यौ थी। ऐसी दशा में भूकम्प के रूप में प्राकृतिक महाविपत्ति का अभिवचन विद्यालय प्राधिकारियों/अपीलार्थियों को उनकी उपेक्षा के फलस्वरूप उत्पन्न दायित्व से निर्मुक्ति प्रदान नहीं करता। अपीलार्थी इस बात की सावधानी बरतने के लिए कर्तव्यबद्ध थे कि भवन निर्माण उचित रीति से किया जाय, उसकी नींव मजबूत हो व मिट्टी की प्रकृति निर्माण में सहायक हो एवं निर्माण सामग्री अच्छी हो।

प्रश्न 7 स्वतन्त्र एवं संयुक्त अपकृत्यकर्ता किसे कहते हैं? क्या यह नियम भारत में लागू है? इनमें क्या अन्तर है? स्पष्ट करें।

What do you understand by Independent and Joint Tort Feasors? Is this rule applied in India? Distinguish between Independent and Joint Tort-Feasors.

उत्तर- स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता (Independent Tort Feasors)– जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों का कार्य, जब कि वे स्वतन्त्र रूप से उस कार्य को कर रहे हों, किसी एक क्षति को उत्पन्न करने के लिए संवर्तित होता है, तब ऐसे व्यक्तियों को स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता कहा जाता है। ऐसे अपकृत्यकर्ताओं द्वारा पूर्व विचार-विमर्श के बाद कार्य नहीं किया जाता। उनके कार्य के अभिकल्प में केवल समानता रहती हैं, किन्तु वे एक दूसरे से पूर्णतः स्वतन्त्र रहकर उस कार्य को सम्पादित करते हैं। उदाहरणत:- दो मोटर चालक असावधानी से मोटर चलाते हुए एक दूसरे की विपरीत दिशा में से आते हैं और आपस में उनकी भिडन्त हो जाती है। इन दोनों के बीच में एक पैदल यात्री कुचल कर मारा जाता है। वे मोटर चालक स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता हैं।

    द कोर्सक के वाद में दो जलपोतों की अपनी-अपनी उपेक्षा से एक-दूसरे से भिड़न्त हो गई, जिसके परिणामस्वरूप एक जलपोत डूबने लगा और उसने अपने साथ एक तीसरे जलपोत को भी डुवा दिया। यह धारित किया गया कि दोनों जलपोत संयुक्त अपकृत्यकर्ता न होकर एक-दूसरे से स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता थे। स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ताओं का दायित्व संयुक्त न होकर एक दूसरे से पूर्णतः पृथक् होता है, अतः जितने अपकृत्यकर्ता होते हैं, उतने ही कार्यवाही के आधार होते हैं। इसके अतिरिक्त यह धारित किया गया कि चूँकि ऐसे मामलों में हर अपकृत्यकर्ता स्वतन्त्र रूप से उत्तरदायी होता है, अः एक अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध की गई। कार्यवाही दूसरे अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध कार्यवाही करने में बाधक नहीं बनती है।

     संयुक्त अपकृत्यकर्ता (Joint Tort-Feasors)– जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर एक संयुक्त योजना की पूर्ति के आशय से कोई अपकृत्य करते हैं तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता (Joint fort-feasors) कहे जाते हैं। इसमें संयुक्त रूप से वादी को क्षति पहुँचाने का आशय होना आवश्यक है। किन्तु जब कई व्यक्तियों के स्वतन्त्र अपकृत्य से वादी को क्षति पहुंचती है तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता नहीं कहे जा सकते हैं और उनके विरुद्ध बाद का कारण एक न होकर भिन्न-भिन्न हो जाता है। उदाहरण- यदि ‘अ’ ‘व’ की मानहानि करता है और ‘स’ बिल्कुल स्वतन्त्र रूप से कार्य करता हुआ ‘ब’ की मानहानि करता है तो ‘अ’ और ‘स’ स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता होंगे और उनके विरुद्ध ‘ब’ अलग-अलग बाद ला सकता है। किन्तु यदि ‘अ’ और ‘स’ दोनों मिल कर ‘ब’ की मानहानि करते हैं तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता होंगे। इस प्रकार उन व्यक्तियों को संयुक्त अपकृत्यकर्ता कहा जाता है जो एक सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपकृत्य करते हैं। किन्तु व्यक्तियों द्वारा केवल उद्देश्य को एक रुपता ही पर्याप्त नहीं है वरन् उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सम्मिलित रूप से कार्यवाही भी आवश्यक है। बूक बनाम बूख, (1928) 2 के० बी० 578 का मामला संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं का एक बढ़िया उदाहरण है। इसमें प्रतिवादीगण ‘क’ और ‘ख’ तथा वादी एक ही मकान के दो अलग-अलग भाग में रह रहे थे। रात्रि में प्रतिवादी को ऐसा अनुभव हुआ कि वादी के भाग से गुजरने वाले पाइप से गैस निकल रही है। दोनों खुले टार्च से बारी बारी पाइप की जाँच करने के लिए गये। ‘ख’ जब ऐसा कर रहा था तो पाइप में आग लग गयी और एक बड़ा विस्फोट हो गया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादीगण ‘क’ और ‘ख’ संयुक्त अपकृत्यकर्ता थे। यद्यपि विस्फोट केवल एक व्यक्ति के अपकृत्य का परिणाम था किन्तु दोनों का उद्देश्य एक था और दोनों के आपस में पारस्परिक सम्बन्ध भी थे।

संयुक्त दायित्व निम्नलिखित मामलों में उत्पन्न होता है –

(1) अभिकरण (Agency)

(2) प्रतिनिहित दायित्व (Vicarious Liability)

(3) संयुक्त कार्य (Joint of Common Action)।

(1) अभिकरण (Agency)– यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को अपने कार्यों को करने के लिए प्राधिकृत करता है और वह व्यक्ति कोई अपकृत्यपूर्ण कार्य करता है तो विधि के अधीन दोनों को संयुक्त रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता है।

(2) प्रतिनिहित दायित्व (Vicarious Liability)– जब एक व्यक्ति एक-दूसरे व्यक्ति के अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए समान रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता है तो वे अपकृत्यकर्ता की श्रेणी में आते हैं, जैसे-स्वामी और सेवक के सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाले दायित्व।

(3) संयुक्त कार्य (Joint of Common Action)- जब एक से ज्यादा व्यक्ति एक साथ मिल कर कोई अपकृत्यपूर्ण कार्य करते हैं तो सब के सब उत्तरदायी होते हैं और उन पर संयुक्त कार्यवाही का दायित्व होता है।

      संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं का दायित्व संयुक्त तथा व्यक्तिगत दोनों प्रकार का होता है, अर्थात् क्षतिग्रस्त व्यक्ति नुकसानी की पूरी धनराशि के लिए उनमें से किसी एक या कुछ पर या उनमें से सभी पर संयुक्त रूप से बाद चला सकता है चाहे उनके भाग लेने की सोमा कुछ भी रही हो। प्रत्येक प्रतिवादी नुकसानी की पूरी धनराशि के लिए दायी होता है। इन सभी के विरुद्ध संयुक्त रूप से दी गयी डिक्री का धन उनमें से किसी एक से वसूल किया जा सकता है।

      भारत के संदर्भ में – भारत में इंग्लैण्ड की भाँति विधि-सुधार अधिनियम, 1945 और सिविल लायेबिलिटी (कान्ट्रीब्यूशन) ऐक्ट, 1978 जैसे अधिनियम नहीं पारित किये गये हैं। इंग्लैण्ड के मेरीबेदर बनाम निक्सन में प्रतिपादित नियम पर भारतीय न्यायालयों में मतैक्य नहीं है। जहाँ कुछ उच्च न्यायालयों ने इस नियम को मान्यता दी है वहीं कई अन्य उच्च न्यायालयों ने इस नियम के भारत में लागू होने पर सन्देह व्यक्त किया है।

      खुशहाल राव बनाम बापूराव गनपतराव, (1912) नागपुर 52 के मामले में एक फर्म में पाँच व्यक्ति भागीदार थे। उन लोगों ने स्वतन्त्र रूप से जंगल में लकड़ी काटने की अनुज्ञा तो ली लेकिन बाद में कुछ कारणवश उसने अपनी स्वीकृति वापस ले ली और भागीदारों से नयो शर्त के आधार पर पुनः समझौता करने के लिए कहा और उन्हें लकड़ी काटने से इन्कार कर दिया। भागीदारों ने इसे मानने से इन्कार कर दिया और सोलह महोने तक लकड़ी काटने का काम चालू रखा। जंगल के स्वामी ने संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध अनधिकार प्रवेश के लिए वाद चलाया जिसमें न्यायालय ने उसे नुकसानी की डिक्री प्रदान की। डिक्री में उल्लिखित नुकसानी की धनराशि एक ही अपकृत्यकर्ता से वसूल की गई थी। उसने अपने सह-अपकृत्यकर्ताओं पर नुकसानी की धनराशि के परस्पर अंशदान के लिए बाद संस्थित किया। सह-अपकृत्यकर्ताओं ने अपने बचाव में मेरीवेदर बनाम निक्सन, (1799) के नियम का तर्क प्रस्तुत किया। न्यायालय ने यह निर्णय किया कि मेरीवेदर के मामले में प्रतिपादित नियम यहाँ नहीं लागू होता है और वादी को अपने सह अपकृत्यकर्ताओं से नुकसानी को धनराशि के बराबर अंशदान पाने का अधिकार है।

      जबकि इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के अधीन नियम यह था कि यदि वादी द्वारा संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करके उनमें से किसी एक से नुकसानी की पूरी रकम वसूल की जा चुकी है तो वह व्यक्ति अपने सह अपकृत्यकर्ताओं से उस रकम का कोई भी भाग वसूल नहीं कर सकता था। संक्षेप में नियम यह था कि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं में अंशदान नहीं किया जा सकता है। यह नियम मेरीवेदर बनाम निक्सान, (1799) 8 टी० आर० 186 के प्रमुख वाद में प्रतिपादित किया गया था।

      परन्तु विधि सुधार अधिनियम, 1925 में मेरीवेदर बनाम निकसन में प्रतिपादित नियम को समाप्त कर दिया गया है। यह अधिनियम यह उपबन्धित करता है कि यदि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं में से किसी एक से नुकसानी को पूरी धनराशि वसूल की जा चुकी हो तो उसे अपने सह-अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध नुकसानी की धनराशि के परस्पर अंशदान के लिए वाद संस्थित करने का हक होगा।

     संयुक्त एवं स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता में अन्तर– (1) संयुक्त अपकृत्यकर्ता की स्थिति में में यह माना गया है कि इसमें केवल एक ही बाद कारण होता है और इसलिए संयुक्त अपकत्यकर्ताओं में से यदि केवल ही के विरुद्ध निर्णय प्राप्त किया जाता है तो वाद का हेतुक समाप्त हो जाता है। दूसरी तरफ, स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता की स्थिति में यह माना गया है कि उतने वाद कारण हो सकते हैं, जितने कि स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता होते हैं। अत: ऐसे किसी एक अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध की गई कार्यवाही अन्य अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए बाधा नहीं बन सकती।

      संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं में से किसी एक की मुक्ति अन्य समस्त को मुक्ति में प्रतिफलित होती है जब तक कि इसके विपरीत कोई अभिसंविदा न हो। स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ताओं की स्थिति इससे भिन्न है अर्थात् उनमें से किसी एक स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता की मुक्ति अन्य अपकृत्यकर्ताओं को मुक्त नहीं करती।

प्रश्न 8. (अ) प्रतिनिहित दायित्व से आप क्या समझते हैं? यह कैसे उत्पन्न होता है?

(ब) सेवक से आप क्या समझते हैं? सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में क्या अन्तर है? एक स्वामी अपने सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्यात्मक परिणामों के लिए किन परिस्थितियों में उत्तरदायी होता है? क्या एक व्यक्ति स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा किए गए अपकृत्यात्मक परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है? यदि हाँ तो कब ?

(अ) What do you understand by vicarious liability ? How does it arise?

(ब) What do you understand by a servant? What is the difference between servant and independent contractor? In what circumstances, is a master liable for the consequences of tortious act of his servant? Can a person be held liable for the tortuous act of an independent contractor?

उत्तर (अ) – प्रतिनिहित या प्रतिनिधायी दायित्व (Vicarious Liability) – साधारणतया एक व्यक्ति अपने स्वयं द्वारा किये गये अपकृत्यात्मक कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। परन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा किए गए अपकृत्यात्मक कार्यों के परिणामों के लिए भी उत्तरदायी ठहराया जाता है। ऐसे दायित्व को प्रतिनिधायी (प्रतिनिहित) दायित्व (Vicarious liability) को संज्ञा दी गई है। इसका सबसे प्रमुख उदाहरण सेवक द्वारा किये गए अपकृत्यात्मक कार्यों के लिए स्वामी का उत्तरदायी होना है।

प्रतिनिधायी दायित्व निम्न रीतियों द्वारा उत्पन्न होता है –

(1) अनुसमर्थन द्वारा (By Ratification) 0inaqabat

(2) विशेष सम्बन्ध द्वारा (By Special Relation)

(3) उत्प्रेरण द्वारा (By Abetament)

(1) अनुसमर्थन द्वारा (By Ratification)– यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ओर से कोई अपकृत्य पूर्ण कार्य करता है जिसके लिए उसे प्राधिकृत (authorised) नहीं किया गया था, परन्तु बाद में यदि वह व्यक्ति उस कार्य का अनुसमर्थन कर देता है तो अनुसमर्थन करने वाला व्यक्ति उस अपकृत्य पूर्ण कार्य के परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा जिसका उसने अनुसमर्थन किया है। यहाँ यह अनुमान किया जाता है कि उस कार्य को करने के लिए पहले से ही प्राधिकार दिया गया था। ऐसी परिस्थिति में वह कार्य अनुसमर्थन देने वाले व्यक्ति का कार्य माना जाता है। चाहे उस कार्य से उसे कोई लाभ हुआ हो। या नहीं।

(2) विशेष सम्बन्ध के कारण दायित्व (Liability due to Certain Relationship)- इस शीर्षक के अन्तर्गत दायित्व निम्न सम्बन्धों के अस्तित्व के कारण उत्पन्न होता है –

(i) स्वामी तथा सेवक।

(ii) प्रधान स्वामी (Principal) तथा अभिकर्ता (Agent)1)

(iii) फर्म तथा उसके भागीदार (Firm and its partners)

      ये सम्बन्ध ऐसे हैं जहाँ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का अभिकर्ता (agent) माना जाता है। इस सम्बन्ध में ऐसा माना जाता है कि अभिकर्ता स्वामी के लिए कार्य करता है तथा अभिकर्ता का कार्य स्वामी का कार्य माना जाता है।

(3) उत्प्रेरण के मामलों में (In cases of Abetement)— यदि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को कोई अपकृत्यात्मक कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करता है तो वह उत्प्रेरित करने वाला व्यक्ति उसके उत्प्रेरण के फलस्वरूप किए गए कार्यों के लिए प्रतिनिधायो उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी होता है।

(B) सेवक कौन है? (Who is a servent?)– एक सेवक वह व्यक्ति है जिसे दूसरे व्यक्ति (नियोक्ता स्वामी) द्वारा अपने नियंत्रण तथा निर्देश में कार्य करने हेतु नियोजित किया जाता है। स्वामी (master) वह व्यक्ति होता है जो सेवक को नियुक्त करता है तथा उसे अपने सेवक को आदेशों को देने तथा उनका पालन कराने का अधिकार होता है। सामान्य तौर पर सेवक की नियुक्ति पारिश्रमिक या ईनाम के लिए होती है परन्तु ऐसी भी परिस्थिति हो सकती है जहाँ एक व्यक्ति निःशुल्क (gratuitious) सेवक हो सकता है। स्वामी तथा सेवक का सम्बन्ध तभी स्थापित होता है जब दो व्यक्तियों में से एक आदेश देता है तता दूसरा उसके आदेश का पालन करता है।

      सामान्य नियम के अनुसार स्वामी अपने सेवक द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होते हैं किन्तु वह स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor) के कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

      स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor)– एक स्वतन्त्र ठेकेदार वह व्यक्ति होता है जिसे एक व्यक्ति निश्चित कार्य करने के लिए नियुक्त करता है। जहाँ तक उस कार्य के वास्तविक निष्पादन का सम्बन्ध है, वह उस व्यक्ति के नियन्त्रण तथा निरीक्षण निर्देश में नहीं रहता। कार्य करने का उसका अपना स्वतन्त्र ढंग होता है। वह अपने मरजी या विवेक के अनुसार कार्य करता हुआ अपेक्षित परिणाम पर पहुँचता है। वह केवल संविदा की शर्तों के अनुसार कार्य करने के लिए कर्तव्यबद्ध होता है न कि अपने स्वामी के निर्देश या आदेशों के अनुसार।

       उदाहरण के लिए, यदि मेरी मोटर का चालक उपेक्षापूर्ण ढंग से कार चलाता है तथा किसी व्यक्ति को क्षति पहुँचाता है तो मैं उस क्षति के लिए उत्तरदायी हूँ। परन्तु यदि मैं एक टैक्सी में सवारी करता हूँ तथा टैक्सी चालक उपेक्षापूर्ण ढंग से कार्य करते हुए किसी व्यक्ति को क्षति पहुँचाता है तो उस क्षतिकारक परिणाम के लिए टैक्सी चालक स्वयं उत्तरदायी होगा।

       वी० जे० आचार्या बनाम रतीलाल फूलचन्द्र ( ए० आई० आर० 1984 बम्बई 335 ) नामक बाद में डॉ० आचार्य अपनी कार ठीक कराने एक गैराज में ले गए। उन्होंने गैराज के स्वामी को कार की त्रुटि बतायी तथा उसे ठीक करने का आदेश देकर घर चले गये। गैराज का एक मैकेनिक कार को गैराज में ले जा रहा था तथा उसकी उपेक्षा के कारण एक महिला टकरा गई। यहाँ मैकेनिक की उपेक्षा के कारण हुई क्षति के लिए डॉ० आचार्य उत्तरदायी नहीं होंगे क्योंकि मैकेनिक डॉ० आचार्य का सेवक न होकर स्वतन्त्र ठेकेदार था।

      सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में अन्तर- एक सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में प्रमुख अन्तर यह है कि नौकर को कौन सा कार्य किया जाना है यह बताने के साथ-साथ कार्य कैसे किया जायेगा इसका भी निर्देश दिया जाता है तथा उसकी कार्य प्रणाली पर स्वामी का नियन्त्रण रहता है जबकि स्वतन्त्र ठेकेदार को सिर्फ क्या कार्य किया जाना है बताया जाता है तथा कार्य कैसे किया जायेगा उस बारे में स्वतन्त्र ठेकेदार का अपना विवेक होता है।

सेवक

(1) सेवक स्वामी के नियन्त्रण तथा निर्देश में कार्य करता है।

(2) सेवक को ‘क्या (What) किया जाना हैं बताने के साथ कैसे (How) कार्य किया जायेगा यह भी बताना होता है।

(3) एक स्वामी अपने सेवक द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है।

(4) सेवक की नियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार स्वामी को होता है।

स्वतन्त्र ठेकेदार

(1) स्वतन्त्र ठेकेदार स्वामी के निर्देश में कार्य नहीं करता तथा उसकी कार्यप्रणाली स्वविवेकानुसार होती है।

(2) स्वतन्त्र ठेकेदार को सिर्फ क्या (What) किया जाना है बताना होता है परन्तु कार्य कैसे (How) किया जाता है उस पर स्वामी का नियन्त्रण नहीं रहता।

(3) एक स्वामी अपने स्वतन्त्र ठेकेदारों के द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

(4) स्वतन्त्र ठेकेदार की नियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार स्वामी को नहीं है।

     बड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन बनाम पुरुषोत्तम वी० मुरुजनी (2015) 3 सुप्रीम कोर्ट केसेस के मामले में एक नाव दुर्घटना में 22 लोगों की डूबकर मृत्यु हो गयी थी। दुर्घटना गुजरात के बड़ोदरा स्थित सूर सागर झील में हुई थी जब नाव अपनी क्षमता से दुगुने यात्रियों को वहन कर रही थी। नाव की क्षमता 20 यात्रियों की थी जबकि उसमें दुर्घटना के समय 38 यात्री थे और उस समय नाव में न तो जीवन रक्षक जैकेट्स थे और न तो जीवन रक्षक गार्ड्स ही तैनात किये गये थे जिससे कि डूब रहे यात्रियों की जान बचाई जा सकती। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य प्राधिकारियों को प्रतिनिधायी रूप से दायित्वाधीन ठहराया और यह निष्कर्ष दिया कि सूरसागर झील बड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन के प्रबन्धन एवं नियंत्रण के अधीन थी। म्युनिसिपल कार्पोरेशन ने लोगों के झील में घूमने-फिरने हेतु नाव की व्यवस्था अनुबन्ध द्वारा संविदाकर्मियों से कर रखी थी। कार्पोरेशन के अधिकारियों ने नाव में क्षमता से अधिक यात्रियों के भर लेने की एक प्रकार से अनुमति दे रखी थी, क्योंकि इस मामले में वे उपेक्षावान व लापरवाह थे कि नावों में क्षमता के अनुसार यात्री बैठाये जायँ। कार्पोरेशन का सावधानी बरतने का और उचित निगरानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य है कि सार्वजनिक झील में नावों की गतिविधियाँ सुरक्षित प्रकार से हों। मात्र संविदाकर्मियों और कर्मचारियों को ऐसी गतिविधियों के लिए नियुक्त कर देना ही कार्पोरेशन को उसके दायित्वों से उन्मुक्ति प्रदान करने का उचित आधार नहीं हो सकता है और न केवल यह दायित्व संविदाकर्मियों पर हो डाला जा सकता है। विशेषकर ऐसी सार्वजनिक गतिविधियों में जहाँ इस प्रकार की दुर्घटना की सम्भावना हो एवं खतरा स्पष्टतः सन्निहित हो जब तक कि जीवन रक्षक उपायों की व्यवस्था नावों में न कर ली गयी हो जो कि प्रस्तुत मामले में नहीं की गयी थी। अतः शीर्ष न्यायालय ने राज्य आयोग और राष्ट्रीय आयोग द्वारा अनुबन्धित कर्मियों को प्राथमिक रूप से और बड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन को दुर्घटना हेतु प्रतिनिधायी रूप से दायित्वाधीन ठहराया जाना उचित माना।

     सेवक द्वारा किए गए अपकृत्यों के लिए स्वामी का दायित्व- एक व्यक्ति अपने सेवक द्वारा किए गए अपकृत्यों के लिए निम्न परिस्थितियों में उत्तरदायी होता है –

(1) जिस व्यक्ति द्वारा अपकृत्य किया गया था वह सेवक के रूप में नियोजित था।

(2) अपकृत्य पूर्ण कार्य सेवायोजन के दौरान (In the course of employment ) (सेवा के दौरान) किया गया था।

(1) सेवक के रूप में नियोजन– स्वामी के दायित्व की पहली शर्त यह है कि अपकृत्यकर्ता सेवक था अर्थात् वह सेवक के रूप में स्वामी द्वारा नियोजित होकर कार्य कर रहा था। सेवक होने की सबसे प्रमुख शर्त यह है कि सेवक स्वामी के नियन्त्रण या निर्देश में वेतन या पारितोषिक या पारिश्रमिक के लिए कार्य करता होना चाहिए। परन्तु कुछ वि परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ सेवक एक व्यक्ति द्वारा नियोजित होता है परन्तु वह दूसरे व्यक्ति के नियन्त्रण में कार्य कर रहा होता है या कुछ तकनीकी मामलों में जहाँ विशिष्ट ज्ञान या तकनीकी जानकारी के अनुसार कार्य करना आवश्यक होता है वहाँ सेवक अपने विवेक के अनुसार कार्य करता है तथा ऐसी परिस्थितियों में स्वामी के निर्देश के अन्तर्गत कार्य करना परिस्थितियों के अनुसार उचित नहीं होता। उपरोक्त दोनों परिस्थितियों में सेवक- स्वामी की कसौटी, नियन्त्रण या निर्देशन की नहीं रह जाती। ऐसी परिस्थितियों में यह देखा जाता है कि कौन भुगतान कर्ता है तथा किसे पदनियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार है। (Who is pay master? Who has right to hire and fire?)

       श्रीमती कुन्दन कौर बनाम शंकर सिंह ( ए० आई० आर० 1966 पंजाब 394. नामक बाद में शंकर सिंह एक फर्म का भागीदार था जो ट्रक स्वामी थे। उन्होंने अपना ट्रक एक ट्रान्सपोर्ट कम्पनी को किराये पर दिया। जब ट्रान्सपोर्ट कम्पनी द्वारा माल ले जाया जा रहा था। चालक की उपेक्षा के कारण उसके साथ बैठा व्यक्ति मारा गया। इस वाद में यह प्रश्न उठा कि क्या शंकर सिंह की फर्म इस क्षति के लिए उत्तरदायी थी? उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि यहाँ चालक का स्वामी शंकर सिंह की फर्म थी। यहाँ केवल सेवाओं का अन्तरण हुआ था। चालक पर नियन्त्रण या अन्तरण नहीं हुआ था। चालक के सम्बन्ध में भुगतान करने तथा पदमुक्ति का अधिकार हो सेवक-स्वामी सम्बन्धों की कसौटी थी तथा चूँकि यह नियन्त्रण शंकर सिंह की फर्म में निहित था अतः ये ही वास्तविक स्वामी होने के कारण उत्तरदायी थे।

      इसी प्रकार अस्पताल के मामलों में चिकित्सक, तकनीशियन, जहाज तथा वाहनों के बारे में चालक भले ही स्वामी के निर्देशों के अनुसार कार्य नहीं करते वहाँ जिस व्यक्ति के हाथ में भुगतान तथा पदनियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार है वही व्यक्ति स्वामी के रूप में उत्तरदायी होगा।

      के० सी० डी० बनाम मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ [ (1951) 1 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टर (All Ex.) 574.] नामक बाद में एक हाउस सर्जन तथा अन्य स्टाफ की उपेक्षा के लिए अस्पताल के प्राधिकारियों को उत्तरदायी ठहराया गया।

(2) सेवा के दौरान (In the course of Employment)– ‘सेवा के दौरान शब्दावली उस समयावधि का द्योतक है जिसके दौरान एक व्यक्ति अपने स्वामी की सेवा में रहता है। चूँकि इस अवधि में सेवक स्वामी के लाभ के लिए कार्य करता है, अतः स्वामी सेवक द्वारा उस सेवा अवधि के दौरान किए गए अपकृत्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा।

    स्टेट बैंक बनाम श्यामा देवी आई० आर० 1978 सु० को० 1263.) नामक वाद में एक बैंक के ग्राहक के कुछ रुपये एक बैंक के लिपिक को घर पर जमा करने को दिया तथा रसीद भी नहीं ली। उस लिपिक ने धन जमा नहीं किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह नहीं कहा जा सकता कि लिपिक ने स्वामी के सेवा के दौरान रुपया प्राप्त किया था। अतः स्वामी (बैंक) उत्तरदायी नहीं होगा।

     लायड बनाम ग्रेस स्मिथ एण्ड कम्पनी [(1972) ए० सी० 716.] नामक बाद में एक वकील के लिपिक ने सेवा के दौरान एक महिला को उसके घर के लाभ पूर्ण उपयोग के लिए घर बेच देने की सलाह दी परन्तु धोखे से घर अपने नाम लिखवा लिया। हाउस ऑफ लाईस ने एक मत से वकील की फर्म को उत्तरदायी ठहराया क्योंकि वकील फर्म का सेवक था और सेवा योजन (In the course of employment) के दौरान कार्य कर रहा था।

      स्वतन्त्र ठेकेदार के द्वारा किए गए कार्यों के लिए दायित्व (Liability for Torts committed by independent contractor) – सामान्य नियम के अनुसार एक व्यक्ति स्वतन्त्र ठेकेदार के द्वारा किए गए अपकृत्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता। क्योंकि स्वतन्त्र ठेकेदार स्वयं के हित के लिए कार्य करता है। स्वतन्त्र ठेकेदार स्वामी के नियन्त्रण तथा नियोजन में कार्य नहीं करता। उसे सिर्फ क्या करना है, यही बताना पड़ता है। वह कार्य कैसे किया जाना है उसके बारे में स्वतन्त्र ठेकेदार स्वतन्त्र होता है। परन्तु निम्न अपवादित परिस्थितियों में एक व्यक्ति स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor) द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है।

(1) यदि स्वामी अवैध कार्य करने के लिए स्वतन्त्र ठेकेदार को अधिकृत करता है तो उससे होने वाली समस्त क्षतियों के लिए नियोजक या स्वामी उत्तरदायी होता है क्योंकि यहाँ स्वामी स्वयं अवैध कार्य का पक्षकार होता है। अतः वह संयुक्त अपकृत्यकर्ता होता है।

        मगरभाई बनाम ईश्वर भाई (ए० आई० आर० 1984 गुजरात 69.) नामक बाद में एक मंदिर के न्यासी ने सजावट कर रहे विद्युत मिस्त्री को अवैध ढंग से बिजली लेने के लिए प्राधिकृत किया। इससे खेत में कार्य कर रहे कृषक को क्षति हुई। गुजरात उच्च न्यायालय ३ निर्णय दिया कि स्वामी इस स्वतन्त्र ठेकेदार के द्वारा सम्पन्न किए गए कार्य से उत्पन्न क्षति के लिए उत्तरदायी होगा।

(2) कठोर दायित्व के मामले में- जैसा कि रैलेण्ड बनाम फ्लेचर [(1868) L.R 3 H.L. 330.) नामक बाद में नियम प्रतिपादित किया गया यदि एक व्यक्ति अपनी भूमिका असहज एवं अस्वाभाविक उपयोग करते हुए अपनी भूमि पर खतरनाक वस्तु लाता है, या संग्रहीत करता है और यदि उस वस्तु का उसके नियन्त्रण से पलायन हो जाता है तो उससे होने वाली क्षति के लिए उसका कठोर दायित्व होगा अर्थात् यह बचाव उपलब्ध नहीं होगा कि उसने कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया था। ऐसी दशा में वह उत्तरदायी होगा भले ही उसने कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा करवाया था।

(3) राजमार्ग पर हुए क्षतिकारक निर्माणों से क्षति– यदि आम रास्ते पर कोई कार्य कराया जाता है तो उस कार्य से होने वाली क्षति के लिए स्वामी उत्तरदायी होता है भले ही वह कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया हो। टैरी बनाम एण्टन [ (1876) क्वीन बेंच डिवीजन 314.] नामक बाद में प्रतिवादी के घर के निकट प्रतिवादी द्वारा पगडंडी पर एक लैंप लटकाया गया था। यह कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था तो भी उसके टूटकर गिर जाने से वादी को हुई क्षति के लिए स्वामी को उत्तरदायी ठहराया गया।

(4) यदि प्रतिवादी द्वारा कराया गया कार्य किसी पड़ोसी की भूमि से समर्थन (support) वापस ले लिया गया है तो भले ही स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया हो, स्वामी इससे होने वाली क्षति के लिए उत्तरदायी होगा।

प्रश्न 9. (i) राज्य के प्रतिनिधायी दायित्व पर संक्षिप्त निबन्ध लिखें।

Write short essay on Vicarious Liability of State.

(ii) विद्वेषपूर्ण अभियोजन के आवश्यक तत्व बताइए। उसमें क्या साबित किया जाना आवश्यक है?

Discuss the essential elements of malicious prosecution. What is essential to be proved under malicious prosecution?

उत्तर (i)-राज्य का प्रतिनिधायी दायित्व (Vicarious Liability of State) प्रतिनिधायी दायित्व के सम्बन्ध में जहाँ एक व्यक्ति के अपकृत्यपूर्ण कार्य से होने वाली क्षति के लिए दूसरा अन्य व्यक्ति उत्तरदायी होता है, एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि राज्य अपने कर्मचारियों या सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्य से होने वाली क्षति के लिए किस सीमा तक उत्तरदायी होता है।

      इस विषय में भारतीय विधि, आंग्ल विधि के सिद्धान्तों पर आधारित है। कामन लॉ में पहले यह सिद्धान्त था कि राजा न्याय का स्रोत है तथा राजा अपकृत्य कर ही नहीं सकता अतः राजा पर एक अपकृत्य पूर्ण कार्य करने के लिए उत्तरदायित्व डालने का प्रश्न ही नहीं उठता। राजा सभी दायित्वों से मुक्त है और इसलिए राजा अपने सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्य के लिए उत्तरदायी नहीं है। अपकृत्य करने वाला व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता था तथा यह बचाव नहीं ले सकता था कि यह सम्राट के आदेशों के अन्तर्गत किया गया था या ऐसा करना राज्य की आवश्यकता थी। परन्तु इंग्लैण्ड की इस कामन लॉ विधि में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया तथा Crown Proceedings Act, 1947 (क्राउन प्रोसीडिंग एक्ट, 1947) के पारित होने के पश्चात् सम्राट अपने सेवकों द्वारा किए गए अपकृत्य से किसी को होने वाली क्षति के लिए उसी प्रकार उत्तरदायी होगा जिस प्रकार एक व्यक्तिगत स्वामी।

भारत में क्राउन प्रोसीडिंग अधिनियम, 1947 की भाँति कोई अधिनियम या सांविधिक प्रावधान नहीं है जिसमें राज्य के दायित्वों के बारे में उल्लेख हो। राज्य के दायित्व के बारे में कुछ प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300 में मिलते हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 300 यह प्रावधान करता है कि संघ सरकार तथा राज्य सरकार के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है तथा वे भी अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध वाद ला सकते हैं। परन्तु यह किन परिस्थितियों में किया जा सकता है, इसका उल्लेख नहीं किया गया है। अनुच्छेद 300 के अनुसार संघ सरकार तथा राज्य सरकारें उसी प्रकार वाद ला सकती हैं या उन पर उसी प्रकार बाद लाया जा सकता है जैसे कि यदि संविधान न आया हो तो वे करतीं। इस स्थिति की जानकारी करने हेतु हमें संविधान आने के पूर्व की स्थिति से परिचित होना होगा। भारत सरकार अधिनियम, 1935 भी इस अधिनियम के पारित होने के पूर्व की स्थिति को मान्यता देता है। इसी प्रकार के प्रावधान भारत सरकार अधिनियम, 1935 तथा 1858 में मिलते हैं। अतः वर्तमान स्थिति जानने के लिए हमें सन् 1858 से पूर्व की स्थिति का अवलोकन करना होगा। सन् 1858 के पूर्व देश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन में था। प्रशासन के लिए उत्तरदायित्व के अतिरिक्त ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने लिए व्यापार भी करती थी। पेनेन्स्यूलर एण्ड ओरिएण्टल स्टीम नेवीगेशन कं० बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया (1861) में प्रीवो काउन्सिल ने निर्णय दिया कि यदि कार्य सम्प्रभु कार्यों के अन्तर्गत किया गया है तो कम्पनी उत्तरदायी नहीं होगी। परन्तु यदि अपकृत्यपूर्ण कार्य असम्प्रभु कार्यों के अन्तर्गत किया गया है तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी उत्तरदायी होगी। उपरोक्त बाद में बन्दरगाह का रख-रखाव एक असम्प्रभु कार्य माना गया। अत: उसके सेवकों की उपेक्षा के लिए सरकार उत्तरदायी होगी। आज से 150 साल पूर्व सम्प्रभु कार्यों की व्याख्या की गई। सम्प्रभु कार्य वे हैं। जो कोई व्यक्तिगत क्षमता के अन्तर्गत नहीं कर सकता। यदि सरकार का कार्य इस प्रकृति का है कि उसे करने की क्षमता एक निजी व्यक्ति में है तो उस कार्य को असम्प्रभु कार्य कहा जायेगा तथा सरकार के सेवकों द्वारा उस प्रकृति के कार्यों को करने में हुई क्षति के लिए सरकार उसी प्रकार उत्तरदायी होगी जिस प्रकार व्यक्तिगत स्वामी तथा जिस कार्य को एक व्यक्तिगत आदमी नहीं कर सकता जैसे प्रतिरक्षा, सेना, विदेश नीति आदि उसे सम्प्रभु कार्य कहा गया तथा उसके अन्तर्गत किये गए कार्यों के परिणामस्वरूप यदि किसी व्यक्ति को क्षति होती है तो सरकार उत्तरदायी नहीं होगी। नोबिन चन्द्र डे बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इण्डिया [(1975) 1 Cal 11.] में सम्प्रभु (अधिकारी) शक्ति के अन्तर्गत किये गए कार्यों के लिए सरकार को उत्तरदायी नहीं निर्णीत किया गया। नोबिन चन्द्र के बाद में वादी का तर्क था कि राज्य ने उससे गाँजा बेचने की संविदा की थी तथा संविदा भंग के लिए राज्य उत्तरदायी था। साक्ष्य में यह पाया गया कि कोई संविदा नहीं थी परन्तु यदि होती भी तो भी यह सम्प्रभु कार्य होने के कारण राज्य उत्तरदायी नहीं था। जमानत वापस नहीं मिल सकती।

      नोबिन चन्द्र के वाद में जहाँ बादी ने गाँजा की दुकान के लिए अनुज्ञप्ति की नीलामी में उच्चतम बोली बोलने पर अनुज्ञप्ति प्राप्त करना चाहा वहाँ कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राज्य को न तो अनुज्ञप्ति देने के लिए बाध्य किया और न ही वह जमा धनराशि वापस पा सकता है क्योंकि राज्य का उक्त कार्य सम्प्रभ कार्यों में से एक है। इसके विपरीत सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इण्डिया बनाम हरी भानजी ((1882) 1 LR. Mad. 273.] के बाद में वादी ने आयात कर (Import duty) के रूप में उससे अवैध रूप से जमा किया गया धन वापस माँगा और सफल हुआ। हरी भान जी के बाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा, “जहाँ वह कार्य जिसके बारे में शिकायत की गई थी देश की विधि के अन्तर्गत किया जा सकता है तथा विधि द्वारा किये गये अधिकार के अन्तर्गत किया गया यह तथ्य कि वह कार्य सम्प्रभु शक्ति द्वारा किया गया था वह ऐसा निजी व्यक्ति द्वारा किया जा सकने वाला कार्य नहीं है तो वह दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकारों के बाहर नहीं करेगा। हरी भानजी के बाद का निर्णय नोबिन चन्द्र के निर्णय से भिन्न है। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्य का प्रतिवाद राज्य अपने नागरिकों के विरुद्ध नहीं ले सकता। इस विचारधारा के अनुसार राज्य अपने नागरिकों के प्रति सम्प्रभु कार्यों के निष्पादन में होने वाली क्षति में भी उत्तरदायी होगा तथा सम्प्रभु कार्य का तर्क अपने नागरिकों के विरुद्ध नहीं लिया जा सकता तथा अपने नागरिकों के प्रति राज्य सामान्य नियोजक की भाँति उत्तरदायी होगी।

      शोभाग मल जैन बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० (2006) राजस्थान 66 के बाद में पिटीशनर ने अपनी गर्भवती पत्नी को एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया। उसने जुड़वा बच्चे को जन्म दिया किन्तु जन्म के पश्चात् डॉक्टरों की उपेक्षा के कारण अत्यधिक रक्तस्राव के नियंत्रित न होने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। चिकित्सा निदेशक ने अपनी रिपोर्ट में डॉक्टरों को उपेक्षावान ठहराया और यह कहा कि चिकित्सकों ने वादी की पत्नी को देखभाल में विलम्ब किया जिसके कारण उसकी मृत्यु हुयी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य सरकार सम्बन्धित चिकित्सकों के उपेक्षापूर्ण कृत्य के लिए दायी थी, न्यायालय ने प्रतिकर की रकम के मामले में निर्णय दिया चूँकि पत्नी की आयु 30-35 वर्ष के बीच थी। अतः मोटरबान अधिनियम के अधीन अनुसूची में विहित 17 के गुणांक तथा उच्चतम न्यायालय के लता वाधवा बनाम बिहार राज्य, (2001) एस० सी० 3218 के मामले में दिए निर्णय का अनुसरण करते हुए उसके द्वारा परिवार को प्रदान की गई विभिन्न सेवाओं को आधार मान कर 3,000 रुपये प्रतिमाह और 36,000 रुपये वार्षिक प्रतिकर निर्धारित किया। इस प्रकार न्यायालय ने पिटीशनर की प्रतिकर की रकम 3,000×12 x 17= 6,12,000 तथा 50,000 पारम्परिक रकम कुल मिलाकर 6,62,000 रुपये निर्धारित किया।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि सरकार अपने कर्मचारियों द्वारा किये गए अपकृत्य के लिए होने वाली क्षति के लिए सिर्फ उन्हीं अवस्थाओं में उत्तरदायी होती है जब कि किया गया कार्य असम्प्रभु प्रकृति का है अर्थात् जिन कार्यों की प्रकृति ऐसी है जो एक सामान्य व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है, वह असम्प्रभु कार्य है तथा जो कार्य एक सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता, उसे सम्प्रभु कार्य कहा गया है और इससे होने वाली क्षति के लिए सरकार का प्रतिनिधिक दायित्व (vicarious liability) नहीं है। सम्प्रभु कार्य तथा असम्प्रभु कार्यों की यह परिभाषा आज से करीब 150 वर्ष पूर्व पी० एण्ड ओ० नेविगेशन के बाद में प्रीवी काउन्सिल द्वारा निर्धारित की गई थी जो आज तक भारत के न्यायालयों का इस विषय पर मार्गदर्शन करती आ रही है। इंग्लैण्ड में क्राउन प्रोसीडिंग एक्ट के पारित हो जाने के बाद उस अधिनियम के अन्तर्गत सरकार अपने कर्मचारियों द्वारा कारित अपकृत्य के लिए उत्तरदायी है। अमेरिका में सरकारी दायित्वों के लिए फेडरल टॉर्टस क्लेम अधिनियम, 1946 है। जिसके प्रावधानों के अनुसार इंग्लैण्ड की भाँति अमेरिका में भी सरकार अपने सेवकों द्वारा किये गए अपकृत्यों से होने वाली क्षति के लिए उत्तरदायी है। इसी प्रकार की कोई विधि भारत में भी आवश्यक है। जिससे न्यायालय को मार्गदर्शन मिले। हरी भानजी के बाद द्वारा उत्पन्न विवाद के पश्चात् स्वतन्त्र भारत में प्रथम विधि आयोग की रिपोर्ट को प्रभावशाली बनाने हेतु सन् 1967 में एक विधेयक “अपकृत्य में सरकारी दायित्व विधेयक, 1965” नाम से संसद में पेश किया गया परन्तु दुर्भाग्य तथा खेद का विषय है कि यह विधेयक आज तक विधि का रूप नहीं ले सका।

     उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के अनेक निर्णयों में राज्य के प्रतिनिधिक दायित्व को स्वीकार कर के कस्तूरीलाल के मामले में धारित राज्य की दायित्व से उन्मुक्ति के नियम की अवहेलना की गई। हाल ही में दिये गये नगेन्द्र राव बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० एस० सी० 2663 के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने राज्य के दायित्व से उन्मुक्ति के सिद्धान्त को वर्तमान परिस्थिति में असम्भव ठहरायों और विधान द्वारा राज्य के दायित्व को मान्यता देने सिफारिश की। लेखक को आशा और पूर्ण विश्वास है कि आने वाले भविष्य में भी राज्य के दायित्व के विषय में ऐसे ही निर्णय होंगे तथा विधान द्वारा राज्य के दायित्व को मान्यता दी जायेगी।

उत्तर (ii)- विद्वेषपूर्ण अभियोजन विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग शीर्षक के अन्तर्गत आता है। दीवानी प्रक्रिया खर्चीली होती है। इसे वादी को प्रारम्भ करना होता है। इसके प्रारम्भ तथा संचालन का खर्च तथा दायित्व का भार वादी को उठाना पड़ता है। अतः यह कम सम्भावना रहती है कि कोई व्यक्ति बिना कारण सिर्फ विद्वेष या परेशान करने के आशय से दीवानी प्रक्रिया का संचालन किसी व्यक्ति के विरुद्ध करेगा। परन्तु आपराधिक या दाण्डिक प्रक्रिया का संचालन सरकार द्वारा सरकारी खर्च से किया जाता है। इसमें पीड़ित पक्षकार को कोई खर्च वहन नहीं करना होता चूँकि अपराध समाज के विरुद्ध कार्य होता है। अतः राज्य का यह दायित्व होता है कि वह विधिक प्रक्रिया का संचालन कर दोषी या अपराधी को न्यायालय के माध्यम से दण्डित कराये। यहाँ पीड़ित व्यक्ति सिर्फ अपराध की प्रथम सूचना दे कर अपना दायित्व पूर्ण करता है उसके पश्चात् राज्य सम्पूर्ण प्रक्रिया का खर्च वहन करती है। इसलिए यह अधिक सम्भावना रहती है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया अभियोजन को विद्वेषता के कारण परेशान करने के आशय से प्रारम्भ कराये। इसी दुरुपयोग को समाप्त करने हेतु विद्वेषपूर्ण अभियोजन को एक अपकृत्य माना गया है तथा जिस व्यक्ति के विरुद्ध विद्वेषतापूर्वक या परेशान करने के आशय से अभियोजन प्रारम्भ कराता है तथा वादी यदि अन्तिम सक्षम न्यायालय द्वारा दोष मुक्त कर दिया जाता है तो उसे प्रतिवादी से प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार होगा।

      विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में प्रतिकर प्राप्त करने हेतु वादी को सफलतापूर्वक निम्न आवश्यक तत्व साबित करना होता है –

(1) वादी का प्रतिवादी द्वारा अभियोजन हुआ था,

(2) अभियोजन बिना किसी उपयुक्त तथा सम्भाव्य कारणों से प्रारम्भ किया गया था,

(3) प्रतिवादी ने विद्वेषतापूर्वक कार्य किया था न कि विधिक प्रक्रिया के द्वारा विधिक उद्देश्य को पूरा करने के आशय से,

(4) अभियोजन का अन्त वादी के पक्ष में हुआ था,

(S) अभियोजन के परिणामस्वरूप वादी को नुकसान या हानि (damage) हुई थी।

(1) वादी का प्रतिवादी द्वारा अभियोजन किया जाना (Prosecution of Plaintiff by defendant)- इस आवश्यक तत्व को साबित करने के लिए दो शर्तें साबित किया जाना आवश्यक है –

(i) यह कि बादी का अभियोजन हुआ था।

(ii) यह कि बादी का अभियोजन प्रतिवादी द्वारा किया गया था।

(i) यह कि बादी का अभियोजन हुआ था ( That Plaintiff was (Prosecuted)- अभियोजन से तात्पर्य विधिक न्यायालय के समक्ष आपराधिक विचारण (Criminal proceedings) है। अभियोजन तब प्रारम्भ होता है जब किसी न्यायिक अधिकारी या अधिकरण के समक्ष आपराधिक आरोप लगाया जाता है।

     एक पुलिस अधिकारी के समक्ष कार्यवाही अभियोजन नहीं है- नगेन्द्रनाथ राय बनाम बसंत दास वैराग्य [ आई० एल० आर० (1929) 47 कलकत्ता 25.] नामक बाद में प्रतिवादी के घर में चोरी हुई। प्रतिवादी ने उसकी सूचना पुलिस को दी तथा वादी पर अपना सन्देह व्यक्त किया। इस पर वादी गिरफ्तार हुआ। परन्तु चूँकि प्रश्नगत चोरी में वादी के संलग्न होने का कोई भी साक्ष्य नहीं मिला अतः मजिस्ट्रेट ने उसे मुक्त कर दिया। विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही में वादी को सफलता नहीं मिली क्योंकि यहाँ वादी का विचारण किसी न्यायिक अधिकारी या अधिकरण के समक्ष नहीं हुआ था।

      भोलानाथ पेमय्या बनाम अयारा दार (ए० आई० आर० 1966 मैसूर 13. ) नामक वाद में प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध पुलिस उपनिरीक्षक को शिकायत की गई। पुलिस अधीक्षक ने जाँच की तथा चूँकि परिवाद झूठा पाया गया अतः परिवाद दाखिल दफ्तर कर दिया गया। वादी द्वारा विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए लाया गया बाद इसलिए सफल नहीं हुआ कि इस बाद में वादी का अभियोजन नहीं हुआ क्योंकि उसका विचारण किसी न्यायिक अधिकारी या अधिकरण के समक्ष नहीं हुआ था।

       किसी अर्द्ध न्यायिक निकाय के समक्ष चली कार्यवाही को भी अभियोजन माना गया। कपूरचन्द बनाम जगदीश चन्द्र (ए० आई० आर० 1964 पंजाब तथा हरियाणा 215. ) नामक बाद में आयुर्वेदिक तथा यूनानी परिषद के समक्ष चली कार्यवाही को भी अभियोजन माना गया।

(1) अभियोजन प्रतिवादी द्वारा किया गया हो (Prosecution must be instituted by defendant) – यदि कोई व्यक्ति राज्य के अभियोजन तन्त्र को गतिमान करने के लिए उत्तरदायी है तो यह कहा जायेगा कि उसने अभियोजन प्रारम्भ किया। बलभद्दर बनाम बद्री शाहू नामक वाद में प्रोवी काउन्सिल ने कहा अन्य स्थानों की भाँति

      भारत में भी शाब्दिक अर्थों में अभियोजन निजी व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ नहीं किया जाता परन्तु ऐसी सूचना दिया जाना जिससे स्वाभाविक रूप से अभियोजन प्रारम्भ हो जाता है, पर्याप्त है, तथा यदि यह किया गया है तो वाद कारण उत्पन्न हो गया माना जायेगा।

      परन्तु यह स्मरणीय है कि सिर्फ प्रथम सूचना या परिवाद दाखिल कर देने मात्र से कोई व्यक्ति अभियोजक नहीं हो जाता जब तक यह साबित न कर दिया जाय कि प्रतिवादी ने अभियोजन में सक्रिय योगदान किया था तथा वह अभियोजन के लिए प्राथमिक रूप से तथा प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी था।

      दत्तात्रेय पाण्डुरंग दातार बनाम हरि किशन (ए० आई० आर० 1949 बम्बई 100.) नामक बाद में प्रतिवादी ने अपनी दुकान में चोरी के लिए प्रथम सूचना प्रतिवेदन दाखिल किया। इसमें अपने सेवक को नामित किया। सेवक गिरफ्तार हुआ, जाँच पर पुलिस को पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिले, वादी को छोड़ दिया गया। प्रतिवादी को अभियोजक नहीं माना गया तथा वादी प्रतिकर का हकदार नहीं माना गया।

        पन्ना लाल बनाम श्रीकृष्णा (ए० आई० आर० 1955 मध्य प्रदेश 124.) नामक वाद में प्रतिवादी ने डकैती का परिवाद दाखिल किया जिसमें बादी को शामिल किया गया। प्रतिवादी ने जाँच के दौरान वादी के विरुद्ध पुलिस में बयान दिया। वादी दोष मुक्त किया गया। वादी को विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए प्रतिकर का अधिकारी नहीं माना गया क्योंकि यह साबित नहीं हुआ कि प्रतिवादी ने वादी का अभियोजन किया था।

       टी० एस० भट्ट बनाम ए० के० भट्ट (ए० आई० आर० 1978 केरल 111.) नामक बाद में प्रतिवादी परिवाद करने के पश्चात् चुप नहीं बैठा। पुनर्विलोकन (Review) के लिए सेशन जज के यहाँ प्रार्थना पत्र दिया तथा वहाँ गवाही दी। उच्च न्यायालय ने पुनर्निरीक्षण के लिए अपने आप को सम्मिलित किया। प्रतिवादी यह जानता था कि आरोप असत्य था, यहाँ यह माना गया कि प्रतिवादी वास्तविक अभियोजक था।

(2) अभियोजन बिना किसी सम्भाव्य तथा उपयुक्त कारण के किया गया हो- विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में वादी द्वारा सफल होने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि उसका अभियोजन बिना किसी उपयुक्त तथा सम्भाव्य कारण के किया गया। था उपयुक्त तथा सम्भाव्य कारण था या नहीं यह प्रत्येक मामले के तथ्य तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। सम्भाव्य तथा उपयुक्त कारण तब माना जाता है जब अभियुक्त के दोष में सद्भावपूर्वक विश्वास हो तथा आरोप पूर्ण विश्वास तथा पर्याप्त आधारों पर आधारित हो तथा उस स्थिति में स्थित एक सामान्य बुद्धि के चरित्र के विश्वास में आरोपी व्यक्ति आरोपित दोष का दोषी माना जा सकता हो। पक्का सन्देह पर्याप्त है, पूर्ण सबूत आवश्यक नहीं है।

     व्याट बनाम ह्वाइट [ (1860) 5 एच० एण्ड एन० 371.] नामक बाद इस बिन्दु पर महत्वपूर्ण है। इस बाद में प्रतिवादी ने वादी की गोदाम में कई बोरे देखें। कुछ नवीन बोरे (sacks) पर उसके व्यक्तिगत चिन्ह लगे थे तथा कुछ पुराने बोरों चिन्हों को काट दिया गया था। इन बोरों को अपना मानते हुए प्रतिवादी ने चोरी के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद किया। बादी दोषमुक्त कर दिया गया तथा उसने विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए वाद चलाया। यह निर्णय दिया गया कि चूँकि वादी का अभियोजन करने के लिए प्रतिवादी के पास युक्तियुक्त तथा सम्भाव्य कारण था, अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं थे।

      अन्तर्जामी शर्मा बनाम पदमा बेवा, ए० आई० आर० (2007) उड़ीसा 107 के बाद से प्रत्यर्थियों ने वादी के विरुद्ध एक बेवा स्त्री (पदमा) के शीलभंग का झूठा अभियोग फाइल किया परीक्षण के पश्चात् वादी को न्यायालय ने उसे दोषमुक्त घोषित कर दिया। वादी ने प्रत्यर्थियों के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण अभियोजन चलाने के लिए नुकसानी का वाद संस्थित किया। उसके अनुसार इससे उसको प्रतिष्ठा समाज में गिर गई और उससे उसे वित्तीय हानि पहुँची है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त और सम्भाव्य कारण के चलाया गया था, अतः प्रत्यर्थीगण प्रतिकर देने के लिए बाध्य हैं।

(3) प्रतिवादी ने विद्वेषतापूर्वक कार्य किया था न कि विधिक प्रक्रिया का सदुपयोग करने के प्रयोजन से– विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में वादी द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी ने उसका अभियोजन करने में विद्वेषता या दुर्भाव या परेशान करने की नियत से कार्य किया था। उसका अभियोजन का उद्देश्य अप्रत्यक्ष तथा अवैध था। विद्वेष का अर्थ कोई अनुचित तथा अपकृत्य पूर्ण आशय विद्यमान होना है। इसका अर्थ है प्रतिवादी का आशय विधिक प्रक्रिया का सदुपयोग करना न होकर वादी को परेशान करना था।

     कामता प्रसाद गुप्ता बनाम नेशनल बिल्डिंग कन्स्ट्रक्शन कार्पोरेशन लि० (ए. आई० आर० 1992 दिल्ली 275.) नामक वाद में निगम के एक अधिकारी ने जाँच के दौरान पाया कि स्टाक में कुछ वस्तुएँ कम थीं तथा अधिकारी ने वादी का अभियोजन किया था। इसे विद्वेष के अन्तर्गत अभियोजन नहीं माना गया।

      सम्भाव्य तथा उपयुक्त कारण के अभाव का अर्थ आवश्यक रूप से विद्वेष की उपस्थिति नहीं है।

      अब्दुल मजीद बनाम हरवंश चौबे (ए० आई० आर० 1974 इला० 129.) नामक वाद में वादी पर हँसुली चोरी का आरोप लगाया गया। थानेदार ने दूसरे व्यक्तियों से षड्यन्त्र का बादी के विरुद्ध हँसुली चोरी की झूठी कहानी गढ़ी तथा हँसुली वादी के घर से बरामद की। वादी को सन्देह का लाभ देकर छोड़ दिया गया। विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में प्रतिवादी को विद्वेषपूर्ण अभियोजन का दोषी माना गया।

(4) कार्यवाही का वादी के पक्ष में समापन (Termination of Proceedings in favour of Plaintifl)—विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में सफल होने के लिए यह भी साबित किया जाना आवश्यक है कि अभियोजन की कार्यवाही का समापन वादी के पक्ष में हुआ था। यदि अभियोजन की कार्यवाही के अन्त में वादी को न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया हो तो वादी विद्वेषपूर्ण अभियोजन का वाद नहीं ला सकता भले ही अभियोजन दुर्भाव य विद्वेष के अन्तर्गत किया गया हो या आरोप विद्वेषपूर्ण तथा बिना आधार के ही रहे हों।

      कार्यवाही के वादी के पक्ष में समापन का अर्थ यह नहीं है कि वह निर्दोष था। परन्तु यह है कि न्यायिक कार्यवाही में उसका दोष साबित न हो पाया। कार्यवाही का वादी के पक्ष में समापन का अर्थ यह भी है कि कार्यवाही का समापन वादी के विरुद्ध नहीं हुआ था। इस प्रकार यदि वादी तकनीकी आधार पर दोषमुक्त हो जाता है, उसकी दोषसिद्धि निरस्त कर द जाती है। उसका अभियोजन त्याग दिया जाता है या अभियुक्त छोड़ दिया जाता है तो यह माना जाता है कि अभियोजन की कार्यवाही का समापन वादी के पक्ष में हुआ।

     यदि अपील में वादी दोषमुक्त कर दिया गया है तो यह माना जायेगा कि अभियोजन की कार्यवाही वादी के पक्ष में निर्णीत हुई तथा उसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन के विरुद्ध वाद लाने का अधिकार है।

      जहाँ अपील का अधिकार उपलब्ध था परन्तु अपील नहीं की गई है या अपील का प्रावधान नहीं है तथा प्रथम विचारण में अभियुक्त कि दोषसिद्ध किया गया था तो उसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन का वाद लाने का अधिकार नहीं होगा। वेसबी बनाम मैथ्यू [ (1867) एल० आर० 2 सी० पी० 684.]

(5) नुकसान या हानि (Damage)–विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में सफल होने के लिए वादी द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक है कि उसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन के फलस्वरूप कोई नुकसान या हानि हुई है। यद्यपि अभियोजन की कार्यवाही का समापन वादी के पक्ष में हुआ है परन्तु अभियोजन की कार्यवाही के फलस्वरूप उसे हानि या नुकसान (damage) हुआ हो।

     विद्वेषपूर्ण अभियोजन के दावे में वादी निम्न के लिए प्रतिकर की माँग कर सकता है –

(1) वादी की प्रतिष्ठा को हुई क्षति के लिए,

(2) वादी के शरीर को हुई क्षति के लिए,

(3) वादी की सम्पत्ति को हुई क्षति के लिए (आर्थिक क्षति)।

      इस प्रकार एक विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में सफल होने के लिए वादी द्वारा उपरोक्त आवश्यक तत्वों को साबित किया जाना आवश्यक है।

प्रश्न 10. कठोर दायित्व का सिद्धान्त जैसा कि राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक वाद में प्रतिपादित किया गया है, समझाइए। इस सन्दर्भ में लार्ड केर्न्स के उपान्तर को समझाइए। क्या यह नियम भारत में लागू है?

Explain the rule of strict liability as laid down in case Rylands vs. Fletecher. Discuss the transformation of Lord Cairns in this regard. Is this rule applied in India?

उत्तर– कभी-कभी एक व्यक्ति अपकृत्य पूर्ण कार्य के लिए उत्तरदायी होता है यद्यपि अपकृत्य में उसका कोई दोष या त्रुटि नहीं होती। ऐसे उत्तरदायित्व या दायित्व को दोषहीन दायित्व (No fault liability) या त्रुटिहीन दायित्व भी कहा जाता है। ऐसे मामलों में दायित्व कठोर (strict) होता है। यहाँ दायित्व निर्धारण में अपकृत्यकर्ता की उपेक्षा या आशय ध्यान में नहीं लिया जाता है। दूसरे शब्दों में ऐसे मामलों में अपकृत्यकर्ता पर दायित्व अधिरोपित किया जाता है भले ही वह उपेक्षा (Negligence) का दोषी नहीं होता या अपकृत्य पूर्ण कार्य करने में उसका कोई आशय (intention) नहीं होता। ऐसे मामलों में दायित्व निर्धारण का नियम, सन् 1868 में प्रसिद्ध वाद, राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर [(1868) L.R. 3 H.C. 330.]कवाद में प्रतिपादित किया गया था। इस वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार कठोर दायित्व के कुछ मामलों में अपकृत्य कर्ता को कोई प्रतिवाद उपलब्ध नहीं होगा सिवाय उन प्रतिवाद या अपवादों के, जिनकों इस वाद में हाउस ऑफ लाइंस द्वारा उल्लिखित किया गया था। इन प्रतिवादों या अपवादों की उपलब्धता के कारण इस नियम को विनफील्ड पूर्ण दायित्व न कहकर कठोर दायित्व का सिद्धान्त कहते

       राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में फ्लेचर प्रतिवादी ने अपनी भूमि पर एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया। यह निर्माण एक स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था। यह जलाशय प्रतिवादी की मिल को जल की आपूर्ति के आशय से कराया गया था। जलाशय के नीचे अनुपयोगी पुराने गड्डे थे जिन्हें बन्द करना स्वतन्त्र ठेकेदार भूल गया था। जब जलाशय में पानी भरा गया तब इन गड्डों में पानी भर गया तथा इन गड्ढों से होकर जल खादी की (पड़ोसी) कोयले की खानों में भर गया। प्रतिवादी को गड्ढों का पता नहीं था तथा प्रतिवादी की उपेक्षा साबित नहीं की गई थी। इसके अतिरिक्त जलाशय का निर्माण स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था इस आधार पर प्रतिवादी ने अपना बचाव किया। इसके बावजूद न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया गया।

      इस वाद में हाउस ऑफ लाईस द्वारा समर्थित तथा मान्यकृत नियम प्रथम बार न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न द्वारा फ्लेचर बनाम राइलैण्ड्स [ (1868) एल० आर० एक्स० 265.] में प्रतिपादित किया गया था। न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न ने यह नियम्न एक्सचेकर न्यायालय में प्रतिपादित किया न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न ने कहा:

       “हमारे विचार में नियम यह है-एक व्यक्ति जो अपने प्रयोजन के लिए अपनी भूमि पर कोई ऐसी वस्तु लाता है तथा उसे अपनी भूमि पर रखता है, जो यदि वहाँ से निकल जावे तो सम्भवतः क्षति कारित कर सकती है तो ऐसा व्यक्ति उस व्यक्ति को अपनी भूमि पर अवश्यत: अपनी जोखिम पर रखे; यदि वह व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो वह प्रथम दृष्ट्या (Prima facie) उन समस्त हानियों के लिए उत्तरदायी है जो उस वस्तु के नियन्त्रण से पलायन (escape) के स्वाभाविक परिणाम से कारित हुई है परन्तु वह यह बचाव ले सकता है कि (1) वह वस्तु स्वयं वादी की गलती (त्रुटि, दोष) से पलायन कर गई थी अथवा (2) यह कि उस वस्तु का पलायन दैवकृत (Vis Major Act of God) का परिणाम था।”

      ऐसे मामलों में जहाँ दायित्व उपेक्षा या जानकारी के अभाव में तथा आशय के अभाव में निर्धारित किया जाता है कठोर दायित्व कहा गया है। इसे पूर्ण दायित्व इसलिए नहीं कहा गया क्योंकि एक्सचेकर न्यायालय के न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न ने ऐसे मामलों में भी दो अपवादों या बचावों को मान्यता दी थी। यदि इन बचावों को स्वीकार नहीं किया गया होता तो यह पूर्ण दायित्व (absolute) कहलाता।

       फ्लेचर बनाम राइलैण्ड्स की अपील हाट.स ऑफ लाईस में की गई। हाउस ऑफ लाईस ने उपर्युक्त नियम के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण शर्त जोड़ दी। हाउस ऑफ लाईस ने कहा कि कठोर दायित्व का सिद्धान्त उन परिस्थितियों में लागू होगा जहाँ प्रतिवादी अपनी भूमि का असहज-अप्राकृतिक-अस्वाभाविक उपयोग कर रहा था। इस प्रकार अब हाउस ऑफ लाईस के निर्णय के पश्चात् कठोर दायित्व के सिद्धान्त के तीन अपवाद स्वीकार किए गए।

(1) वादी स्वयं अपकृत्यकर्ता (Plaintiff wrong doer).

(2) दैवी कृत्य (Vis Major Act of God).

(3) भूमि का असहज या अस्वाभाविक या अप्राकृतिक उपयोग (Unnatural use of Land)

        कठोर दायित्व का सिद्धान्त– इस सिद्धान्त के अनुसार यदि एक व्यक्ति अपनी भूमि का असहज या अप्राकृतिक उपयोग करते हुए अपनी भूमि पर अपने नियन्त्रण में कोई खतरनाक वस्तु लाता है तथा उसकी सतर्कता, या जानकारी के अभाव में भी यदि उस खतरनाक वस्तु का उस व्यक्ति के नियन्त्रण से पलायन हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप किसी को क्षति होती है, तो वह व्यक्ति उस क्षति के परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा भले ही उस क्षति का उसका आशय न हो या वह उपेक्षा का दोषी न हो। वह व्यक्ति सिर्फ यह बचाव ले सकता है कि मामले में (1) वादी स्वयं दोषी था (2) क्षति के लिए दैवी कृत्य मुख्य कारण था, या (3) खतरनाक वस्तु भूमि के सहज या प्राकृतिक उपयोग में लायी गयी थी।

कठोर दायित्व की आवश्यक शर्तें (Essential Conditions of Strict Liability)

(1) किसी व्यक्ति द्वारा अपनी भूमि पर कुछ खतरनाक वस्तु (dangerous thing) अवश्य लाई गई हो।

(2) उस पर लाई गई अथवा रखी गई वस्तु अवश्य ही नियन्त्रण से (बाहर निकली) पलायन की हो।

(3) इस भूमि पर खतरनाक वस्तु भूमि के असहज या अप्राकृतिक उपयोग करते हुए लाई गई हो।

(1) खतरनाक वस्तु ( Dangerus Things) – खतरनाक वस्तु क्या है यह मामले की परिस्थितियों पर आधारित है। कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू होने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि जो वस्तु प्रतिवादी अपनी भूमि पर लाया था वह खतरनाक थी। गैस, विद्युत, प्रकम्पन, विषैले वृक्ष, मल प्रवाह (sewage), विस्फोटक, हानिकारक धूम (Noxious fumes), जंग लगे तार आदि वस्तुएँ खतरनाक वस्तु हैं। बाघ, चीता, भालू, हाथी, लोमड़ी, लकड़बग्घा आदि हिंसक जानवर भी खतरनाक वस्तु की श्रेणी में आते हैं। जल या आग उसके संग्रहण की मात्रा के आधार पर खतरनाक वस्तु हो जाती हैं। पानी यदि अल्प मात्रा में है तो वह खतरनाक नहीं है, परन्तु जल की विशाल मात्रा खतरनाक स्वरूप धारण करती है। इसी प्रकार आग अल्पमात्रा में खतरनाक वस्तु नहीं है परन्तु आग की विशाल मात्रा खतरनाक वस्तु हो जाती है। संक्षेप में खतरनाक वस्तु वह है जिसके पलायन से मानवीय क्षति कारित होती हो या हो सकने की सम्भावना होती है। राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक वाद में जल का विशाल मात्रा में संग्रह किया गया था, अतः जल एक खतरनाक वस्तु माना गया।”

(2) वस्तु का प्रतिवादी के नियन्त्रण से बाहर निकलना (पलायन-Escape ) – कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि खतरनाक वस्तु प्रतिवादी के नियन्त्रण से अर्थात् प्रतिवादी के भूमि या परिसर की सीमा से बाहर निकली हो, यदि वस्तु प्रतिवादी के परिसर की सीमा में है तथा उस वस्तु से किसी प्रकार की क्षति होती है तथा यदि प्रतिवादी की उपेक्षा साबित नहीं हुई है तो प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा, तथा कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होगा। रीड बनाम लायन्स एण्ड कम्पनी (1947) ए० सी० 156.] नामक बाद में प्रतिवादी कम्पनी की परिसर की सीमाओं के भीतर एक विस्फोट के कारण कम्पनी की एक कर्मचारी घायल हुई चूक क्षतिकारक वस्तु का परिसर से पलायन नहीं हुआ था तथा चूँकि प्रतिवादी उपेक्षा का दोषी नहीं था अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराया गया।

        राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में पानी की विशाल मात्रा का संग्रह किया गया था जिसका परिसर से पलायन हो गया था अतः प्रतिवादी उस क्षति के लिए कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी ठहराया गया। इसी प्रकार यदि विषैले वृक्ष की पत्तियाँ परिसर से बाहर चली गई हैं तथा वादी का पशु उसे खा लेता है तो प्रतिवादी कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी होगा। परन्तु यदिवादी का घोड़ा प्रतिवादी के परिसर में अनधिकृत रूप से प्रवेश कर लेता है तथा जहरीले वृक्ष की पत्तियाँ खा जाता है तथा मर जाता है तो उपेक्षा के अभाव में प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा।

(3) भूमि का असहज या अस्वाभाविक उपयोग (Un-Natural Use) – भूमि या परिसर का अस्वाभाविक या असहज उपयोग या प्रयोग उसे कहते हैं जब भूमि का उपयोग किसी विशेष प्रयोजन से किया जाता है तथा उस विशेष प्रयोजन से भूमि तथा परिसर का उपयोग करने से खतरे में वृद्धि हो जाती है। ऐसा प्रयोग भूमि का साधारण प्रयोग नहीं होता। किसी भूमि पर सामान्य मात्रा में जल एकत्रित करना भूमि का सामान्यतया सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग है। परन्तु किसी विशेष आशय से भूमि पर विशाल मात्रा में पानी का संग्रह करना भूमि का असहज, असामान्य एवं अप्राकृतिक प्रयोग माना जायेगा। भूमि पर छायादार या फलदार पौधे लगाना भूमि या परिसर का सामान्य तथा सहज उपयोग है। परन्तु भूमि या भवन पर जहरीले या विषैले पौधे लगाना भूमि या परिसर का असहज एवं असामान्य उपयोग माना जाता है।

       टी० सी० बाल कृष्ण मेनन बनाम टी० आर० सुनामनियन (ए० आई० आर० 1986 केरल 151.) नामक बाद में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया गया कि मैदान में विस्फोटक का प्रयोग चाहे भले ही किसी पर्व या अवसर पर ही क्यों न हो भूमि का असहज तथा अस्वाभाविक उपयोग है।

       कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अपवाद के बाद में प्रतिपादित नियम के अपवाद– राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर के बाद में एक्सचेकर न्यायालय द्वारा सिर्फ दो अपवादों को मान्यता दी गई –

(1) दैवी कृत्य, (2) वादी द्वारा स्वयं अपकृत्य कार्य।

      परन्तु हाउस ऑफ लाईस ने “भूमि का असहज उपयोग” नामक अपवाद जोड़ दिया। अपवादों के साथ राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक वाद में प्रतिपादित नियम के निम्न अपवाद हैं –

(1) वादी का स्वयं का दोष-वादी स्वयं अपकृत्यकर्ता (Plaintiff wrong doer)– यदि वादी को हुई क्षति में वादी का स्वयं का दोष कारण है तो कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। पीटिंग बनाम नोक्स [ (1894) 2 क्वीन बैंच 281.] नामक वाद इस बिन्दु पर महत्वपूर्ण है। इस बाद में वादी का घोड़ा प्रतिवादी की भूमि पर गया तथा प्रतिवादी के परिसर में स्थित जहरीले पौधे के पत्ते खाने के कारण मर गया। यदि वादी का घोड़ा प्रतिवादी की भूमि पर अनधिकृत रूप से प्रवेश न करता तो उसे क्षति न होती, अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराया गया।

(2) दैवी कृत्य (Act of God or Vis Major) – राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न द्वारा दैवी कृत्य के बचाव को कठोर दायित्व के नियम के अपवाद के रूप में स्वीकार किया था। ऐसे कृत्य को दैवी कृत्य कहा जाता है जो मानवीय बलों के कारण नहीं परन्तु प्राकृतिक या दैवी कारणों से सम्पन्न होता है। यहाँ क्षति को निवारित करना प्रतिवादी के वश में नहीं होना चाहिए। यह असाधारण तथा असामान्य प्रकृति का कार्य होना चाहिए। निकोलस बनाम मार्सलैण्ड [ (1876) 2 एक्सचेकर डिवीजन 1.] नामक वाद इस बिन्दु पर मुख्य है-इस मामले में प्रतिवादी ने प्रकृति जलप्रवाह को रोककर अपनी भूमि पर कृत्रिम झीलों का निर्माण किया था। उस साल इतनी असाधारण वर्षा हुई थी कि इतनी मानव स्मृति में कभी नहीं हुई थी। इस जल प्रवाह के कारण झील इस प्रकार उमड़ पड़ों कि इन झीलों के निमित्त जो बाँध बनाये गये थे जो साधारण वर्षा के निमित्त पर्याप्त थे अचानक टूट गए तथा वादी के चार पुल बह गए। इस वाद में दैवी कृत्य के बचाव को स्वीकार किया गया तथा यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था।

(3) भूमि का सहज उपयोग – राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में हाउस ऑफ लाईस ने निर्णय दिया कि कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू करने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि भूमि का असहज उपयोग करते हुए प्रतिवादी अपनी भूमि पर खतरनाक वस्तु लाया।

(4) किसी अन्य व्यक्ति के अनुचित कार्य से हुई क्षति (Acts of a Stranger) — यदि क्षति या हानि किसी तीसरे पक्ष के कृत्य का परिणाम है तो राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर का नियम नहीं लागू होगा। बाक्स बनाम जब, (1879) 4 एक्स० डी० 76 के बाद में प्रतिवादी के एक तालाब से अधिक पानी के निकलने के लिए एक नाली बनी थी। किसी अन्य व्यक्ति ने उस नाली को अवरुद्ध कर दिया जसके कारण पानी तालाब के कगारों के ऊपर से बहने लगा और वादी को क्षति पहुँची। निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी क्षति के लिए दायी नहीं था।

     मध्य प्रदेश विद्युत परिषद् बनाम शैल कुमारी, ए० आई० आर० 2002 सु० को० 55 के बाद में एक साइकिल सवार की मृत्यु बिजली के टूटे तार से हो गई थी, बिजली के तार का टूटना अन्य व्यक्तियों के कटिया लगाने से हुआ था, अतः विद्युत परिषद् का कहना था कि वह उसे आश्रितों को प्रतिकर देने के लिए दायी नहीं है किन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में विद्युत परिषद् को दायी ठहराया क्योंकि विद्युत परिषद् द्वारा अन्य व्यक्तियों के गलत कृत्यं का पूर्वानुमान किया जा सकता था तथा विद्युत परिषद् का यह काम है कि वह विद्युत चोरी रोकने के लिए सुरक्षात्मक उपाय करे।

     एस० प्रेम सिंह बनाम जम्मू कश्मीर राज्य, ए० आई० आर० (2011) जम्मू कश्मीर 50 के बाद में एक ट्रक-मार्जक की मृत्य 11 के० वी० की उच्च शक्ति वाले आकाशीय तार के सम्पर्क में आने से हो गयी थी। प्रतिकर दावे के विरुद्ध राज्य ने प्रतिवाद लिया कि मृतक स्वयं उपेक्षावान था क्योंकि घटना के समय वह ट्रक की छत पर चढ़ा हुआ था। किन्तु यह पाया गया कि जब मार्जक ट्रक पर चढ़ कर रस्सियाँ रख रहा था तभी वह विहित मानक स्तर से अधिक नीचे लटकते आकाशीय तार की चपेट में आ गया था। इस प्रकार की 11 के० वी० की उच्च विद्युत शक्ति के तार नियमों के अनुसार भूमि की सतह से कम से कम 20 फीट ऊपर होने चाहिये। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि राज्य उक्त उच्च शक्ति के विद्युत तार के खतरे व संकट से नागरिक की सुरक्षा कर पाने के अपने कर्तव्य में असफल रहा है अत: उपेक्षा का दायी है।

      भारतीय स्थिति (Indian Position) तथा पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त (Doctrine of Absolute Liability) – कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत दायित्न के निर्धारण से सम्बन्धित भारतीय वादों में भोपाल गैस काण्ड एक सबसे प्रमुख उदाहरण है। 2/3 दिसम्बर, 1984 की मध्यरात्रि को भोपाल स्थित यूनियन कारबाइड के कीट नाशक निर्माण करने वाले कारखाने से मिसाइल आइसो साइनाइड नामक जहरीली गैर का रिसाव हुआ। इससे कम से कम 2500 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई तथा करीब ढाई लाख लोग भीषण रोगों से ग्रस्त हो गये। इस बाद में वादियों की अत्यधिक संख्या तथा इनकी आर्थिक स्थिति को देखते हुए सरकार ने उनकी ओर से वाद का प्रतिनिधित्व करने हेतु “द भोपाल गैस लीक डिजास्टर प्रोसेसिंग ऑफ क्लेम्स एक्ट, 1985” पारित कर गैस पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त कर लिया। पहले वाद अमेरिका के न्यूयार्क शहर में किया गया क्योंकि यूनियन कारबाइड (प्रतिवादी) कम्पनी का मुख्यालय वहाँ स्थित था। परन्तु अमेरिकी न्यायालय ने निर्णय दिया कि सहूलियत की दृष्टि से उचित बाद स्थल भारत ही है। तत्पश्चात् वाद भारत के मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित जिला न्यायालय में दायर किया गया। जिला न्यायालय ने 350 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति प्रदान की उच्च न्यायालय ने इसे घटाकर 250 करोड़ कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कई अन्य उपचारों के साथ मामले में अपना निर्णय दिया। यहाँ कठोर दायित्व के अन्तर्गत प्रतिवादी पर दायित्व निर्धारित किया गया कम्पनी का आशय तथा जानकारी के अभाव एवं उपेक्षा के अभाव का तर्क अस्वीकार कर दिया गया।

       एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1987 सु० को० 1086.) नामक वाद में 4 तथा 6 दिसम्बर, 1985 को डी० सी० एम० के एक उद्योग से जहरीली ओलियम गैस का रिसाव हुआ उससे एक वकील की मृत्यु हो गई तथा अनेक व्यक्ति प्रभावित हुए। इस बाद में जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के नियम का प्रतिपादन किया न्यायाधिपति भगवती ने यह निर्णय दिया कि भारतीय न्यायालय राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में मान्य तथा प्रतिपादित सिद्धान्त के अपवाद से बाध्य नहीं हैं। न्यायालय के अनुसार इस विषय में परिसर के स्वामी का पूर्ण दायित्व होता है तथा उसे किसी भी प्रकार के अपवाद या बचाव का प्रतिवाद उपलब्ध नहीं होता। चूँकि प्रतिवादी कुछ अपवादों का सहारा लेकर बच सकता था। अतः न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया।

        पूर्ण दायित्व का नियम – पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक अथवा स्वभाव से संकटपूर्ण व्यवसाय में रत है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को भय है या भय की सम्भावना है तब उद्योग स्वामी का यह दायित्व पूर्ण (absolute) होता है तथा उसका अनियोज्य (Non delegable) कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उस कार्य से किसी व्यक्ति को किसी प्रकार की क्षति घटित न हो। यदि उस कार्य से किसी को क्षति होती है तब वह उद्योग उस क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा तथा वह अपने इस दायित्व का इस दलील से निवारण नहीं कर सकता कि उसकी कोई उपेक्षा नहीं थी तथा राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर में प्रतिपादित कठोर दायित्व का सिद्धान्त भारतीय परिस्थितियों पर लागू नहीं होगा।

     रूपान्तरण अपकृत्य (Transformative Tort)-  यह अमेरिकी सिद्धान्त है जो भोपाल गैस त्रासदी तथा श्रीराम फूड्स रिसाव जैसे मामलों में लागू होता है जहाँ प्रभावित व्यक्तियों की संख्या एक से अधिक (सामूहिक) होती है। रूपान्तरण अपकृत्य से तात्पर्य ऐसे विस्तार तथा आकार की दुर्घटनाओं से है जो अधिनिर्णय की सीमाओं का उल्लंघन करती हैं।

प्रश्न 11. (i) एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ, (1987) एस० सी० सी० 395 की सहायता से खतरनाक उद्योगों द्वारा कारित अपहानि के लिए दायित्वों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

Critically examine the liabilities for the harm caused by Hazardous Industries, with the help of M.C. Mehta v. Union of India, (1987) SCC 395.

(ii) कठोर दायित्व और पूर्ण दायित्व में अन्तर करें।

Distinguish between Strict Liability and Absolute Liability.

उत्तर (i) –‘पूर्ण दायित्व का नियम’ भारत में उच्चतम न्यायालय द्वारा एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1987) के बाद में सृजित किया गया, इसलिए इसे ‘एम० सी० मेहता का नियम’ भी कहा जाता है। इसको पूर्ण दायित्व का नियम इसलिए कहते हैं कि इसके अन्तर्गत बिना किसी दोष के भी दायित्व उत्पन्न होता है तथा इस नियम के अन्तर्गत वह अपवाद मान्य नहीं हैं जो राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर, के कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत मान्य है।

      एम० सी० मेहता के वाद में देहली स्थित डी० सी० एम० के एक उद्योग से 4 तथा 6 दिसम्बर, 1985 को जहरीली ओलियम गैस के रिसने से अनेक व्यक्तियों पर हानिकारक प्रभाव पड़ा तथा एक वकील की मृत्यु भी हो गई।

      लोकहित के एक वाद में उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करके प्रतिकर का दावा किया गया। ऐसे खतरनाक उद्योग के दायित्व के विषय में निर्णय देने के समय न्यायालय के विचार में यह बात भी थी कि इस देहली गैस रिसाव को दुर्घटना से ठीक एक वर्ष पहले ही भोपाल में यूनियन कार्बाइड के उद्योग से जहरीली गैस रिसने से कम से कम 4,000 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी और लाखों लोग विभिन्न रोगों से ग्रस्त हो गये थे। न्यायालय के विचार में यह बात भी थी कि ऐसी दुर्घटनाओं में गैस पीड़ितों को राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर में सृजित किये गये कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत प्राय: कोई राहत देने की सम्भावना इसलिए नहीं थी कि उस नियम के कई अपवादों के कारण प्रतिवादी अपने दायित्व से बच सकता था, जैसे कि यदि गैस का रिसाव किसी अन्य व्यक्ति द्वारा तोड़-फोड़ के अन्तर्गत हुआ हो तो कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत उद्योग का कोई दायित्व नहीं बनता।

      उपरोक्त परिस्थितियों को ध्यान में रख कर उच्चतम न्यायालय ने एक नया नियम “पूर्ण दायित्व का नियम” सृजित किया और कठोर दायित्व के सिद्धान्त को भारत में अमान्य ठहराया।”

      “पूर्ण दायित्व के नियम के अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक अथवा स्वभाव से संकटपूर्ण व्यवसाय में रहा है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को भय की सम्भावना होती है तब उसका वह पूर्ण तथा अनियोज्य (Non-delegable) कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करें कि उस कार्य से किसी को किसी प्रकार की क्षति घटित न हो। यदि उस कार्य से किसी को क्षति होती है तब यह उद्योग उस क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा तथा वह अपने दायित्व का इस दलील से निवारण नहीं कर सकता कि उसकी कोई उपेक्षा न थी। इसके अतिरिक्त यह भी निर्णय दिया गया कि राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर, के नियम के अपवाद इस पूर्ण दायित्व के नियम पर लागू नहीं होंगे।

      इसी प्रकार कुछ नवीनतम वादों में भी ‘पूर्ण दायित्व के नियम’ को अपनाया गया। जैसे-  इण्डियन कौसिल फॉर एनवायरो लीगल एक्शन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1446 के बाद में प्रतिवादियों के संयन्त्र से जहाँ ‘एच’ ऐसिड एवं सल्फ्यूरिक एसिड का उत्पादन होता था, उत्पादों के निकास से बिच्छरी गाँव तथा उससे संलग्न गाँवों में पर्यावरण प्रदूषित हो गया। प्रदूषण से प्रभावित गाँव वासियों की ओर से संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका लाई गई जिसमें प्रदूषण से गाँव वासियों के संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार का उल्लंघन बताया गया।

     उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि केन्द्रीय सरकार प्रतिवादी उद्योगों से पर्यावरण को स्वच्छ बनाने के लिए किये गये उपचारों में लगी धनराशि वसूल करें। प्रतिवादियों के कारखाने, संयन्त्र, मशीनें तथा सभी अचल सम्पत्ति को भी कुर्क करने का आदेश दिया गया ताकि उससे प्राप्त होने वाली धनराशि से ऐसे उपचार किये जाएँ जिससे प्रदूषण से प्रभावित क्षेत्र को पुनः प्रदूषण मुक्त किया जा सके। यह भी आदेश दिया गया कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को बन्द कर दिया जाए तथा वह उद्योग आवेदक को 50,000 रुपये वाद-व्यय अर्थात् वाद के खर्चे के लिए दें।

      Klaus Mittal Bachert v. East Indian Hotels Ltd., A.L.R. 1997 Delhi 201 के बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त लागू किया। इस वाद में एक पाँच सितारा होटल का निवासी उस समय बुरी तरह घायल हो गया जब उसने वहाँ स्थित तैरने के ताल में गोता लगाने के लिए छलाँग लगाई।

      उस ताल के निर्माण में नुक्स था तथा उसमें पानी की भी कमी थी, इसलिए यह ताल में खतरनाक था। दुर्घटना से वादी को पक्षाघात हो गया और 13 वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। यहाँ यह निर्धारित किया गया कि प्रत्यक्ष जोखिम के कारण प्रतिवादी का पूर्ण दायित्व हो जाता है। इसके अतिरिक्त अपनी सेवाओं के लिए अत्यधिक मूल्य वसूल करने के कारण एक पाँच सितारा होटल का दायित्व प्रतिकर देने का हो जाता है। इस दुर्घटना के लिए वादी को 50 लाख रुपये का मुआवजा प्रदान किया गया।

उत्तर (ii)-कठोर दायित्व और पूर्ण दायित्व में अन्तर (Distinction between Strict Liability and Absolute Liability) –

कठोर दायित्व

(1) कठोर दायित्व में प्रतिवादी का दायित्व बिना दोषपूर्ण आचरण के ही उत्पन्न हो जाता है किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी हैं जिसके सिद्ध होने पर प्रतिवादी बचाव ले सकता है।

(2) कठोर दायित्व के नियम का उद्भव राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर के वाद से हुआ जो एक इंग्लिश वाद है।

पूर्ण दायित्व

(1) पूर्ण दायित्व के नियम के अधीन कोई अपवाद मान्य नहीं है अर्थात् पूर्ण दायित्व के वाद में प्रतिवादी किसी अपवाद का सहारा लेकर बच नहीं सकता है।

(2) जबकि पूर्ण दायित्व के नियम का उद्भव एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के वाद से हुआ जो एक भारतीय वाद है।


प्रश्न 12. (i) मोटर यान अधिनियम, 1988 के अन्तर्गत बिना त्रुटि के प्रतिकर देने के दायित्व की विवेचना कीजिए। Discuss the liability of giving compensation without fault under Motor Vehicles Act, 1988.

(II) निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें –

(i) मोटर यानों का पर व्यक्ति जोखिम बीमा

(ii) बीमा प्रमाणपत्र का प्रभाव

(iii) टक्कर मार कर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी विशेष उपबन्ध।

Write short notes on the following –

(1) Other person risk insurance.

(ii) Effect of insurance certificate.

(iii) Special provisions for compensation in hit and run accident.

उत्तर (i)- बिना त्रुटि के प्रतिकर देने का दायित्व (Liability without fault and its applicability under MV Act, 1988)–मोटर यान अधिनियम की धारा 140 कतिपय मामलों में त्रुटि के बिना दायित्व” के एक नये दायित्व का सृजन करती है। भारत के उच्चतम न्यायालय, अनेक उच्च न्यायालयों तथा विधि आयोग ने त्रुटि के बिना दायित्व के सिद्धान्त को मोटर यान अधिनियम में समाविष्ट करने की सिफारिश की थी। धारा 140 यह उपबन्धित करती है कि यदि मोटर यानों के प्रयोग में हुई दुर्घटना के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो यान के स्वामी को 25,000 रुपये की नियत राशि प्रतिकर के रूप में देना होगा और यदि किसी व्यक्ति को कोई स्थायी निःशक्तता हो जाती है तो उस ऐसे व्यक्ति को 12,000 रुपये की नियत रकम प्रतिकर के रूप में देना होगा। इस धारा के अधीन प्रतिकर के लिए किसी दावे में दावेदार को यह साबित करना जरूरी नहीं है कि दुर्घटना यान के स्वामी या चालक की ओर से किसी दोषपूर्ण कृत्य, उपेक्षा या व्यतिक्रम के कारण हुई थी।

       रामधनी गुप्ता बनाम मोहम्मद इब्राहिम, (1985) ए० सी० जे० 476 इलाहाबाद के बाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा 140 के अधीन सृजित दायित्व भविष्यलक्षी है। यह धारा अधिनियम के लागू होने के दिन के पूर्व घटी दुर्घटनाओं के मामले पर लागू नहीं होती है। चूंकि धारा 140 के अधीन दायित्व त्रुटि के बिना है। अतः यदि किसी दुर्घटना में दो या दो से अधिक मोटर वाहन शामिल हैं तो सभी वाहनों के स्वामियों और उनके बीमाकर्ताओं का पृथक् एवं संयुक्त दायित्व होता है। दायित्व केवल दोषी वाहनों का ही नहीं होता है। त्रुटि के बिना दायित्व के आधार पर दी गई प्रतिकर की राशि त्रुटि के आधार पर दी जाने वालो राशि में से घटा दी जायेगी।

      ए० कौशनुमा बेगम बनाम न्यू इण्डिया इन्स्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड, ए० आई० आर० (2001) एस० सी० 485 के मामले में अपीलार्थी हाजी मोहम्मद हनीफ की पत्नी और बच्चों ने 1986 में दावा अधिकरण में, जीप के स्वामी के विरुद्ध जिसकी टक्कर से अपीलार्थी की मृत्यु हो गई थी 2,36,000 रुपये प्रतिकर के लिए पिटीशन फाइल किया। दुर्घटना जीप के अगले टायर के फटने के कारण हुई थी। अपीलार्थी सड़क पर जा रहा था उसी समय टायर के फट जाने से जीप उलट गई और अपीलार्थी को टक्कर मार दिया जिससे उसे गम्भीर चोटें पहुँचीं और बाद में उसकी मृत्यु हो गई। दावा अभिकरण ने उसका प्रतिकर के लिए दावा खारिज कर दिया। इसके विरुद्ध उसने उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि जीप का चालक उपेक्षावान नहीं था जिससे यात्री की मृत्यु हो गयी थी किन्तु अभिकरण के समक्ष प्रतिकर के लिए उसका दावा वाद योग्य था और जीप का स्वामी राइलैण्ड्स बनाम फ्लैचर के मामले में प्रतिपादित कठोर दायित्व के सिद्धान्त के आधार पर नुकसानी देने के लिए प्रतिनिधायी रूप से दायी था।

       न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि मोटर वाहन अधिनियम की धारा 140 के अधीन उपबन्धित बिना ” त्रुटि के दायित्व” कठोर दायित्व के नियम से भिन्न है। पहले में प्रतिकर की रकम निश्चित रहती है और उसका भुगतान किया जाना आवश्यक है भले ही नियम का कोई अपवाद लागू होता हो। यह कानूनी दायित्व है जिसके बिना दावा करने वाला व्यक्ति कोई प्रतिकर नहीं पा सकता है। मोटर वाहन के प्रयोग से उत्पन्न दुर्घटनाओं के मामले में प्रतिकर का दावा अपकृत्य विधि के अन्तर्गत किया जा सकता है और यह भी बिना किसी अधिनियम की सहायता के मोटर यान अधिनियम यह अनुमति देता है कि बिना त्रुटि के दायित्व’ के नियम के अधीन प्राप्त प्रतिकर अधिकरण द्वारा प्रदान की गई अन्तिम रकम में से घटाया जा सकता है। अतः मोटर वाहन अधिनियम की धारा 140 मोटर वाहन के प्रयोग से घटी दुर्घटना से पीड़ित व्यक्ति अधिकरण से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है जब तक कि अपवादों में से एक लागू न होता हो।

(ii) मोटर यानों का पर व्यक्ति जोखिम बीमा– मोटर यान अधिनियम, 1988 के अनुसार पर व्यक्ति जोखिम बीमा कराना अनिवार्य है। प्रत्येक यान के स्वामी के लिए पर व्यक्ति जोखिम बीमा कराना अनिवार्य है। धारा 146 यह उपबन्धित करती है कि कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थान में मोटर यान का उपयोग यात्री से भिन्न रूप में तभी करेगा या किसी अन्य से करायेगा या उसे करने देगा जब तक कि उस व्यक्ति या उस अन्य व्यक्ति द्वारा उस यान के उपयोग के सम्बन्ध में ऐसी बीमा पालिसी प्रवृत्त है जो इस अध्याय के अनुपालन में है, अन्यथा नहीं।

      अधिनियम की धारा 146 और अध्याय 11 की अन्य धाराओं का उद्देश्य पर व्यक्ति के हित की रखा करना है जो किसी यान के प्रयोग से क्षतिग्रस्त होता है। यदि यान का पर व्यक्ति जोखिम बीमा है तो वह बीमा कम्पनी से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है और इस नुकसानी के लिए उसे यान के स्वामी या चालक की वित्तीय स्थिति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। एशियाटिक इन्स्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम धन्नामल अश्वनी, ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 1735

(iii) बीमा प्रमाणपत्र का प्रभाव – अधिनियम की धारा 156 के अनुसार जब बीमाकर्ता ने ऐसी बीमा संविदा के बारे में, जो बीमाकर्ता और बीमाकृत व्यक्ति के बीच है, बीमा प्रमाणपत्र दे दिया है, तब उसका निम्न प्रभाव होता है –

(1) यदि और जब तक प्रमाणपत्र में वर्णित पालिसी, बीमाकर्ता द्वारा बीमाकृत को नहीं दी गई है तो और तब तक बीमाकर्ता की बाबत यहाँ तक बीमाकर्ता और बीमाकृत से भिन्न किसी व्यक्ति के बीच की बात है, यह समझा जायेगा कि उसने बीमाकृत व्यक्ति को बीमा पालसी दे दी है जो सभी प्रकार से ऐसे प्रमाणपत्र में दिये हुए वर्णन और विशिष्टियों के अनुरूप हैं; और

(2) यदि बीमाकर्ता ने प्रमाणपत्र में वर्णित पालिसी बीमाकृत को दे दी है किन्तु पालिसी के वास्तविक निबन्धन पालिसी की उप विशिष्टियों से, जो प्रमाणपत्र में उल्लिखित हैं, उन व्यक्तियों के लिए कम अनुकूल हैं जो पालिसी के अधीन या आधार पर बीमाकर्ता के विरुद्ध दावा या तो प्रत्यक्ष रूप से या बीमा के माध्यम से करते हैं, तो जहाँ तक बीमाकर्ता से भिन्न किसी व्यक्ति के बीच की बात है, पालिसी की बाबत यह समझा जायेगा कि वह सभी प्रकार से उन विशिष्टियों के अनुरूप है जो उक्त प्रमाणपत्र में उल्लिखित है।

(iv) टक्कर मारकर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी विशेष उपबन्ध (Special provisions for compensation in hit and run accident) अधिनियम की धारा 161, 162 और 163 में टक्कर मारकर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं के मामले में प्रतिकर के बारे में विशेष उपबन्ध किया गया है। इस धारा में प्रयुक्त गम्भीर चोट ( grievous hurt) शब्द का वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता में है। टक्कर मार कर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं” से ऐसे मोटर यान या मोटर यानों के उपयोग से उद्भूत दुर्घटना से अभिप्रेत है जिनकी पहचान इस प्रयोजन के लिए युक्तियुक्त प्रयत्न करने के बाद अभिनिश्चित नहीं की जा सकती है। धारा 161 के अधीन केन्द्रीय सरकार को टक्कर मार कर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटना में प्रतिकर के भुगतान के लिए योजना बनाने की शक्ति प्रदान की गई है। इस अधिनियम और स्कीम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए ऐसे मामलों में प्रतिकर के रूप में निम्न रकम दी जायेगी –

(क) मृत्यु के मामले में 2,00,000 रुपये की नियत राशि:

(ख) गम्भीर चोट के मामले में पचास हजार रुपये की नियत राशि या कोई उच्चतर राशि जैसा केन्द्रीय सरकार द्वारा विहित किया जाए।

     उक्त प्रतिकर के लिए आवेदन धारा 166 के उपबन्धों के अनुसार दिये जायेंगे।

प्रश्न 13. ‘मानसिक आघात’ दायित्व से सम्बन्धित नियमों का संगत वादों की सहायता से वर्णन कीजिए।

Explain the rule relating the liability of “Nervous Shock” cases with the help of relevant cases.

उत्तर – विधि की इस शाखा का उद्भव अभी बहुत दीर्घकालीन नहीं है। इसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति को तब उपचार प्रदान होता है जब वह शारीरिक रूप से क्षतिग्रस्त नहीं होता, वरन केवल तन्त्रिकाघात से क्षतिग्रस्त होता है जो उस व्यक्ति को किसी चीज को सुनने अथवा देखने से होता है। उदाहरण के लिए विल्किन्सन बनाम डाउटन, (1897) एल० आर० 2 क्यू० बी० 57 नामक बाद में वादिनी को मजाक में ही कहा गया कि उसके पति की एक दुर्घटना में दोनों टाँगें टूट गई हैं। इसके फलस्वरूप वादिनी उस समाचार को सुनकर तन्त्रिकाघात के कारण गम्भीरतम रूप से बीमार हो गई थी।

     अर्थात् तन्त्रिकाघात, भौतिक या शारीरिक घात से अधिक खतरनाक या घातक होता है। तन्त्रिकाघात यद्यपि अदृश्य होता है परन्तु इसकी चोट इतनी घातक होती है कि इससे मृत्यु भी हो सकती है।

    सन् 1888 ई० से लेकर 1897 ई० तक इंग्लैण्ड में भी तन्त्रिकाघात (या मानसिक आघात) को क्षति का कारक नहीं माना जाता था। अपकृत्य के वाद में सफल होने के लिए यह साबित करना होता था कि क्षति या चोट छड़ी, थप्पड़, गोली या तलवार जैसे भौतिक माध्यमों से लगी हो।

      विक्टोरियन रेलवे कमिश्नर बनाम कोल्टा (1998) एल० आर० 13 ए० सी० 322 नामक वाद में भी प्रीवी काउन्सिल ने कहा कि प्रत्येक आघात (चोट) के बिना कान से सुनने या आँख से देखने से लगे आघात या जिसे तंत्रिकाघात कहते हैं, इस प्रकार की चोटों को मान्यता नहीं दी। प्रिवी काउन्सिल के अनुसार जब तक भौतिक या दृश्य एवं बाह्य आघात से चोट नहीं लगती, चोट के लिए लाया गया वाद सफल नहीं होना चाहिए।

    डुलियु बनाम ह्वाइट एण्ड सन्स, (1901) के० बी० 669 नामक वाद में न्यायाधिपति कैनेडी ने यद्यपि तंत्रिकाघात की कार्यवाही को मान्यता तो दी थी परन्तु उन्होंने इस पर कठोर शर्त भी लागू की, जब उन्होंने यह कहा कि ऐसी किसी कार्यवाही के लिए आघात को ऐसा होना चाहिए जो स्वयं अपनी ही तात्कालिक दैहिक क्षति के युक्तियुक्त भय से उत्पन्न हुआ हो। इसका मतलब यह हुआ कि यदि ‘क’ की उपेक्षा से ‘अ’ के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है तो ‘अ’ कार्यवाही कर सकता है यदि वह तंत्रिकाघात से पीड़ित होता है। परन्तु यदि दूसरी तरफ ‘अ’ के खतरे को देख कर अथवा सुनकर एक दूसरा व्यक्ति जैसे ‘ब’ तंत्रिका से क्षतिग्रस्त होता है तो ‘व’ इस आघात के लिए ‘क’ के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता। यह निर्णय न्यायोचित नहीं प्रतीत होता।

     हैमबुक बनाम स्टोक्स ब्रदर्स, (1925) 1 के० बी० 141 का वाद ऐसी कार्यवाही को मान्यता प्रदान करता है जिसमें ‘अ’ के प्रति उत्पन्न शारीरिक खतरा ‘ब’ को तंत्रिकाघात से क्षतिग्रस्त करता है। इस वाद में एक संकरी गली में जैसे ही एक महिला अपने बच्चों को छोड़ गई उसने देखा कि एक लारी अत्यधिक तीव्रता के साथ उस ढलुई और सँकरी गली की ओर दौड़ती चली जा रही है। महिला अपने बच्चों की संरक्षा के निमित्त भयभीत हो गई। एक अन्य देखने वाले व्यक्ति ने उस महिला से बताया कि उस महिला के लड़के जैसा एक लड़का क्षतिग्रस्त हो गया है, वह महिला तंत्रिकाघात से पीड़ित हुई और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गई। प्रतिवादी के विरुद्ध की गई कार्यवाही में जिसने लापरवाही के साथ उस लारी को चालक के बगैर छोड़ रखा था, उसे उत्तरदायी ठहराया गया, यद्यपि कि वह महिला, जो तंत्रिकापात से पीड़ित हुई थी, स्वयं लारी से उत्पन्न खतरे की परिधि में नहीं थी। इस प्रकार दुलियु बनाम ह्वाइट में दिये निर्णय को न्यायाधीश लाई एटकिन ने अस्वीकार कर दिया।

     अतः अब यह आवश्यक नहीं है कि तंत्रिकाघात की कार्यवाही को सफल बनाने के लिए बादी स्वयं शारीरिक आघात की परिधि के भीतर हो, तथापि यह आवश्यक है कि वादी किसी ऐसे स्थान पर उपस्थित रहा हो जहाँ पर तंत्रिकामात के माध्यम से क्षति के कारित होने की कल्पना की जा सकती हो।

      जहाँ प्रतिवादी वादी के प्रति सावधानी रखने का कोई कर्तव्य धारण नहीं करता और इस प्रकार वादी को हुई किसी भी क्षति के लिए उसे उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता।

      बौरहिल बनाम यंग, (1943) ए० सी० 92 के बाद में वादी, जो एक मछली बेचने वाली महिला थी, जब एक ट्राम कार से उतर रही थी, उसने एक दुर्घटना घटित होने जैसी आवाज सुनी परन्तु वह स्वयं उसको देख न सकी थी, क्योंकि वह उस घटनास्थल से 50 फीट दूर थी और दृष्टिपथ में ट्राम कार बाधा बन रही थी। उस दुर्घटना में एक असावधान मोटर साइकिल चालक कालग्रस्त हो गया था तथा इस मोटर साइकिल चालक के मृत शरीर को जब हटा दिया गया तब वह महिला दुर्घटना स्थल पर गई और उसने सड़क पर मृतक के रक्त को देखा। उसके परिणामस्वरूप उसे तंत्रिकाघात हुआ और एक महीने बाद उसने एक मृत शिशु को जन्म दिया।

     उसने मोटर साइकिल चालक के निजी प्रतिनिधियों के विरुद्ध वाद संस्थित किया। हाउस ऑफ लाईस ने यह निर्णय दिया कि मृतक से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वह वादी के प्रति किसी प्रकार की क्षति का पूर्वानुमान कर सकता था और इस प्रकार वह वादी के प्रति सावधानी बरतने का कोई भी कर्तव्य धारण नहीं कर सकता था। अतः मोटर साइकिल चालक के प्रतिनिधियों को किसी प्रकार से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सका।

     किंग बनाम फिलिप्स, (1953) 1 क्यू० बी० 929 नामक वाद में प्रतिवादी के सेवक ने उपेक्षा के साथ टैक्सी बिना देखे पीछे की, टैक्सी के पीछे एक बालक तीन पहिये की साइकिल चला रहा था। बालक की साइकिल चपेट में आ गई। बालक की माँ उस स्थान से 70-80 गज की दूरी पर ऊपर की एक खिड़की के पास खड़ी थी और उसने केवल यह देखा कि बच्चे की साइकिल टैक्सी के नीचे आ गई है। उसे बालक की चिल्लाहट भी सुनाई पड़ी परन्तु वह बालक को न देख सकी। बालक और उसकी साइकिल को अत्यन्त हल्की क्षति कारित हुई थी, परन्तु माँ तंत्रिकाघात से क्षतिग्रस्त हो गई। यह धारित किया गया कि माँ क्षति की युक्तियुक्त आशंका की परिधि से पूर्ण बाहर थी अतः उसे क्षति के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराये गये न्यायाधिपति सिंगलटन के अनुसार, ‘चालक बालक के प्रति कर्तव्य धारण करता था, परन्तु वह उसकी माँ के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानता था क्योंकि वह राजमार्ग पर नहीं थीं तथा ड्राइवर को यह नहीं जात हो सकता था कि वह खिड़की के पास खड़ी होगी और न ही वहाँ ऐसा कोई कारण ही उपस्थित था कि वह इस बात का अनुमान करता कि वह उसकी टैक्सी को देखेगी।

     इस मामले के तम्य हैम्बुक बनाम स्टोक्स ब्रदर्स के तथ्यों से काफी कुछ मिलते-जुलते जिसमें नुकसान पाने में सफल हो गई थी यद्यपि उसे भी अपने बच्चों की रक्षा के भय से तंत्रिका कारित हुआ था। अतः तंत्रिका को किसी कार्यवाही के प्रयोजन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि कोई व्यक्ति स्वयं अपनी ही शारीरिक क्षति के घेरे में होना हो पर्याप्त है कि वह इस प्रकार अवस्थित है कि यदि वह कुछ देखता या सुनता है तो उसे आघात लग सकता था। अत: किंग बनाम फिलिप्स के मामले में निर्णय को काफी आलोचना हुई और पुनर्विचार को भी माँग की गई।

प्रश्न 14 (अ) उपेक्षा के अपकृत्य के आवश्यक तत्व क्या है? उपेक्षा के अपकृत्य के विद्वेष की महत्ता स्पष्ट करें।

What are the elements of negligence? Explain the importance of Malice in Tort of negligence.

अथवा (or)

    “बाद योग्य असावधानी का मामला तब तक उत्पन्न नहीं होगा जब तक सावधानी बरतने के लिए कर्त्तव्य का भंग न किया जाए। ‘व्याख्या कीजिए। निर्णीत वादों का भी उल्लेख कीजिए।

    “No call of actionable negligence will arise unless there is a breach of duty to take care, “Explain. Refer to decided cases also.

(ब) योगदायी उपेक्षा में दायित्व से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन करें।

    Describe various theories in relation to liability under contributory negligence.

अथवा (or)

अंशदायी असावधानी के सिद्धान्त की पूर्णरूपेण विवेचना कीजिए। Discuss fully the doctrine of contributory negligence.

उत्तर (A) – उपेक्षा (Negligence) – सामान्य परिभाषा के अनुसार वहाँ जहाँ सावधानी बरतने का कर्तव्य है, युक्तियुक्त सावधानी का अभाव ही उपेक्षा के अपकृत्य का गठन करता है। प्रमुख विधिशास्त्रियों ने उपेक्षा की निम्न परिभाषा दी है ” उपेक्षा में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया जाता है ऐसे मामलों में जहाँ सावधानी बरतना विधि द्वारा अपेक्षित होता है। “ – सामण्ड

“उपेक्षा एक अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी के न चाहने पर भी वादी को क्षति पहुँचती है।” – विनफील्ड

    कार्यवाही योग्य उपेक्षा किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति सामान्य सावधानी अथवा कौशल के प्रयोग में उपेक्षा का बरतना है जिसके प्रति प्रतिवादी सावधानी और कौशल के आचरण का कर्तव्य धारण करता है और जिस उपेक्षा के परिणामस्वरूप वादी को अपने शरीर अथवा सम्पत्ति की क्षति भोगनी पड़ी है। हेवेन बनाम पेण्डर [ (1883) 11 क्वीन बेंच डिवीजन 503.] उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेशण से उपेक्षा के निम्न तत्व परिलक्षित होते हैं। इस प्रकार उपेक्षा के अपकृत्य को साबित करने हेतु निम्न तत्व साबित करने होते हैं –

(1) प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य था,

(2) प्रतिवादी ने इस विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया था,

(3) प्रतिवादी की इस असावधानी के कारण वादी को क्षति या हानि हुई थी।

(1) वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य (Legal duty to take (care) उपेक्षा के अपकृत्य में सफल होने के लिए यह साबित करना पड़ता है कि प्रतिवादी वादी के प्रति सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य के अधीन था तथा प्रतिवादी ने इस कर्तव्य का उल्लंघन किया था। विधिक कर्तव्य कब तथा किन सम्बन्धों के कारण उत्पन्न होते हैं इसके सम्बन्ध में कोई कठोर नियम नहीं है। यह प्रत्येक मामले के तथ्य तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

     पड़ोसी का सिद्धान्त- डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन [ (1932) अपील केसेज 562.] नामक प्रख्यात वाद में लार्ड एटकिन ने कहा कि सामान्य प्रवर्तन की किसी बात का मिलना कितना कठिन है जिसमें यह परिभाषित किया गया हो कि विभिन्न पक्षकारों के बीच कौन से सम्बन्ध ऐसे हैं जो कर्तव्य की विद्यमानता को जन्म देते हैं। न्यायालयों का सम्बन्ध केवल उन्हीं सम्बन्धों से होता है जो उनके समक्ष वास्तविक वाद कारण के रूप में उपस्थित होते हैं तथा इतना पर्याप्त है कि क्या उन परिस्थितियों में कर्तव्य विद्यमान था। लार्ड एटकिन ने इस वाद में यह नियम प्रतिपादित किया, “ऐसे कर्तव्यों अथवा लोपों, चूकों (omissions) से बचने में आप अवश्य ही युक्तियुक्त सावधानी का बर्ताव करें जिनके निमित्त आप यह पूर्वानुमान कर सकते हैं कि वे सम्भाव्यता आपके पड़ोसी को क्षति पहुँचा सकते हैं।” पड़ोसी की परिभाषा देते हुए लाई एटकिंन कहते हैं “पड़ोसी ऐसे व्यक्ति हैं जो मेरे कार्य से इतनी निकटता तथा प्रत्यक्षता के साथ प्रभावित होते हैं कि मैं ऐसा कार्य या लोप करते समय युक्तियुक्ततः यह सोच सकता हूँ कि वे उनसे प्रभावित होंगे।

     संक्षेप में कहें तो सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य के अस्तित्व की (विद्यमानता की) प्रमुख कसौटी यह है कि क्या प्रतिवादी यह पूर्वानुमान लगा सकता था कि उसको असावधानी उसके पड़ोसी को क्षति या नुकसान पहुँचा सकती थी। यहाँ पड़ोसी का अर्थ ऐसे व्यक्तियों से लगाया जाना चाहिए जो आपके फर्म से इतनी निकटता तथा प्रत्यक्षता से जुड़े होते हैं कि मैं अपने कार्य या लोप करते समय यह उचित रूप से सोच सकता हूँ कि वे मेरे कार्य या लोप से प्रभावित होंगे।

      डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन (Donough v. Stevenson ) [ ( 1932) A.C. 562.) नामक बाद में प्रतिवादी की ओर से यह तर्क दिया गया था कि वह वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य धारण नहीं करता था। हाउस ऑफ लाईस ने यह निर्णय दिया कि जिंजर वियर का निर्माता वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य धारण करता था कि वह देखे कि बोतल में कोई हानिकारक तत्व न मिलने पाये, यदि वह अपने उस कर्तव्य में विफल रहता है तो वह उस क्षति के लिए उत्तरदायी है जो जिजर बियर के पीने से उपभोक्ता को होती है। लाई एटकिन ने कहा “किसी उत्पाद वस्तु का निर्माता जिसे वह उस रूप में बेचता है कि उससे यह प्रदर्शित होता है कि उसका आशय उस उत्पाद को उसी रूप में जिसमें अन्तिम उपभोक्ता के पास भेजना है और उसे इस बात का ज्ञान है कि उस उत्पाद का कहाँ भी बीच में कोई युक्तियुक्त परीक्षण नहीं किया जायेगा और उसे यह भी जान है कि उस वस्तुको तैयार करने में अथवा उस उत्पाद को विक्रय के निमित्त प्रस्त करने में यदि उसकी ओर से युक्तियुक्त सावधानी का बरताव नहीं किया गया तो इसके परिणामस्वरूप उस वस्तु का उपभोक्ता अपने जीवन या सम्पत्ति की हानि उठा सकता है तो ऐसे उपभोक्त के प्रति वह युक्तियुक्त सावधानी बरतने का कर्तव्य रखता है।”

     इस वाद में अ अपीलकर्ता ने अपने मित्र के लिए एक जिजर बोतल खरीदी। बोतल का कुछेक भाग एक बोतल में उड़ेला गया; बची हुई बियर जब गिलास में डाली गयी तो उसमें घोघा (snail) पाया गया। शराब पीने के परिणामस्वरूप वह गम्भीर रूप से बीमार पड़ गई। जिजर बीयर की बोतल अपारदर्शी थी। इंग्लैण्ड के सर्वोच्च न्यायालय हाउस ऑफ लाइंस ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया जबकि प्रतिवादी का यह विधिक कर्तव्य था कि वह देखें कि बोतल में जहरीले पदार्थ न पाये जायें। यदि वह इस कर्तव्य का उल्लंघन करता है तो वह उत्तरदायों होगा।

     डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन में प्रतिवादी का यह तर्क था कि उसका वादी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं था परन्तु हाउस ऑफ लाईस ने यह तर्क अमान्य करते हुए कहा कि उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माता का यह विधिक कर्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके द्वारा निर्मित उपभोक्ता सामग्री अन्तिम उपभोक्ता तक हानि रहित अवस्था में पहुंचे क्योंकि यह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि यदि हानिकारक उपभोक्ता सामग्री उपभोक्ता तक पहुँचती है तो उसके प्रयोग से उपभोक्ता को हानि होगी, खासकर वहाँ जहाँ उपभोक्ता को सामग्री के परीक्षण का उचित अवसर न हो।

(2) प्रतिवादी ने सावधानी बरतने के अपने विधिक कर्तव्य का भंग किया हो (Breach of duty by defendant)– कर्तव्य भंग से तात्पर्य यह है कि प्रतिवादी ने सम्यक् सावधानी का अनलुपालन नहीं किया है। यह मापदण्ड एक विवेकशील व्यक्ति का हैं। यदि प्रतिवादी ने एक विवेकशील व्यक्ति की भाँति सद्भावतया सावधानीपूर्वक कार्य किया है तो उसे असावधान व्यक्ति नहीं माना जायेगा। परन्तु यदि उसका उल्टा है तोवह सावधानी बरतने के कर्तव्य भंग का दोषी होगा।

    यदि कोई व्यक्ति विशेष व्यवसाय चला रहा है जहाँ विशेष सावधानी की आवश्यकता है तो ऐसी परिस्थिति में सामान्य सावधानी का मापदण्ड नहीं होगा। इसके लिए विशेष सावधानी बरतनी होगी, अर्थात् किसी विशेष परिस्थिति में कितनी सावधानी बरतनी चाहिए इसकी अवधारणा करते समय न्यायालय को निम्नलिखित पर ध्यान देना होता है-

(a) खतरे की मात्रा, तथा

(b) खतरे के प्रति सावधानी का स्तर ।

    जैसे – एक व्यक्ति जो एक भरी बन्दूक लेकर सार्वजनिक स्थान पर चलता है, उससे उस व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सावधानी बरतने की अपेक्षा की जाती है जो एक लकड़ी की छड़ी लेकर ऐसे स्थान पर चलता है।

      डॉ० लक्ष्मण बालकृष्ण जोशी बनाम डॉ० त्रिम्बक बापू गोडबोले (ए० आई० आर० 1969 सु० को०] 128.) नामक बाद में वादी के पुत्र का पैर टूट गया था प्रतिवादी ने दर्द निवारक औषधि दिये बिना उपचार में अतिशय बल प्रयोग किया उच्चतम न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा के लिए उत्तरदायी माना।

     श्रीमती सोनियाबाई रामस्वरूप मौर्य बनाम डॉ० प्रमोद शर्मा, ए० आई० आर० (2012) मध्य प्रदेश 21 के मामले में रोगी को उदर पौड़ा की शिकायत थी। चिकित्सकों ने उसके अपेन्डिक्स की शल्य क्रिया की और तत्पश्चात् उसने चिकित्सालय छोड़ दिया। किन्तु अगले दिन उसकी स्थिति गम्भीर हो गई की उसकी मृत्यु हो गयी। इस आधार पर कि चिकित्सकों द्वारा अपने कर्तव्य पालन में उपेक्षा बरतने की कारण रोगी मृत्यु हो गयी, प्रतिकर हेतु दावा किया गया। विशेषज्ञों का कहना था कि चिकित्सकों द्वारा शल्यक्रिया से पूर्व रोगों का भली प्रकार परीक्षण नहीं किया गया था। रोगी उस समय हेपेटाइटिस रोग से भी पीड़ित था जिसे ध्यान में नहीं लिया गया। विशेषज्ञ दल के एक सदस्य का यह निष्कर्ष था कि रोगी को जब शल्य क्रिया की गयी तब वह पीलिया रोग से ग्रसित था अतः शल्य क्रिया पूर्ण होने के पश्चात् उसकी स्थिति बिगड़ती ही चली गयी। इस प्रकार विशेषज्ञ दल की रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट हो गया था कि चिकित्सकों द्वारा किये गये उपचार में उपेक्षा का तत्व विद्यमान था। न्यायालय ने चिकित्सकों को उपेक्षा का दोषी ठहराया।

(3) वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा के परिणामस्वरूप क्षति (damage) हुई हो– उपेक्षा के बाद में दायित्व निर्धारण हेतु यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी के उपेक्षात्मक कार्य के परिणामस्वरूप वादी को क्षति कारित हुई थी। यह भी साबित किया जाना आवश्यक है कि वादी को हुई क्षति प्रतिवादी के उपेक्षात्मक या असावधानीपूर्वक किए गए कार्य का प्रत्यक्ष या निकटतम परिणाम है न कि अप्रत्यक्ष या दूरस्थ परिणाम है।

    क्षतिपूर्ति का निर्धारण करते समय मुद्रास्फीति को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। जहाँ बाद 15 वर्षों से लम्बित था वहाँ मुद्रा के अवमूल्यन को ध्यान में रखते हुए दावाकर्ता के दावे को मुद्रा के वर्तमान मूल्य के अनुरूप बढ़ाया गया। [बलराम प्रसाद बनाम कुनाल साहा, (2014) 1 एस० सी० सी० 384]

     उपेक्षा के मामले में विद्वेष का महत्व – विद्वेष या दुराशय अपकृत्य के मामले में अब प्रमुख कारक नहीं है क्योंकि कोई अवैध कार्य इसलिए वैध नहीं हो जाता कि उसका आशय अच्छा था या उसके करने में दुराशय का अभाव था। इसी प्रकार एक वैध कार्य इसलिए अवैध नहीं हो जाता कि उसे करने के पीछे दुराशय था। इसी प्रकार यदि युक्तियुक्त सावधानी बरतने का कर्तव्य है तथा किसी व्यक्ति ने उस कर्तव्य का भंग युक्तियुक्त सावधानी न बरत कर किया है तो वह उत्तरदायी होगा चाहे उसने यह कर्तव्य भंग सद्भावपूर्वक किया हो या दुर्भावपूर्वक इस प्रकार उपेक्षा के मामले में दुराशय या विद्वेष का कोई महत्व नहीं है।

(B) सहदायी उपेक्षा (Contributory Negligence) या योगदायी उपेक्षा जब वादी स्वयं को सावधानी के अभाव द्वारा उस क्षति में योगदान देता है जो प्रतिवादी की उपेक्षा या अपकृत्य पूर्ण आचरण के कारण होती है तो वादो को योगदायी उपेक्षा का दोषी माना जाता है। योगदायी उपेक्षा या सहदायी उपेक्षा, उपेक्षा के बाद में प्रतिवादी को उपलब्ध एक बचाव है। यदि प्रतिवादी यह साबित करने में सफल हो जाता है कि वादी अपनी सुरक्षा के लिए युक्तियुक्त सावधानी लेने में असफल था तथा वादी की यह सावधानी की कमी उसे हुई क्षति के लिए योगदायी कारक (contributory factor) थी तो वह अपने दायित्व से • सकता है या उसका दायित्व कम हो सकता है।

      योगेन्द्र पाल चौधरी बनाम दुर्गादास (1972 सुप्रीम कोर्ट जर्नल 483, दिल्ली) नामक बाद में एक पदयात्री एकाएक सड़क पार करने का प्रयत्न करते समय चलते वाहन से टकरा गया। उसे हुई क्षति के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसे योगदायी उपेक्षा का दोषी माना।

      रूरल ट्रान्सपोर्ट बनाम बेजलुम बीबी (ए० आई० आर० 1980 कलकत्ता 165) नामक बाद में यात्री बस की छत पर यात्रा कर रहे थे कि चालक यह तथ्य भूल गया तथा बस एक बैलगाड़ी को बचाते समय कच्चे रोड पर उतर गई जिससे बस की छत पर बैठे लोग घायल हुए। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यात्रियों को योगदायी उपेक्षा का दोषी पाया। योगदायी उपेक्षा कहाँ तक बचाव है? (How far Contributory Negligence is defence?)

     योगदायी उपेक्षा से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त– कामन लॉ के अन्तर्गत इंग्लैण्ड में योगदायी उपेक्षा (contributory negligence) एक अच्छा बचाव था। यदि प्रतिवादी वादी की योगदायी उपेक्षा साबित कर देता था तो वादी का दावा असफल हो जाता था। इस प्रकार उपेक्षापूर्ण प्रतिवादी के लिए वादी की उपेक्षा दायित्व मुक्ति का एक साधन बन गयी जब कि ऐसे मामलों में वादी की ओर से सावधानी बरतने के कर्तव्य का भंग नहीं होता था परन्तु वह अपनी सुरक्षा के लिए वांछित सावधानी बरतने में असफल होता था, अतः वादी की तनिक भी असावधानी उसे प्रतिकर से वंचित कर देती थी। भले ही प्रतिवादी ने युक्तियुक्त सावधानी के कर्तव्य का भंग ही क्यों न किया हो।

     उपरोक्त नियम या सिद्धान्त से बड़ी कठिनाई हुई तथा इस सिद्धान्त के कारण उपेक्षापूर्ण दायित्व से उपेक्षा का दोषी होने के बावजूद प्रतिवादी बच जाता था क्योंकि वादी ने अपनी उपेक्षा से हुई क्षति में योगदान किया था भले ही प्रतिवादी की उपेक्षा क्षति का मुख्य कारण रही हो। अतः उपरोक्त सिद्धान्त के स्थान पर अन्तिम अवसर (Last opportunity) के नियम का प्रतिपादन किया गया।

     अन्तिम अवसर का नियम (Last Opportunity Rule)- इस नियम के अनुसार वादी तथा प्रतिवादी (जब दो व्यक्ति) उपेक्षा के दोषी हों वहाँ यह देखा जायेगा कि दुर्घटना को बचाने का अन्तिम अवसर किस व्यक्ति (वादी या प्रतिवादी) के पास था तथा दुर्घटना में हुई सम्पूर्ण क्षति के लिए वही पक्षकार (व्यक्ति) उत्तरदायी माना जाता था जिसके पास दुर्घटना बचाने (निवारित करने) का अन्तिम अवसर था। इस प्रकार यदि दुर्घटना बचाने का अन्तिम अवसर वादी के पास था तो सम्पूर्ण क्षति के लिए वादी उत्तरदायी होता था तथा यदि प्रतिवादी अन्तिम अवसर पर उपेक्षित था जिसके कारण दुर्घटना हुई तो सम्पूर्ण क्षति के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी ठहराया जाता था।

    डेविस बनाम मान [ (1872) 10 एम० तथा डब्लयू० 546.] नामक वाद इस नियम पर उपयुक्त उदाहरण है। इस मामले में वादी ने अपने गधे के दोनों अगले पैर बाँध कर सँकरी गली में गधे को छोड़ दिया था, प्रतिवादी अपनी घोड़ा गाड़ी से तेजी से जा रहा था तथा चालक की उपेक्षा के कारण गधे को चोट लगी तथा वह मर गया। यहाँ वादी भी दोषी था क्योंकि उसने अपने गधे के दोनों अगले पैर बाँध कर उसे सँकैरी गली में छोड़ने का उपेक्षापूर्ण कार्य किया था परन्तु चूँकि दुर्घटना को निवारित करने या बचाने का अन्तिम अवसर प्रतिवादी घोड़ागाड़ी के स्वामी के पास था जिसमें वह उपेक्षा का दोषी था परन्तु वादी अपनी उपेक्षा के बावजूद प्रतिवादी से प्रतिकर प्राप्त करने में सपुल रहा क्योंकि दुर्घटना को बचाने का अन्तिम अवसर प्रतिवादी के पास था जिसमें वह उपेक्षा का दोषी था।

      इस नियम का समर्थन करते हुए लार्ड पार्कर ने कहा कि यदि अन्तिम अवसर का सिद्धान्त न हो तो एक चालक आम रास्ते पर पड़ी वस्तुओं या मानवों या पशुओं को कुचल कर भी दायित्व से बच सकता है क्योंकि ये वस्तुएँ आम रास्ते पर रखने का दोषी वादी था या कुछ लोग सड़क पर सोने के दोषी थे।

      अन्तिम अवसर का सिद्धान्त भी असन्तोषजनक था क्योंकि एक पक्षकार जिसका दोष पहले होता था दोषी होने के बावजूद दायित्व से बच जाता था तथा वह पक्षकार जिसका अन्तिम दोष होता था वह दुर्घटना की समस्त क्षति के लिए अकेले उत्तरदायी होता था।

     आनुपातिक समायोजन का सिद्धान्त- सन् 1911 में मेरिटाइम कन्वेंशन अधिनियम पारित किया गया। उसी पर आधारित 1945 में विधि सुधार अधिनियम (Law Reform Act) इंग्लैण्ड में पारित किया गया। इस अधिनियम की धारा 1 के अनुसार जहाँ किसी व्यक्ति को अंशत: अपनी उपेक्षा तथा अंशतः प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण क्षति पहुँचती है तो उसके नुकसानी का दावा सिर्फ इस आधार पर ही खारिज नहीं कर दिया जायेगा कि वादी ने भी उपेक्षा बरती थी परन्तु क्षति के लिए प्रतिकर की राशि उसी मात्रा में कम कर दी जायेगी जिस मात्रा में वादी क्षति के लिए उत्तरदायी था। इसे प्रतिकर के आनुपातिक विभाजन या समायोजन का सिद्धान्त (Doctrine of apportionment of damage) कहा गया। इस सिद्धान्त के अनुसार घटना में क्षति के लिए निर्धारित प्रतिकर की सम्पूर्ण धनराशि का वादी तथा प्रतिवादी के दोष या उपेक्षा के अनुपात में समायोजन या विभाजन कर दिया जायेगा तथा वादी की उपेक्षा या दोष के प्रतिशत के अनुपात में धनराशि सम्पूर्ण राशि में से कम कर प्रतिकर वादी को दिया जायेगा। उदाहरण के लिए, यदि प्रतिकर की धनराशि 10,000 रुपये है तथा बादी की उपेक्षा तथा प्रतिवादी के दोष का अनुपात 37 है तो वादी को 3,000 रुपये कम कर सात हजार प्रतिकर दे दिया जायेगा।

प्रश्न 15. “घटना अपनी कहानी स्वयं कहती है” या “स्वयं सूक्ति प्रमाण” – सूत्र की व्याख्या कर इस सूक्ति को निर्णीत वादों की सहायता से समझाइए।

Discuss the maxim “RES IPSA LOQUITOUR”. Explain the maxim with the help of decided cases.

उत्तर– सामान्य नियम के अनुसार उपेक्षा के अपकृत्य में सफल होने के लिए वादी को सफलतापूर्वक यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी ने अपने युक्तियुक्त सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया है। अर्थात् वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करनी होती है। परन्तु कुछ मामले या परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं जहाँ प्रतिवादी की उपेक्षा का अनुमान मामले की परिस्थितियों के आधार पर निकाला जा सकता है। मामले के तथ्यों के अवलोकन से यह स्पष्ट अनुमान लगता है कि प्रतिवादी ने वादी के प्रति सावधानी बरतने के अपने विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया है अर्थात् घटना के तथ्य तथा परिस्थितियाँ स्वयं • प्रतिवादी की उपेक्षा की कहानी कहती हैं। दूसरे शब्दों में मामले की परिस्थितियाँ स्वयं इस बात का प्रमाण होती है कि प्रश्नगत माले में प्रतिवादी उपेक्षा का दोषी था। मामले की परिस्थितियों के अवलोकन से कोई भी व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि प्रतिवादी ने उचित सानी नहीं ली थी। इसी को “स्वयं सूक्ति प्रमाण” या “घटना स्वयं बोलती हैं ” से या “घटना अपनी कंपनी स्वयं कहती है” (Res ipsa loquitur) नामक सूक्ति से प्रकट किया जाता है। इसका अर्थ है ‘दुर्घटना केवल एक बात बताती है कि यदि प्रतिवादी असावधान नहीं होता तो घटना नहीं घटती या दुर्घटना नहीं होती। ऐसे मामलों में वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि दुर्घटना घटी थी। प्रतिवादी को यह अवसर प्राप्त है कि वह अपनी युक्तियुक्त सावधानी को साबित करे। इस सूक्ति का प्रभाव सिर्फ यही है कि वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा साबित नहीं करनी पड़ती। परन्तु प्रतिवादी अपनी युक्तियुक्त सावधानी सावित कर दायित्व से बच सकता है। यहाँ वादी द्वारा प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करने के स्थान पर प्रतिवादी को अपनी सावधानी साबित करनी होती है। इस सूक्ति का प्रभाव यह है कि सावधानी साबित करने का भार प्रतिवादी पर चला जाता है तथा वादी को यह लाभ प्राप्त हो जाता है कि वह प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करने के भार से मुक्त हो जाता है। यह सूक्ति या नियम विधि का नियम न होकर साक्ष्य का नियम है।

     इस बिन्दु पर म्यूनिसिपल कार्पोरेशन, दिल्ली बनाम सुभागवन्ती (ए० आई० आर० 1966 सु०को० 1750.) नामक वाद महत्वपूर्ण है। इस वाद में दिल्ली की चाँदनी चौक में स्थित घंटाघर के गिर जाने के कारण कुछ व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। घंटाघर नगर निगम के एकाकी नियन्त्रण में था। उसके रख-रखाव का दायित्व नगर निगम का था। इसकी औसत आयु 40 से 50 वर्ष थी परन्तु जब घंटाघर गिरा तब उसकी उम्र 80 वर्ष थी। इन परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि घंटाघर का गिरना अपनी कहानी स्वयं कहता है। इस मामले की परिस्थितियों से एक ही अनुमान निकलता है कि नगर निगम घंटाघर के रख-रखाव के मामले में उपेक्षित था अर्थात् उसने सावधानी बरतने के अपने विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया था। चूँकि प्रतिवादी उपेक्षा के अभाव के तथ्य को साबित नहीं कर पाया अतः प्रतिवादी नगर निगम उत्तरदायी था।

अल्का बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1993 दिल्ली 267. ) नामक वाद में दिल्ली के शक्ति नगर के आवासियों की जल आपूर्ति हेतु एक जल विद्युत पम्प चलाया गया था। पम्प खुला था तथा विद्युत मोटर चालू थी। इसके पर्यवेक्षण के लिए कोई सहायक नहीं था। अलका एक 6 वर्ष की लड़की वहाँ चली गयी तथा उसे काफी चोट आई। दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराते हुए वादी को 1,50,000 रुपये (डेढ़ लाख रुपये) क्षतिपूर्ति दिलाई।

     गंगाराम बनाम कमला बाई (ए० आई० आर० 1979 कर्नाटक 100.) नामक वाद में एक टैक्सी का अगला टायर फट कया जिसके फलस्वरूप टैक्सी उलट गई। टैक्सी के दो यात्री मारे गए। चूँकि टैक्सी कच्चे मार्ग पर 20 फीट तक घसीटती गई थी। जिसके चिन्ह कच्चे मार्ग पर थे जिससे यह स्पष्ट होता था कि टैक्सी की गति आवश्यकता से अधिक तेज थी। यह निर्णय दिया गया कि घटना की परिस्थितियों के अवलोकन से सिर्फ दो अनुमान निकलता था, प्रथम यह कि जीप का टायर पुराना था तथा दूसरा यह कि टैक्सी अत्यधिक तीव्र गति से चलायी जा रही थी। अतः इस मामले में स्वयं सूक्ति प्रमाण (Res Ipsa loquitur) का नियम लागू होगा तथा प्रतिवादी चूँकि असावधानी या उपेक्षा की उपधारणा का खण्डन करने में सफल नहीं थे अतः प्रतिवादी उत्तरदायी थे।

     श्याम सुन्दर बनाम राजस्थान राज्य (ए० आई० आर० 1974 सु० को० 890.) नामक बाद में राजस्थान सरकार की एक ट्रक एक दिन सिर्फ चार मील ही चली थी कि उसके इंजन में आग लग गई। ट्रक में सवार एक व्यक्ति नवनीत लाल कूद गया तथा एक पत्थर से टकरा जाने के कारण मर गया। यह पाया गया कि एक दिन ट्रक नौ घंटे में सिर्फ 70 मील ही चली थी तथा चूँकि रेडियेटर बार-बार गरम हो जाता था अतः प्रत्येक 6 या 7 मील पर उसमें पानी डालना पड़ता था। यह निर्णय दिया गया कि चूँकि सामान्य परिस्थितियों में सामान्य इंजन इस प्रकार आग नहीं पकड़ता तथा सामान्य ट्रक का रेडियेटर इस प्रकार शीघ्र गरम नहीं होता अतः वादी की परिस्थितियों से सिर्फ एक ही अनुमान निकलता था कि चालक ऐसे ट्रक को चलाने में उपेक्षा का दोषी था, चूँकि चालक दुर्घटना का कारण स्पष्ट नहीं कर सका जो सिर्फ उसकी जानकारी में था अतः प्रतिवादी उत्तरदायी थे।

     पिलूतला सावित्री बनाम गोजीनेमी कमलेन्द्र कुमार, ए० आई० आर० 2000 आन्ध्र प्रदेश 467 के बाद में अधिवक्ता के मकान के ऊपर प्रथम तल का एक भाग अचानक गिर पड़ा और अधिवक्ता की मृत्यु हो गई। प्रतिवादी का मकान त्रुटिपूर्ण था। अतः आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि “घटना स्वयं प्रमाण” का सिद्धान्त लागू होगा अतः प्रतिवादीगण •प्रतिकर देने के लिए दायी हैं।

      उपेक्षा की उपधारणा का खण्डन (Rebuttal of the presumption of negligence) –”स्वयं सूक्ति प्रमाण ” या “घटना स्वयं बोलती है” यह नियम सिर्फ उपेक्षा या सावधानी साबित करने के भार को वादी से प्रतिवादी पर परिवर्तित कर देती है। ऐसे मामलों में वाद की परिस्थितियों में प्रतिवादी की उपेक्षा की उपधारणा (अनुमान) की जाती है तथा प्रतिवादी पर यह भार डालती है कि प्रतिवादी इस उपधारणा का खण्डन करे। यदि प्रतिवादी सफलता द्वारा साक्ष्य के माध्यम से यह साबित करने में सफल हो जाता है कि वह उपेक्षा का दोषी नहीं था अर्थात् उसने मामले में अपेक्षित सावधानी बरती थी तो उक्त उपधारणा या अनुमान खण्डित हो जाता है। यदि प्रतिवादी यह साबित कर देता है कि दुर्घटना ऐसे कारणों से हुई जिसका निवारण करना उसके नियन्त्रण के बाहर था तो वह अपने दायित्वों से बच सकता है।

       नागमती बनाम मद्रास निगम (ए० आई० आर० 1956 मद्रास 59.) एक फुटपाथ पर लोहे के खम्बे का रोशनदान गिर जाने के कारण एक व्यक्ति को चोट लगी तथा वह मर गया। रोशनदार गिरने के कारण अज्ञात थे। निगम के विरुद्ध उपेक्षा की उपधारणा (अनुमान) की गई। परन्तु निगम ने यह लोहे का स्तम्भ सिर्फ 30 वर्ष पूर्व लगाया गया था जबकि इसकी आयु 50 वर्ष थी। इस स्तम्भ को तीन फुट गहरे गड्ढे में लोहे के साकेट के अन्दर सीमेन्ट से जोड़ा गया था। इस प्रकार निगम ने अपनी ओर से उपेक्षा के अनुमान या उपधारणा का खण्डन कर दिया। अत: नगर निगम उत्तरदायी नहीं था।

    सूक्ति तब लागू नहीं होती जब अन्य अनुमान या उपधारणा सम्भव हो – यह सूक्ति तभी लागू होती है जब मामले की परिस्थितियां ऐसी हों जिनमें दुर्घटना सिर्फ प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण घटित हो सकती थी।

    जहाँ दुर्घटना के दो स्पष्ट कारण हैं वहाँ यह सूक्ति लागू नहीं होती बाल्केली बनाम लन्दन एण्ड साउथ वेस्टर्न रेलवे कं० ((1886) 12 A.C. 41.] नामक वाद में एक व्यक्ति का शव प्रतिवादी की रेल लाइन पर पड़ा था। इस वाद में रेल चालक ने कोई सीटी नहीं बजाई थी। यह निर्णय दिया गया कि इस वाद की परिस्थितियों से दो निकलते हैं (1) उस व्यक्ति की पहले हत्या कर रेल लाइन पर शव को फेंक दिया गया होगा या रेल से व्यक्ति की मृत्यु हुई होगी। यह सूक्ति तभी लागू होती है जब उपेक्षा स्पष्ट तथा असंदिग्ध हों। यदि दुर्घटना का कारण सम्भवतया दूसरे हो सकते हैं वहाँ यह सूक्ति लागू नहीं होती।

प्रश्न 16 क्षति की दूरस्थता के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। सुसंगत वादों को सहायता से युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी पर प्रकाश डालिए। क्षति के निर्धारण सम्बन्धी इस विषय में क्या नियम हैं?

Discuss theories of Remoteness of Damage. With the help of relevant cases throw light on test of reasonable probableness. What are rules in determining damage in this regard.

अथवा (or)

‘एक वादी को सफलता तभी मिल सकती है जब उसकी क्षति प्रतिवादो के व्यवहार का निकटस्थ कारण हो।” व्याख्या कीजिए।

“A Plaintiff will succeed only if his injury is a proximate cause of the defendant’s conduct.” Explain.

उत्तर– अपकृत्य होने के पश्चात् दायित्व का प्रश्न उठता है। अपकृत्यपूर्ण कार्य के अन्तहीन परिणाम होते हैं। इस विषय में यह प्रश्न उठता है कि क्या एक अपकृत्यकर्ता, अपने अपकृत्यपूर्ण कार्य के अन्तहीन परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा या उसके दायित्व को अपकृत्यपूर्ण कार्य के किसी विशेष परिणाम तक सीमित किया जायेगा। इस सम्बन्ध में नियम यह है कि एक अपकृत्यकर्ता सिर्फ उन्हीं परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा जो उसके अपकृत्यपूर्ण कार्य का निकटस्थ (Proximate) परिणाम है। एक अपकृत्यकर्ता अपने अपकृत्यपूर्ण कार्य के उन परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता जो दूरस्थ परिणाम (Remote consequence) होते हैं। किसी भी प्रतिवादी को एक अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए अनन्त सीमा तक उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। इस विषय में नियम है “”Proxima causa non Remota causa est audiendus.” (प्रोक्सिमा काजा नान रिमोटा काजा एस्ट आडियेन्डस) अर्थात् निकटस्थ परिणाम न कि दूरस्थ परिणाम पर ध्यान दिया जायेगा।

      अपकृत्यकर्ता के दायित्व की सीमा रेखा तय करने हेतु इस प्रश्न का उत्तर महत्वपूर्ण होगा कि क्या अपकृत्यपूर्ण कार्य तथा उससे, परिणत क्षति में निकटस्थ सम्बन्ध था या दूरस्थ यदि उत्तर है कि क्षति तथा अपकृत्य में सीधा तथा निकटस्थ सम्बन्ध है तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। परन्तु यदि अपकृत्य तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली क्षति में दूरस्थ सम्बन्ध है तो अपकृत्यकर्ता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। निकटस्थ का अर्थ है कार्य तथा परिणाम में सीधा तथा प्रत्यक्ष सम्बन्ध इस सम्बन्ध में 1850 से पूर्व इंग्लैण्ड के न्यायालय में एक व्यक्ति को उसके अकृत्यपूर्ण कार्य के सभी परिणामों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता था जो उसके कार्य का प्रत्यक्ष एवं स्वाभाविक परिणाम हो।

     स्टाक बनाम शेफर्ड (17 WBI 892.) नामक वाद में अ ने भीड़ में एक जलती हुई हुरहुरी (Squits) फेंकी जो ब पर पड़ी, ब ने अपनी प्रतिरक्षा में उसे आगे फेंक दिया, जो स पर गिरी, स ने अपनी प्रतिरक्षा में उसे आगे फेंक दिया जो द पर पड़ी और वहाँ दग गई जिसके परिणामस्वरूप द की एक आँख फूट गई। न्यायालय ने अ को उत्तरदायी ठहराया क्योंकि वादी को पहुँची क्षति प्रतिवादी के कृत्य का सीधा परिणाम था। यद्यपि उसके कृत्य तथा क्षति में अन्य दो व्यक्तियों का भी हस्तक्षेप था।

     हेन्स बनाम हारबुड, (1935)1 के० बी० 146 के बाद में प्रतिवादी के सेवक ने उपेक्षा के साथ एक भीड़ भरी गली में एक घोड़ागाड़ी छोड़ दी जिसकी देखभाल के लिए वहाँ कोई भी व्यक्ति नहीं था। एक बालक द्वारा घोड़े पर कंकड़ फेंकने के कारण वे भाग खड़े हुए, जिसके परिणामस्वरूप एक पुलिसकर्मी, जिसने सड़क पर महिलाओं और बच्चों को बचाने के लिए घोड़ों को रोकने का प्रयत्न किया क्षतिग्रस्त हो गया। प्रतिवादी ने प्रतिरक्षा में यह तर्क दिया कि यहाँ ‘परिणामों की दूरस्थता’ (Remoteness of consequences) थी, अर्थात् बालक की शरारत क्षति का निकटस्थ कारण थी और प्रतिवादी के सेवक की उपेक्षा दूरस्थ कारण थी। यहाँ यह तर्क अस्वीकार किया गया तथा प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया गया क्योंकि बच्चों की ओर से ऐसी शरारत का किया जाना प्रत्याशित था।

    परन्तु 1850 के पश्चात् स्थिति में परिवर्तन आया तथा क्षति की दूरवर्तिता (Remoteness of damage) के दो प्रमुख सिद्धान्त विकसित हुए।

(1) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी (Test of Reasonable Probableness)

(2) प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी (Test of Direct Consequences)

(1) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी (Test of Reasonable Probable ness) – इस कसौटी के अनुसार यदि किसी अपकृत्य के परिणामस्वरूप हुई क्षति इस प्रकार की है जिसका पूर्वानुमान कोई भी विवेकशील (reasonable) व्यक्ति कर सकता था तो क्षति दूरवर्ती नहीं मानी जायेगी तथा प्रतिवादी उससे होने वाली सभी क्षतियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। परन्तु यदि कोई विवेकशील व्यक्ति क्षतियों का पूर्वानुमान उन परिस्थितियों में नहीं कर सकता तो ऐसी क्षति दूरस्थ मानी जायेगी भले ही उसकी असावधानी से उत्पन्न क्षति उसके कृत्य का प्रत्यक्ष परिणाम ही क्यों नहीं। इस सिद्धान्त को पुराने विनिश्चयों से स्पष्ट किया जा सकता है। प्रथम वाद रिगबी बनाम हिविर [ (1850) 5 एक्स 240.] तथा दूसरा वाद ग्रीनलैण्ड बनाम चैपलिन [ (1850) 5 एक्स 243.] नामक वादं उल्लेखनीय है। ग्रीनलैण्ड बनाम चैपलिन नामक वाद में न्यायालय ने कहा :

     “इस कसौटी के अनुसार जब कोई व्यक्ति अनुचित कार्य करता है तो उससे उत्पन्न होने वाले उन्हीं परिणामों के लिए दायी होता है जिसका पूर्वानुमान वह कर सकता था न कि उन सभी परिणामों के लिए जिनके घटित होने के बारे में वह सोच भी नहीं सकता था।”

(2) प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी (Test of Direct Consequences ) – पूर्वानुमान की कसौटी को इन री पोलेमिस (In Re Polemis) तथा फर्नेस विथी कम्पनी लि० [(1921) 3 K.B. 560.) नामक वादों में कोर्ट ऑफ अपील ने अस्वीकार कर दिया। इस वाद में कोर्ट ऑफ अपील ने यह निर्णय दिया कि एक व्यक्ति अपने अपकृत्यपूर्ण कृत्य के सभी प्रत्यक्ष परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा चाहे उसने अपकृत्य के परिणामों का पूर्वानुमान किया हो अथवा नहीं।

      इस बाद में प्रतिवादी ने वादी के जहाज को पेट्रोल ढोने के लिए किराये पर लिया था। यात्रा के दौरान पेट्रोल के कुछ टीनों (Tins) से पेट्रोल का रिसाव होने लगा तथा जहाज के कमरे में पेट्रोल की भाप भर गई। एक बन्दरगाह पर प्रतिवादी के सेवक सामान लाद रहे थे कि उनकी असावधानी से लकड़ी का तख्ता उस कमरे में गिर पड़ा जिसके फलस्वरूप एक चिन्गारी उत्पन्न हुई तथा जहाज में गिरे पेट्रोल से आग लग गई। इसके परिणामस्वरूप जहाज जल कर राख हो गया। लार्ड न्यायाधीश स्कूटन ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराते हुए कहा कि, “उस बात की अवधारणा करना कि कोई कार्य उपेक्षापूर्ण है या नहीं यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि क्या कोई विवेकशील व्यक्ति यह समझता है कि उससे किसी को क्षति पहुँच सकती है तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। यदि ऐसा नहीं है तो वह कार्य उपेक्षापूर्ण नहीं होगा…..यदि कार्य उपेक्षा का सीधा परिणाम है तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा भले ही उसके निश्चित प्रभाव का पूर्वानुमान प्रतिवादी द्वारा नहीं किया जा सकता था।”

      इन री पोलेमिस के वाद में न्यायालय ने स्मिथ बनाम लन्दन रेलवे कम्पनी [ (1870) एल० आर० 6 सी० पी० 14.] नामक वाद में किये गये निर्णय को पुष्ट किया।

      युक्तियुक्त – पूर्वानुमान की कसौटी – वर्तमान स्थिति– वेगन माउण्ड वाद (Wagon Mound Case) प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी जो इन री पोलेमिस के वाद में प्रतिपादित की गई थी उसे वेगन माउण्ड (Wagon Mound) वाद द्वारा प्रीवी काउन्सिल ने अस्वीकार कर दिया तथा पूर्वानुमान की कसौटी को स्वीकार किया।

      ओवरब्रिज टैंकशिप (यू० के०) लिमिटेड बनाम मार्ट्स डाक एण्ड इन्जिनियरिंग कम्पनी लिमिटेड [ (1961) अपील केसेज 388.] नामक वाद में जो वेगन माउण्ड वाद नाम से प्रसिद्ध हुआ, में प्रतिवादी तेल ढोने के जहाज का स्वामी था। उसका जहाज आस्ट्रेलिया के सिडनी बन्दरगाह पर तेल ले जा रहा था। यहाँ से करीब 600 फीट की दूरी पर जहाज खड़ा होने तथा मरम्मत का एक घाट था। प्रतिवादी के सेवकों की उपेक्षा के फलस्वरूप अधिक मात्रा में जहाज से तेल निकल कर समुद्र तल पर फैल गया तथा जहाज मरम्मत के घाट तक फैल गया। यह सुनिश्चित करने के पश्चात् कि तेल प्रज्जवलनशील नहीं है। मरम्मत घाट के प्रबन्धक ने वेल्डिंग को जारी रखने की अनुमति दी। दो दिन पश्चात् समुद्र तल पर आग लग गई तथा जहाज को भारी क्षति हुई।

      निचले न्यायालय ने इन री पोलेमिस के निर्णय को स्वीकार करते हुए प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया। परन्तु प्रीवी काउन्सिल ने उसके निर्णय को उलट दिया तथा यह निर्णय दिया कि इन री पोलेमिस के वाद में प्रतिपादित प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी उचित नहीं है। प्रीवी कौन्सिल के अनुसार यदि एक विवेकशील व्यक्ति क्षति का पूर्वानुमान नहीं कर सकता तो प्रतिवादी के उपेक्षापूर्ण कार्य का सीधा परिणाम होने के बावजूद वादी को प्रतिकर नहीं मिल सकता।

      वेगन माउण्ड के बाद में प्रीवी काउन्सिल द्वारा दिया गया निर्णय आंग्ल न्यायालयों पर मान्य नहीं था किन्तु अंग्रेजी न्यायालयों ने अपने विनिश्चयों में प्रीवी काउन्सिल के वेगन माउण्ड नामक बाद में दिये गए विनिश्चय का अनुमोदन किया। हाजेज बनाम लाई एडवोकेट [ (1963) अपील केसेज 836] नामक बाद में इंग्लैण्ड के सर्वोच्च न्यायालय हाउस ऑफ लाइंस ने वेगन माउण्ड के वाद में प्रतिपादित क्षति की दूरस्थता विषयक पूर्वानुमान की कसौटी का अनुमोदन किया। इस वाद में टेलीफोन विभाग के सेवकों ने भूमिगत उपकरण की देखभाल करने के लिए सड़क में लगे मेनहोल को खोला। मेनहोल के ऊपर तम्बू तना था तथा चारों ओर पैराफिन के लैम्प जले थे परन्तु वह चारों ओर से असुरक्षित था। एक दिन आठ वर्ष का एक बालक तम्बू में घुस आया और बल्च से खेलने लगा। बल्च मेनहोल में गिर पड़ा विस्फोट हुआ तथा बालक बुरी तरह घायल हो गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि टेलीफोन कम्पनी उत्तरदायी थी क्योंकि सड़क पर मेनहोल खुला छोड़ देना एक उपेक्षापूर्ण कार्य था और इस बात का पूर्वानुमान किया जा सकता था कि मेनहोल असुरक्षित होने के कारण लड़के उसमें घुस सकते थे तथा लैम्प से खेल सकते थे तथा घायल हो सकते थे। पूर्वानुमान की कसौटी उघठी बनाम टर्नर मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी [(1964) 1 Q.B. 518.] तथा डैपर बनाम होल्डर [ (197) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टर 210.] नामक वादों में स्वीकार तथा अनुमोदित की गई।

      भारत में वर्तमान स्थिति (Present Position in India) – भारतीय न्यायालयों ने भी युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी को ही उचित माना है। यद्यपि इस बिन्दु पर उच्चतम न्यायालयों का कोई निर्णय नहीं है तथापि वेगन माउण्ड के निर्णय के पश्चात् भारतीय न्यायालयों के निर्णयों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय न्यायालयों ने युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी को ही लागू किया है।

      नीरज बनाम कृष्णामूर्ति (ए० आई० आर० 1966 केरल 172.) नामक बाद में एक विद्यालय के कुछ बच्चे सड़क पार करने के लिए एकत्र हुए। प्रतिवादी की लारी बस के पीछे आ रही थी। लारी बस के करीब सौ गज पीछे 25 से 30 कि०मी० प्रति घण्टा की रफ्तार से आ रही थी। बस के जाने के पश्चात् बच्चे तुरन्त सड़क पार करने लगे। ऐसा करते समय एक बच्चे को लारी के धक्के से चोट लगी वह घायल हो गया। केरल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादी चूँकि इस स्थिति में क्षति का पूर्वानुमान कर सकते थे अतः इस क्षति के लिए उत्तरदायी थे। इस सिद्धान्त को आलोकनाथ बनाम गुरू प्रसाद (ए० आई० आर० 1963 उड़ीसा 21.) तथा एम० मदप्पा बनाम करियप्पा (ए० आई० आर० 1964 मैसूर) नामक वादों में क्रमश: उड़ीसा तथा मैसूर उच्च न्यायालय ने अनुमोदित किया।

प्रश्न 17. (A) अपमान या मानहानि क्या है? अपमान के आवश्यक तत्व क्या हैं? अपमान के अपकृत्य के प्रतिवादों को संक्षेप में समझाइए। कब अपमान स्वतः अनुयोज्य है?

What is defamation? What are the essential elements of defamation? Discuss in brief the defences in tort of defamation? When the defamation is actionable per se?

अथवा (or)

मानहानि के आवश्यक तत्वों का वर्णन कीजिए। मानहानि के वाद के बचावों की विवेचना कीजिए।

Describe the essential elements of defamation. State the defences of an action for defamation.

(B) वक्रोक्ति की व्याख्या उदाहरण सहित करें।

Discuss ‘Innuendo’ with examples.

उत्तर – प्रतिष्ठा या चरित्र एक व्यक्ति की मूल्यवान, शायद सबसे अधिक मूल्यवान सम्पत्ति है। प्रतिष्ठाहीन या अपमानित जीवन जीने की अपेक्षा मरना ही श्रेयस्कर समझा जाता है। यह भी कहा गया है कि चरित्र चला गया तो समझिए सब कुछ चला गया। किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति ही अपमान है। प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाना उस व्यक्ति की सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना है।

     अपमान, प्रतिवादी का एक ऐसा लिखित या मौखिक प्रकाशित कथन है, जिससे वादी समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों के बीच उपहास का पात्र बना हो। प्रतिवादी का लिखित या मौखिक कथन जिससे वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है अपमान है। अपमानजनक कथन का प्रकाशन अपकृत्य के साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 499 तथा 500 के अन्तर्गत अपराध के रूप में परिभाषित है। मौखिक अपमानजनक कथन को अपवचन (slander) कहते हैं जबकि लिखित अपमानजनक कथन को अपलेख (libel) कहते हैं।

      अंग्रेजी विधि में अपवचन (slander) तथा अपलेख (libel) में अन्तर किया गया है। अपवचन, अपमानजनक कथनों का अस्थायी रूप में प्रकाशन होता है, यह मौखिक हो सकता है या संकेतों के माध्यम से भी हो सकता है जबकि अपलेख, अपमानजनक शब्दों का स्थायी प्रारूप में प्रकाशन है। यह लिखित, मुद्रित, चित्र या मूर्ति या पुतले के रूप में भी हो सकता है। अपवचन तथा अपलेख में दूसरा अन्तर यह है कि अपवचन कानों को सम्बोधित होता है जबकि अपलेख आँखों को सम्बोधित होता है। युसोपोफ बनाम एम० जी० एम० पिक्चर्स लि० [(1934) 50 टी० एल० आर० 581.] नामक वाद में यह निर्णय दिया गया कि सिनेमा फिल्म अपलेख है क्योंकि यह चित्र के रूप में होता है तथा उसमें मौखिक (शब्दों). कथन का अंकन भी स्थायी होता है। इस वाद में राजकुमारी नताशा को एक दुश्चरित्र व्यक्ति रास्पुटीन के साथ बलात्कारात्मक सम्बन्धों के साथ प्रदर्शित किया गया था। वायरलेस टेलीग्राफ के माध्यम से प्रकाशित अपमानजनक कथन को स्थायी रूप से मानते हुए इसे भी अपलेख (libel) माना गया है। ग्रामोफोन पर रिकार्ड किये गये कथन का स्थायी रूप है। इस कारण इसे अपलेख (libel) माना गया है भले ही यह सिर्फ कान को सम्बोधित होता है आँखों को नहीं।

      जैसा कि कहा गया है इंग्लैण्ड में अपवचन तथा अपलेख में अन्तर किया गया है। वहाँ अपवचन को एक दीवानी. अपकृत्य या अपकार माना गया है परन्तु अपलेख (libel) को अपराध माना गया है। परन्तु भारत में अपवचन तथा अपलेख में कोई अन्तर नहीं किया गया है तथा दोनों भा० द० सं० की धारा 499 में अपराध हैं। इंग्लैण्ड में अपलेख (libel) स्वतः अनुयोज्य (actionable per se) है जबकि अपवचन (slander) के मामले में वादी को प्रतिकर प्राप्त करने हेतु क्षति का नुकसान (damage) साबित किया जाना आवश्यक है। भारत में इस बिन्दु पर मतभेद है। परन्तु अधिकांश विद्वान भारत में अपलेख तथा अपवचन दोनों को | स्वतः अनुयोज्य मानते हैं।

     अपमान के आवश्यक तत्व (Essential Elements of Defamation)-अपमान के अपकृत्य के निम्न आवश्यक तत्व हैं-

(1) शब्द या कथन अपमानजनक हों,

(2) अपमानजनक कथन वादी से सन्दर्भित या वादी को सम्बोधित हों,

(3) अपमानजनक कथन का प्रकाशन हुआ हो।

(1) कथन अपमानजनक होना चाहिए (The Statement must be defamating) – कथन अपमानजनक होने से यह तात्पर्य है कि प्रश्नगत कथन से वादी की प्रतिष्ठा को क्षति हुई हो। अपमानजनक कथन ऐसा होना चाहिए जिससे वादी की प्रतिष्ठा उस समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों की दृष्टि में कम हुई है जिस समाज में वह रहता है। कथन के फलस्वरूप वादी अपने समाज में उपहास का पात्र बना हो, अपमानजनक कथन के प्रकाशन के फलस्वरूप वादी समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों की नजरों से बचने को बाध्य हुआ हो। अपमानजनक कथन मौखिक, लिखित, मुद्रित या चित्र के प्रदर्शन से या मूर्ति या पुतले (Effigy) के माध्यम से किया जा सकता है। अपमानजनक कथन किसी व्यक्ति के आचरण से भी अनुमानित (infered) किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में, जी० श्रीधर मूर्ति बनाम बेल्लारी नगर निगम (ए० आई० आर० 1982 कर्नाटक 287.] नामक बाद में नगर निगम ने एक व्यक्ति के विरुद्ध गिरफ्तारी वारण्ट जारी कराया, उसके फर्नीचर, सामान तथा किताबें जब्त कर ली गईं। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने नगर निगम की इस कार्यवाही को अपमानजनक व्यवहार माना।

     एक कथन अपमानजनक है या नहीं इसके निर्धारण का मापदण्ड समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों का आंकलन है न कि उन व्यक्तियों का आंकलन जो विशिष्ट सोच रखते हैं या जिनकी सोच समाज की सोच नहीं है।

      यदि अपमानजनक कथन से किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है तो प्रतिवादी का यह बचाव सफल नहीं होगा कि कथन का आशय अपमान करना नहीं था। इस प्रकार अपमान के मामले में आशय का कोई महत्व नहीं है। अपमान की आवश्यकता किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति है, आशय महत्वपूर्ण नहीं है।

     यह स्मरण रखना चाहिए कि कोई ऐसा कथन जो उतावलेपन में या क्रोध में बोले गए हों या कोई ऐसी गाली जिससे सुनने वाला अपमानित महसूस करने का अनुमान नहीं लगाता तो वह कथन अपमानजनक नहीं होंगे। सिर्फ वही कथन जो किसी व्यक्ति जिससे वे सम्बोधित हैं, की भावना को आहत करे या उसके परेशानी का कारण बने अपमानजनक कथन माने जायेंगे। रामधारा बनाम फूलवती बाई [ (1970 क्रि० लॉ जर्नल 286 (मध्य प्रदेश) ] नामक वाद में पैंतालिस वर्षीय एक विधवा को उसकी पुत्रवधू के मामा की रखैल कहा गया। यह निर्णय दिया गया कि यह न सिर्फ अश्लील गाली थी परन्तु यह उस महिला के चरित्र पर लांछन था तथा यह अपमान के तुल्य था।

(2) कथन या शब्द वादी को सन्दर्भित होना चाहिए (The words must refer to plaintiff) – अपमान के बाद में सफल होने के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि जिस कथन के विरुद्ध वह शिकायत कर रहा है वह उसी को सन्दर्भित या सम्बोधित था। यह अर्थहीन है कि प्रतिवादी का आशय वादी का अपमान करने का नहीं था। इस प्रकार जिस व्यक्ति को अपमान कथन प्रकाशित किया गया था (बादी के बारे में अपमानजनक बात कही। गयी थीं) उसे युक्तियुक्त रूप से यह अनुमान होना चाहिए कि अपमानजनक बातें वादी के बारे में ही कही गई थीं।

      हल्टन बनाम जोन्स [ (1910) अपील केसेज 20.] नामक वाद में एक उपन्यासकार ने एक कल्पित चरित्र ‘जोन्स’ सृजित किया। परन्तु फ्रान्स के एक वकील ने यह तर्क प्रकट किया कि उससे उसकी प्रतिष्ठा को क्षति हुई है। वह यह साबित करने में सफल रहा। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी था भले ही उसका आशय जोन्स को अपमानित करना नहीं था।

     न्यूस्टीड बनाम लन्दन एक्सप्रेस न्यूजपेपर लि० [ (1939) 4 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टर 319.] नामक वाद में प्रतिवादी ने एक लेख प्रकाशित किया जिसमें यह लिखा गया कि हेराल्ड न्यूस्टीड एक केम्बरवेल व्यक्ति द्विविवाह के लिए सजा पाया था। यह कहानी एक हेराल्ड न्यूस्टीड नामक व्यक्ति जो बार (शराबघर) में काम करता था उसके लिए सत्य थी। एक अन्य हेराल्ड न्यूस्टीड नामक व्यक्ति ने इस अपमानजनक कथन के लिए वाद संस्थित किया। वह नाई था। चूँकि कथन को वादी को सन्दर्भित माना गया अतः प्रतिवादी उत्तरदायो था।

      इस प्रकार के निर्णय से काफी कठिनाई हुई अतः पोर्टर कमेटी का गठन किया गया तथा पोर्टर कमेटी की संस्तुति पर इंग्लैण्ड ने Defamation Act, 1952 पारित किया जिसमें इस प्रकार की परिस्थितियों से निपटने की व्यवस्था थी। इस अधिनियम की धारा 4 के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में दायित्व से बचने के लिए प्रतिवादी को दो बातें साबित करनी होती हैं।

(1) प्रकाशन का आशय वादी के प्रति इस कथन को प्रकाशित करने का आशय नहीं। था तथा उसे उन परिस्थितियों का ज्ञान नहीं था जिनमें कथन प्रतिवादी को सन्दर्भित हो सकता था।

(2) कथन प्रथम दृष्ट्या अपमानजनक नहीं थे तथा प्रकाशनकर्ता को उन परिस्थितियों का ज्ञान नहीं था जिनके अन्तर्गत इस कथन से वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँच सकती थी, दोनों मामलों में प्रतिवादी ने युक्तियुक्त सावधानी बरती थी। भारतीय न्यायालयों ने इस सम्बन्ध में अंग्रेजी स्थिति को स्वीकार किया है।

       एक वर्ग के व्यक्तियों का अपमान (Defamation of a class of Persons) – जब अपमानजनक कथन एक वर्ग के व्यक्तियों को सम्बोधित है तो उस वर्ग का सिर्फ एक व्यक्ति तब तक वाद में सफल नहीं हो सकता जब तक वह यह न सिद्ध कर दे कि युक्तियुक्त रूप से यह कहा जा सकता है कि अपमानजनक कथन उसे ही सन्दर्भित या सम्बोधित था।

      इस प्रकार ईस्टवुड बनाम होम्स [ (1858) 1 एफ० एण्ड एफ० 347.] नामक वाद में एक कथन लिखा गया कि एक स्थान के सभी वकील चोर हैं, एक विशिष्ट वकील तब तक बाद नहीं ला सकता जब तक वह यह सिद्ध न करे कि उस विशिष्ट वकील के प्रति कुछ अपमानजनक लिखा गया था।

     धीरेन्द्र नाथ सेन बनाम रजत कान्त भद्र (ए० आई० आर० 1970 कलकत्ता 216. ) नामक बाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि एक समाचार पत्र के सम्पादकीय में एक समुदाय के आध्यात्मिक प्रमुख के बारे में अपमानजनक कथन छपा है तो उस समुदाय के एक व्यक्ति को अपमानजनक कथन के प्रकाशन के विरुद्ध बाद लाने का कोई अधिकार नहीं है।

      भागीदारी एक विधिक व्यक्तित्व नहीं है। सभी भागीदार सामूहिक रूप से फर्म के रूप में जाने जाते हैं अतः भागीदारी फर्म के प्रति अपमानजनक कथन भागीदारों के प्रति अपमानजनक कथन माने जायेंगे।

     मृतक का अपमान (Defamation of Deceased) मृतक का अपमान अपकृत्य नहीं है। परन्तु यदि किसी मृतक के अपमान से एक जीवित व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है या यदि किसी मृतक के अपमान से परिवार या अन्य सम्बन्धियों की भावना को चोट पहुंचती हैं तो ऐसा लांछन बाद योग्य अपमान होगा। स्पष्टीकरण धारा 495 भारतीय दण्ड संहिता।

(3) अपमानजनक कथन (शब्दों) का प्रकाशन हुआ हो (The defamating words must be published) प्रकाशन से तात्पर्य है, अपमानजनक शब्दों को उस व्यक्ति के अलावा, अन्य व्यक्ति की जानकारी या संज्ञान में लाना, जिसे वे शब्द सम्बोधित या सन्दर्भित किए गए हों। अ, एक अपमानजनक कथन व को सम्बोधित करता है यदि यह कथन स की जानकारी में आ गया तो यह कहा जायेगा कि अपमानजनक कथन का प्रकाशन हो गया है। अपमानजनक कथन का प्रकाशन अपमान के अपकृत्य का सबसे आवश्यक तत्व है। जब तक प्रकाशन सिद्ध न कर दिया जाय अपमान के अपकृत्य के लिए लाया गया वाद सफल नहीं हो सकता। अपमानजनक कथन को सिर्फ वादी को संसूचित किया जाना पर्याप्त नहीं है क्योंकि अपमान किसी व्यक्ति की उस प्रतिष्ठा के प्रति हमला या क्षति है जो वादी के सम्बन्ध में अन्य व्यक्ति के आंकलन में होती है। वादी स्वयं को क्या समझता है अर्थात् वादी स्वयं अपनी प्रतिष्ठा का आंकलन किस प्रकार करता है यह महत्वहीन है। अपमानजनक कथन के लिए न्यायालय यह देखता है कि क्या वादी समाज के उन व्यक्तियों के आंकलन में अपमानजनक कथन के फलस्वरूप उपहास का पात्र बना है? या क्या वह अपमानजनक कथन के कारण समाज में मुँह चुराता है। इस प्रकार जब तक अपमानजनक कथन का संज्ञान वादी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को नहीं होता तब तक उपरोक्त बातें घटित नहीं होंगी। अपने स्वयं के टाइपिस्ट को अपमानजनक पत्र लिखाना पर्याप्त प्रकाशन है। बुल मैन बनाम हिल [(1891) 1 क्यू० वी० 524.] किसी ऐसी भाषा में वादी को पत्र प्रेषित करना जिसका ज्ञान वादी को था प्रकाशन नहीं होगा। महेन्द्रराम बनाम हरनन्दन प्रसाद (ए० आई० आर० 1958 पटना 445.) यदि पत्र वादी को प्रेषित था तथा गलत ढंग से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पढ़ लिया जाता है। प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा। अरुमुगा मुदालियर बनाम अन्नामली मुदालियर (ए० आई० आर० 1966 मद्रास लॉ जर्नल 223.) जैसे पुत्र को सम्बोधित तथा प्रेषित पत्र पिता पढ़ ले स्वामी को सम्बोधित तथा प्रेषित पत्र सेवक पढ़ ले। इन मामलों में अपमानजनक कथन का प्रकाशन नहीं माना जायेगा तथा प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा।

     परन्तु यदि वादी को प्रेषित पत्र के बारे में प्रतिवादी यह अनुमान लगा सकता था कि पत्र वादी के अतिरिक्त किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा पढ़ लिए जाने की सम्भावना है तो पत्र के प्रकाशन की उपधारणा या अनुमान लगाया जायेगा तथा प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। उदाहरण के लिए, पोस्ट कार्ड या टेलीग्राम के रूप में यदि पत्र प्रेषित किया जाय, तो इसे प्रकाशन माना जायेगा। परन्तु यदि पोस्ट कार्ड में लिखे कथन की भाषा ऐसी है कि परिस्थितियों के ज्ञान के अभाव में कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति कथन को अपमानजनक नहीं मानता तो वह प्रकाशन नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार की स्थिति तब होगी जब पत्र उस भाषा में लिखा गया हो जसका ज्ञान पत्र प्राप्तकर्ता (प्रेषिती) को नहीं है या पत्र जिसको सम्बोधित तथा प्रेषित है वह व्यक्ति इतना अन्धा है कि वह पत्र पढ़ नहीं सकता या बहरा व्यक्ति होने के कारण सुन नहीं सकता।

     यदि अपमानजनक पत्र वादी को इस प्रकार प्रेषित है सामान्य व्यापार के अनुक्रम में उसके सेवक द्वारा लिपिक द्वारा, दम्पत्ति द्वारा खोले जाने की सम्भावना है या वे व्यक्ति पत्र को पढ़ लेते हैं तो अपमानजनक कथन का प्रकाशन माना जायेगा।

     महेन्द्र राम बनाम हरनन्दन प्रसाद (ए० आई० आर० 1958 पटना 445.) नामक वाद में अपमानजनक पत्र उर्दू में लिखा गया था। वादी उर्दू नहीं जानता था अतः उसने पत्र दूसरे व्यक्ति से पढ़वाया। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी तब तक उत्तरदायी नहीं होगा जब तक यह साबित न कर दिया जाय कि पत्र लिखते समय प्रतिवादी को यह जानकारी थी कि वादी उर्दू भाषा नहीं जानता तथा इसलिए पत्र को दूसरे से पढ़वाया जाना आवश्यक होगा।

     यदि दो व्यक्ति मिलकर पत्र लिखते हैं तथा किसी किसी को प्रेषित करते हैं तथा पत्र दूसरे द्वारा पढ़ा नहीं जाता तो पत्र का प्रकाशन नहीं माना जायेगा क्योंकि पत्र लिखने वाले दोनों व्यक्ति संयुक्त अपकृत्यकर्ता हैं तथा विधि की दृष्टि में एक हैं।

    पति तथा पत्नी के मध्य संसूचना (Communication between Wife and Husband)– विधि की दृष्टि में पति तथा पत्नी एक व्यक्ति हैं तथा पति द्वारा अपमानजनक कथन का प्रकाशन या पत्नी द्वारा अभिव्यक्त अपमानजनक या पति को प्रकाशन, प्रकाशन नहीं माना जाता।

    टी० जे० पोनर बनाम एम० सी० बर्गीज (ए० आई० आर० 1970 सु० को०) इस वाद में यह प्रश्न उठाया कि क्या पति द्वारा पत्नी को लिखा गया अपमानजनक पत्र जो उसकी पत्नी के पिता से सम्बन्धित था, पिता द्वारा साबित किया जा सकता है। इस मामले में वादी ने पत्र अपने पिता को दिया था। इस बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब तक पति द्वारा प्रेषित पत्र पत्नी के पास था यह विशेषाधिकृत था तथा इसे प्रकाशन नहीं माना जा सकता परन्तु ज्यों ही अपमानजनक पत्र तीसरे व्यक्ति के हाथ में किसी प्रकार पहुँच जाता है यह गोपनीय नहीं रहता तथा इसका प्रकाशन माना जायेगा।

     यदि अपमानजनक कथन की पुनरावृत्ति होती है तो प्रत्येक पुनरावृत्ति नवीन वाद कारण को जन्म देती है।

     अपमान के बाद में प्रतिवाद (Defences in cases of Defamation) अपमान बाद में वादी के दावे से मुक्ति हेतु प्रतिवादी को निम्न बचाव या प्रतिवाद उपलब्ध हैं –

(1) औचित्य या सत्य कथन,

(2) उचित या निष्पक्ष टीका टिप्पणी,

(3) विशेषाधिकार (Privilege)– विशेषाधिकार सीमित या पूर्ण हो सकता है।

(1) औचित्य या सत्य कथन (Justification or Truth)–अपमान या अवमानना के दीवानी वाद में कथन की सत्यता एक पूर्ण बचाव है। यदि प्रतिवादी यह साबित कर दे कि अपमानजनक कथन एक सत्य कथन के रूप में निरूपित किया गया था तो प्रतिवादी अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा। परन्तु आपराधिक विधि के अन्तर्गत यह साबित करना कि अपमानजनक कथन सत्य था कोई बचाव नहीं है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 के प्रथम अपवाद के अनुसार यदि लांछन सत्य था तो भी प्रतिवादी को दायित्व से बचने के लिए यह साबित करना होगा कि लांछन लोकहित में प्रकाशित किया गया था।

     दीवानी विधि के अन्तर्गत यदि सत्य कथन प्रकाशित किया गया था तो यह एक अच्छा बचाव होगा। भले ही उसका प्रकाशन विद्वेषतापूर्वक किया गया हो। यदि कथन सारवान् रूप से सत्य है तो उसमें छोटी-मोटी असंगतता से कोई अन्तर नहीं पड़ता।

     एलेक्जेण्डर बनाम पूर्वोत्तर रेलवे [(1885) 6 B and S. 340.] नामक वाद इस बिन्दु को स्पष्ट करता है। इस वाद में वादी बिना टिकट यात्रा करने के लिए एक पाउण्ड अर्थदण्ड या 14 दिनों के कारावास से दण्डित किया गया था। प्रतिवादी ने यह प्रकाशित किया कि वादी को एक पाठण्ड के अर्थदण्ड या तीन सप्ताह के कारावास से दण्डित किया गया था। यह ” निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं थे क्योंकि कथन सारवान् रूप से (substantially) सत्य था।

     यदि प्रतिवादी यह साबित नहीं कर पाता कि कथन सत्य था तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। राधेश्याम तिवारी बनाम एकनाथ (ए० आई० आर० 1985 बम्बई 285.) नामक वाद ने प्रतिवादी ने वादी, जो एक खण्ड विकास अधिकारी (B.D.O.) था, के बारे में एक कथन प्रकाशित किया जिसमें यह कहा गया था कि वादी जाली प्रमाण पत्र जारी करता है, घूस लेता है तथा भ्रष्ट तथा अवैध साधन का प्रयोग करता है। अपमान के अन्तर्गत वाद में प्रतिवादी कथन की सत्यता को साबित नहीं कर पाया। अतः प्रतिवादी को प्रतिकर के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

    अपमान अधिनियम, 1952 की धारा 5 के अन्तर्गत भी ऐसे ही प्रावधान किए गए हैं। यद्यपि भारत में इस बिन्दु पर कोई विधि नहीं है परन्तु स्थिति इंग्लैण्ड के समान ही हैं।

(2) उचित टीका-टिप्पणी (Fair Comment)-उचित टीका-टिप्पणी ( fair comment) यदि लोक हित में की गई है तो अपमान के वाद में अच्छा प्रतिवाद है। उचित टीका-टिप्पणी के प्रतिवाद के अन्तर्गत निम्न आवश्यक शर्तों को साबित करना होगा।

(1) यह टीका-टिप्पणी होनी चाहिए न कि सत्य तथ्य का निरूपण अर्थात् इसमें कथनकर्ता या लेखक ने किसी व्यक्ति के बारे में अपना विचार या मत प्रकट किया हो न कि तथ्य के सत्यता का यथावत् निरूपण न किया हो।

(2) इस प्रकार की टीका-टिप्पणी उचित (fair) होनी चाहिए।

(3) टीका-टिप्पणी लोकहित (Public interest) में होनी चाहिए।

(3) विशेषाधिकार (Privilege)– कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ विधि में वाक् स्वतन्त्रता को महत्व दिया जाता है तथा वादी की प्रतिष्ठा को वाक् स्वतन्त्रता के सामने समर्पण करना होता है। विधि में इन परिस्थितियों को विशेषाधिकृत परिस्थितियाँ कहते हैं। इन परिस्थितियों में लोकहित की यह माँग होती है कि व्यक्ति के प्रतिष्ठा के अधिकार वाक स्वतन्त्रता को स्वीकार करें।

    यह विशेषाधिकार दो प्रकार का हो सकता है- (1) पूर्ण विशेषाधिकार (2) सीमित विशेषाधिकार ।

(1) पूर्ण विशेषाधिकार (Absolute Privileges)—पूर्ण विशेषाधिकार थे स्थितियाँ हैं, जहाँ यदि यह साबित कर दिया जाय कि अपमानजनक कथन विशेषाधिकृत परिस्थिति में किया गया था तो प्रतिवादी को दायित्व से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी। ये स्थितियाँ निम्न हैं—

(i) विधान मण्डलों में दिये जाने वाले वक्तव्य-ये निम्न हैं –

(क) संसदीय कार्यवाही- संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के अनुसार (क) संसद के किसी भी सदन के सदस्य द्वारा किया जाने वाला कथन (ख) संसद के प्राधिकार के अन्तर्गत प्रकाशित कोई प्रतिवेदन (Report), पत्र, मतदान या कार्यवाही को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

(ख) विधान मण्डल की कार्यवाही– संविधान का अनुच्छेद 194 (2) उपरोक्त विशेषाधिकार प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल के सदस्यों तथा उसके प्राधिकार के अन्तर्गत हुए प्रकाशनों के सम्बन्ध में प्राप्त हैं।

     इस प्रकार यदि यह साबित कर दिया जाय कि प्रश्नगत कथन संसद या विधानमण्डल के सदस्य द्वारा संसद या विधानमण्डल में दिया गया वक्तव्य था तो उसे किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

(ii) न्यायिक कार्यवाही (Judicial proceedings)– विधि द्वारा मान्यता प्राप्त किसी न्यायालय में चल रही किसी भी कार्यवाही के दौरान बोले हुए अपवचन या लिखे गए। अपकथन के लिए किसी न्यायाधीश या वकील या साक्षी या पक्षकार के विरुद्ध कोई भी वाद नहीं किया जा सकेगा। भले ही ये अपकथन या अपवचन विद्वेषता के अन्तर्गत हों, यदि ये अपवचन या अपकथन दुर्भावना, क्रोध, बिना किसी औचित्य के साथ हो तो भी यह विशेषाधिकार लागू होगा यह विशेषाधिकार ऐसे न्यायाधिकरण (Tribunals) की कार्यवाहियों पर भी लागू होगा यदि उन्हें न्यायालय का दर्जा विधि द्वारा प्राप्त है।

     भारत में उक्त विशेषाधिकार न्यायिक अधिकारी संरक्षा अधिनियम, 1850 (Judicial Officers Protection Act, 1850) द्वारा प्रदान किया गया है। अपने मुवक्किल (पक्षकार) के मामले में अभिवचन (Pleading) के दौरान एक वकील द्वारा बोले गए अपवचन के बारे में भी उपरोक्त विशेषाधिकार प्राप्त है यदि ये अपक विधिक कार्यवाही के दौरान बोले गये। हों। परन्तु यदि वकील के ये अपकथन या अपवचन मामले से असम्बन्धित हों या न्यायालय के समक्ष चल रहे मामले से असम्बन्धित हैं तो यह विशेषाधिकार लागू नहीं होगा। एक साक्षी या गवाह द्वारा यदि विशेषाधिकार का दावा किया गया है तो भी यही सिद्धान्त तथा नियम लागू होंगे।

(2) सीमित विशेषाधिकार (Limited or Qualified Privileges) – (i) यदि कोई कथन कर्तव्य के निर्वहन में या किसी हित के संरक्षण के लिए किया गया है तो यह सौमित विशेषाधिकार के अन्तर्गत अपमान के बाद में प्रतिकर से बचने का बचाव हो सकता है।

     भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 499 का नौंवा अपवाद यह प्रावधान करता है कि किसी दूसरे व्यक्ति के चरित्र या प्रतिष्ठा पर लगाया गया लांछन अपमान नहीं होगा यदि कथन या वचन सद्भावपूर्वक कथनकर्ता के हितों के संरक्षण के लिए किया गया हो या किसी लोकहित के संरक्षण के लिए किया गया हो। इसके कुछ उदाहरण निम्न हैं –

(क) एक दुकानदार, क से (जो उसका व्यापार देखता है) कहता है, ज को कुछ मत बेचना जब तक वह नकद मूल्य का भुगतान न करे। उसकी ईमानदारी के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। यह कथन दुकानदार ने अपने हित के संरक्षण के लिए किया था अतः यदि यह कथन सद्भाव में किया गया है तो दुकानदार ज के अपमान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

(ख) एक मजिस्ट्रेट अपने उच्च अधिकारी को अपने विधिक कर्तव्यों के पालन में एक प्रतिवेदन (Report) प्रेषित करता है जिसमें ज के बारे में लांछन लगाया गया है। यदि यह लांछन सद्भावपूर्वक लगाया गया है तो अ मजिस्ट्रेट ज के अपमान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

(ii) संसदीय कार्यवाही की रिपोर्ट का प्रकाशन- भारत में संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन संरक्षण) अधिनियम, 1977 की धारा 3 (1) यह प्रावधान करती है कि यदि कोई व्यक्ति सद्भावपूर्वक संसद के किसी सदन की कार्यवाही की सारवान् रूप से सत्य प्रतिवेदन (Report) प्रकाशित करता है तो वह किसी भी दीवानी या आपराधिक दायित्व के लिए किसी न्यायालय में उत्तरदायी नहीं होगा। जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाय कि ऐसा प्रकाशन दुर्भावना या विद्वेष के अन्तर्गत किया गया था।

(iii) सीमित विशेषाधिकार (Qualified Privilege)– यह विशेषाधिकार उन मामलों में भी लागू होता है जहाँ प्रतिवादी ने अपवचन या अपकथन विद्वेषता या दुर्भावना के अन्तर्गत नहीं किया है, विद्वेष की उपस्थिति इस बचाव को समाप्त कर देती है।

(B) वक्रोक्ति (Innuendo )

      वक्रोक्ति ऐसे अपवचन या अपकथन को कहते हैं जो प्रथम दृष्ट्या तो प्रशंसात्मक लगते हैं परन्तु यदि कथन या वचन को विद्यमान परिस्थितियों पर लागू किया जाता है तो वे अपमानजनक या उपहासात्मक लगते हैं। यहाँ कथनकर्ता की भाषा तो प्रशंसात्मक लगती है परन्तु ऐसे कथन के पीछे उसका आशय दूसरे व्यक्ति का अपमान करना होता है। ये कथन व्यंगात्मक कथन होते हैं, वक्रोक्ति ऐसे कथन होते हैं जो प्रथम दृष्टया निर्दोष हो सकते हैं परन्तु अपने गुप्त अर्थों में या द्वितीय (गौण) अर्थों में ये कथन अपमानजनक माने जाते हैं। जब अपवचन या अपकथन का प्राकृतिक तथा सामान्य अर्थ अपमानजनक नहीं होता परन्तु वादी अपमान के लिए वाद लाना चाहता है तो उसे उसके अपवचन या अपकथन के गुप्त तथा गौण अर्थ अर्थात् वक्रोक्ति को साबित करना पड़ेगा जिससे अपवचन या अपकथन अपमानजनक हो जाता है। यहाँ तक कि प्रशंसापूर्ण कथन भी किसी विशिष्ट संदर्भ में अपमानजनक हो सकते हैं।

       अ, कहता है, व एक ईमानदार व्यक्ति है, वह कभी भी घड़ी नहीं चुरा सकता। यह कथन उस परिस्थिति में लागू किया जाता है जिसमें ब को बेईमान व्यक्ति समझा जाता है तो यह कथन अपमानजनक होगा तथा कथन को वक्रोक्ति (Innuendo) कहा जायेगा।

     कैपिटल एण्ड काउन्टीज बैंक बनाम हेन्टी एण्ड सन्स [ (1882) 7 ए० सी० 741.] नामक बाद में प्रतिवादी जो, कैपिटल एण्ड काउन्टीज बैंक पर जारी चेक को प्राप्त करते थे, ने एक परिपत्र अपने अधिकांश ग्राहकों को प्रेषित कर कथन किया कि “हेन्टी एण्ड सन्स यह सूचना जारी करते हैं कि वे कैपिटल एण्ड काउन्टीज बैंक की किसी भी शाखा पर जारी चेक को स्वीकार नहीं करेंगे। यह परिपत्र कई अन्य लोगों को प्राप्त हुआ। बैंक ने प्रतिवादी हेन्टी एण्ड सन्स पर अपमान के लिए वाद किया कि परिपत्र बैंक के दिवालिएपन को प्रदर्शित करता था, यह निर्णय दिया गया कि परिपत्र से प्राकृतिक अर्थों में कोई लांछन युक्तियुक्त व्यक्त नहीं समझा जायेगा। अतः प्रतिवादी अपमान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

      टोली बनाम जे० एस० फ्राई एण्ड सन्स लि० [ (1931) अपील केसेज 333.] नामक वाद में वादी एक गोल्फ चैम्पियन था। प्रतिवादी के विज्ञान में निहित अपमानजनक कथन के लिए बादी ने बाद किया। विज्ञापन में टोली को एक बेहतरीन गोल्फ शॉट मारते हुए दिखाया गया था तथा उसकी जेब से प्रतिवादी का चाकलेट लटकता हुआ दिखाया गया था। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वक्रोक्ति का वाद दाखिल किया। उसने कहा कि हास्य-चित्र निकालने का प्रभाव यह था जैसे कि उसने अपना चित्र विज्ञापन के लिए प्रयोग किए जाने को अनुमति दी थी। इस प्रकार यह अर्थ निकलता था कि उसने अपनी प्रतिष्ठा पैसे के लिए बेच दी थी। उसका तर्क था कि उसके मित्रों ने भी उक्त विज्ञापन का यही अर्थ लगाया था। हाउस ऑफ लाईस ने निर्णय दिया कि वक्रोक्ति जिन परिस्थितियों में कई गई थी उससे उसका अर्थ अपमानजनक था क्योंकि वादी ने यह प्रदर्शित किया था कि जिस क्लब का वह सदस्य था उस क्लब में यह नियम था कि जो सदस्य अपनी प्रतिष्ठा पैसे के लिए बेचेगा उसकी उसको सदस्याता समाप्त की जा सकती है या उसे इस्तीफा देने को कहा जा सकता है।

      सलेनादनदासी बनाम गलाजा माल रेड्डी एवं अन्य, ए० आई० आर० (2008) आन्ध्र प्रदेश, के मामले में एक तेलगू दैनिक समाचार पत्र में समाचार छपा था कि वादी, जो एक अधिवक्ता था, उसने एक हरिजन महिला के साथ बलात्कार किया था। यह समाचार वादी के विरुद्ध एक प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के आधार पर प्रकाशित किया गया था जिसमें पर्याप्त हेरफेर किया गया था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वह वादी के विरुद्ध हानिकारक था। अत: वादी 10,000 रुपये नुकसानी का हकदार था। इस प्रकार के मानहानिकारक समाचार का प्रकाशन प्रेस की स्वतन्त्रता के आधार पर नहीं प्रकाशित किया जा सकता था।

प्रश्न 18. (अ) भूमि के प्रति अतिचार से आप क्या समझते हैं? भूमि के प्रति अतिचार के आवश्यक तत्व क्या हैं?

What do you understand by trespass to land? What are the essential elements of tort of trespass to land.

(ब) प्रारम्भ से अतिचार’ से आपका क्या तात्पर्य है? यहाँ दायित्व किस स्थिति ‘उत्पन्न होता है?

What do you understand by treaspass ab intlo’? Under what circumstances liability arises here? (Under this tort).

उत्तर (अ)- किसी को भूमि, भवन या परिसर पर बिना किसी विधिक औचित्य के अनधिकृत प्रवेश ही भूमि के प्रति अतिचार का अपकृत्य है। किसी व्यक्ति की भूमि, भवन या परिसर के साथ बिना विधिपूर्ण औचित्य के हस्तक्षेप ही भूमि के प्रति अतिचार है। भूमि, भवन या परिसर के साथ हस्तक्षेप प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से हो सकता है। किसी की भूमि पर पत्थर फेंकना या किसी की भूमि पर अनधिकृत रूप से पेड़ लगाना ये सब भूमि के प्रति अतिचार के अप्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्ष उदाहरण हैं परन्तु विद्युत आपूर्ति या जल आपूर्ति काट देना भूमि के प्रति अतिचार नहीं माना जा सकता। भूमि के प्रति अतिचार के निम्न आवश्यक तत्व हैं –

(1) किसी को भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश,

(2) यह प्रवेश बिना विधिक औचित्य के हो,

(3) भूमि के प्रति अतिचार करने के प्रति अपकृत्य है,

(4) भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य हैं।

(1) भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश – किसी की भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश प्रत्यक्ष रूप से या किसी भौतिक वस्तु के माध्यम से किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में यदि मैं किसी की भूमि, भवन या परिसर पर चल कर जाता हूँ यह भूमि, भवन या परिसर पर प्रत्यक्ष प्रवेश है या मैं अपने पशु किसी की भूमि पर प्रवेश करा देता हूँ यह प्रत्यक्ष प्रवेश है। परन्तु यदि मैं किसी व्यक्ति की भूमि पर पत्थर फेंकता हूँ या धुआँ या बारीक कण या दूषित वायु या पानी प्रवेश कराता हूँ या किसी की भूमि पर छड़ी रखता हूँ यह उसकी भूमि पर अप्रत्यक्ष या किसी माध्यम से प्रवेश कराना हुआ।

     अनुमति की सीमा का उल्लंघन करना भी भूमि के प्रति अतिचार अपकृत्य होगा। यदि किसी व्यक्ति को बैठक में आमन्त्रित किया गया है तथा वह शयन कक्ष में अन्यत्र प्रवेश करता है तो यह माना जायेगा कि उसने भूमि के प्रति अतिचार का अपकृत्य किया। अनुमति की सीमा का उल्लंघन भी अतिचार होगा। परन्तु यदि क्षेत्रों का उचित सीमांकन नहीं हुआ है उस स्थिति में सीमा पार करना भूमि के प्रति अतिचार का गठन नहीं करेगा।

     यदि भूमि का कब्जाधारी, अतिचार के कई मामलों में चुप रहता है तो प्रवेश करने वाला व्यक्ति अतिचारी नहीं रह जाता।

   माधव विठ्ठल कुट्वा बनाम माधवदास वल्लभ दास (ए० आई० आर० बम्बई 49 ) नामक बाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि बहुमंजिली इमारतों में ऊपरी मंजिल पर रहने वाले व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह नीचे उपलब्ध स्थान पर अपने वाहन खड़ा करें तथा ऐसा करने से वे अतिचारी नहीं माने जा सकते।

(2) भूमि या भवन पर प्रवेश अनधिकृत होना चाहिए – किसी भूमि या भवन पर अधिकृत प्रवेश भूमि के प्रति अतिचार के अपकृत्य में एक अच्छा बचाव है। यदि किसी भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश अनुज्ञप्ति, आमंत्रण या विधिपूर्ण औचित्य के साथ है तो यह अतिचार का अपकृत्य नहीं होगा। इस प्रकार यदि एक पुलिस अधिकारी किसी उपयुक्त अधिकारों के आदेश के अन्तर्गत गिरफ्तारी या जाँच के लिए किसी भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश करता है तो यह प्रवेश विधिक औचित्य के अन्तर्गत या अधिकृत प्रवेश माना जायेगा। आमंत्रण मौखिक या विवक्षित हो सकता है।

(3) भूमि के प्रति अतिचार कब्जे के प्रति अपकृत्य है न कि स्वामित्व के प्रति – भूमि के प्रति अतिचार स्वामित्व के विरुद्ध अपकृत्य नहीं है यह अपकृत्य कब्जे के विरुद्ध अपकृत्य है। अर्थात् वही व्यक्ति जिसके कब्जे में भूमि या भवन है वही अतिचार के अपकृत्य के लिए वाद ला सकता है। अर्थात् एक किरायेदार जो किसी भवन या भूमि के कब्जे में है उस भूमि या भवन के स्वामी के विरुद्ध भी अतिचार के लिए बाद ला सकता है। यदि भूस्वामी ने किरायेदार के अत्यधिक कब्जे का अतिक्रमण किया है अर्थात् अनधिकृत प्रवेश किया है।

    इसी प्रकार एक भूमि का पट्टाधारी, उस भूमि के पट्टाकर्ता के विरुद्ध भूमि के प्रति अतिचार के लिए वाद ला सकता है यदि पट्टाधारी के भूमि के कब्जे का अतिक्रमण पट्टाकर्ता द्वारा किया जाता है।

     ग्राह्य बनाम पीट [ (1801) 1 ईस्ट 244. ] नामक बाद में वादी पट्टे के अन्तर्गत भूमि धारण करता था। यह पट्टा शून्य था परन्तु भूमि पट्टाधारी (वादी) के कब्जे में थी परन्तु उसे उस व्यक्ति के प्रति अतिचार के लिए वाद लाने का अधिकार था जो उस भूमि पर अनधिकृत प्रवेश करता है क्योंकि कोई भी कब्जा अपकृत्य कर्ता के विरुद्ध वैध कब्जा है।

     इस प्रकार एक व्यक्ति कब्जाधारी है अतिचार के लिए वाद ला सकता है भले ही उसका कब्जा त्रुटिपूर्ण हो। परन्तु एक भूमि का स्वामी यदि कब्जाधारी नहीं है तो वह भूमि के प्रति अतिचार के लिए वाद नहीं ला सकता।

(4) भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य है- “भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य है” इसका तात्पर्य यह है कि अतिचार के अपकृत्य के प्रतिकर प्राप्त करने हेतु यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि आशय या जानकारी या विद्वेष साबित किया जाय भूमि के प्रति अतिचार आशय, जानकारी या द्वेष के सबूत के अभाव में भी वादी सफल होता है। यहाँ वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि उसके भूमि, भवन या परिसर पर किसी व्यक्ति ने बिना किसी विधिक औचित्य के प्रवेश किया था, भूमि के प्रति अतिचार में वादी को कोई क्षति या नुकसान साबित करना आवश्यक नहीं है। किसी सम्पत्ति पर प्रत्येक आक्रमण चाहे एक मिनट के लिए ही क्यों न हो अतिचार है। प्रतिवादी की ओर से ईमानदारी पूर्वक गई भूल किसी व्यक्ति को भूमि के प्रति अतिचारी को दोषी बनाती है। इस प्रकार यदि एक व्यक्ति एक भूमि को अपनी मानकर भी अनधिकृत प्रवेश करता है तो भी वह अतिचार दोषी होगा। यदि कोई व्यक्ति अपरिहार्य दुर्घटना के अन्तर्गत प्रवेश करता है तो यह एक अच्छा बचाव हो सकता है।

अतिचार के विरुद्ध उपचार –

(1) भूमि पर पुनः प्रवेश,

(2) बेदखली के लिए वाद,

(3) मध्यवर्ती लाभ के लिए वाद,

(4) अतिचारी को पकड़े रखना।

(1) भूमि पर पुनः प्रवेश- इस उपचार के अन्तर्गत वादी को यह अधिकार है कि वह उचित बल का प्रयोग कर अतिचारी को बाहर निकाल कर अपनी भूमि पर पुन: प्रवेश कर सकता है।

(2) बेदखली के लिए वाद- वादी अतिचारी को बेदखल करने की विधिक प्रक्रिया प्रारम्भ कर सकता है।

(3) मध्यवर्ती लाभ के लिए वाद– यदि एक अतिचारी भूमि पर कोई लाभ अतिचार की अवधि में कमा लेता है तो बादी को यह अधिकार है कि उस मध्यवर्ती लाभ को अतिचारी से प्राप्त करे।

(4) अतिचारी को पकड़े रखना– यदि किसी व्यक्ति के पशु ने अतिचार का अपकृत्य किया है तो वादी को यह अधिकार है कि वह पशु को तब तक पकड़े रख सकता है। जब तक वह अपना प्रतिकर उसके स्वामी से वसूल न कर ले।

उत्तर (ब)- प्रारम्भ से अतिचार (Trespass Ab Initio)

      जब कोई व्यक्ति किसी परिसर पर विधिक प्राधिकार के अन्तर्गत प्रवेश करता है परन्तु प्रवेश करने के पश्चात् वहाँ पर कोई अपकृत्य करके प्रश्नगत विधिक प्राधिकार का दुरुपयोग करता है तो उसे उस परिसर या सम्पत्ति के सम्बन्ध में प्रारम्भ से अतिचारी माना जाता है। यद्यपि उसने मूल रूप में विधिपूर्वक प्रवेश किया परन्तु विधि उसे प्रारम्भ से ही अतिचारी मानती है। विधि यह उपधारण करती है कि उसने जब मूल रूप में प्रवेश किया था तभी उसका आशय अपकृत्यपूर्ण था। अतः वादी उससे उसके द्वारा किए गए अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए प्रतिकर पाने का हकदार होने के अतिरिक्त उसके मूल प्रवेश को ही अतिचार का अपकृत्य मानते हुए उसके मूल प्रवेश के सम्बन्ध में भी प्रतिकर प्राप्त कर सकता है।

      किसी व्यक्ति को प्रारम्भ से अतिचारी मानने के लिए उस व्यक्ति द्वारा किया गया पश्चात्वर्ती कार्य अकरण (Non feasant) (कुछ करने का लोप या चूक करना) नहीं होना चाहिए। वह कार्य एक सक्रिय अपकृत्य (Misfeasant) या अपकार होना चाहिए। अर्थात् उसके द्वारा कुछ न कुछ किया जाना आवश्यक है।

     इस बिन्दु पर छः बढ़इयों वाला बाद (Six Carpenters case) [ (1610) 8 Corep. 14.] उल्लेखनीय है। इस मामले में छः बढ़इयों ने एक शराब घर में प्रवेश किया तथा शराब का आदेश दिया। शराब पीने के पश्चात् उन्होंने भुगतान करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने इसके अतिरिक्त कोई भी सक्रिय कार्य (postive act) नहीं किया। चूँकि भुगतान न करना एक सक्रिय कार्य न होकर निष्क्रिय कार्य (Non feasance) मात्र था अतः उन्हें प्रारम्भ से अतिचारी (trespasser ab initio) नहीं माना गया।

     यह उल्लेखनीय है कि सिर्फ अपकार (Misfeasance) ही उसके विधिपूर्ण प्रवेश को प्रारम्भ से अतिचार नहीं बनाती। उनके द्वारा किया गया अपकार (Misfeasance) ऐसा होना चाहिए जो उसकी उस स्थान पर उपस्थिति अविधिपूर्ण बनाती हो, यह आवश्यक है।

     इस बिन्दु को इलियास बनाम पासमोर ((1934) 2K.B. 164.) नामक बाद स्पष्ट करता है। इस बाद में प्रतिवादी कुछ पुलिस अधिकारी वादी की भूमि पर उसे गिरफ्तार करने के लिए गए। वहाँ उन्होंने कुछ दस्तावेजों को हटाया जबकि उन्हें ऐसा करने का विधिक अधिकार नहीं था। अतः इसे अपकार (Misfeasance) माना गया। उनका दस्तावेजों को हटाना उनके यहाँ गिरफ्तार करने हेतु उपस्थिति अनुचित नहीं हो पाती क्योंकि उन्हें एक विधिपूर्ण उद्देश्य (गिरफ्तारी) अभी भी पूरी करनी है। उन्हें न्यायालय ने दस्तावेज हटाने के सम्बन्ध में हो अतिचारी माना, प्रारम्भ से अतिचारी नहीं माना।

प्रश्न 19: शरीर के प्रति अतिचार के अन्तर्गत कौन-कौन से अपकृत्य सम्मिलित हैं? प्रत्येक की व्याख्या कीजिए। क्या मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि वादी को मिथ्या बन्दीकरण के तथ्य की जानकारी थी?

या

आक्रमण, प्रहार तथा मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य की संक्षेप में व्याख्या करें। मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य में क्या यह साबित किया जाना आवश्यक है कि वादी को इस तथ्य की जानकारी हुई थी कि उसका मिथ्या बन्दीकरण हुआ है?

या

आक्रमण, प्रहार तथा मिथ्या बन्दीकरण के आवश्यक तत्वों को समझाएं।

What torts are included under trespass to body? Explain each of them. In Tort of false imprisonment is it necessary to prove the plaintiff had knowledge of fact of false imprisonment?

OR

Explain in brief the torts of Assault, Battery and False imprisonment. Is it necessary to prove the knowledge in case of false imprisonment?

OR

Explain in brief the essential elements of Assault, Battery and False imprisonment.

उत्तर– प्रत्येक व्यक्ति का यह विधिक अधिकार है कि वह अपने शरीर को दूसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप से परे जिस प्रकार चाहे स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग करे। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की सुरक्षा की आशंका उत्पन्न करता है या बिना किसी विधिक औचित्य के किसी व्यक्ति के शरीर से हस्तक्षेप करता है या बिना किसी विधिक औचित्य के उसके आवागमन की स्वतन्त्रता को पूर्णरूप से बाधित करता है तो यह कहा जायेगा कि वह क्रमश: आक्रमण, प्रहार तथा मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य का दोषी होगा।

     इस प्रकार शरीर के प्रति अतिचार (trespass to person) के अन्तर्गत आक्रमण, प्रहार तमा मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य सम्मिलित हैं।

(1) आक्रमण (Assault)

     प्रसिद्ध विधिशास्त्री विनफील्ड के अनुसार आक्रमण प्रतिवादी का ऐसा कार्य है जो वादी के मन में प्रतिवादी द्वारा प्रहार किये जाने की युक्तियुक्त आशंका (apprehension) उत्पन्न करता है।

    जब प्रतिवादी का कार्य इस प्रकार का है जिससे वादी के मन में युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है कि प्रतिवादी वादी पर प्रहार करेगा आक्रमण का अपकृत्य पूरा हो जाता है। आक्रमण के अपकृत्य में क्षति करने का प्रयास होता है। किसी व्यक्ति की ओर भरी हुई पिस्तौल तानना या किसी व्यक्ति की ओर छड़ी दिखाना या पानी से भरी बाल्टी फेंकने का प्रयास करना, यह दिखाना कि वादी प्रतिवादी पर थूक देगा ये सब वे कार्य हैं जिससे वादी के मन में यह आशंका उत्पन्न हो जाती है कि वादी के शरीर को अविधिक रूप से उसकी इच्छा के विरुद्ध क्षति पहुंचाने हेतु स्पर्श किया जायेगा। यदि वादी के मन में प्रहार की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो जाती है कि प्रतिवादी प्रहार कर देगा तो आक्रमण का अपकृत्य पूर्ण हो जाता है। यदि वादी की ओर प्रतिवादी पिस्तौल तानता है तथा प्रतिवादी यह जानता है कि पिस्तौल खाली है तो आक्रमण का अपकृत्य नहीं होगा। इस प्रकार आक्रमण के अपकृत्य में सफल होने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी उसको युक्तियुक्त आशंका को साकार करने में सक्षम था। दूसरे शब्दों में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी अपनी धमकी को कार्यान्वित करने में सक्षम था।

     इस प्रकार यदि एक व्यक्ति चलती ट्रेन से प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति को छड़ी दिखाता है। तथा वह उस व्यक्ति से इतनी दूर चला गया है कि वह यदि छड़ी फेंके तो भी वह प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकती तो यह आक्रमण नहीं होगा।

    बावीसेट्टी वेंकटा सूर्याराव बनाम नन्दी पतिमुथैय्या (ए० आई० आर० 1964 आन्ध्र प्रदेश 382.) नामक बाद में वादी के पास कुछ लगान बकाया था। लगान माँगने पर उसने असमर्थता व्यक्ता की। इस पर लगान वसूलने वाले अधिकारी ने उसकी सोने की बाली (ear ring) में से कुछ सोना कटाने के लिए सुनार बुलाया। सुनार जब तक बाली काटने के लिए। आगे बढ़ता एक दूसरे व्यक्ति ने लगान का भुगतान कर दिया। आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि चूँकि प्रतिवादी ने न तो कुछ किया और न ही उसने कुछ कहा। यहाँ प्रहार को धमकी दूरवर्ती थी। हिंसा को तात्कालिक आशंका नहीं थी अतः आक्रमण का अपकृत्य गठित नहीं हुआ।

      इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति धमकी के साथ बल प्रयोग के लिए आगे बढ़ता है तो उसे हमला (आक्रमण) माना जायेगा भले ही जब हमलावर अपनी परिकल्पना (Design) को पूरा करने के पहले ही रोक लिया जाता है। स्टीफेन बनाम मायर्स [ (1830) 4 सो० एण्ड पो० 349 ] नामक वाद में वादी एक परिषद का अध्यक्ष था। प्रतिवादी भी इसी मेज पर बैठा था परन्तु प्रतिवादी तथा वादी के मध्य कुछ लोग बैठे थे। बहस जब गर्म हो उठी तब प्रतिवादी उग्र बन गया। सभा ने बहुमत द्वारा निर्णय किया कि प्रतिवादी को सभा से बाहर निकाल दिया जाय। प्रतिवादी उस पर यह कहते हुए मुक्का दिखाते हुए बोला कि बाहर किये जाने से पूर्व वह अध्यक्ष को कुरसी से गिरा देगा। परन्तु पास बैठे व्यक्ति ने उसे रोक लिया। प्रतिवादी को हमला (आक्रमण) के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

(2) प्रहार (Battery)

     किसी व्यक्ति पर बिना किसी विधिक औचित्य के उस पर आशय के साथ बल प्रयोग करना ही प्रहार के अपकृत्य का गठन करता है। दूसरे शब्दों में किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना किसी विधिक औचित्य के तनिक भी स्पर्श करना ही प्रहार का अपकृत्य है, जैसे किसी व्यक्ति पर पानी फेंकना, उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे छड़ी या अन्य वस्तु से स्पर्श करना, या किसी व्यक्ति पर थूक देना ही प्रहार का अपकृत्य है।

प्रहार के अपकृत्य के दो आवश्यक तत्व है –

(1) किसी व्यक्ति पर बल प्रयोग किया गया हो,

(ii) यह बल प्रयोग बिना विधिक औचित्य के हो।

(i) बल प्रयोग (Use of force) – किसी व्यक्ति के शरीर के विरुद्ध उस व्यक्ति की इच्छा के विपरीत तनिक सा भी बल प्रयोग प्रहार होगा भले ही वादी को कोई शारीरिक क्षति हो या नहीं। शारीरिक चोट आवश्यक नहीं है। किसी को क्रोध में स्पर्श करना, प्रहार है। बल प्रयोग शारीरिक स्पर्श के बिना भी हो सकता है। छड़ी से स्पर्श, गोली का स्पर्श, पानी का स्पर्श, किसी के चेहरे पर थूकना, किसी व्यक्ति के नीचे से कुरसी हटा कर उसे गिरा देना। ये सभी बल प्रयोग के उदाहरण हैं। किसी व्यक्ति की ओर ऊष्मा, प्रकाश, गैस, विद्युत आदि फेंकना यदि इनका स्पर्श हो जाय तो यह प्रहार की श्रेणी में आएगा। यदि उससे वादी को व्यक्तिगत तकलीफ या शारीरिक चोट पहुँचे। सिर्फ किसी को शांतिपूर्वक रोकना प्रहार नहीं होगा। इन्स बनाम बाइल (1844) सी० एण्ड के० 257.] नामक बाद में अवैध रूप से पुलिस मैन ने एक दीवार की भाँति खड़े होकर वादी को रोका। यह प्रहार का अपकृत्य नहीं माना गया।

(ii) बल प्रयोग बिना किसी विधिक औचित्य के (Use of force without lawful justification)- प्रहार के बाद में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी के शरीर के विरुद्ध बल प्रयोग बिना किसी विधिक औचित्य के हुआ था। मुख्य न्यायाधीश हाल्ट ने कहा यदि कई व्यक्ति एक संकरी गली से गुजरते हैं तथा उनके शरीर एक दूसरे को बिना किसी हिंसा की परिकल्पना के स्पर्श करते हैं तो इसे प्रहार नहीं कहा जा सकता। परन्तु यदि उनमें से कोई हिंसा का प्रयोग करते हैं तथा असम्भ्यों की तरह व्यवहार करते हैं तो वह प्रहार होगा।

     यदि किसी डूबते हुए व्यक्ति को बचाने हेतु या भूख हड़ताल पर बैठे व्यक्ति को जबरदस्ती खिलाने हेतु, अचेत व्यक्ति को आपरेशन करने हेतु उसकी इच्छा के विरुद्ध बल प्रयोग किया जाता है तो यह प्रहार नहीं होगा।

     प्रताप दाजी बनाम बी० बी० एण्ड सी० आई० रेलवे [ (1975) 1 बम्बई 52.] नामक वाद में एक बिना टिकट यात्री को उतरने को कहा गया उसने इन्कार किया। उसे बलपूर्वक उतार दिया गया। यह निर्णय दिया गया कि यह बल प्रयोग विधिक औचित्य के साथ था।

     इसी प्रकार एक अतिचारी को बलपूर्वक बेदखल करना विधिक औचित्य के साथ बल प्रयोग माना जाता है।

    पी० केदार बनाम के० ए० अलगरास्वामी (ए० आई० आर० 1965 मद्रास 438.) नामक बाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक विचाराधीन कैदी को हथकड़ी लगाकर जंजीर से बाँधना प्रहार का उदाहरण है। यहाँ बल प्रयोग बिना किसी विधिक औचित्य के माना जायेगा।

(3) मिथ्या बन्दीकरण या मिथ्या कारावास (False Imprisonment) बिना किसी विधिक औचित्य के किसी की आवागमन की स्वतन्त्रता पर पूर्ण प्रतिबन्ध अधिरोपित करना मिथ्या कारावास का अपकृत्य होगा चाहे यह थोड़े ही देर के लिए क्यों न हो। यह स्मरणीय है कि जहाँ एक व्यक्ति से आवागमन को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छीन ली गई हो वहाँ मिथ्या बन्दीकरण का अपकृत्य होगा यदि यह बिना किसी विधिक औचित्य के हो। यह आवश्यक नहीं कि मिथ्या बन्दीकरण चहारदीवारी में हो यह आकाश में हो सकता है, यह ट्रेन में हो सकता है, यह मैदान में हो सकता है, यह किसी व्यक्ति के आवास में हो सकता है। आवश्यक यह है कि वादी की आवागमन को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर पूर्ण प्रतिबन्ध (अवरोध) (total restraint) हो।

मिथ्या बन्दीकरण अपकृत्य के निम्न आवश्यक तत्व हैं –

(i) किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पूर्ण अवरोध हो,

(ii) यह अवरोध बिना किसी विधिक औचित्य के हो।

(i) पूर्ण अवरोध (Total restraint) – आपराधिक विधि के अन्तर्गत अवरोध पूर्ण हो या आंशिक, वाद लाया जा सकता है। यदि अवरोध पूर्ण है तथा वादी किसी भी दिशा में जाने से रोका जाता है तो यह मिथ्या परिरोध (wrongful confinement) होता है जिसे भा० द० सं० की धारा 340 के अन्तर्गत अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। दूसरी ओर यदि अवरोध आंशिक है तथा वादी एक विशिष्ट दिशा में जाने से निवारित किया जाता है तो यह सदोष अवरोध होता है जिसे भा० द० सं० की धारा 339 के अन्तर्गत परिभाषित किया गया है। मिथ्या कारावास जो अपकृत्य के अन्तर्गत एक दीवानी अपकार है तभी गठित होता है, जब व्यक्ति पर पूर्ण अवरोध डाला जाय।

     यदि किसी व्यक्ति को एक विशेष दिशा में ही जाने से रोका जाय तथा उसे अन्य दिशा में जाने की स्वतन्त्रता हो तो वह कारावास नहीं माना जायेगा। इस अपकृत्य के गठन के लिए यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को एक निश्चित परिसीमा या परिधि से बाहर जाने से पूर्ण तथा प्रतिबन्धित या वंचित कर दिया जाय।

     बर्ड बनाम जोन्स [ (1945) 7 क्यू० बी० 742. ] नामक बाद में हैमर स्मिथ पुल पर वाहन पथ (सड़क) को न रोक कर सार्वजनिक पथ मार्ग का एक भाग प्रतिवादी द्वारा दोषपूर्ण रीति से बन्द कर दिया गया था। क्योंकि उसके एक ओर कुछ लोगों के बैठने व्यवस्था थी। यह निर्णय दिया गया कि चूंकि वादी के आवागमन को सिर्फ एक दिशा में ही प्रतिबन्धित किया गया था तथा वादी अन्य दिशा में जाने को स्वतन्त्र था अतः प्रतिवादी मिथ्या कारावास का दोषी नहीं होगा।

      मी० बनाम कुकशैंक [ (1902) 86 एल० टी० 708.] नामक बाद में एक दोषमुक्त (acquitted) बन्दी को एक प्रकोष्ठ में ले जाया गया तथा वहाँ उसे कुछ मिनट के लिए निरुद्ध (detained) करके रखा गया। यह निर्णय दिया गया कि वादी की स्वतन्त्रता चाहे कुछ ही क्षण के लिए प्रतिबन्धित की गई अतः प्रतिवादी मिथ्या कारावास के दोषी थे।

     वादी का ज्ञान (Knowledge of Plaintiff)- इस बिन्दु पर मतभेद रहा है कि क्या वादी का यह ज्ञान कि उसकी स्वतन्त्रता पर अवरोध डाला गया है, मिथ्या कारावास की संरचना के लिए आवश्यक है?

      हेरिंग बनाम बॉयल [ 1949 ई० आर० 1126 (1934)] नामक बाद में एक विद्यालय के अध्यापक ने दोषपूर्ण ढंग से एक बच्चे को उसकी माता के साथ जाने से तब तक के लिए रोका गया जब तक उसकी माता बालक द्वारा विद्यालय को देय धन का भुगतान नहीं कर देती। बालक को इस तथ्य का ज्ञान नहीं था कि उसे अवरुद्ध किया गया था। यह निर्णय दिया गया कि चूँकि बालक को कारावास होने के तथ्य का ज्ञान नहीं था अतः मिथ्या कारावास का अपकृत्य गठित नहीं हुआ।

     परन्तु मियरिंग बनाम ग्राहेम ह्वाइट एवियेशन कं० [ (1920) 122 एल० टी० 44.] नामक वाद में यह निर्णय दिया गया कि मिथ्या कारावास की कार्यवाही में अवरोध का ज्ञान अपकार का आवश्यक तत्व नहीं है क्योंकि उसका गठन तब भी हो सकता है जब कारावासित व्यक्ति को अपने स्वयं के कारावास का ज्ञान भी न हो।

     लार्ड एटकिन ने मत व्यक्त किया कि “मुझे लगता है कि किसी व्यक्ति को तब भी कारावासित किया जा सकता है जब स्वयं उसे कारावासित होने के तथ्य का ज्ञान न हो। मेरे विचार से एक व्यक्ति को तब भी कारावासित किया जा सकता है जब सो रहा हो या जब वह नशे में हो या जब वह अचेत अवस्था में हो या जब वह विकृत चित्त (पागल) हो। हाँ यह अवश्य है कि ऐसे मामलों में इस प्रश्न से कि वादी को अपने कारावास का ज्ञान था अथवा नहीं, नुकसानी की मात्रा कम या अधिक हो सकती है।

इस विषय पर मियरिंग का निर्णय कुछ उचित प्रतीत होता है।

(ii) अवरोध बिना किसी विधिक औचित्य के हो (Restraint must be without lawful Justification)– यदि किसी व्यक्ति को विधिक औचित्य के अन्तर्गत अवरोधित या कारावासित किया जाता है तो प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा। परन्तु कैदी को रिहाई के पश्चात् कुछ मिनट के लिए कारावासित करना विधि-विरुद्ध माना जायेगा।

       रुदल शाह बनाम बिहार राज्य (ए० आई० आर० 1983 सु० को० 1086. ) नामक वाद में अपीलार्थी को 1968 में सत्र न्यायालय द्वारा दोष-मुक्त कर दिया गया तथा उसकी रिहाई का आदेश दिया गया था परन्तु उसकी रिहाई बिना किसी विधिक औचित्य के 14 वर्ष पश्चात् 1982 में की गई। उच्चतम न्यायालय ने बिहार सरकार को उत्तरदायी माना।

    भीम सिंह बनाम जम्मू एण्ड कश्मीर राज्य (ए० आई० आर० 1986 सु० को 494 ) नामक वाद में भीम सिंह विधान सभा के सदस्य को बिना किसी विधिक औचित्य के कारावासित किया गया था। राज्य सरकार को मिथ्या कारावास के लिए उत्तरदायी माना गया।

    किसी व्यक्ति की निरुद्धि (Detention) के लिए यदि कोई औचित्य विद्यमान रहता है तो प्रतिवादी मिथ्या कारावास या मिथ्या विरोध के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किन्हीं शर्तों के अधीन एक परिसर में प्रवेश करता है तथा उन्हीं शर्तों के अधीन उसे परिसर से बाहर नहीं जाने दिया जाता तो उसका अवरोध विधिक औचित्य के अन्तर्गत माना जायेगा।

    राबिन्सन बनाम बाल मेन फेरी कम्पनी [(1910) अपील केसेज़ 295.] नामक वाद में वादी ने एक घाट पर इस आशय से प्रवेश किया कि वह नाव से उस पार जायेगा। वादी ने जब यह देखा कि अगले 20 मिनट तक उस पार जाने के लिए कोई नाव उपलब्ध नहीं है तो उसने वापस आना चाहा। उससे बाहर आने के लिए एक पैनी शुल्क माँगा गया किन्तु उसने यह शुल्क जमा करने से इन्कार कर दिया। परन्तु घाट पर लगाई गई सूचना के अनुसार उसे वापस आने हेतु एक पैनी देना आवश्यक था। प्रतिवादी ने वह भुगतान करने तक वादी को रोके रखा। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था क्योंकि उसका अवरोध औचित्यपूर्ण था।

     इसी प्रकार न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम, 1850 न्यायिक अधिकारियों को अपने कार्य के निष्पादन में किए गए किसी कार्य को संरक्षण प्रदान करता है। यदि कोई व्यक्ति किसी न्यायिक अधिकारी के आदेश से गिरफ्तार किया जाता है तो वह ऐसे न्यायिक अधिकारी के विरुद्ध मिथ्या कारावास या किसी अन्य अपकृत्य के लिए वाद नहीं ला सकता। उसे यह संरक्षण तब भी प्राप्त है जब वह अपने अधिकार का अतिक्रमण करता है परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि उसने प्रश्नगत आदेश (कार्य) अपने कर्तव्यों के सद्भावपूर्वक निष्पादन करते हुए दिया हो। यह संरक्षण तभी प्राप्त होगा जब न्यायिक अधिकारी न्यायिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा हो।

     बादी को पलायन के मार्ग (Means of escape) की उपलब्धता – यदि वादी को पलायन का मार्ग उपलब्ध था जिसकी उसे जानकारी थी तथा वह पलायन के मार्ग का प्रयोग करने में सक्षम था तो उसे मिथ्या कारावास के लिए वाद में सफलता नहीं मिलेगी। परन्तु यदि पलायन का मार्ग ऐसा है जिसका युक्तियुक्त प्रयोग वादी नहीं कर सकता था तो उसे मिथ्या कारावास के लिए प्रतिकर प्राप्त होगा।

प्रश्न 20 उपताप से आप क्या समझते हैं? इसके आवश्यक तत्व क्या हैं? इसके विभिन्न प्रकार क्या हैं? क्या कोई प्राइवेट व्यक्ति सार्वजनिक उपताप के लिए वाद चला सकता है?

What do you understand by ‘Nuisance’. What are essential ingredients of Nuisance? What are various kinds of nuisance? Can a Private Person sue for Public Nuisance?

उत्तर- उपताप को अंग्रेजी में न्यूसेन्स (Nuisance) कहते हैं जो फ्रेन्च भाषा के न्यूरे (Nuire) और लैटिन के नोसिरे (Nocere) शब्द से बना है जिसका अर्थ बाधा उत्पन्न करना या क्षति करना होता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई उपताप (Nuisance) की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –

      ब्लैकस्टोन– “किसी सम्पत्ति पर आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति के अधिकार को क्षति पहुँचाना ताकि उसके उपयोग में व्यवधान पैदा हो और तीसरे पक्षकार द्वारा सम्पत्ति या अधिकार का अनुचित ढंग से उपयोग किया जाय, उपताप कहलाता है।”

      पोलक– “ऐसा उपकृत्य उपताप कहलाता है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के सम्पत्ति के उपभोग में अथवा सामान्य अधिकारों के प्रयोग में बाधा पहुंचाता है।”

     सामण्ड– “उपताप वहाँ होता है जहाँ प्रतिवादी अपनी भूमि से या कहीं अन्यत्र से क्षतिकारक वस्तुओं को बिना विधिक औचित्य के वादी की भूमि में जाने देता है। ऐसी वस्तुओं में पानी, दुर्गन्ध, धुंआ, गैस, शोर ताप, प्रकम्पन, विद्युत आदि की उपेक्षा शामिल हैं।”

    डॉ० विनफील्ड– “किसी व्यक्ति की भूमि या उससे सम्बन्धित किसी के अधिकार प्रयोग या उपभोग में अवैध हस्तक्षेप को उपताप कहते हैं।

     अतः एक अपकृत्य के रूप में न्यूसेन्स का अर्थ भूमि के उपयोग अथवा उपभोग से अथवा उससे सम्बन्धित किसी अधिकार के साथ विधि विरुद्ध हस्तक्षेप से है। व्यक्ति के आराम, स्वास्थ्य अथवा सुरक्षा के प्रतिकूल किये गये हस्तक्षेप, उपताप की श्रेणी में आते हैं।

     उपाबेन बनाम भाग्य लक्ष्मी चित्र मन्दिर, ए० आई० आर० 1978 गुजरात 13 के बाद में कहा गया कि उपताप एक ऐसा अपकृत्य है जो भावनाओं को ठेस पहुँचाता है या स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है और जिससे किसी दूसरे व्यक्ति को असुविधा, कष्ट अथवा तकलीफ होती है।

  अतः उपताप की एक निश्चित परिभाषा नहीं है।

  उपताप के बारे में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं –

(1) उपताप एक लैटिन कहावत “Sic utere tuo al alienmum non leadash अर्थात् “अपनी सम्पत्ति का उपयोग इस ढंग से करो कि अपनी सम्पत्ति के दुरुपयोग द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के सम्पत्ति को हानि न पहुँचे।” सम्पत्ति सम्बन्धी शान्तिपूर्ण उपयोग के अधिकार को यदि किसी भी प्रकार का आघात पहुँचता है तो वह उपताप माना जायेगा।

(2) उपताप उपेक्षा से भिन्न है, अत: उपताप में यह बचाव नहीं लिया जा सकता है कि प्रतिवादी ने सावधानी से कार्य किया था।

(3) उपताप अतिचार से भी भिन्न होता है क्योंकि उपताप में अवरोध स्थायी होता है जबकि अतिचार में अस्थायी अवरोध होता है।

आवश्यक तत्व (Essential Elements) उपताप के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं –

(1) अनुचित हस्तक्षेप- उपताप के लिए प्रतिवादी का कृत्य अनुचित हस्तक्षेप की श्रेणी में आना चाहिए। यद्यपि उपताप के लिए प्रतिवादी के कृत्य का अनुचित हस्तक्षेप होना आवश्यक है, परन्तु प्रत्येक अनुचित हस्तक्षेप उपताप नहीं माना जा सकता। किसी कृत्य का उपताप होना या न होना उसकी परिस्थिति, निरन्तरता एवं प्रकृति के आधार पर तय किया जाता है।

      क्रिस्टी बनाम डेवी, (1893) 1 सी० एच० 316 के बाद में वादी एवं प्रतिवादी एक ही मकान में रहते थे। वादी संगीत की कक्षायें चलाता था जिससे प्रतिवादी को असुविधा होती थी, अतः वादी जब संगीत की कक्षा चलाता तो प्रतिवादी दीवार पीट-पीटकर शोर मचाता था। न्यायालय ने प्रतिवादी के कृत्य को अनुचित हस्तक्षेप मानते हुए उसे उपताप का दोषी पाया।

(2) भूमि या इससे सम्बन्धित अधिकार के प्रति हस्तक्षेप – उपताप में दायित्व के लिए हस्तक्षेप अनुचित होने के साथ-साथ भूमि या उससे सम्बन्धित अधिकारों में होना चाहिए। यह हस्तक्षेप किसी भी प्रकार का हो सकता है। उदाहरण के लिए दूसरे की भूमि में धुआँ, गैस, आदि छोड़ना अर्थात् पेड़ की डाल अथवा जड़ें उगाना उपताप माना जाता है। भूमि से सम्बन्धित अधिकारों में हस्तक्षेप, जैसे- अवलम्बन के अधिकार में हस्तक्षेप भी उपताप है।

    प्राकृतिक अधिकारों, जैसे वायु अथवा प्रकाश प्राप्त करने के अधिकारों में हस्तक्षेप भी उपताप माना जाता है। इसी प्रकार शारीरिक सुख-सुविधा में हस्तक्षेप भी उपताप माना जा सकता है। यदि एक व्यक्ति के अधिकार के उपभोग का ढंग दूसरों की सुख सुविधा में अनुचित हस्तक्षेप करता है तो उसे उपताप माना जायेगा। जैसे-जोर-जोर से गाना, निरन्तर घण्टे बजाना, अशान्त सराय आदि।

वादी का संवेदनशील होना –

     सेण्ट हेलेन्स स्मेल्टिंग कम्पनी बनाम टिपिंग, (1865) 77 एच० एल० सी० 642 के बाद में कहा गया कि यदि वादी अत्यन्त संवेदनशील है, उसकी इस संवेदनशीलता के कारण उसे क्षति कारित होती है तो वैसी परिस्थिति में यदि कार्य युक्तियुक्त है, तो मात्र इसलिए वह कार्य अयुक्तियुक्त नहीं बन जाता कि उससे संवेदनशील वादी को क्षति कारित हुई जैसे शोरगुल होने पर सामान्य व्यक्ति को कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता परन्तु वादी को उसकी संवेदनशीलता के कारण व्यवधान उत्पन्न करता है ऐसा व्यवधान वादी के प्रतिकूल उपताप नहीं माना जायेगा।

      सुख-सुविधा या आराम में बाधा– चूँकि विधि तुच्छ बातों पर ध्यान नहीं देती इसलिए इस आधार पर उपताप के लिए कार्यवाही तभी हो सकती है जब वादी की सुख सुविधा में सारवान् बाधा या व्यवधान उत्पन्न हुआ हो। कौन-सी बाधा या व्यवधान सारभूत है। कौन सा नहीं इसका निर्धारण प्रत्येक वाद के तथ्यों व परिस्थितियों के आधार पर अलग अलग किया जाता है।

     डॉ० रामबाज सिंह बनाम बाबू लाल, ए० आई० आर० 1982 इलाहाबाद 285 के वाद में क एक डाक्टर था। ब ने उसके दरवाजे से 40 फुट की दूरी पर ईंट पीसने वाली एक चक्की लगाई जिससे क के दवाखाने में फर्नीचर, कपड़ों आदि पर ईंट का पाउडर (सुख) जम जाती थी। शोरगुल तेज होता था तथा मरीजों को तकलीफ होती थी। इसके अतिरिक्त क का तर्क था कि ब ने चक्की म्युनिसिपैलिटी से बिना लाइसेन्स लिए लगाई थी। अभिनिर्धारित हुआ कि प्रतिवादी व प्राइवेट न्यूसेंस के लिए दायी था औरवादी क नुकसानी पाने का हकदार था।

(3) क्षति – उपताप तभी अनुयोज्य होता है जबकि प्रतिवादी के अनुचित कार्य से वादी को क्षति हुई हो। उपताप के लिए दायित्व स्थापित करने के लिए खति को सारवान् होना चाहिए।

    उपताप के भेद (Kinds of Nuisance) – उपताप दो प्रकार का होता है –

(1) लोक उपताप (Public Nuisance)

(2) प्राइवेट उपताप (Private Nuisance) –

(1) लोक उपताप (Public Nuisance)– ऐसा विधि विरुद्ध कृत्य जिससे जन सामान्य को जीवन, सुरक्षा स्वास्थ्य औरसम्पत्ति के लिए खतरा, आघात, व्यवधान या क्षोभ उत्पन्न हो या लोक अधिकारों में अवरोध उत्पन्न हो, लोक उपताप कहलाता है।

    उदाहरण– जब कोई व्यक्ति लोकमार्ग पर खाई खोदता है या अन्य किसी प्रकार का व्यवधान पैदा करता है तो इसे लोक उपताप कहा जाता है। ऐसे कार्य से बहुत से लोगों को परेशानी हो सकती है लेकिन यदि ऐसे कृत्य के लिए सबको वाद करने का अधिकार दे दिया जाय तो वादों की संख्या में बहुत वृद्धि हो जाएगी, इसलिए वादों की संख्या अधिक न हो, लोक उपताप को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 के अधीन अपराध घोषित किया गया है।

    लोक न्यूसेन्स के लिए वाद का अधिकार- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 91 (1) के अनुसार, लोक उपताप या अन्य ऐसे दोषपूर्ण कार्य की दशा में जिससे लोक पर प्रभाव पड़ना सम्भव है, घोषणा याव्यादेश के लिए या ऐसे अन्य अनुतोष के लिए जो मामले की परिस्थितियों में समुचित हो वाद- (क) महाधिवक्ता द्वारा, या (ख) दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा, ऐसे लोक न्यूसेन्स या अन्य दोषपूर्ण कार्य के कारण ऐसे व्यक्तियों को विशेष नुकसान न होने पर भी न्यायालय की इजाजत से संस्थित किया जा सकता है।

(2) प्राइवेट उपताप (Private Nuisance)- किसी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों की सुख-सुविधा, स्वास्थ्य अथवा सम्पत्ति में किये गये अनुचित हस्तक्षेप को प्राइवेट न्यूसेन्स कहते हैं। प्राइवेट न्यूसेंस का प्रभाव व्यक्ति या व्यक्तियों पर पड़ता है। प्राइवेट न्यूसेंस में प्रतिवादी द्वारा किये गये कृत्यों का अवैध होना आवश्यक नहीं है। प्राइवेट न्यूसेंस प्रतिवादी द्वारा अपनी भूमि पर तब किया जा सकता है जब प्रतिवादी के कार्यों का परिणाम उसकी भूमि तक सीमित न रह कर वादी की भूमि तक पहुँच जाता है।

     प्राइवेट उपताप की कार्यवाही के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है –

(1) दोषपूर्ण बाधा व्यवधान या हस्तक्षेप

(ii) बाधा व्यवधान या हस्तक्षेप भूमि के प्रयोग या उपभोग के साथ हुआ हो; तथा

(iii) क्षति।

     व्यक्ति की सम्पत्ति को हानि या उसके सुख-सुविधा या स्वास्थ्य में हुआ प्रत्येक हस्तक्षेप उपताप की कोटि में नहीं लाया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह साधारण बाधा, शोर या कम्पन को बर्दाश्त करेगा जिससे दूसरे अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें।

    उषाबेन बनाम भाग्य लक्ष्मी चित्र मन्दिर, ए० आई० आर० 1978 गुजरात 13 के मामले में वादी ने प्रतिवादी को जो सिनेमा हाल का मालिक था, “जय सन्तोषी माँ” नामक चित्र को प्रदर्शित करने से रोकने के लिए न्यायालय से व्यादेश जारी करने के लिए वाद संस्थित किया। वादी का तर्क यह था कि उक्त फिल्म प्रदर्शित करने से उसकी धार्मिक भावना को ठेस पहुँचती थी क्योंकि फिल्म में सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती तीनों देवियों को आपस में ईर्ष्यालु दिखाया गया था और उनका उपहास किया गया था। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना एक अनुयोज्य अपकृत्य नहीं था। इसके अतिरिक्त वादी फिल्म को पुनः देखने के लिए बाध्य नहीं था। अतएव प्रतिवादी किसी उपताप के लिए दोषी नहीं थे।

      क्या कोई प्राइवेट व्यक्ति सार्वजनिक उपताप के लिए वाद चला सकता है – प्राइवेट व्यक्ति सामान्यतया सार्वजनिक उपताप के लिए कोई वाद नहीं ला सकता परन्तु जब किसी प्राइवेट व्यक्ति को जनसाधारण की क्षतियों के साथ कोई विशेष क्षति सहन करनी पड़ती है तब पीड़ित व्यक्ति को दीवानी कार्यवाही करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है और तब वह सार्वजनिक उपताप के लिए वाद चला सकता है।

    उदाहरण- ‘अ’ कोई खाई लोकमार्ग पर खोदता है तो आस-पास के बहुत से लोगों को परेशानी या व्यवधान उत्पन्न हो सकता है लेकिन ‘ब’, ‘अ’ द्वारा खोदी गई खाई में गिर जाता है और उसका पैर टूट जाता है तो ‘ब’, ‘अ’ के खिलाफ दीवानी कार्यवाही कर सकता है क्योंकि ‘अ’ द्वारा किया गया कार्य लोक उपताप के साथ-साथ प्राइवेट उपताप की श्रेणी में माना जाएगा और लोक उपताप और प्राइवेट उपताप दोनों के लिए दायी होगा। परन्तु ‘ब’ ऐसा वाद तभी कर सकेगा, जब वह यह साबित कर दे कि –

(i) उसे जनसाधारण द्वारा उठाई गई क्षति से अधिक क्षति हुई है; (ii) ऐसी क्षति सामान्य न होकर विशिष्ट क्षति है:

(iii) क्षति वास्तविक और प्रत्यक्ष है जो उसके किसी कृत्य के परिणाम से उत्पन्न नहीं है।

       रोज बनाम माइल्स (1815) 4 एम० एण्ड एस० 101 के बाद में प्रतिवादी ने अपनी नाव सँकरे सार्वजनिक घाट पर इस प्रकार बाँध रखी थी जिससे वादी अपनी नाव को घाट पर नहीं ले जा पाता था और दूसरे रास्ते से माल लाने और ले जाने में अधिक धन खर्च करना पड़ता था, निर्णीत हुआ कि प्रतिवादी प्राइवेट और लोक दोनों उपताप के लिए दोषी था। लोक न्यूसेंस के लिए दीवानी कार्यवाही चलाने हेतु विशेष क्षति सिद्ध किया जाना आवश्यक है।

     रामदास एण्ड सन्स बनाम भुवनेश्वर प्रसाद सिंह, ए० आई० आर० 1973 पटना 294 के बाद में अपीलार्थी गण रजिस्टर्ड भागीदारी फर्म के भागीदार थे। फर्म ने पाइप लाइन बिछाने का ठेका लिया था। अपीलार्थी ने पाइप लाइन बिछाने के लिए सरकारी अस्पताल के सामने सड़क पर गड्ढा खोद रखा था। गड्ढों को खुला ही छोड़ रखा था। लाइट की भी व्यवस्था नहीं किया था। प्रत्यर्थी जो रात में ताल जा रहा था, गड्ढे में गिर कर घायल हो गया। अभिनिर्धारित हुआ कि अपीलार्थी गण लोक उपताप के साथ-साथ प्राइवेट उपताप के लिए भी दायी थे।

प्रश्न 21. विद्वेष (Malice) का अपकृत्यात्मक उत्तरदायित्व में क्या महत्व है? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करिये।

What is the importance of Malice in tortious liabilities. Explain with the help of case law.

उत्तर– अपकृत्यात्मक उत्तरदायित्व में विद्वेष दो तरह का होता है। पहला विधि के अन्तर्गत विद्वेष (Malice in Law) दूसरा-तथ्य के अन्तर्गत विद्वेष (Malice in fact)।

     विधि के अन्तर्गत विद्वेष (Malice in Law)- विधि के अन्तर्गत विद्वेष का साधारण अर्थ जानबूझ कर किया गया वह कार्य है जो बिना उचित कारण और प्रतिहेतु के किया गया। हो। इसका भावार्थ किसी कार्य को करने के लिए अनुचित हेतु नहीं है।

     हाल्डेन महोदय ने विधि के अन्तर्गत विद्वेष को इस प्रकार स्पष्ट किया है-“यदि एक व्यक्ति विधि का उल्लंघन करते हुए किसी दूसरे व्यक्ति पर क्षति की परिणति करता है तो उसे यह कहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है कि उसने इस कार्य को निर्दोषपूर्ण मनः स्थिति से किया था, यह माना जाता है कि वह विधिक प्रावधानों को जानता था, और उसे विधि के अन्तर्गत ही कार्य करना चाहिए था। अतः वह विधि के अन्तर्गत विद्वेषण का दोषी है, यद्यपि जहाँ तक उसकी मनःस्थिति का प्रश्न है, चाहे उसने अनभिज्ञता में कार्य किया हो, और इस भावबोध के अन्तर्गत उसका कार्य निर्दोषिता से परिपूर्ण हो ।’

(2) तथ्य के अन्तर्गत विद्वेष या बुरा प्रयोजन (Malice in fact or Evil Motive)– यहाँ पर ‘तथ्य के अन्तर्गत विद्वेष’ से तात्पर्य कोई दोषपूर्ण या बुरा प्रयोजन है। प्रतिवादी, जब कोई दोषपूर्ण कार्य घृणा, प्रतिशोध अथवा बुरी इच्छा के प्रभाव में आ कर करता है, तो यह कहा जाता है, कि वह कार्य ‘दुर्भावना’ अथवा ‘विद्वेष’ से किया गया है।

      एक सामान्य नियम के रूप में अपकृत्य विधि के अन्तर्गत किसी व्यक्ति के दायित्व के निर्धारण के लिए हेतु अथवा उद्देश्य पूर्णतः अप्रासंगिक होता है। कोई दो षपूर्ण कार्य मात्र इस कारण विधिपूर्ण नहीं हो जाता क्योंकि उसका प्रयोजन या हेतु अच्छा है। इसी प्रकार कोई विधिपूर्ण कार्य इसलिए दोषपूर्ण नहीं हो जाता है क्योंकि उसके साथ कोई बुरा प्रयोजन अथवा विद्वेष हैं।

      साउथ वेल्स माइनर्स फेडरेशन बनाम गलोभोरग्न कोल कम्पनी के मामले में, वादी, जो कोयले की खानों के मालिक थे, प्रतिवादी के विपरीत कार्यवाही लाये। प्रतिवादी खान कर्मियों के संघ के थे। प्रतिवादी ने अपने कर्मियों को कुछ दिनों का अवकाश ले लेने का आदेश देकर उन्हें अपने नियोजन के संविदा भंग के लिए उत्प्रेरित किया था। प्रतिवादी का कार्य किसी भी प्रकार के विद्वेष से उत्प्रेरित नहीं था क्योंकि उसका उद्देश्य कोयले के मूल्य की वृद्धि करना था जिससे उनके वेतन विनियमित होते थे। प्रतिवादी को उत्तरदायी माना गया।

     मेयर ऑफ बैडफोर्ड कारपोरेशन बनाम पिकिल्स, (1895) ए० सी० 587 के वाद में प्रतिवादी ने वादी के विपरीत कुभावना से प्रेरित होकर अपनी ही भूमि में कुछ खोदाई का कार्य किया था, क्योंकि वादी ने प्रतिवादी की भूमि को उसकी इच्छा के अनुरूप मूल्य देकर खरोदने से इन्कार कर दिया। इस खोदाई के परिणामस्वरूप प्रतिवादी को भूमि के नीचे बहकर बगल की बादी की भूमि में जाने वाला जल बदरंग और कम हो गया। वहाँ वादी को क्षति विद्वेष के कारण हुई थी, परन्तु प्रतिवादी चूँकि अपनी स्वयं की भूमि का विधिपूर्ण प्रयोग कर रहा था, इसलिए उसे उत्तरदायी नहीं माना गया।

      टाउन एरिया कमेटी बनाम प्रभुदयाल, (ए० आई० आर० 1975 इला० 132) के मामले में वादी ने उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन किये बिना कुछ निर्माण कार्य किया था। प्रतिवादियों ने यह निर्माण ध्वस्त कर दिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद दाखिल किया और यह तर्क प्रस्तुत किया कि प्रतिवादियों द्वारा निर्माण ध्वस्त करने का कार्य अवैध था, क्योंकि टाउन एरिया कमेटी के कुछ अधिकारियों ने उस निर्माण को ध्वस्त करने में दुर्भावना का कार्य किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह धारित किया कि अवैध रूप से निर्मित किसी निर्माण का ध्वस्त किया जाना पूर्णत: विधि सम्मत है। न्यायालय ने इस प्रश्न पर कोई जाँच-पड़ताल नहीं की क्या ध्वस्त कार्य विद्वेष के कारण किया गया था अथवा नहीं क्योंकि इसे अप्रासंगिक माना गया था। इस वाद का निर्णय देते समय न्यायाधीश हरि स्वरूप ने कहा कि “वादी केवल तभी प्रतिकर प्राप्त कर सकता है, यदि वह यह साबित कर देता है तक उसे प्रतिवादी के अवैध कार्य से हानि हुई है अन्यथा नहीं, यहाँ दुर्भावना के उठने का प्रश्न ही नहीं उठता। कोई विधिक कार्य चाहे भले वह दुर्भावना से संप्रेरित हो, उसके कर्ता को प्रतिकर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं बनाता मात्र यह कारण कि कुछ अधिकारी एक ऐसे नागरिक के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त हैं, जिसने कोई दोषपूर्ण कार्य किया है, प्राधिकारी के कार्य को अवैध नहीं बना देता, यदि वह अन्यथा विधि के अनुसार किया गया है। केवल दुर्भावना किसी व्यक्ति को इस बात के लिए अनधिकृत नहीं बना देती कि वह किसी गलत कार्य को रोकने के लिए विधिपूर्ण कार्य न करें।”

प्रश्न 22. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 तक के ऐतिहासिक विकास का वर्णन करते हुए इसके उद्देश्य एवं प्रकृति का वर्णन करें।

Mention objects and nature of Consumer Protection Act, 1986 by describing its historical development.

उत्तर– यह युग औद्योगिक क्रान्ति का युग है। उपभोक्ताओं के प्रयोग के लिए कारखानों में असंख्य चीजों का उत्पादन किया जा रहा है जिनका पहले कोई नाम भी नहीं जानता था जैसे-रेफ्रीजरेटर, फ्रीजर, टेलीविजन आदि। इन वस्तुओं की उपभोक्ताओं में खपत आज बहुत बढ़ गई है। समाज के हर वर्ग के लोग इन वस्तुओं को खरीद रहे हैं। फलत: इन वस्तुओं के उत्पादनकर्ता इस बात का भरसक प्रयास करते हैं कि उस वस्तु का मूल्य कम हो भले ही गुणवत्ता कम हो जाय। निम्न आय वर्ग के लोगों को बाध्यतः इन घटिया किस्म के उत्पादनों को खरीदना पड़ता है। यही नहीं इन वर्गों के लोगों में उपभोक्ता संरक्षण से सम्बन्धित विधि की जानकारी भी नहीं होती है। ऐसे उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के लिए अन्य देशों का अनुसरण करते हुए 1986 में भारत में भी संसद ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 पारित किया। पुनः वर्तमान में हमारी संसद ने उपभोक्ता संरक्षण विधेयक, 2019 की पारित कर 9 अगस्त, 2019 को नवीन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 का निर्माण किया।

      औद्योगिकरण के विकास के साथ उत्पादों के त्रुटिपूर्ण निर्माण के फलस्वरूप होने वाली क्षतियों में पर्याप्त वृद्धि हुई है। उपभोक्ताओं में अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरुकता आई है और अपने दावों के चलाने के बारे में स्वैखिक संस्थाओं की सहायता लेने की प्रवृति में वृद्धि होने की आशा है। अगले कुछ वर्षों में और अधिक उपभोक्ता विवाद फोरमों की स्थापना किये जाने की उम्मीद है जिसका कि उपभोक्ता सरलता से लाभ उठा सकेंगे। प्रो० विनफील्ड के अनुसार उपेक्षा अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी के न चाहने पर भी बादी को क्षति पहुँचती है।

    इस तरह उपेक्षापूर्ण दायित्व के निम्नलिखित आवश्यक तत्य है –

(1) सावधानी बरतने का कर्तव्य

(2) कर्तव्य भंग; तथा

(3) कर्तव्य भंग के परिणामस्वरूप हुई क्षति ।।

    अधिनियम का उद्देश्य – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 अपने आप में एक अनोखा अधिनियम था। किसी भी देश में उपभोक्ता विवादों को निपटाने के लिए पृथक न्यायालयों या अधिकरणों की व्यवस्था नहीं की गई है। लेकिन भारत में उपभोक्ताओं के •विवादों को निपटाने के लिए पृथक न्यायालयों की स्थापना की गई है। भारत में उपभोक्ता विवादों को निपटाने के लिए जिला स्तर, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर अर्द्ध न्यायिक निकायों की स्थापना का उपबन्ध करता है और उन्हें स्थापित न्यायालयों की भांति ही अधिकारिता प्रदान करता है। इसका उद्देश्य उपभोक्ताओं को शीघ्रतर और कम खर्चीला न्याय प्रदान करना है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य उपभोक्ताओं के निम्नलिखित अधिकारों का संवर्द्धन और संरक्षण करना है –

(क) जीवन और सम्पत्ति के लिए परिसंकटमय माल के विपणन के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार;

(ख) माल की क्वालिटी, मात्रा, शक्ति, मानक और मूल्य के बारे में सूचित किये जाने का अधिकार जिससे अनुचित व्यापारिक व्यवहार से उपभोक्ता का संरक्षण किया जा सके:

(ग) जहाँ भी सम्भव हो वहाँ प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर विभिन्न किस्मों का माल सुलभ कराने का आश्वासन दिये जाने का अधिकार;

(घ) अनुचित व्यापारिक व्यवहार या उपभोक्ता के अनैतिक शोषण के विरुद्ध प्रतितोष प्राप्त करने का अधिकार;

(ङ) उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार ।

      उपर्युक्त उद्देश्यों का संवर्द्धन और संरक्षण करने के लिए जिला स्तर, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों की स्थापना का उपबन्ध किया गया है। भारतीय उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के बनाने का उद्देश्य इन उद्देश्यों को अधिक सुदृढ़ एवं सफल बनाना है।

     लखनऊ विकास अधिकारी बनाम एम० के० गुप्ता, ए० आई० आर० (1994) एस० सी० 787 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 एक सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से बनाया गया अधिनियम है इसलिए इसके उपबन्धों का निर्वाचन उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए।

     संरक्षण की प्रकृति- अधिनियम की धारा 100 यह कहती है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि उपबन्धों के अतिरिक्त होंगे न कि उसके अल्पीकरण में इसका तात्पर्य यह है कि अधिनियम उपभोक्ताओं को एक अतिरिक्त उपचार प्रदान करता है, किन्तु पहले से विद्यमान मौलिक विधियों को समाप्त नहीं करता है। अतः वे अभी भी लागू रहेंगी और यदि कोई व्यक्ति उनके अधीन उपचार प्राप्त करना चाहता है तो उसे ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता है। किन्तु इन विधियों के अन्तर्गत उपचार पाने के लिए उन्हें सिविल न्यायालयों में वाद संस्थित करना पड़ेगा जहाँ बहुत विलम्ब होता है और कोर्ट फौस भी देनी पड़ती है।

     उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित अर्द्धन्यायिक निकायों में उपचार पाने को प्रक्रिया बहुत सरल और कम खर्चीली है। इनमें वकील करने की आवश्यकता नहीं है। उपभोक्ता व्यक्तिगत रूप से अपना परिवाद प्रस्तुत कर सकता है। यहाँ कोर्ट फीस नहीं लगती है।

प्रश्न 23. (i) जिला उपभोक्ता फोरम की संरचना तथा क्षेत्राधिकार की विवेचना करें। जिला उपभोक्ता फोरम का सदस्य कौन हो सकता है?

Discuss the composition and powers of District Consumer Forum. Who can be member of District Consumer Forum ?

(ii) परिवाद प्राप्त होने पर जिला उपभोक्ता मंच की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।

Discuss the procedure of District Consumer Forum on receipt of complaint.

उत्तर (i) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 का प्रमुख उद्देश्य उपभोक्ता हितो का श्रेष्ठतर (better) संरक्षण तथा इस प्रयोजन हेतु उपभोक्ता विवादों के निपटारा करने हेतु विभिन्न स्तरों पर उपभोक्ता विवाद निपटारा अधिकरणों को स्थापना करना है। उपभोक्ता विवादों का निपटारा करने हेतु उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अन्तर्गत तीन स्तरों पर उपभोक्ता विवाद निपटारा अधिकरणों की स्थापना का प्रावधान किया गया है। जिला स्तर पर उपभोक्ता विवादों का निपटारा करने हेतु जिला आयोग का राज्य स्तर पर राज्य आयोग का तथा केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आयोग के गठन का प्रावधान है।

    जिला उपभोक्ता फोरम की संरचना – प्रत्येक जिला में एक जिला उपभोक्ता फोरम की स्थापना राज्य सरकार द्वारा किए जाने का प्रावधान अधिनियम की धारा 28 के अन्तर्गत है। प्रत्येक राज्य सरकार केन्द्रीय सरकार के पूर्वानुमोदन से राज्य के प्रत्येक जिले में एक जिला आयोग की स्थापना करेगी। परन्तु राज्य सरकार यदि उचित समझे तो किसी जिले में एक से अधिक जिला आयोग स्थापित कर सकेगी।

    अधिनियम की धारा 28 जिला उपभोक्ता फोरम की संरचना के बारे में है। इस धारा के अनुसार प्रत्येक जिला आयोग निम्नलिखित से मिलकर बनेगा- (क) अध्यक्ष (ख) दो से अन्यून और ऐसी संख्या से अनधिक सदस्य, जो केन्द्रीय सरकार के परामर्श से विहित किये जाएं। राज्य सरकार जिला आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति एक चयन समिति की संस्तुति पर करेगी। इस चयन समिति में (1) राज्य आयोग का अध्यक्ष, (2) राज्य सरकार का सचिव, तथा (3) राज्य के उपभोक्ता विभाग का सचिव सम्मिलित होगा।

     जिला उपभोक्ता फोरम (पीठ) का अध्यक्ष वही व्यक्ति हो सकेगा जो किसी जिला न्यायालय का न्यायाधीश है, या किसी जिला न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका है या किसी जिला न्यायालय का न्यायाधीश होने की योग्यता रखता है।

    जिला उपभोक्ता फोरम के अन्य दो सदस्यों की नियुक्ति किसी ऐसे व्यक्तियों में से को जायेगी जो योग्य, सत्यनिष्ठा तथा प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति होंगे तथा जो 35 वर्ष की आयु एवं जिनमें अर्थशास्त्र, विधि, वाणिज्य, लेखाकर्म (Accountancy) या प्रशासन का कम से कम 10 वर्ष का पर्याप्त ज्ञान तथा अनुभव होगा या उससे सम्बन्धित कार्य करने की योग्यता होगी। इन दो सदस्यों में से एक महिला होना आवश्यक है।

    जिला उपभोक्ता फोरम का प्रत्येक सदस्य पाँच वर्ष की समायावधि या पैंसठ वर्ष की आयु तक या इनमें से जो पहले हो अपने पद पर रहेगा। जिला उपभोक्ता फोरम के सदस्यों की पुनर्नियुक्ति नहीं की जा सकेगी। ये सदस्य अपनी पदावधि पूरी होने के पूर्व त्याग पत्र देकर पद त्याग कर सकते हैं।

     जिला आयोग की क्षेत्राधिकारिता (Jurisdiction) (धारा 34 )

     प्रत्येक जिला उपभोक्ता फोरम को अपने जिले की स्थानीय सीमा से सम्बन्धित उन विवादों पर निर्णय का अधिकार होगा जिसमें माल या सेवा का मूल्य तथा दावा प्रतिकर मूल्य एक करोड़ रुपये से अधिक नहीं है। इस प्रकार जिला उपभोक्ता फोरम की आर्थिक क्षेत्राधिकारिता एक करोड़ रुपये तक है।

     परिवाद किये जाने की रीति (धारा 35 ) – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 35 के अनुसार विक्रय या परिदान के लिए सहमत किसी माल के सम्बन्ध में या उपलब्ध कराई गई सेवा के सम्बन्ध में कोई परिवाद निम्नलिखित द्वारा जिला आयोग में किया जा सकेगा जिसके अन्तर्गत इलेक्ट्रॉनिक तरीका भी है (क) (i) उपभोक्ता जिसको ऐसा माल विक्रय या परिदत्त किया गया है अथवा विक्रय या परिदान के लिए सहमति दी गई है या ऐसी सेवाएँ उपलब्ध कराई गई हैं अथवा सहमति प्रदान की गई है, या

(ii) जो ऐसे मालों या सेवाओं के सम्बन्ध में अनुचित व्यापार, व्यवहार का अभिकथन करता है।

(ख) कोई मान्यताप्राप्त उपभोक्ता संगम, चाहे वह उपभोक्ता, जिसे ऐसे मालों का विक्रय किया गया है या परिदान किया गया है या जिसे ऐसे मालों का विक्रय करने या परिदान करने की सहमति दी गई है या ऐसी सेवा प्रदान की गई है या प्रदान करने की सहमति दी गई है या जो ऐसे मालों या सेवाओं के सम्बन्ध में अनुचित व्यापार व्यवहार का अभिकथन करता है, ऐसे संगम का सदस्य है या नहीं;

(ग) एक या एक से अधिक उपभोक्ता, जहाँ अनेक ऐसे उपभोक्ता हैं, जिनका हित समान है, जिला आयोग की अनुज्ञा से सभी उपभोक्ताओं की ओर से या उनके फायदे के लिए इस प्रकार हितबद्ध सभी उपभोक्ता या

(घ) यथास्थिति, केन्द्रीय सरकार, केन्द्रीय प्राधिकारण या राज्य सरकार, परन्तु इस उपधारा के अधीन परिवाद इलेक्ट्रॉनिक रूप में या ऐसी रीति में, जो विहित की जाएँ फाइल किया जा सकेगा।

     धारा 35 (2) के अनुसार प्रत्येक परिवाद के साथ शुल्क संलग्न होगा और ऐसी रीति में संदेय होगा, जिसके अन्तर्गत इलेक्ट्रॉनिक प्ररूप भी है की ऐसी धनराशि देय होगी जो विहित की जाये। ऐसे किसी परिवाद के प्राप्त होने पर जिला आयोग आगे की कार्यवाही का आदेश देगा या उसे अस्वीकृत कर सकेगा किन्तु किसी परिवाद के अस्वीकृत करने के पहले परिवादी को सुनवाई का अवसर प्रदान करना आवश्यक होगा। परन्तु ऐसे परिवाद की ग्राह्यता पर विनिश्चय सामान्य रूप से परिवाद प्राप्त करने की तिथि से 21 दिनों के भीतर कर दिया जाना आवश्यक होगा। जब जिला आयोग परिवाद पर कार्यवाही किये जाने के लिए स्वीकृति दे देता है तो अधिनियम में उपबन्धित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही करेगा। जब उपधारा 3 के अधीन जिला फोरम परिवाद को ग्रहण कर लेता है तो किसी अन्य विधि के द्वारा स्थापित किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण या किसी अधिकारी के समक्ष परिवाद का अन्तरण नहीं किया जा सकता है।

     धारा 35 (2) द्वारा पहली बार उपभोक्ता फोरम के अधीन शुल्क देने का उपबन्ध किया गया है। शुल्क का निर्धारण राज्य सरकार करेगी।

     नेशनल सीड्स कार्पोरेशन लि० बनाम एम० मधुसूदन रेड्डी, ए० आई० आर० (2012) सुप्रीम कोर्ट 1160 के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि सरकारी अभिकरण द्वारा किसानों को घटिया बीज बेचे जाने के विरुद्ध जिला पीठ में परिवाद किया जा सकता है। यद्यपि कि “बीज अधिनियम” उत्तम बीजों की आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु एक विशेष अधिनियम है किन्तु यह किसानों को खराब बीज बेचे जाने के फलस्वरूप उनको हुई हानि की क्षतिपूर्ति का कोई उपबन्ध नहीं करता। इसके अतिरिक्त बीज अधिनियम का कोई भी उपबन्ध उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की प्रयोज्यता को वर्जित नहीं करता।

      जिला आयोग स्थगन आदेश जारी नहीं कर सकता-  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि परिवादों को निपटाते समय जिला आयोग स्थगन आदेश नहीं दे सकता है।

    जिलापीठ द्वारा किये गये प्रत्येक आदेश पर सभी सदस्यों के हस्ताक्षर होंगे। किन्तु जहाँ किसी प्रश्न पर मतभेद है, वहाँ बहुमत की राय जिलापीठ का आदेश होगा।

     पंजाब नेशनल बैंक बनाम कन्प्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल फोरम, ए० आई० आर० (2012) केरल 8 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 14 (1) के अनुसार जिलापीठ को बैंक को वित्तीय सम्पत्ति सुरक्षा व पुनर्निर्माण और प्रतिभूति हित प्रवर्तन अधिनियम, 2002 के अधीन अपने अधिकारों को प्रवर्तित करने के विरुद्ध व्यादेश देने अथवा रोकने की शक्ति नहीं है।

     उच्चतम न्यायालय चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में किये गये दावों में प्रतिकर की धनराशि का परिणाम निर्धारित किये जाने हेतु गुणक विधि की जटिलतापूर्ण प्रक्रिया का प्रयोग किये जाने को लेकर संशयात्मक रहा है। बलराम प्रसाद बनाम कुनाल साहा, (2014) 1 एस० सी० सी० 384 जिसमें उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि मुआवजे की राशि निर्धारण करने में मृतक की प्रतिष्ठा, पद, प्रास्थिति, भविष्य की सम्भावना व शैक्षणिक योग्यता पर विचार किया जाना आवश्यक है। मृतक की भविष्य की सकल आय अर्जन का उचित योग करके उसमें उसके व्यक्तिगत व्ययों को घटा दिया जाना चाहिए।

      इसके साथ ही क्षतिपूर्ति का निर्धारण करते समय मुद्रास्फीति को भी स्थान में रखा जाना चाहिए। जहाँ वाद 15 वर्षों से लम्बित था वहाँ मुद्रा के अवमूल्यन को ध्यान में रखते हुए दावाकर्ता के दावे को मुद्रा के वर्तमान मूल्य के अनुसार बढ़ाया गया।

     जिला आयोग के आदेश के विरुद्ध अपील (धारा 41) – जिला आयोग द्वारा किये गये किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति आदेश की तारीख से 45 दिनों के भीतर आदेश के विरुद्ध ‘राज्य आयोग’ में अपील कर सकेगा। राज्य आयोग उक्त 45 दिनों की समाप्ति के पश्चात् भी अपील ग्रहण कर सकता है यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि उस अवधि के भीतर अपील फाइल न करने का पर्याप्त कारण था। अपील का प्रारूप और रीति राज्य द्वारा बनाए नियमों के अनुसार होगा।

     किन्तु किसी ऐसे व्यक्ति, जिसे जिलापीठ के आदेश के अनुसार किसी धनराशि का भुगतान करना आवश्यक है, द्वारा कोई भी अपील ग्रहण नहीं की जायेगी जब तक अपीलार्थी ने उस धनराशि का 50% या 2500 रुपये, जो भी कम हो, जमा न कर दिया हो।

    परन्तु यह भी कि धारा 80 के अधीन मध्यक्ता द्वारा समझौता के अनुसरण में जिला आयोग द्वारा धारा 81 की उपधारा (1) के अधीन किसी आदेश से कोई अपील नहीं की जाएगी।

(ii) परिवाद प्राप्त होने पर प्रक्रिया (Procedure on receipt of complaint) – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 38 के अनुसार-(1) जिला आयोग किसी परिवाद को ग्रहण करने पर या मध्यक्ता द्वारा परिनिर्धारण के लिए असफल होने की दशा में मध्यक्ता के लिए निर्दिष्ट मामलों के सम्बन्ध में ऐसे परिवाद पर आगे कार्रवाई करेगा।

(2) जहाँ परिवाद किन्हीं मालों से सम्बन्धित है तो जिला आयोग –

(क) ग्रहण किए गए परिवाद की एक प्रति उसके ग्रहण करने की तारीख से इक्कीस दिन के भीतर परिवाद में वर्णित विरोधी पक्षकार को यह निदेश देते हुए निर्देशित करेगा कि वह तीस दिन की अवधि या पन्द्रह से अनधिक ऐसी बढ़ाई गई अवधि के भीतर, जो मंजूर की जाएँ, मामले के बारे में अपना पक्ष कथन प्रस्तुत करें:

(ख) विरोधी पक्षकार खण्ड (क) के अधीन उसकी निर्दिष्ट किसी परिवाद की प्राप्ति पर परिवार में अन्तर्विष्ट अभिकथनों से इन्कार करता है या उनका प्रतिवाद करता है, या जिला आयोग द्वारा दिये गये समय के भीतर अपना प्रश्न प्रस्तुत करने के लिए कोई कार्रवाई करने का लोप करता है या करने में असफल रहता है वहाँ उपभोक्ता विवाद को खण्ड (ग) से खण्ड (छ) में विनिर्दिष्ट रीति में निपटाने के लिए कार्यवाही करेगा:

(ग) परिवादी ने माल में किसी ऐसी त्रुटि का अभिकथन किया है, जिसका अवधारण माल के उचित विश्लेषण या परीक्षण के बिना नहीं किया जा सकता है वहाँ परिवादी से माल का नमूना अभिप्राप्त करेगा, उसे सीलबन्द करेगा और ऐसी रीति में, जो विहित की जाएँ, अधिप्रमाणित करेगा और इस प्रकार सीलबन्द नमूने को इस निदेश के साथ समुचित प्रयोगशाला को निर्देशित करेगा कि ऐसी प्रयोगशाला यह पता लगाने की दृष्टि से ऐसे विश्लेषण या परीक्षण, जो भी आवश्यक हो, करे कि ऐसे माल में परिवाद में अभिकथित कोई त्रुटि है या नहीं अथवा माल में कोई अन्य त्रुटि है या नहीं और उस पर अपनी रिपोर्ट निर्देश की प्राप्ति के पैंतालीस दिन की अवधि के भीतर या ऐसी अवधि के भीतर जिला आयोग द्वारा मंजूर की गई हो, को भेजेगा;

(घ) खण्ड (ग) के अधीन किसी समुचित प्रयोगशाला को माल के किसी नमूने को निर्दिष्ट किये जाने से पूर्व, परिवादी से यह अपेक्षा कर सकेगा कि वह प्रश्नगत मालों के सम्बन्ध में आवश्यक विश्लेषण या परीक्षण करने के लिए समुचित प्रयोगशाला को संदाय के लिए ऐसी फीस, जो विनिर्दिष्ट की जाएँ, आयोग के जमा खाते में जमा करें,

(ङ) समुचित प्रयोगशाला को खण्ड (घ) के अधीन अपने जमा खो में जमा की गई रकम को प्रेषित करेगा जिससे कि वह खण्ड (ग) में वर्णित विश्लेषण या परीक्षण करने के लिए उसे समर्थ बनाया जा सके और समुचित प्रयोगशाला से रिपोर्ट के प्राप्त हो जाने पर विरोधी पक्षकार को ऐसी टिप्पणी जो वह समुचित समझे, के साथ रिपोर्ट की एक प्रति अग्रेषित करेगा;

(च) यदि पक्षकारों में से कोई पक्षकार समुचित प्रयोगशाला के निष्कर्षों की शुद्धता पर विवाद करते हैं या समुचित प्रयोगशाला द्वारा अपनाई गई विश्लेषण या जाँच की पद्धतियों की शुद्धता पर विवाद करते हैं तो विरोधी पक्षकार या परिवादी से यह अपेक्षा करेगा कि वह समुचित प्रयोगशाला द्वारा की गई रिपोर्ट के सम्बन्ध में अपने आक्षेप लिखित में प्रस्तुत करें।

(छ) समुचित प्रयोगशाला द्वारा बनाई गई रिपोर्ट की शुद्धता या अन्यथा के सम्बन्ध में परिवादी के साथ विरोधी पक्षकार को सुने जाने का और खण्ड (च) के अधीन उसके सम्बन्ध में किये गये आक्षेप तथा धारा 39 के अधीन समुचित आदेश जारी करने के बारे में भी युक्तियुक्त वसर देगा।

(3) यदि धारा 36 के अधीन उसके द्वारा स्वीकार किया गया परिवाद उन मालों के सम्बन्ध में है जिनकी बाबत उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया जा सकता या परिवाद किन्हीं सेवाओं से सम्बन्धित है, तो जिला आयोग –

(क) विरोधी पक्षकार को ऐसे परिवाद की एक प्रति निर्दिष्ट करते हुए निदेश देगा कि वह मामले के अपने पक्ष को तीस दिन की अवधि के भीतर या पन्द्रह दिन से अनधिक ऐसी विस्तारित, जो जिला आयोग द्वारा अनुदत की जाए के भीतर प्रस्तुत करे

(ख) जहाँ विरोधी पक्षकार, खण्ड (क) के अधीन उसे निर्दिष्ट की गई परिवाद की प्रति के प्राप्त हो जाने पर परिवाद में अन्तर्विष्ट अभिकथनों का प्रत्याख्यान करता है या उन पर विवाद करता है या जिला आयोग द्वारा प्रदान किये गये समय के भीतर अपने मामले का व्यपदिष्ट करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं करता है या कार्रवाई करने में असफल रहता है, तो उपभोक्ता विवाद का निपटारा –

(1) उसकी सूचना में परिवादी और विरोधी पक्षकार द्वारा लाए गए साक्ष्य के आधार पर यदि विरोधी पक्षकार परिवाद में अन्तर्विष्ट अभिकथनों से इन्कार करता है या उन पर विवाद करता है;  या

(ii) जहाँ विरोधी पक्षकार आयोग द्वारा प्रदान किये गये समय के भीतर अपना मामला व्यपदिष्ट नहीं करता है या करने में असफल रहता है वहाँ परिवादी द्वारा उसके ध्यान में लाए गए साक्ष्य के आधार पर एकपक्षीय कार्यवाही करेगा।

(ग) परिवाद का गुणावगुण के आधार पर विनिश्चय करेगा यदि परिवादी सुनवाई की तारीख को उपस्थित होने में असफल रहता है।

(4) उपधारा (2) और उपधारा (3) के प्रयोजनों के लिए जिला आयोग आदेश द्वारा किसी इलेक्ट्रानिक सेवा प्रदाता से ऐसी सूचना दस्तावेज या अभिलेख उपलब्ध कराने की अपेक्षा कर सकेगा, जो वह उस आदेश में विनिर्दिष्ट करे।

(5) उपधारा (1) और उपधारा (2) में अधिकथित प्रक्रिया का अनुपालन करने वाली कार्यवाहियों को इस आधार पर किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जाएगा कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का अनुपालन नहीं किया गया है।

(6) प्रत्येक परिवाद की सुनवाई जिला आयोग द्वारा शपथ-पत्र और अभिलेख पर रखे गये दस्तावेजी साक्ष्य के आधार पर की जाएगी :

      परन्तु जहाँ सुनवाई के लिए या वैयक्तिक रूप से या वीडियो संगोष्ठी के माध्यम से पक्षकारों की परीक्षा के लिए कोई आवेदन किया जाता है तो जिला आयोग पर्याप्त हेतुक उपदर्शित करने पर और कारणों को अभिलिखित करने के पश्चात् वैसा करने को अनुज्ञात कर सकेगा।

(7) प्रत्येक परिवाद पर यथासम्भव शीघ्र सुनवाई की जाएगी और विरोधी पक्षकार द्वारा सूचना की प्राप्ति की तारीख से तीन मास की अवधि के भीतर परिवाद को विनिश्चित करने का वहाँ प्रयास किया जाएगा जहाँ परिवाद में वस्तुओं के विश्लेषण या परीक्षण की अपेक्षा की जाती है :

     परन्तु जिला आयोग द्वारा स्थगन मामूली तौर पर तब तक मंजूर नहीं किया जाएगा जब तक पर्याप्त हेतुक नहीं दर्शाया जाता है और स्थगन की मंजूरी के कारणों को आयोग द्वारा लेखबद्ध न कर दिया गया हो।

    परन्तु यह और कि जिला आयोग स्थगन के कारण उपगत होने वाली लागतों के सम्बन्ध में ऐसे आदेश करेगा, जैसा कि विनियमों द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाए।

परन्तु यह भी कि इस प्रकार विनिर्दिष्ट अवधि के पश्चात् परिवाद का परिनिर्धारण किये जाने की दशा में जिला आयोग उक्त परिवाद के परिनिर्धारण के समय, उसके कारणों को अभिलिखित करेगा।

(8) जहाँ जिला आयोग के समक्ष किसी कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान, आयोग को यह आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसा अन्तरिम आदेश पारित कर सकेगा, जो मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्यायोचित और उचित हो।

(9) इस धारा के प्रयोजनार्थ जिला आयोग को वही शक्तियाँ होंगी जो निनलिखित विषयों की बाबत वाद का विचारण करते समय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन किसी सिविल न्यायालय में निहित होती हैं अर्थात् :

(क) किसी प्रतिवादी या साक्षी को समन करना तथा हाजिर कराना और शपथ पर साक्षी की परीक्षा करना;

(ख) साक्ष्य के रूप में किसी दस्तावेज या अन्य तात्विक वस्तु के प्रकटोकरण और पेश करने की अपेक्षा करना;

(ग) शपथ-पत्रों पर साक्ष्य प्राप्त करना;

(घ) समुचित प्रयोगशाला से या किसी अन्य सुसंगत स्रोत से सम्बद्ध विश्लेषण या परीक्षण की रिपोर्ट की अपेक्षा करना;

(ङ) किसी साक्षी या दस्तावेज की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना और

(च) कोई अन्य विषय, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा वहित किया जाए।

(10) जिला आयोग के समक्ष प्रत्येक कार्यवाही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 193 और धारा 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जाएगी और जिला आयोग दण्ड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 195 और अध्याय 26 के प्रयोजनार्थ दाण्डिक न्यायालय समझा जाएगा।

(11) जहाँ प्रतिवादी धारा 2 के खण्ड (5) के उपखण्ड (vi) में निर्दिष्ट उपभोक्ता है, तो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की पहली अनुसूची के आदेश के नियम 8 के उपन्ध इस 1 उपान्तरण के अध्यधीन लागू होंगे कि किसी वाद या डिक्री के प्रति उसमें प्रत्येक निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह परिवाद या उस पर जिला आयोग के आदेश के प्रति निर्देश है।

(12) किसी परिवादी जो उपभोक्ता है या विरोधी पक्षकार जिसके विरुद्ध परिवाद फाइल किया गया है, कि मृत्यु की दशा में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 के उपबन्ध इस उपान्तरण के अध्यधीन लागू होंगे कि वादी और प्रतिवादी के प्रति उसमें किया गया प्रत्येक निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह, यथास्थिति, परिवादी या विरोधी पक्षकार के प्रति निर्देश है।

     किन्तु यूरेका इस्टेट्स प्राइवेट लि० बनाम ए० पी० एस० डी० आर० कमीशन, ए० आई० आर० (2005) आन्ध्र प्रदेश 118 के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि जिला फोरम या राज्य आयोग के समक्ष की गई कार्यवाहियों में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 13(4) में विहित सीमा के सिवाय, सिविल प्रक्रिया संहिता की प्रक्रिया लागू नहीं होगी अतः जिला फोरम या राज्य आयोग सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 114 के अधीन पुनर्विलोकन की अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर सकते हैं।

      यदि धारा 38 के अधीन की गई कार्यवाही के अधीन जिलापीठ को यह समाधान हो जाता है कि मामले में परिवाद में विनिर्दिष्ट कोई त्रुटि है या सेवाओं के बारे में कोई अभिकथन साबित हो जाता है तो वह विरोधी पक्षकार को निम्नलिखित में से कोई बातें करने का निर्देश देने वाला आदेश जारी करेगा –

(क) प्रश्नगत माल में से समुचित प्रयोगशाला द्वारा प्रकट की गई त्रुटि को दूर करना;

(ख) माल को उसी वर्णन के नए और त्रुटिहीन माल से बदलना;

(ग) परिवादी द्वारा विरोधी पक्षकार को संदत्त, यथास्थिति, कीमत या प्रभारों (Charges) को परिवादी को वापस लौटाना;

(घ) ऐसी रकम का संदाय करना जो विरोधी पक्षकार की उपेक्षा के कारण उपभोक्ता द्वारा सहन की गई किसी हानि या क्षति के लिए परिवादी को प्रतिकर के रूप में अधिनिर्णीत की गई है।

      परन्तु जिलापीठ को दण्डात्मक क्षतिपूर्ति ऐसी परिस्थितियों में मंजूर करने की भी शक्ति होगी जैसा कि वह उचित समझे।

प्रश्न 24. (i) राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद से आप क्या समझते हैं?

What do you know about the State Consumer Protection Council?

(ii) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अन्तर्गत राज्य आयोग की संरचना तथा क्षेत्राधिकार की चर्चा करें।

Discuss the constitution and jurisdiction of State Commission under Consumer Protection Act, 1986.

उत्तर (i) राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् (State Consumer Protection Council)– राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् से सम्बन्धित प्रावधान उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 6 तथा धारा 7 में किये गये हैं।

     धारा 6 के अनुसार राज्य सरकार अधिसूचना जारी करके (By notification) एक परिषद् (council) की स्थापना करेगी जिसे राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् के नाम से जाना जायेगा।

     धारा 6 की उपधारा (2) के अनुसार राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् में निम्न सदस्य होंगे –

(1) राज्य सरकार के उपभोक्ता मामले के विभाग का प्रभारी मंत्री इस परिषद् का अध्यक्ष होगा।

(2) उपभोक्ता हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकारी तथा गैर सरकारी सदस्य इतनी संख्या में राज्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जा सकेंगे जितनी संख्या में राज्य सरकार उचित समझे।

(3) अन्य शासकीय या अशासकीय सदस्यों की इतनी संख्या, जो दस से अधिक नहीं होगी, जैसा केन्द्रीय सरकार द्वारा नामित किया जाए।

     धारा 6 उपधारा (3) के अनुसार राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् की बैठक आवश्यकतानुसार वर्ष में हो सकती है परन्तु प्रत्येक वर्ष में परिषद् की कम से कम दो बैठक होना अनिवार्य है।

     धारा 6 उपधारा (4) के अनुसार राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् की बैठक का स्थान तथा समय अध्यक्ष द्वारा निर्धारित किया जायेगा तथा परिषद् का कार्य-कलाप राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संचालित किया जायेगा।

      अधिनियम की धारा 7 राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् के उद्देश्यों के बारे में है। इसके अनुसार राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद् का उद्देश्य उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण तथा संवर्धन करना है। जैसे –

(1) जीवन तथा सम्पत्ति के लिए संकटपूर्ण मूल्य या सेवा के विपणन के विरुद्ध संरक्षण।

(2) माल या सेवा की गुणवत्ता, मात्रा, शक्ति, शुद्धता, मानक तथा मूल्य के बारे में सूचित किये जाने का अधिकार जिससे कि अनुचित व्यापारिक व्यवहार से उपभोक्ता को संरक्षण दिया जा सके।

(3) जहाँ भी सम्भव हो प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर विभिन्न किस्मों के माल या सेवा सुलभ कराने के आश्वासन का अधिकार।

(4) सुने जाने का अधिकार तथा उपभोक्ता विवाद निपटारा अधिकरणों के माध्यम से उपचार प्राप्त करने का अधिकार।

(5) अनुचित व्यापारिक व्यवहार या उपभोक्ताओं के अनैतिक शोषण के विरुद्ध उपचार प्राप्त करने का अधिकार।

(6) उपभोक्ता का शिक्षा का अधिकार।

उत्तर (ii) उपभोक्ता विवादों के निपटारा करने हेतु गठित अधिकरणों में राज्य, 2019 आयोग एक अपीलीय अधिकरण (appellate authority) है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 42 राज्य सरकार को प्रत्येक राज्य में एक राज्य आयोग नामक अधिकरण स्थापित करने का अधिकार देती है।

       राज्य आयोग साधारणत: राज्य की राजधानी में कार्य करेगा और ऐसे अन्य स्थानों पर अपने कृत्यों को पालन करेगा जो राज्य सरकार शासकीय राजपत्र में राज्य सरकार के परामर्श से अधिसूचित करे। परन्तु राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा ऐसे स्थानों पर जो वह ठीक समझे, राज्य आयोग की प्रादेशिक शाखाएं स्थापित कर सकेगी।

     धारा 42 की उपधारा (3) के अनुसार, प्रत्येक राज्य आयोग निम्नलिखित से मिलकर बनेगा- (क) एक अध्यक्ष और (ख) चार से अन्यून और उतनी संख्या से अनधिक सदस्य, जो केन्द्रीय सरकार के परामर्श से विहित की जाएँ।

    केन्द्रीय सरकार, राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए अर्हता, भर्ती की पद्धति, नियुक्ति प्रक्रिया, पदावधि, उनके त्यागपत्र और उन्हें हटाए जाने हेतु उपबन्ध करने के लिए अधिसूचना द्वारा नियम बना सकेगी। (धारा 43 )

    राज्य आयोग के अधिकारी और कर्मचारी (धारा 44 ) – (1) राज्य सरकार, राज्य आयोग को उसके कृत्यों को निर्वहन करने में सहायता करने के लिए अपेक्षित अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की प्रकृति और प्रवर्गों का अवधारण करेगी और वह आयोग को ऐसे अधिकारी तथा अन्य कर्मचारी उपलब्ध कराएगी जो वह ठीक समझे।

(2) राज्य आयोग के अधिकारी और अन्य कर्मचारी, अध्यक्ष के साधारण अधीक्षण के अधीन अपने कृत्यों का निर्वहन करेंगे।

(3) राज्य आयोग के अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को संदेय वेतन और भत्ते और सेवा के अन्य निबन्धन और शर्तें वे होंगी, जो विहित की जाएँ।

      राज्य आयोग का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of State Commission) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 47 राज्य आयोग की अधिकारिता के बारे में है। इस अधिनियम के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए राज्य आयोग के तीन प्रकार की अधिकारिता प्राप्त है –

(1) प्रारम्भिक अधिकारिता- (i) ऐसे परिवादों को ग्रहण करना जहाँ माल या सेवाओं का मूल्य और दावा प्रतिकर एक करोड़ रुपये से अधिक है किन्तु 10 करोड़ से अधिक नहीं है।

    परन्तु जहाँ केन्द्रीय सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है वहाँ वह ऐसा अन्य मूल्य विहित कर सकेगी जो वह ठीक समझे।

(ii) अनुचित संविदाओं के विरुद्ध परिवाद जहाँ प्रतिफल के रूप में संदत्त माल या सेवाओं का मूल्य दस करोड़ रुपये से अधिक नहीं है।

(2) अपीलीय अधिकारिता – उस राज्य के भीतर किसी जिला आयोग के आदेशों के विरुद्ध अपोल ग्रहण करना।

(3) पुनरीक्षण सम्बन्धी अधिकारिता – जहाँ राज्य आयोग को यह प्रतीत हो कि जिलापीठ ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो विधि द्वारा उसमें निहित नहीं है या ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहता है या अपनी अधिकारिता का प्रयोग अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता किया गया है तो वह ऐसे उपभोक्ता विवाद को जो जिलापीठ में लम्बित है या उसके द्वारा विनिश्चित किया गया है, के अभिलेखों को मंगा सकता है और समुचित आदेश पारित कर सकता है।

(2) राज्य आयोग की अधिकारिता, शक्तियों और प्राधिकार का प्रयोग उसकी न्यायपीठों द्वारा किया जा सकेगा और न्यायपीठ का गठन अध्यक्ष द्वारा एक या अधिक सदस्यों से किया जा सकेगा जैसा अध्यक्ष ठीक समझे:

परन्तु ज्येष्ठतम सदस्य न्यायपीठ की अध्यक्षता करेगा।

(3) जहाँ न्यायपीठ के सदस्यों में किसी मुद्दे पर राय पर मतभेद है वहाँ मुद्दों पर बहुमत की राय के अनुसार विनिश्चय किया जाएगा, यदि बहुमत है किन्तु यदि सदस्य बराबर-बराबर घंटे हुए हैं, तब वे उस मुद्दे या उन मुद्दों का कथन करेंगे जिन पर उनमें मतभेद है और अध्यक्ष को निर्देश करेंगे जो या तो मुद्दे या महों को स्वयं सुनेगा या ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सुनवाई के लिए मामलों को अन्य सदस्यों में एक अधिक सदस्य को निर्दिष्ट करेगा और ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सदस्यों के बहुमत की राय के अनुसार विनिश्चय किया जाएगा जिन्होंने मामले पर सुनवाई की है जिसमें वे सदस्य भी हैं जिन्होंने इसे पहली बार सुना था:

    परन्तु यथास्थिति, अध्यक्ष या अन्य सदस्य ऐसे निर्देश की तारीख से एक मास की अवधि के भीतर इस निर्दिष्ट मुद्दा या मुद्दों पर राय देगा या देंगे।

(4) परिवाद ऐसे राज्य आयोग में संस्थित किया जाएगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर –

(क) विरोधी पक्षकार या जहाँ एक से अधिक विरोधी पक्षकार हैं वहाँ विरोधी पक्षकारों में उनमें से प्रत्येक पक्षकार परिवाद के संस्थित किये जाने के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारबार करता है या शाखा कार्यालय रखता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है, या

(ख) जहाँ एक से अधिक विरोधी पक्षकार हैं वहाँ विरोधी पक्षकारों में से कोई भी विरोधी पक्षकार परिवाद के संस्थित किये जाने के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारबार करता है या शाखा कार्यालय रखता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है, परन्तु यह तब जब ऐसे मामले में राज्य आयोग की अनुज्ञा प्रदान की गई हो, या

(ग) वाद हेतुक पूर्णत: या भागत: उत्पन्न होता है;

(घ) परिवादी निवास करता है या काम करता है।

अपील– उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 51 के अनुसार, राज्य आयोग द्वारा किये गये किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति धारा 47 की उपधारा (1) के खण्ड (क) के उपखण्ड (i) या (ii) द्वारा प्रदत्त अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए आदेश की तारीख से तीस दिन की अवधि के भीतर ऐसे प्ररूप और रीति में, जो विहित की जाए, अपील कर सकेगा;

     परन्तु यह कि राष्ट्रीय आयोग तीस दिन की उक्त अवधि के अवसान के पश्चात् तब तक कोई अपील स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि उसका यह समाधान नहीं हो जाता है कि उस अवधि के भीतर अपील न करने के पर्याप्त कारण थे :

    परन्तु यह भी कि किसी व्यक्ति की, जिससे राज्य आयोग के आदेश के निबन्धनों में किसी रकम का संदाय करने की अपेक्षा है, कोई अपील राष्ट्रीय आयोग द्वारा तब तक स्वीकार नहीं की जाएगी, जब तक अपीलार्थी ने विहित रीति में उस रकम का पचास प्रतिशत जमा नहीं कर दिया है।

    इस अधिनियम या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय राज्य आयोग द्वारा अपील में पारित किसी आदेश से राष्ट्रीय आयोग में अपील की जाएगी यदि राष्ट्रीय आयोग का यह समाधान हो जाता है कि मामले में विधि का सारवान प्रश्न अन्तर्वलित हैं।

   किसी ऐसी अपील में जिसमें विधि एक प्रश्न अन्तर्वलित है, अपील के ज्ञापन में अपील में अन्तर्वलित विधि के सारवान प्रश्न का ठीक ठीक कथन होगा।

   जहाँ राष्ट्रीय आयोग का यह समाधान हो जाता है कि किसी मामले में विधि का सारवान प्रश्न अन्तर्वलित है वहाँ वह उस प्रश्न को तैयार करेगा और उस प्रश्न पर अपील की सुनवाई करेगा।

    धारा 52 के अनुसार, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग के समक्ष फाइल की गई अपील पर यथासम्भव शीघ्र सुनवाई की जाएगी और अपील के उसके ग्रहण किये जाने की तारीख से नब्बे दिन की अवधि के भीतर अन्तिम रूप से निपटान करने के लिए प्रयास किया जाएगा।

      महेन्द्र ठाकुर बनाम देवेन्द्र कोठारी [1992 (1) सी० पी० आर० 23.] राज्य आयोग लखनऊ के बाद में यह निर्णय दिया गया कि अपील कर्ता को अपील करने में विलम्ब को क्षमा करने के लिए आवेदन देते समय यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि अपील प्रस्तुत करने में तत्परता से कार्य किया गया था। यदि कोई कार्य समुचित देख-रेख तथा ध्यान देकर नहीं किया जाता तो यह नहीं माना जा सकता कि कार्य तत्परता से किया गया है।

प्रश्न 25. राष्ट्रीय आयोग के गठन, संरचना तथा क्षेत्राधिकार की व्याख्या करें।

Discuss the establishment, constitution and jurisdiction of National Commission.

उत्तर– उपभोक्ता विवादों के निपटारा हेतु उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के अन्तर्गत गठित किये जाने वाले उपभोक्ता विवाद निपटारा अधिकरणों में राष्ट्रीय आयोग सर्वोच्च अधिकरण है। राष्ट्रीय आयोग पूरे देश में एक होगा।

      राष्ट्रीय आयोग का गठन धारा 54 में प्रदत्त प्राधिकारों के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार द्वारा किया जायेगा। धारा 53 (1) के अनुसार केन्द्रीय सरकार एक राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद परितोष आयोग का गठन अधिसूचना द्वारा करेगी। राष्ट्रीय आयोग की संरचना से सम्बन्धित प्रावधान अधिनियम की धारा 54 के अन्तर्गत किया गया है।

धारा 54 के अनुसार राष्ट्रीय आयोग का गठन एक अध्यक्ष तथा चार अन्य सदस्यों से मिलकर होगा।

        राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की अर्हताएँ (धारा 55) – केन्द्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की अर्हताओं, नियुक्ति, पद के निबन्धन, वेतन और भत्ते, पद त्याग, हटाया जाना और सेवा के अन्य निबन्धनों और शर्तों का उपबन्ध करने के लिए नियम बना सकेगी:

     परन्तु राष्ट्रीय आयोग का अध्यक्ष और सदस्य ऐसी अवधि के लिए पद धारण करेंगे जो केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाये गये नियमों में विनिर्दिष्ट किए जाएँ किन्तु ऐसी तारीख से पाँच वर्ष से अनधिक जिसको वह अपना पद ग्रहण करता है और नियुक्ति के लिए पात्र होंगे:

    परन्तु यह और कि कोई अध्यक्ष या सदस्य उस रूप में ऐसी आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात्, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गए नियमों में विनिर्दिष्ट की जाए, पद धारण नहीं करेगा जो –

(क) अध्यक्ष की दशा में सत्तर वर्ष की आयु:

(ख) किसी अन्य सदस्य की दशा में सहसठ वर्ष की आयु से अधिक नहीं होंगे।

(2) राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के न तो वेतन और भत्तों और न ही उनकी सेवा के अन्य निबन्धनों और शर्तों में उनकी नियुक्ति के पश्चात् उनके अलाभकारी रूप में परिवर्तन किया जाएगा।

    राष्ट्रीय आयोग के अन्य अधिकारी और कर्मचारी (धारा 57 ) – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 57 के अनुसार (1) केन्द्रीय सरकार, राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष के परामर्श से राष्ट्रीय आयोग की उसके कृत्यों के निर्वहन में सहायता करने के लिए से अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की ऐसी संख्या का उपबन्ध करेगी, जो वह ठीक समझे।

(2) राष्ट्रीय आयोग के अधिकारी और अन्य कर्मचारी राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष के साधारण अधोक्षण में अपने कृत्यों का निर्वहन करेंगे।

(3) राष्ट्रीय आयोग के अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को संदेय वेतन तथा भत्ते तथा सेवा के अन्य निबन्धन और शर्तें वे जो विहित की जाएँ।

राष्ट्रीय आयोग की क्षेत्राधिकारिता (Jurisdiction of National Commission)– उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 58 के अन्तर्गत राष्ट्रीय आयोग को निम्नलिखित अधिकारिता होगी –

(1) प्रारम्भिक अधिकारिता

(2) अपीलीय अधिकारिता

(3) पुनरीक्षण सम्बन्धी अधिकारिता

(1) प्रारम्भिक अधिकारिता – (i) ऐसे परिवादों को ग्रहण करना जहाँ सेवाओं का मूल्य अथवा दासा प्रतिकर, दस करोड़ से अधिक है।

     परन्तु जहाँ केन्द्रीय सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है वहाँ वह ऐसा अन्य मूल्य विहित कर सकेगी जो वह ठीक समझे।

(iii) अनुचित संविदाओं के विरुद्ध परिवाद जहाँ प्रतिफल के रूप में संदत्त माल या सेवाओं का मूल्य दस करोड़ रुपये से अधिक है।

(2) अपीलीय अधिकारिता – (1) किसी राज्य आयोग के आदेशों के विरुद्ध अपील ग्रहण करना।

(ii) केन्द्रीय प्राधिकारी के आदेशों के विरुद्ध अपीलें

     अपील करने की सीमा अवधि 30 दिनों तक की है। आयोग अपील का निपटारा को प्रथम तिथि से लेकर 90 दिनों तक की अवधि के भीतर करेगा आयोग के आदेश की प्रतियाँ ‘दोनों पक्षों को निःशुल्क भेजी जायेंगी।

    मारघेश के० पारेख बनाम मयूर एय० मेहता, ए० आई० आर० (2011) सु० को० 249 के मामले में चिकित्सा में असावधानी सिद्ध होने पर राज्य आयोग ने पाँच लाख रुपये प्रतिकर प्रदान करने का आदेश किया था जिसके विरुद्ध चिकित्सकों द्वारा राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपील करने पर आयोग ने अपील को स्वीकृत करते हुए राज्य आयोग के अधिनिर्णय को निरस्त कर दिया था। इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील प्रस्तुत की गयी थी। न्यायालय ने पाया कि राज्य आयोग के समक्ष सुनवाई में चिकित्सकों द्वारा मामले के महत्वपूर्ण अभिलेखों को प्रस्तुत नहीं किया गया था व उपचार करने वाले चिकित्सक का शपथपत्र भी नहीं दिया गया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रीय आयोग इसके लिये कर्त्तव्यबद्ध है कि वह इस लोप को गम्भीरतापूर्वक देखे कि महत्वपूर्ण अभिलेखों व शपथ-पत्र 6 वर्षों तक के दीर्घ काल तक क्यों नहीं प्रस्तुत किया गया जो कि उपचार प्रक्रिया के प्रकटीकरण के लिये महत्त्वपूर्ण थे। अतः राष्ट्रीय आयोग का यह गम्भीरतम लोप न्याय की विफलता कारित करता है। उच्चतम न्यायालय ने अपील को स्वीकृत करते हुए राष्ट्रीय आयोग के निर्णय को निरस्त कर दिया व मामले के पुन: निर्णयन हेतु राष्ट्रीय आयोग की निर्देशित किया।

(3) पुनरीक्षण सम्बन्धी अधिकारिता– यदि राष्ट्रीय आयोग को यह प्रती हो कि राज्य आयोग ने किसी ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो विधि द्वारा उसमें विहित नहीं हैं या जो ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहता है या अपनी अधिकारिता का प्रयोग अवैध रूप से या तात्विक अनियमितता से किया है तो वह ऐसे उपभोक्ता विवाद को राज्य आयोग में लम्बित है या उसके द्वारा विनिश्चय किया गया है उसके अभिलेखों को मंगाना और समुचित आदेश पारित करना।

    उस दशा में जहाँ कि “दण्डात्मक प्रतिकर” हेतु दावा न तो मूल वादपत्र में, न राज्य अधिकारिण के समक्ष और न ही राष्ट्रीय आयोग के समक्ष किया गया हो, वहाँ राष्ट्रीय आयोग द्वारा अपनी पुनरीक्षण अधिकारिता के अधीन दण्डात्मक प्रतिकर प्रदान किया जाना अनुज्ञेय नहीं है। [जनरल मोटर्स (इण्डिया) प्रा० लि० बनाम अशोक रमणिक लाल, (2015) 1 एस० सी० सी० 429]

    सी० सी० आई० चेम्बर्स को० आ० सोसायटी लि० बनाम डी० सी० बैंक लि०, ए० आई० आर० (2004) एस० सी० 184 के मामले में अपीलार्थी जिसका बैंक में खाता था, राष्ट्रीय आयोग में एक परिवाद फाइल किया और बैंक पर सेवा में कमी का आरोप लगाते हुए अभिकथन किया कि उसने अपीलार्थी के ऐसे चेक, जिन पर उसके कूटरचित / जाली हस्ताक्षर बनाये गये थे व ऐसे चेक जिनके अंक बदल दिये गये थे, स्वीकार कर लिये थे परिणामस्वरूप उसके खाते से 75,70,325 रुपये अनुचित रूप से निकल लिये गये थे। राष्ट्रीय आयोग ने बैंक को बिना नोटिस दिये परिवाद को मात्र इसलिए अस्वीकार कर दिया कि उसमें तथ्य व विधि के जटिल प्रश्न अन्तर्ग्रस्त थे और परिवादी को सिविल न्यायालय जाने की सलाह दी गयी।

     उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ऐसे आयोग की स्थापना का मुख्य उद्देश्य परम्परागत न्यायालयों में उनके कार्यों का बोझ कम करना है। अतः मात्र इसलिए कि मामले की निर्णीत किये जाने हेतु अत्यधिक अन्वेषण व साक्ष्य अपेक्षित हैं, कोई भी आयोग उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत परिवादी के लिये अपने द्वार को बन्द नहीं कर सकता है। आयोग का निर्णय अविचारित है, प्रत्यर्थी बैंक को नोटिस दिया जाना व उसके अभिकथन को लिया जाना चाहिए था। केवल तब जब दोनों पक्षों के अभिवचन उपलब्ध हो तभी आयोग जाँच की प्रकृति और परिधि के बारे में अपनी राय निश्चित कर सकता है। उच्चतम न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय आयोग के निर्णय को अपास्त कर दिया और मामले को सुनवाई के लिए उसे पुनः प्रेषित कर दिया।

    राष्ट्रीय आयोग से उच्चतम न्यायालय में अपील (धारा 67) – राष्ट्रीय आयोग के द्वारा पारित किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति आदेश की तारीख से 30 दिनों की अवधि के भीतर उसके आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है [ धारा 21 (क) (i) ] । परन्तु उच्चतम न्यायालय 30 दिनों की अवधि के पश्चात् भी अपील ग्रहण कर सकता है यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपील विलम्ब से फाइल करने का पर्याप्त कारण था। किन्तु ऐसा व्यक्ति जो राष्ट्रीय आयोग के किसी आदेश के तहत किसी धनराशि के भुगतान, करने के दायित्वाधीन भी है उसकी अपील को उच्चतम न्यायालय तब तक ग्रहण नहीं करेगा जब तक उसने उक्त धनराशि का 50% या 50,000 रुपये, जो भी कम हो, विहित रीति से जमा न कर दिया हो।

      आदेशों की अन्तिमता (धारा 68) – जिला आयोग, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग के आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की गई है, तो उसका निर्णय अन्तिम होगा।

     परिसीमा अवधि [ धारा 69] – जिला फोरम, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग किसी भी वाद को ग्रहण नहीं करेंगे यदि वह वाद कारण उत्पन्न होने के दिन से दो वर्ष के भीतर प्रस्तुत नहीं किया जाता है। इस प्रकार उपभोक्ता अधिनियम के अधीन किसी परिवाद की प्रस्तुत करने की परिसीमा अवधि दो वर्ष है। इसके पश्चात् परिवाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।

     किन्तु उक्त अवधि के बीतने के पश्चात् भी परिवाद ग्रहण किया जा सकता है, यदि परिवादी उपर्युक्त उपभोक्ता फोरमों को सन्तुष्ट कर देता है कि उक्त अवधि के भीतर परिवाद फाइल न करने का उसके पास समुचित कारण थे

प्रश्न 26. उपभोक्तावाद क्या है? उपभोक्ता वाद की उपयोगिता एवं विकास की व्याख्या कीजिए।

What is Consumerism? Discuss the utility and progress of Consumerism?

उत्तर – उत्पादक को यह शक्ति या अधिकार है कि वह प्रोडक्ट को डिजायन करें, उसकी रूपरेखा आकार बनायें, विज्ञापन करें, वितरण और मूल्य निर्धारण करें, जबकि उपभोक्ता को केवल यह अधिकार है कि उसे न खरीदें। उत्पादक को अधिक रिस्क उठाना होता है जबकि निषेधाधिकार उपभोक्ता के हाथ होता है। लेकिन उपभोक्ता अक्सर महसूस करता है कि वह इस अधिकार का उपयोग अपने ही हित में करने को कमजोर है इसका कारण स्पर्धा करने वाले उत्पादक की ओर से अपूर्ण या मिथ्या सूचना हो सकती है या पर्याप्त सूचना का अभाव।

     उपभोक्तावाद से तात्पर्य है- उपभोक्तावाद उपलब्ध धन में माल की खरीद से अधिक संतुष्टि प्राप्त करने में उपभोक्ताओं की मदद करेगा, उन्हें प्रतिस्पर्धात्मक दरों पर भी बिना अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस माल प्राप्त करने में सहायक होगा, उन्हें अपने अधिकारों की सम्यक् जानकारी देगा, प्रशिक्षित करेगा। उनके हितों की सीमा बताएगा उनसे सजग रहने का उपाय भी सुझायेगा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को मूलभूत अधिकार, जीवन व वैचारिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इस पदावली को व्यापक अर्थों में लिया जाना चाहिए। जीवन के लिए खाने-पीने, चलने फिरने, अमन चैन से रहने, स्वास्थ्य सुविधायें प्रदान करने में किसी प्रकार का अवरोध नहीं होना चाहिए। अनुच्छेद 19 (1) भी प्रत्येक व्यक्ति को मनचाहे वृत्तिक व्यापार, कारोबार करने के अधिकार की गारण्टी देता है। लेकिन इसके दुरुपयोग पर भी अवरोध लगाता है जिससे कि सामान्य लोगों के व्यवहार पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़ सके।

उपभोक्तावाद की उपयोगिता- सुसंगत एवं प्रगतिशील समाज से निम्नलिखित परिणाम पाने की आशा की जा सकती है –

(1) उत्पादक एवं विक्रेता प्राय: ग्राहकों पर भरोसा नहीं करते परन्तु जब उपभोक्ता अपने अधिकारों के संरक्षण में अधिक ताकतवर लगता है तो व्यापारी अनुचित श्रम व्यवहार करने से बचने लगेंगे।

(2) उपभोक्तावाद व्यापार को ‘फीड बैक’ उपलब्ध करायेगा। यह उत्पादकों को उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को समझने में समर्थ बनायेगा, यह मारकेटिंग कान्सेप्ट, जो उपभोक्ता की प्रकृति पर निर्भर करेगा, को कारगर ढंग से लागू करने में सहायक होगा।

(3) उत्पादक अपने वितरण की सूचियों को उपभोक्ता की आवश्यकतानुसार सूचीबद्ध करने में सफल होंगे। प्रायः जमाखोरी तथा चोरबाजारी से क्षीण आपूर्ति की स्थिति अत्यधिक खराब हो जाती है। वास्तविक मूल्य से अत्यधिक मूल्य ले लेते हैं।

(4) उपभोक्तावाद सरकार को उपभोक्ता हितों के प्रति अत्यधिक उत्तरदायी बनाने में कारगर होगा, उसे सम्बन्धित आवश्यक उपायों को करने के लिए प्रेरित करेगा।

     उपभोक्तावाद का विकास- सर्वप्रथम उपभोक्तावाद का विकास संयुक्त राज्य अमेरिका में 1927 में हुआ और इसको 1936 में आगे विकसित किया गया। आज भी उन्नत देशों में उपभोक्ता स्पष्ट रूप से भारत के उपभोक्ताओं की अपेक्षा अधिकारों एवं हितों के प्रति अत्यधिक जागरूक हैं। 1962 में अमेरिकी राष्ट्रपति जान एफ० कैनेडी और 1965 में राष्ट्रपति विल्सन जानसन ने उपभोक्ता अधिकार पर अधिक जोर दिया तथा उपभोक्तावाद के लिए मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायक बना। 15 मार्च, 1962 में उपभोक्ता के “बिल ऑफ राइट्स’ में 4 अधिकारों को चिन्हित किया गया। यही ‘बिल ऑफ राइट्स’ अमेरिका में सही मायने में उपभोक्ता अधिकारों का मैग्नाकार्टा माना गया।

उपभोक्ताओं के महत्वपूर्ण अधिकारों में सम्मिलित है

(1) अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिसेस में शोषण के विरुद्ध अधिकार;

(2) ऐसे माल व सेवा जिसे उपभोक्ता खरीदते हैं स्वास्थ्य और सुरक्षा के संरक्षण का अधिकार;

(3) उत्पादों के गुण-अवगुण के बारे में सूचना पाने का अधिकार,

(4) शिकायत या सुझाव को सुने जाने का अधिकार;

(5) शिकायतों को दूर कराने का अधिकार;

(6) अनेकानेक माल में सबसे अच्छे माल को लेने चुनने का अधिकार;

(7) जीवन की क्वालिटी को सुरक्षित रखने का अधिकार;

    इस प्रकार अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जापान, आस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि देशों में बड़ी तेजी से उपभोक्ताओं के अधिकारों व हितों के संरक्षण के प्रति जागरूकता आयी। इस प्रकार बहुत देश जहाँ उपभोक्ता हितों के संरक्षण को मान्यता देते हैं वहीं अधिनियम भी बनाते हैं।

     भारत में उपभोक्तावाद – सामान्यतः भारतवर्ष में उपभोक्तावाद नाम की कोई चीज नहीं थी। इसका कारण था भारतीय उपभोक्ता बड़े ही सहनशील, क्षमाशील और अपने अधिकारों तथा हितों के प्रति उदास, असावधान हैं। साधारण नागरिक शिकायत करने और लड़ाई लड़ने के स्थान पर वह कार्यालयों की अवांछित फन्क्शनिंग के दबाव को झेलना बेहतर समझता है अपेक्षाकृत उसका डट कर मुकाबले करने की। इस प्रकार भारत में उपभोक्तावाद अपने शैशवास्था में ही रह गया था जैसे-कन्ज्यूमर गाइडेन्स सोसाइटी ऑफ इण्डिया और कन्ज्यूमर एजुकेशन एण्ड रिसर्च सेण्टर जो प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। भारत में उपभोक्ता संरक्षण की अवधारणा का विकास 1960 और 1970 में हुआ लेकिन 1980 में यह अपने उत्कर्ष पर पहुँच गया। उपभोक्तावाद पर एक सेमिनार जनवरी 1986 में दिल्ली में हुआ जिसमें राज्य सरकारों, स्वैच्छिक संस्थाओं तथा केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधियों ने सक्रिय रूप से भाग लिया और इसी विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 पारित किया गया। पुनः संसद द्वारा 2019 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 पारित किया गया है। जिसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर होगा।

प्रश्न 27. संक्षिप्त टिप्पणी लिखें –

(1) सांविधिक प्राधिकार (Statutory Authority)

(2) अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages )

(3) आवश्यकता के कार्य (Act of necessity)

(4) उपभोक्ता (Consumer)

(5) प्रतिबन्धात्मक व्यापार प्रथा (Prohibited Trade Practice)

(6) सेवा पदावली (Term Service)

उत्तर – (1) सांविधिक प्राधिकार (Statutory Authority) – यदि क्षति किसी ऐसे कार्य से उत्पन्न होती है, जिसे विधान मण्डल ने करने के लिए प्राधिकृत किया है तो वह क्षति वाद योग्य नहीं है। जब कोई कार्य किसी अधिनियम के प्राधिकार से किया। जाता है, तो यह एक पूर्ण प्रतिरक्षा के रूप में मान्य है और क्षत-पक्षकार को उस उपचार के अतिरिक्त कोई अन्य उपचार नहीं मिल सका, जो स्वयं उस संविधि में प्रदान किया गया है।

    उदाहरण– यदि किसी रेल-पथ का निर्माण किया जाता है, तो वह किसी प्राइवेट भूमि के साथ हस्तक्षेप भी हो सकता है। जब रेलगाड़ी चलती है, तब उनके शोर, प्रकम्पन, धुएँ और चिन्गारियों के उड़ने आदि से भी कुछ हानि हो सकती है। ऐसे किसी प्रकार के हस्तक्षेप से चाहे वह भूमि का हस्तक्षेप हो अथवा आनुषंगिक हानि, उसे अपकृत्य मानकर कोई भी कार्यवाही नहीं की जा सकती। किन्तु यदि उसके लिए क्षतिपूर्ति के भुगतान की अधिनियम में व्यवस्था की गई है तो केवल उसके लिए बाद लाया जा सकता है। बाघन बनाम टैफ्फ वेल रेल कम्पनी, (1860) 5 एच० एण्ड एन० 679 के बाद में प्रतिवादी रेल कम्पनी के एक इंजन से निकली हुई चिनगारी ने वादी के जंगल में आग लगा दी, जो रेलवे लाइन के बगल में था। इस कम्पनी को रेलगाड़ी चलाने का प्राधिकार प्राप्त था। वह धारित किया गया कि चूँकि प्रतिवादी ने चिन्गारियों का निकलना रोकने के लिए पर्याप्त सावधानी बरती थी, और उन लोगों ने उस कार्य के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य भी नहीं किया था, जिसके लिए उन्हें प्राधिकृत किया गया था अतः वे उत्तरदायी न थे।

    हैम्मरस्मिथ रेल कम्पनी बनाम ब्राण्ड, (1869) एल० आर० एच० एल० 171 के बाद में रेलगाड़ियों के चलने के कारण उससे उत्पन्न शोर, प्रकम्पन और धुएँ से वादी की सम्पत्ति के मूल्य में बहुत अधिक कमी हो गई। रेल पथ जिस पर ये गाड़ियों चलती थीं सांविधिक प्राधिकार से निर्मित किये गये थे। संविधि द्वारा प्राधिकृत गाड़ियों के कारण जो क्षति हुई थी, वह चूँकि आवश्यकत: आनुषंगिक थी, इसलिए यह धारित किया गया कि क्षतिपूर्ति के लिए कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।

     स्मिथ बनाम लंदन एण्ड साउथ वेस्टर्न रेलवे कम्पनी, (1870) एल० आर० 6 सी० पी० 14 के बाद में रेलवे कम्पनी के कर्मचारियों ने घास और बाड़ों के काट-छाँट के ढेर को उपेक्षा के साथ रेल-पथ के समीप छोड़ दिया। एक इंजन से निकली हुई चिंगारियों के कारण इस ढेर में आग लग गई, वह आग रेल पथ से 200 गज दूर हवा के तेज झोंकों के कारण वादी की झोपड़ी तक पहुँच गई झोपड़ी जलकर राख हो गई। चूँकि यह रेल कम्पनी के कर्मचारियों की उपेक्षा का एक मामला था, अतः रेल कम्पनी उत्तरदायी मानी गई।

उत्तर – (2) अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages) – किसी भी दीवानी (civil) अपकार का उपचार प्रतिकर है और चूँकि अपकृत्य एक दीवानी अपकार है इसलिए यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का कोई अपकृत्य करता है तो उसे उसके द्वारा किये गये क्षति के लिए क्षतिग्रस्त व्यक्ति को प्रतिकर देना पड़ेगा और यहाँ तक कि प्रतिकर कैसा होना चाहिए चूँकि प्रतिकर तो कई प्रकार का होता है जैसे-परिनिर्धारित क्षतिपूर्ति, अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति, अवमानात्मक क्षतिपूर्ति प्रतिकारात्मक क्षतिपूर्ति आदि। अतः सामण्ड, विनफील्ड व अन्य विधिज्ञों की परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि प्रतिकर, अपरिनिर्धारित प्रतिकर (unliquidated damages) होना चाहिये।

    अब यहाँ पर बात यह उठती है कि अपरिनिर्धारित प्रतिकर क्या होता है। जब प्रतिकर के रूप में दी जाने वाली राशि पूर्व निश्चित होती है तो उसे परिनिर्धारित नुकसानी कहते है किन्तु जब प्रतिकर के रूप में देय धनराशि पूर्व-निश्चित नहीं होती तथा वह न्यायालय जो उचित समझे उसे निश्चित करे तो उसे ‘अनिर्धारित नुकसानी’ कहते हैं। अपकृत्य के किसी मामले में पक्षकारों द्वारा प्रतिकर की राशि की संविदा जैसे पूर्व निर्धारण सम्भव नहीं है क्योंकि जब तक कोई अपकृत्य हो नहीं जाता तब तक उसके पक्षकार एक दूसरे को जानते ही नहीं, और इसके अतिरिक्त अपकृत्य के मामले में पहले से ही हानि की मात्रा की कल्पना करना अत्यन्त कठिन है। अतः अनिर्धारित नुकसानी की स्थित में प्रतिकर के निर्धारण का कार्य न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया जाता है।

उत्तर- (3) आवश्यकता के कार्य (Act of necessity) आवश्यकता का बचाव दो सिद्धान्तों पर आधारित है। प्रथम यह कि आवश्यकता कोई विधि नहीं जानती तथा दूसरा यदि बड़ी दुर्घटना को बचाने के लिए कोई छोटा अपकृत्य किया गया है तो उससे होने वाली क्षति के लिए बाद नहीं चलाया जा सकता। अर्थात् बड़ी दुर्घटना को बचाने के लिए यदि आवश्यक है तो कोई छोटी क्षति कारित की जा सकती है। आवश्यकता के कार्य तथा आत्मरक्षा में किए गए कार्य में प्रमुख अन्तर यह है कि आवश्यकता के कार्य में क्षति निर्दोष व्यक्ति को भी हो सकती है परन्तु आत्म प्रतिरक्षा में क्षतिग्रस्त पक्षकार दोषी व्यक्ति होता है। आवश्यकता के कार्य तथा अपरिहार्य दुर्घटना में प्रमुख आधार यह है कि आवश्यकता के कार्य में क्षति आशय के साथ होती है जबकि अपरिहार्य दुर्घटना में प्रतिवादी का आशय क्षति कारित करना नहीं है।

     जहाज से जहाज के भार को हल्का करने के लिए सामन बाहर फेंकना, आग को आगे फैलने से रोकने के लिए बीच के घर को गिरा देना, किसी डूबते व्यक्ति को बचाने के लिए उसकी इच्छा के विरुद्ध पानी से बाहर निकालना, बेहोश व्यक्ति की जान बचाने के उद्देश्य से बेहोश व्यक्ति की सहमति के बिना आपरेशन करना आवश्यकता के कार्य हैं।

     लेग बनाम ग्लैडस्टोन [ (1909) 26 टी० एल० आर० 139.] नामक बाद में भूख हड़ताल पर बैठे व्यक्ति की जान बचाने हेतु उसको जबरदस्ती खाना खिलाना आवश्यकता का कार्य करना गया।

      कोप बनाम शार्प [ (1891) 1 के० वी० 496.] नामक वाद में संलग्न भूमि पर आग फैलने से रोकने के लिए वादी की भूमि पर प्रतिवादी ने प्रवेश किया। यह प्रतिवादी को अतिचार का उत्तरदायी नहीं बनाता परन्तु चार्टर बनाम थोमस [ (1891) क्यू० बी० 673.] नामक वाद में अग्निशमन दल के आगमन के पश्चात् प्रतिवादी ने वादी की भूमि पर प्रवेश किया, वह अतिचार (trespass) का दोषी माना गया।

उत्तर – (4) उपभोक्ता (Consumer)– उपभोक्ता की परिभाषा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (7) में दीगयी है। इसके अनुसार उपभोक्ता ऐसा कोई व्यक्ति अभिप्रेत हैं जो –

(1) किसी ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका संदाय किया जाता है या वचन दिया गया है या भागत: संदाय किया गया है और भागत: वचन दिया गया है या किसी आस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन किसी माल का क्रय करता है और इसके अन्तर्गत ऐसे किसी व्यक्ति से भिन्न, जो ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका प्रदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागत: संदाय किया गया है या भागतः वचन दिया गया है या आस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन माल का क्रय करता है ऐसे माल का कोई प्रयोगकर्ता भी है। जब ऐसा प्रयोग ऐसे व्यक्ति के अनुमोदन से किया जाता है किन्तु इसके अन्तर्गत ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो ऐसे माल को पुनः विक्रय या किसी वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए अभिप्राप्त करता है, और

(2) किसी ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका संदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागत: संदाय किया गया है और भागत: वचन दिया गया है या किसी आस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन सेवाओं को भाड़े पर लेता है या उपभोग करता है और इसके अन्तर्गत ऐसे किसी व्यक्ति से भिन्न जो किसी ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका संदाय किया गया है और वचन दिया गया है और भागत: संदाय किया गया है या भागत: वचन दिया गया है या किसी आस्थगित संदाय की पद्धति के अधीन सेवाओं को भाड़े पर लेता है या उपभोग करता है, ऐसी सेवाओं का कोई हितकारी भी है जब ऐसी सेवाओं का उपयोग प्रथम वर्णित व्यक्ति के अनुमोदन से किया जाता है। किन्तु इसमें वह व्यक्ति सम्मिलित नहीं है जो किसी वाणिज्यिक प्रयोजन से ऐसी सेवाओं का उपयोग करता है।

इस प्रकार कोई व्यक्ति दो प्रकार से उपभोक्ता हो सकता है –

(1) माल का उपभोक्ता (Consumer of Goods); तथा

(2) सेवाओं का उपभोक्ता (Consumer of Services)

    अर्थात् जब कोई व्यक्ति कोई माल खरीदता है जैसे कि पंखा, फ्रिज, गैस का चूल्हा, टी० वी० अथवा कोई अन्य वस्तु तो वह उसका उपभोक्ता हो सकता है। इसी प्रकार जब कोई सेवा या सेवाएँ भाड़े पर लेता है अथवा उसका सेवन करता है, वह उपभोक्ता की श्रेणी में आ जाता है। जैसे कि मैं यदि बैंक में खाता खोलकर बैंक की सेवायें प्राप्त करूँ या अपना या अपनी सम्पत्ति आदि का बीमा करवाऊँ या किसी वाहक द्वारा अपना माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजूं या किसी वकील या डॉक्टर की सेवायें प्राप्त करूं तो मैं उन सेवाओं का उपभोक्ता कहलाऊँगा। यदि खरीदे गये माल में कुछ खराबी है जैसे कि फ्रिज ठीक से काम नहीं करता या खरीदो गयो घड़ी ठीक से नहीं चल रही है तो यह एक उपभोक्ता विवाद बन सकता है।

अधिनियम की धारा 2 (7) में दी हुई परिभाषा को तीन भागों में बाँट सकते हैं –

(1) ऐसा कोई व्यक्ति जो किसी प्रतिफल के लिए किसी माल का क्रय करता है जिसका संदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागत: संदाय किया गया है और भागत; वचन दिया गया है।

(2) इस धारा के अन्तर्गत उपभोक्ता के अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति भी आता है जो क्रेता की अनुमति से माल का प्रयोग करता है या सेवाओं को प्राप्त करता है यद्यपि वह स्वयं क्रेता या सेवाओं का हिताधिकारी नहीं है।

(3) ऐसे प्रतिफल के लिए सेवाओं को भाड़े पर लेता है या उपयोग करता है जिसका संदाय किया गया है या वचन दिया गया है या भागत: संदाय किया गया है और भागत: वचन दिया गया है।

    अपवाद – (1) धारा 2 (i) के अनुसार ‘उपभोक्ता’ के अन्तर्गत ऐसा कोई व्यक्ति नहीं

आता है जो माल को पुनः विक्रय या किसी वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए अभिप्राप्त करता है।

(2) सेवाओं के सन्दर्भ में इसके अन्तर्गत वैयक्तिक सेवा की संविदा के अन्तर्गत कोई निः शुल्क सेवा भी नहीं आती है।

     धारा 2 (7) के उपखण्ड (ii) का स्पष्टीकरण का स्पष्ट करता है कि उपखण्ड (i) के प्रयोजन के लिए वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए स्वरोजगार के साधनों द्वारा अपनी आजीविका का उपार्जन करने के लिए एकमात्र उद्देश्य के लिए माल को क्रय करता है या उन सेवाओं का उपयोग करता है उपभोक्ता में शामिल नहीं है।

     उक्त परिभाषा के अनुसार ‘उपभोक्ता’ वह व्यक्ति है जो कोई माल प्रतिफल के लिए क्रय करता है। इस प्रकार इसके अन्तर्गत प्रतिफल के लिए सभी प्रकार के माल का अन्तरण आता है चाहे वह रुपए देकर या वस्तु के बदले में वस्तु देकर या किसी सेवा के लिए किया गया हो। माल विक्रय अधिनियम के अधीन माल का क्रय केवल रुपए के प्रतिफल तक सीमित है और माल के बदले में माल देने के मामले में लागू नहीं होता है। उपभोक्ता अधिनियम के अधीन यह भी अनिवार्य नहीं है कि प्रतिफल तत्काल दिया जाए, प्रतिफल का संदाय तत्काल किया जा सकता है या संदाय का वचन देकर या भागत: संदाय करके और भागत: वचन देकर या किसी आस्गित संदाय पद्धति के अनुसार भी किया जा सकता है।

      इस प्रकार हम देखते हैं कि अधिनियम में उपभोक्ता शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया गया है। प्रथमतः उक्त परिभाषा को संविदात्मक सम्बन्ध (Privity) के विवाद से पृथक रखा गया है।

    कौन उपभोक्ता नहीं है? (Who is not consumer?) कभी-कभी प्रथम दृष्टि में कोई व्यक्ति उपभोक्ता या क्रेता लग सकता हो परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता और यदि कोई व्यक्ति स्वयं को उपभोक्ता कहता है तो उसे ही यह साबित करना होता है कि वह उपभोक्ता है या नहीं। उपभोक्ता की विशेषता उसमें स्वयं ही पायी जाती है।

जैसे- श्री लक्ष्मी नारायण राइस मिल्स बनाम एफ० सी० आई० (1996) 1 C.P.J. 161N.C. के मामले में कम्पोटिटिव टेण्डर के माध्यम से चावल को अधिक मात्रा खरीदने वाले को उपभोक्ता नहीं माना गया। इसी प्रकार जहीद हुसैन बनाम शाह एण्ड लोहिया आटो, (1991) C.P.J. 56N.C. के बाद में राष्ट्रीय आयोग ने अपीलकर्ता को उपभोक्ता नहीं माना जिसने एक लारी खरीदा था कि ताकि वह खानों से पत्थर उस स्थान तक ले जाये जहाँ से उन्हें बेचा जाना था। लारी खरीदने का उद्देश्य वाणिज्यिक प्रयोजन माना गया क्योंकि ट्रक ऑपरेट करने के पीछे भाड़ा कमाने की बात छिपी थी।

    क्या बस यात्री उपभोक्ता है? – इस सन्दर्भ में प्रभात नलिनी देवी बनाम रश्मि ट्रैवेल्स, (1995) 2. C.P.J. 54 उड़ीसा के मामले में इस बात को लेकर एक विवाद उठा कि यात्री का सामान नष्ट हो जाने पर बस मालिक या कैरियर किस सीमा तक दायित्वाधीन होंगे। इसमें एक महिला का सूटकेस खो गया। पहले तो उसने अपने VIP बैग को अपनी सीट के पास रखा था लेकिन कण्डक्टर के बार-बार कहने पर उसने उसे बस की छत पर रख दिया था। रास्ते में बैग किसी ने चुरा लिया। महिला का दावा था कि उसके बैग में चीजों के अलावा महँगे आभूषण और साड़ियाँ भी थीं और वह एक विवाह समारोह में शामिल होने जा रही थी। परन्तु फोरम तथा आयोग ने महिला की गिनाई गयी वस्तु के होने से इन्कार कर दिया और अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि सामान्यतया एक महिला यात्री जो चीजें व्यक्तिगत रूप से ले जा सकती है, उतने तक के लिए वाहक जिम्मेदार माना जायेगा। ऐसी दशा में उसे 10,000 रुपये प्रतिकर के रूप में दिये जाने का आदेश हुआ। इसे यह स्पष्ट होता है कि बस यात्री भी उपभोक्ता है। जबकि मालापुरम् डिस्ट्रिक्ट प्राइवेट बस आपरेटर्स असोसिएशन, मैनेजर और अन्य बनाम एम० पी० मोहन और अन्य, ए० आई० आर० 2000 केरल 192, के मामले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बस यात्री उपभोक्ता नहीं है और वे इस अधिनियम का लाभ नहीं ले सकते।

    क्या छात्र-छात्राएं उपभोक्ता हैं? – इस सन्दर्भ में अभी तक उच्चतम न्यायालय का कोई विनिश्चय नहीं आया है। इसलिए यह स्पष्ट है कि छात्र-छात्राएँ उपभोक्ता नहीं है। परन्तु अधिनियम की धारा 2 (42) में जिन सेवाओं पर अधिनियम के प्रावधानों के लागू किये जाने की बात कही जाती है उसके अन्तर्गत शैक्षणिक, तकनीकी या व्यावसायिक सेवाओं को सम्मिलित नहीं किया गया है। वैसे अलग-अलग तो माल व सेवाओं के सन्दर्भ में हर छात्र छात्रा और संस्था उपभोक्ता है। लेकिन क्या उपभोक्ता की परिभाषा इनके ऊपर लागू होती है? यही विचारणीय प्रश्न है –

     सेक्रेटरी ऑफ बोर्ड इण्टरमीडिएट एजुकेशन बनाम एम० सुरेश (1992) | C.P.R. 214, आन्ध्र प्रदेश राज्य आयोग तथा रुचिका भाटिया बनाम सी० वी० एम० ई०, (1995) 2 C.P.J. 969, दिल्ली तथा रजिस्ट्रार इवैलुएशन, कर्नाटक यूनिवर्सिटी बनाम पूर्णिमा भण्डारी, (1992) 2 C.P.R. 27 N.C. के मामलों में राष्ट्रीय आयोग ने स्पष्ट शब्दों में परीक्षार्थी/शिक्षार्थी को अधिनियम की परिधि में माना है तथा प्रतिपक्षियों की दलीलों को अमान्य कर दिया है। इस प्रकार ढेरों उदाहरणों से स्पष्ट है कि छात्र-छात्राएँ न केवल उपभोक्ता हैं बल्कि वे बहैसियत उपभोक्ता के अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए प्रेरणा प्रदान करते हैं।

    एबेल पाचेको ग्रैसियस बनाम प्रिंसिपल भारतीय विद्यापीठ कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, (1992) | C.P.J. 105 महाराष्ट्र के निर्णय से यह स्पष्ट है कि छात्रों की शिकायत को दूर करने के लिए जिला फोरम उचित कार्य कर सकता है। इसमें अपीलकर्ता के पुत्र ने प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर प्रतिपक्षी कालेज की इंजीनियरिंग कोर्स के प्रथम वर्ष में प्रवेश के लिए ट्यूशन फीस के रूप में 8,250 रुपये तथा छात्रावास शुल्क के बतौर 8,875 रुपये जमा किये। पुनः संयुक्त प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर अन्यत्र नाम लिखवाने के उद्देश्य से जमा की गयी राशि के रिफण्ड करने की प्रार्थना किया जिस पर 2,364 रुपये हो वापस किया गया। पूरी राशि न मिलने पर छात्र ने जिला फोरम में परिवाद प्रस्तुत किया परन्तु वहाँ के आदेश से व्यथित होकर महाराष्ट्र राज्य आयोग के समक्ष संरक्षक ने अपील दाखिल किया जिसे स्वीकार करते हुए आयोग ने स्पष्ट किया कि शिक्षण संस्था में विद्यार्थी आवश्यक रूप से उपभोक्ता होता है। यदि शुल्क लिया जाता है तो शिक्षा दी जानी चाहिए। ऐसा न करना सेवा में कमी माना जायेगा। छात्र को पूरी स्वतन्त्रता होती है कि वह उचित कारणों से अपना प्रवेश रद्द करा दे। उसे किसी एक संस्था में अध्ययन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वापसी का सिद्धान्त दैनिक जीवन में एक सिद्धान्त सा बन गया है। अतः इस मामले में छात्र का शिक्षा शुल्क न लौटाना अनुचित, अवैध एक अतार्किक है। इसी आधार पर आयोग ने आदेश दिया कि ट्यूशन फीस की बकाया राशि 5816 रुपये 30 दिनों के भीतर लौटा दिये जायें नहीं तो उसके वसूल करने की तिथि तक 12 प्रतिशत की दर से ब्याज भी देना होगा। कालेज द्वारा डी० फार्मेसी में नियम विरुद्ध प्रवेश देना अवैध और सेवा में कमी माना जायेगा।

     क्या अध्यापक के विरुद्ध छात्र उपभोक्ता है? – इसका उत्तर कलकत्ता के उपभोक्ता फोरम के एक वाद में मिलता है। फोरम में छात्रा के पिता ने स्वयं एवं छात्रा की ओर से इस आशय का परिवाद प्रस्तुत किया कि स्कूल की अध्यापिका द्वारा लड़की का ट्यूशन न कराये जाने से वह नाराज है। परीक्षा में छात्रा को फेल कर दिया गया है तथा बोर्ड की परीक्षा में उसे बैठने से रोका जा रहा है। परीक्षा में बैठने की सम्भावना न दिखने पर वह उपभोक्ता फोरम की शरण में गया। इस पर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने तथ्यों, सुसंगत परिस्थितियों तथा सम्बन्धित कानून पर बड़ी गहराई से विचार किया और उपभोक्ता तथा छात्र के अर्थ को स्पष्ट किया। छात्र का अर्थ है कोई भी व्यक्ति जो अध्ययन करे या अध्यापन के प्रति समर्पण का भाव रखता हो, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अध्यापक व छात्र के बीच ‘कान्ट्रैक्ट ऑफ पर्सनल सर्विस’ नहीं होता। अध्यापक द्वारा किया जाने वाला विद्यालय का कार्य अधिनियम के अन्तर्गत परिभाषित ‘सेवा’ शब्दों की परिधि में नहीं आता। छात्र द्वारा दी जाने वाली फीस सेवा शुल्क नहीं होती। शिक्षा का अर्थ सामान्य अध्ययन में किसी को प्रशिक्षित करना है। न्यायालय ने अपने निर्णय में और भी स्पष्ट किया कि शिक्षा केवल विद्यालयों में निर्देशों तक सीमित नहीं है। उसका क्षेत्र व्यापक होता है जिसमें नैतिक, बौद्धिक, शारीरिक व मानसिक विकास भी आते हैं इससे स्पष्ट है कि शिक्षक उपभोक्ता नहीं और शिक्षकों के विरुद्ध फोरम में परिवाद सन्धार्य नहीं होगा।

उत्तर- ( 5 ) प्रतिबन्धात्मक व्यापार प्रथा (Prohibited Trade Practice) [ धारा 2 (41) ] – प्रतिबन्धात्मक व्यापार प्रथा से तात्पर्य ऐसी व्यापारिक प्रथा से है जिसकी प्रवृत्ति मामलों या सेवाओं से सम्बन्धित बाजार में ऐसी रीति में कीमत की हेराफेरी या परिदान में इसकी शर्तों में परिवर्तन करने वाली हो या आपूर्ति के बहाव को प्रभावित करने वाली हो ताकि उपभोक्ताओं पर उचित कीमतें या प्रतिबन्ध अधिरोपित किया जा सके और उसमें निम्नलिखित बातें भी सम्मिलित होंगी –

(क) उस अवधि से अधिक विलम्ब जिस पर ऐसे मालों की आपूर्ति में या सेवाओं को प्रदान करने में व्यापारी द्वारा करार किया गया है जिससे कीमत में वृद्धि हो गई या होने की सम्भावना है;

(ख) ऐसी कोई व्यापार प्रथा जो किसी माल या सेवा को क्रय करने या उपयोग करने के लिए पुरोभाव्य शर्त के रूप में अन्य माल या सेवा कम करने या उपयोग करने की अपेक्षा करती है।

इस परिभाषा के अनुसार ऐसे मामले आयेंगे जहाँ व्यापारी ऐसे माल को बेचता है जो विक्रय लायक नहीं है या जिनकी माँग बाजार में बहुत नहीं है। ऐसे मामलों का निपटारा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित प्राधिकरणों द्वारा किया जायेगा।

उदाहरण- एक रसोई चूल्हा विक्रय करने वाला व्यापारी यह पूर्ववर्ती शर्त लगाता है। कि वह गैस कनेक्शन तभी देगा जब क्रेता गैस का चूल्हा भी खरीदेगा।

उत्तर- (6) सेवा पदावली (Term Service) – उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का लाभ उठाने के लिए किसी परिवादी को यह साबित करना होगा कि (1) वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (7) के अन्तर्गत परिभाषित उपभोक्ता पदावली को सन्तुष्ट करता है, (2) वह जिसके विरुद्ध शिकायत कर रहा है वह ‘सेवा’ पदावली को सन्तुष्ट करता तथा (3) यह कि विपक्षी द्वारा प्रदान की गई सेवा में कमी या त्रुटि की गई जिसके फलस्वरूप उसे कोई क्षति उठानी पड़ी।

    उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (42) में ‘सेवा’ पदावली को परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार ‘सेवा’ से तात्पर्य किसी ऐसी सेवा से है जो सम्भावित प्रयोग कर्ताओं को उपलब्ध करायी जाती है तथा सेवा के अन्तर्गत बैंककार्य (Banking), वित्तपोषण (financing), बीमा (insurance). परिवहन (transportation), प्रसंस्करण, विद्युत या अन्य ऊर्जा के प्रदाय बोर्ड या विकास, मनोरंजन, गृह निर्माण, आमोद-प्रमोद, समाचार तथा अन्य जानकारी उपलब्ध कराने वाली सुविधा सम्मिलित है।

      परन्तु ‘सेवा’ के अन्तर्गत निःशुल्क या व्यक्तिगत सेवा संविदा के अधीन सेवा का किया जाना नहीं है विभिन्न वादों में विभिन्न लोक सेवाओं को इस अधिनियम के अन्तर्गत सेवा माना गया है।

     चीफ जनरल मैनेजर महानगर टेलीफोन निगम बनाम वी० एम० नादकर्णी, (1992) सी० पी० जे० 321 राष्ट्रीय आयोग के बाद में दूरसंचार विभाग द्वारा टेलीफोन कनेक्शन प्रदान किये जाने के कारण सड़कों के टूट-फूट जाने से क्षति हुई। दूर संचार विभाग द्वारा सड़कों की मरम्मत नहीं करायी गयी थी। राष्ट्रीय आयोग ने निर्णय दिया कि परिवादी उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आता तथा परिवाद निरस्त कर दिया गया।

     ए० आर० नारायण बनाम यू० को० बैंक, (1992) सी० पी० जे० 286 राष्ट्रीय आयोग के बाद में भारत सरकार तथा रिवर्ज बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा बैंकों को ऋण प्रदान करने के सम्बन्ध में जो निर्देश जारी किए गए हैं उन्हें मात्र निर्देशक रेखा (Guide Line) माना गया है। बैंकों को ऋण सुविधा देते समय साख योग्यता, ऋण पुनर्भुगतान को देखना होता है। परिवादी ने बैंक को अपना ऋण नहीं चुकाया था। राष्ट्रीय आयोग ने निर्णय दिया कि बैंक द्वारा परिवादी के ऋण प्राप्त करने हेतु दिये गए आवेदन पत्र को निरस्त कर देना सेवा की कमी की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आता।

     डिविजनल मैनेजर भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम श्री भावनम श्री निवास रेड्डी, (1991) 2 सौ० पी० जे० 144 राष्ट्रीय आयोग के बाद में बीमा कम्पनी के विरुद्ध सेवा में कमी के आधार पर परिवाद प्रस्तुत किया गया। राष्ट्रीय आयोग ने यह निर्णय दिया कि वीमा सेवा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत सेवा मानो जाएगी।

     मंजू सिंह बनाम म० प्र० विद्युत परिषद, (1992) सी० पी० जे० 73 राष्ट्रीय आयोग के बाद में परिवादों के विरुद्ध विद्युत बिल बकाया था। परिवादी को इस बिल का भुगतान करने हेतु अतिरिक्त समय भी प्रदान किया गया। इस अतिरिक्त समय में भी परिवादी विद्युत बिल जमा नहीं कर सका। इस कारण परिवादी का विद्युत कनेक्शन काट दिया गया। राष्ट्रीय आयोग ने यह निर्णय दिया कि विद्युत परिषद् का यह कार्य उचित था।

प्रश्न 28. संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।

Write short notes.

(1) अनुचित व्यापार प्रथा  (Unfair Trade Practice)

(2) सेवा में कमी (Deficiency of Service)

(3) माल में त्रुटि (Defect in Goods)

उत्तर – (1) अनुचित व्यापार प्रथा (Unfair Trade Practice) [ धारा 2 ( 47 ) ] – “अनुचित व्यापार प्रथा” के अधीन क्षतिपूर्ति का दावा किये गये मामलों का सारभूत तत्व यह है कि यह सिद्ध किया जाना अनिवार्य है कि ऐसे अनुचित व्यापार से उपभोक्ता को क्षति पहुंची है। मात्र अनुचित व्यापार प्रथा का सबूत प्रतिकर प्रदान किये जाने हेतु पर्याप्त नहीं है जब तक कि उससे हुई क्षति को सिद्ध न कर दिया जाय। (जनरल मोटर्स (इण्डिया) प्रा० लि० बनाम अशोक रमणिक लाल (2015) 1 एस० सी० सी० 429]

     परिवाद व्यापारी के अनुचित व्यापार प्रथा के विरुद्ध होना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप परिवादी को क्षति या हानि पहुँची हो।

    धारा 2 (47) के अनुसार “अनुचित व्यापार प्रथा” से तात्पर्य किसी माल की बिक्री, प्रयोग या आपूर्ति की वृद्धि के लिए अथवा सेवाओं को प्रदान करने के लिए निम्न को शामिल करते हुए अपनाया गया कोई अनुचित तरीका या अनुचित धोखाधड़ी, नामत:

     मौखिक रूप से या लिखित रूप से या प्रकट अभिवेदन की प्रथा द्वारा जिसमें निम्नलिखित बातें शामिल हों –

(i) यह झूठा प्रतिनिधान (represent) की कोई माल विशिष्ट मानक, गुण, संरचना, किस्म या प्रतिमान का है,

(ii) ऐसा झूठा प्रतिनिधान है कि सेवाएँ विशिष्ट स्तर, गुण या श्रेणी की हैं;

(ili) ऐसा झूठा प्रतिनिधान है कि पुन:निर्मित, पुरानी, नवीकृत, पुन: अनुकूलित वस्तु नयी है;

(iv) यह प्रतिनिधान करता है कि वस्तु अथवा सेवाओं को किसी के द्वारा प्रायोजित, अनुमोदित, निर्मित किया गया है या उसमें विशेष उपकरण, उपयोग या लाभ है जब कि वे ऐसी वस्तु या सेवा के सम्बन्ध में न हों;

(v) यह प्रतिनिधान करता है कि ऐसी वस्तु या सेवा का कोई प्रयोजन, अनुमोदन या सम्बद्धता प्राप्त है जबकि विक्रेता या प्रदायकर्ता को वह वास्तव में प्राप्त न हो;

(vi) किसी वस्तु या सेवाओं के सम्बन्ध में उनकी आवश्यकता व उपयोगिता के बाबत गलत या भ्रामक प्रतिनिधान करता है;

(vii) उत्पाद या किसी वस्तु के निष्पादन कार्यक्षमता तथा टिकाऊपन के सम्बन्ध में जनता को ऐसी गारण्टी देना जो कि उसकी पर्याप्त या उचित जाँच पर आधारित नहीं है;

(viii) जन साधारण के समक्ष ऐसे प्रारूप में निरूपण प्रस्तुत करता है जिसका तात्पर्य है- (i) किसी उत्पाद या वस्तु या सेवा की गारण्टी या (ii) वस्तु या उसके भाग (part) को बदलने, अनुरक्षण करने या मरम्मत करने या जब तक कि कोई विशेष परिणाम प्राप्त न हो सेवा की पुनरावृत्ति या जारी रखना; यदि ऐसी वारण्टी या गारण्टी या वायदा सारवान रूप से भ्रमित करने वाला है या उसके क्रियान्वयन के समुचित आधार नहीं हैं;

(ix) जनता को सारवान रूप से मूल्य के बारे में भ्रम पैदा करता है जिस पर उत्पाद या मिलता-जुलता उत्पाद या वस्तुएँ या सेवायें बेची गयी हैं या आमतौर पर विक्रय की जाती है तथा इस उद्देश्य के लिए, मूल्य के सम्बन्ध में प्रतिनिधान उसको मूल्य संदर्भित करने वाला समझा जायेगा जिस उत्पाद या माल या सेवाओं को संगत बाजार में सामान्यतः विक्रेताओं द्वारा विक्रय किया गया है या प्रदायकर्ता द्वारा उपलब्ध कराया गया है, जब तक कि स्पष्ट रूप से यह विहित न हो कि किस मूल्य पर उस व्यक्ति द्वारा उत्पाद को विक्रय या सेवाओं का प्रदाय किया गया है, जिसके द्वारा या जिसकी ओर से प्रतिनिधान किया जाता है:

(x) दूसरे व्यक्ति को वस्तु या सेवा या व्यापार के सम्बन्ध में भ्रामक या मिथ्या तथ्य देता है,

(xi) समाचार पत्र या अन्य किसी रूप में उन वस्तुओं या सेवाओं की बिक्री या प्रदाय को सौदा मूल्य पर देने के लिए, किसी विज्ञापन के प्रकाशन की स्वीकृति देता है जो सौदा मूल्य पर विक्रय या प्रदाय करने के लिए अभिप्रेत नहीं है या उस अवधि के लिए या उस मात्रा में दिया जाना, उस बाजार जिसमें व्यवसाय किया जाता है, के स्वरूप व व्यवसाय के स्वरूप व आकार व विज्ञापन प्रकृति को ध्यान में रखते हुए अभिप्रेत नहीं है;

(xii) जनसाधारण को भेंट, पुरस्कार या अन्य सामग्री देने का प्रस्ताव जबकि अभिप्राय ऐसा करने का नहीं है अथवा निःशुल्क प्रदाय करने का प्रस्ताव जबकि वास्तव में सौदे के अन्तर्गत अंशत: या पूर्णतः उसके मूल्य की वसूली पहले कर ली जाती है;

(xiii) उपभोक्ता द्वारा प्रयोग के लिए अभिप्रेत है या प्रयोग के लिए सम्भावित वस्तुओं की बिक्री या आपूर्ति की अनुमति यह जानकर या समझकर भी देता है कि निष्पादन, संगठन, अन्तर्वस्तु, डिजाइन, संरचना, परिष्करण (finishing) या पैकिंग के मामले में यह वस्तुएँ;

(xiv) वस्तुओं की जमाखोरी या विनष्टीकरण की अनुमति देता है या वस्तुओं की बिक्री करने में या बिक्री के लिए वस्तुओं को उपलब्ध कराने से इन्कार करता है, यदि ऐसी जमाखोरी, विनष्टीकरण या इन्कार से उन वस्तुओं या उनसे मिलती-जुलती वस्तुओं या सेवाओं की लागत में वृद्धि हो या वृद्धि की प्रवृत्ति हो।

     प्रभारमुक्त उपहारों, पुरस्कारों या अन्य मदों का प्रस्ताव करने वाले किसी योजना में भाग लेने वाले व्यक्तियों से योजना के अन्तिम परिणाम के विषय में सूचना के प्रकट होने पर अपने पास रोक लेना।

     जनरल मोटर्स (इण्डिया) प्रा० लि० बनाम अशोक रमणिक लाल, (2015) 1 एस० सी० सी० 429 के मामले के तथ्य इस प्रकार थे कि प्रतिपक्षी/परिवादकर्ता ने 14,00,000 रुपये में एक कार का क्रय किया था। उसने कार एक विज्ञापन को देखकर खरीदी थी जिसमें कि कार को रोड पर एवं बिना रोड के कच्चे रास्तों पर एवं धूल भरे रास्तों पर भी चलने के अनुकूल (एस० यू० वी०) सुविधायुक्त प्रदर्शित किया गया था किन्तु कार चलाने के बाद परिवादकर्ता ने पाया कि वह कार एक साधारण यात्री कार थी और जैसा कि विज्ञापन में दावा किया गया था वह एस० यू० वी० क्षमता से युक्त नहीं थी और कार में गड़बड़ी थी अपीलार्थी कार कम्पनी के इस कृत्य को “अनुचित व्यापार प्रथा” के अन्तर्गत प्रतिपक्षी कार क्रेता ने वाहन के मूल्य को ब्याज समेत लौटाये जाने व 50,000 रुपये मुआवजे व खर्चा-हर्जा दिलाये जाने हेतु अपीलार्थी कार कम्पनी के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत किया। जिलापीठ ने 9% वार्षिक ब्याज की दर से कार मूल्य को लौटाये जाने एवं 5,000 रुपये मानसिक त्रास हेतु व 2,000 रुपये वाद व्यय हेतु परिवादकर्ता को दिये जाने का निर्देश दिया, जिसे राज्य आयोग ने बढ़ाकर 50,000 रुपये कर दिया और राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के निष्कर्षों को उचित माना।

(2) सेवा में कमी– उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 2 (11) के अनुसार ‘कमी’ से ऐसे कार्य की क्वालिटी, प्रकृति और रीति में जिसे तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन बनाये रखना अपेक्षित है या जिसका किसी सेवा के सम्बन्ध में किसी संविदा के अनुसरण में या अन्यथा किसी व्यक्ति द्वारा पालन किये जाने का वचन भंग किया गया है, कोई दोष, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता अभिप्रेत है।

     “सेवा” शब्द से तात्पर्य बैंकिंग, फाइनेन्सिग, इन्श्योरेन्स, ट्रान्सपोर्ट, संसाधन, विद्युत आपूर्ति या अन्य ऊर्जा की आपूर्ति, छात्रावास, भोजनालय, चिकित्सा, आवास, गृहनिर्माण, मनोरन्जन व सूचना से सम्बन्धित सेवा प्रदान करना है। किन्तु इसमें शुल्क रहित सेवा या निजी सेवा की संविदा सम्मिलित नहीं है। “सेवा” शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है और इसके अन्तर्गत किसी भी प्रकार की सेवा आ जाती है। अपवाद- अधिनियम में दी गयी परिभाषा के अनुसार निम्नलिखित सेवाएँ”सेवा” के अन्तर्गत नहीं आयेंगी

(क) शुल्क या प्रभार अथवा मूल्य रहित सेवा

(ख) वैयक्तिक अथवा निजी सेवा की संविदा के अधीन दी गयी सेवा।

     चण्डीगढ़ हाउसिंग बोर्ड बनाम अवतार सिंह, ए० आई० आर० (2011) सुप्रीम कोर्ट 130 के मामले में आवासीय परिषद द्वारा समितियों को उनके सदस्यों के लिये आवास निर्माण हेतु भूमि आवण्टित की गयी थी। इसके लिये सदस्यों से पेशगी की राशि जमा कर ली गयी थी। किन्तु आवास आवण्टन से पूर्व ही सदस्यों ने आवास में अरुचि दिखाते हुए अपना धन वापस किये जाने के लिये प्रार्थना पत्र दिया। परिषद ने पेशगी की रकम में से 10 से 25% तक की राशि की कटौती करने के पश्चात् ही धन वापस करने का आदेश दिया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि समिति आवास आवण्टन से पूर्व ही अपनी माँग को रद्द कर देती है तो वह बिना कटौती के पूर्ण अग्रिम धन पाने की अधिकारी है। इस प्रकार की कटौती अवैध है और यदि परिषद पूर्ण धनराशि लौटाने में असफल रहता है तो यह सेवा में कमी माना जायेगा।

     अपोलो हास्पिटल, विक्रमपुरी बनाम टी० एस० आनन्द कुमार, ए० आई० आर० (2011) (NOC) 155 आन्ध्र प्रदेश के मामले में चिकित्सकों के बीमाकर्ता को परिवाद में आवश्यक पक्षकार बनाये जाने हेतु “सेवा में कमी” के आधार पर न्यायालय में आवेदन दिया गया था। किन्तु परिवादकर्ताओं की शिकायत बीमाकर्ता के विरुद्ध नहीं थी। न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि जब तक कि परिवाद पत्र में बीमाकर्ता के विरुद्ध कोई वाद कारण न हो, उसे आवश्यक पक्षकार नहीं बनाया जा सकता।

     मेसर्स स्प्रिंग मेदास हास्पिटल बनाम हरजोल अहलूवालिया, ए० आई० आर० (1988) सु० को० 130 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि अधिनियम की धारा 2 (1) (घ) के अनुसार उपभोक्ता की परिभाषा अत्यन्त व्यापक अर्थों में है अत: उपभोक्ता के अन्तर्गत न केवल सेवा लेने अथवा उसका क्रयकर्ता व्यक्ति आता है बल्कि उसके सभी लाभभोगी व्यक्ति आ जाते हैं। इसलिये चिकित्सालय में उपचार हेतु भर्ती हुए बच्चे के साथ-साथ उसके अभिभावक भी उपभोक्ता माने जायेंगे।

   हरियाणा अर्बन डेवलपमेन्ट अथारिटी बनाम वीरेश संगवन, (2012) 1 सुप्रीम कोर्ट केसेज 256 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि विकास प्राधिकरण द्वारा भूमि पर अतिक्रमण हो गया है तो इसके लिये प्राधिकरण दायी नहीं होगा और यह “सेवा में कमी” नहीं मानी जायेगी।

     यदि कोई वकील जो कि किसी मुवक्किल द्वारा पूर्व से ही नियुक्त कर दिया गया है, तस मुवक्किल के विरोधी पक्ष के लिए ऐसा कार्य करता है जो उस पूर्व मुवक्किल के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हो तो वह वकील अपने व्यावसायिक दायित्व के प्रति कर्त्तव्य भंग, वचन-भंग व कदाचार का दोषी होगा। एक वकील ने जो क के लिए नियुक्त किया गया। था, के विरोधी पक्ष की ओर से ही क के विरुद्ध उसी सम्पत्ति के लिए वाद दाखिल कर दिया था जिसके लिए क की ओर से उसे नियुक्त किया गया था जिसके लिए वकील को कर्त्तव्य भंग व वचनभंग का दोषी माना गया। [चनु प्रकाश त्यागी बनाम बनारसी, (2015) 8 सु० को० 506]

     वड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन बनाम पुरुषोत्तम वी० मुरुजनी, (2015) 3 सु० को० के० के मामले में बड़ोदरा नगर निगम के प्रबन्धन के अधीन एक सार्वजनिक झील में नौका-विहार के दौरान एक नौका दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से 22 लोगों की डूबने से मृत्यु हो गयी। नौका की क्षमता 20 यात्री की थी जबकि उसमें 38 यात्री थे। नगर-निगम द्वारा नौका-विहार सुविधा की परिचालन व्यवस्था अनुबन्ध के अधीन ठेकेदारों को दी गयी थी। उच्चतम न्यायालय ने दुर्घटना हेतु नगर-निगम व अनुबन्धित ठेकेदारों को दायित्वाधीन माना और निर्णय दिया कि नौका यात्री “उपभोक्ता” और नगर निगम के अनुबन्धकर्मी “व्यापारी सेवा प्रबन्धक” के अन्तर्गत माने जायेंगे। नगर निगम और उसके संविदाकर्मी द्वारा की गयी नौका-विहार प्रबन्धन में उपेक्षा, लापरवाही व उचित सावधानी न बरतने का कर्त्तव्य भंग “सेवा में कमी” की परिभाषा के अन्तर्गत आयेगा।

(3) माल में त्रुटि– धारा 2 (10) के अनुसार ‘त्रुटि’ से ऐसी क्वालिटी, मात्रा, शक्ति, शुद्धता या मानक में जिसे अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा के अन्तर्गत या किसी विधि द्वारा या उसके अधीन बनाये रखना अपेक्षित है या जिसका ऐसे किसी माल के सम्बन्ध में किसी प्रकार की रीति में व्यापारी द्वारा दावा किया जाता है, कोई दोष, अपूर्णता या कमी अभिप्रेत है।

    सी० एन० अनन्तराम बनाम मेसर्स फियेट इण्डिया लि०, ए० आई० आर० (2011) सु० को० 523 के मामले में याची, जो कि मूलत: वादी था, ने प्रत्यर्थी से एक फियेट सियेना डीजल कार खरीदी थी। वाहन चलाने पर गियर बाक्स व इंजन में शोर सम्बन्धी दोष पाया गया। याची के परिवाद पर वाहन के इंजन सहित अनेक पूजें बदल दिये गये किन्तु याची सन्तुष्ट नहीं हुआ था। उसने जिला फोरम के समक्ष परिवाद प्रस्तुत किया जो कि स्वीकृत हो गया और फोरम ने याची को वाहन का सम्पूर्ण मूल्य 7,69,187/ रुपये लौटा देने का आदेश दिया। व्यथित होकर प्रत्यर्थी राज्य आयोग जहाँ आयोग ने निर्णय दिया कि याची वाहन में विनिर्माण सम्बन्धी त्रुटि दिखा समक्ष गया पाने में असफल रहा है। अतः वाहन के डीलर व निर्माता को आदेशित किया गया कि यदि वाहन में कोई त्रुटि है तो उसे ठीक करके वाहन पुन: याची को लौटा दिया जाय। इस आदेश के विरुद्ध याची उच्चतम न्यायालय के समक्ष गया। न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि डीजल इंजन के चलने पर कुछ घरघराहट अथवा खड़खड़ाहट होती है जो कि पेट्रोल इंजन में नहीं होती अतः वाहन में कोई विनिर्माण सम्बन्धी त्रुटि नहीं है जैसा कि याची का परिवाद है। गिअर-पेटिका व इंजन से शोर आने के अतिरिक्त परिवाद में अन्य कोई भारी दोष उल्लिखित नहीं है जो कि वाहन को चलाने हेतु अक्षम सिद्ध करता हो अतः राज्य आयोग का आदेश युक्तियुक्त है।

प्रश्न 29. निम्न में अन्तर स्पष्ट करें –

(1) हमला तथा प्रहार,

(2) मानहानि तथा विद्वेषपूर्ण अभियोजन,

(3) अपलेख तथा अपवचन,

(4) निजी उपताप तथा लोक उपताप,

(5) दैवी कृत्य तथा अवश्यमभावी दुर्घटना,

(6) अतिचार तथा उपताप,

( 7 ) सहमति से क्षति नहीं तथा योगदायी उपेक्षा,

(8) सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार।

Distinguish the followings –

(1) Assualt and Battery

(2) Defamation and Malicious Prosecution

(3) Libel and Slander

(4) Private Nuisance and Public Nuisance

(5) Act of God and inevitable accident

(6) Trespass and Nuisance

(7) Volenti non fit Injuria and Contributory Negligence

(8) Servant and Independent Contractor

उत्तर- (1) हमला तथा प्रहार में अन्तर (Distinction between Assault and Bettery)

हमला (Assault) आक्रमण

(1) किसी के मन में प्रहार का युक्तियुक्त भय या आशंका उत्पन्न करना आक्रमण या हमला है

(2) आमतौर पर प्रहार से पूर्व हमला या आक्रमण अवश्य होता है सिवाय उन मामलों में जहाँ प्रहार पीछे से किया जाय या प्रहार सोने की अवस्था (sleeping position) में किया गया हो।

(3) हमले में शरीर स्पर्श आवश्यक तत्व नहीं है।

(4) हमला या आक्रमण को भा० द० सं० की धारा 351 में अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है।

प्रहार (Battery)

 (1) किसी के शरीर को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना किसी विधिक औचित्य के स्पर्श करना प्रहार है

(2) प्रहार, आक्रमण के बाद की प्रक्रिया है। पहले आक्रमण होता है तब प्रहार होता है।

(3) प्रहार में शरीर स्पर्श आवश्यक तत्व होता है।

(4) प्रहार को भा० द० सं० की धारा 350 में अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है।

(2) मानहानि तथा विद्वेषपूर्ण अभियोजन में अन्तर (Distinction between Defamation and Malicious Prosecution)

मानहानि (Defamation)

(1) मानहानि उस अपलेख का प्रकाशन है जिससे वादी की प्रतिष्ठा को क्षति होती है।

(2) मानहानि के अपकृत्य में वादी को यह साबित करना होता है कि वादी द्वारा अपमानजनक कथन का प्रकाशन किया गया था।

(3) मानहानि या अपमान के वाद में विद्वेष आवश्यक तत्व नहीं है आवश्यक यह है कि कथन से वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँची है।

(4) मानहानि में प्रतिकर का आधार वादी की प्रतिष्ठा होता है।

(5) मानहानि में आर्थिक नुकसान साबित करना आवश्यक नहीं है तथा अपलेख स्वतः अनुयोज्य है।

विद्वेष पूर्ण अभियोजन (Malicious Prosecution)

(1) विद्वेषपूर्ण अभियोजन विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। इसमें वादी को विद्वेषता के अन्तर्गत अभियोजन कर परेशान करने का आशय होता है।

(2) विद्वेषपूर्ण अभियोजन में सफल होने के लिए वादी को यह साबित करना होता है कि वादी सक्षम न्यायालय द्वारा अन्तिम अपील के पश्चात् तथा यदि अपील नहीं की गई है तो सक्षम विचारण न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर दिया गया था।

(3) विद्वेषपूर्ण अभियोजन में विद्वेषता के अन्तर्गत वादी को परेशान करने के आशय से उसका अभियोजन किया गया था यह साबित करना आवश्यक है।

(4) विद्वेषपूर्ण अभियोजन में प्रतिकर का आधार वादी को हुई आर्थिक क्षति तथा मानसिक एवं शारीरिक परेशानी है।

(5) विद्वेषपूर्ण अभियोजन के वाद में नुकसानी (damage) साबित करना आवश्यक है। विद्वेषपूर्ण अभियोजन का अपकृत्य स्वतः अनुयोज्य (Actionable per se) नहीं है।

(3) अपवचन तथा अपलेख में अन्तर (Distinction between Slander and Libel)

अपवचन (Slander)

(1) अपवचन मौखिक कंथन है जो वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाता है ।

(2) अपवचन अस्थायी प्रकृति का होता है।

(3) अपवचन कानों को सम्बोधित होता है।

(4) इंग्लैण्ड में अपवचन अपराध नहीं है परन्तु अपलेख अपराध है।

(5) अपवचन कुछ अपवादित मामलों को छोड़कर स्वतः अनुयोज्य नहीं हैं।

अपलेख (Libel)

(1) अपलेख प्रतिवादी द्वारा प्रकाशित लिखित कथन है जो वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाता है।

(2) अपलेख स्थायी प्रकृति का होता है।

(3) अपलेख आँखों को सम्बोधित होता है।

(4) भारत में अपवचन तथा अपलेख दोनों अपराध हैं।

(5) अपलेख सदा स्वतः अनुयोज्य है अर्थात् उसमें सफल होने के लिए नुकसानी (damage) तथा आशय साबित करना आवश्यक है।

(4) निजी उपताप तथा लोक उपताप में अन्तर (Distinction between Private Nuisance and Public Nuisance)

निजी उपताप (Private Nuisance)

(1) निजी उपताप एक अपकृत्य है।

(2) यदि उपतापजनक कार्य से सिर्फ एक विशिष्ट व्यक्ति को परेशानी होती है तो यह निजी उपताप है।

(3) निजी उपताप में क्षतिग्रस्त पक्षकार को प्रतिकर प्राप्त होता है।

(4) निजी उपताप में क्षतिग्रस्त पक्षकार वाद ला सकता है।

लोक उपताप (Public Nuisance)

(1) लोक उपताप एक अपराध है।

(2) लोक उपतापजनक कार्य से समाज का वर्ग विशेष प्रभावित होता है।

(3) लोक उपताप के लिए दोषी व्यक्ति को दण्डित किया जा सकता है

(4) लोक उपताप के लिए राज्य वाद लाता है। लोक उपताप में एक विशिष्ट व्यक्ति तभी वाद ला सकता है जब वह सफलतापूर्वक यह साबित कर दे कि उसे उस लोक उपताप से विशेष तौर पर क्षति हुई है।

(5) दैवी कृत्य तथा अपरिहार्य दुर्घटना में अन्तर (Distinction between Act of God and inevitable accident)

दैवी कृत्य (Act of God)

(1) दैवी कृत्य से तात्पर्य प्राकृतिक तथा दैवी बलों के कारण हुई क्षति से है।

अपरिहार्य दुर्घटना (Inevitable accident)

(1) अपरिहार्य दुर्घटना में मानवीय कारक निहित होते हैं परन्तु ऐसी दुर्घटना वादी की सावधानी तथा सतर्कता के बावजूद निवारित नहीं की जा सकती है।

(6) अतिचार तथा उपताप में अन्तर (Distinction between Trespass and Nuisance)

अतिचार (Trespass)

(1) किसी भी भूमि, भवन या परिसर में बिना किसी विधिक औचित्य के प्रवेश ही अतिचार या अपकृत्य है।

(2) अतिचार प्रत्यक्ष होता है जैसे किसी की भूमि में प्रवेश करना या किसी की भूमि में पौधा लगाना ।

(3) अतिचार स्वतः अनुयोज्य है अर्थात् उसमें सफल होने के लिए नुकसानी, आशय या जानकारी साबित करना आवश्यक नहीं है।

(4) अतिचार एक व्यक्ति के विरुद्ध अपकृत्य है।

(5) अतिचार में इस प्रकार का वर्गीकरण नहीं है।

(6) अतिचार कब्जे के प्रति क्षति है।

(7) अतिचार सदैव मूर्त पदार्थ के माध्यम से होता है।

उपताप (Nuisance)

(1) किसी भी भूमि, भवन या परिसर के उपयोग या उपभोग में अविधिपूर्ण हस्तक्षेप ही उपताप का अपकृत्य है।

(2) उपताप परिणामजनक (consequen tial) होता है। जैसे अपनी भूमि पर पौधा (पेड़) लगाया जाय परन्तु उसकी डाली दूसरे की भूमि पर छाया या कूड़ा उत्पन्न करे।

(3) उपताप के मामले में नुकसानी या क्षति (damage) साबित किया जाना आवश्यक है।

(4) उपताप कुछ परिस्थितियों में अपराध भी हो सकता है।

(5) उपताप निजी या लोक हो सकता है।

(6) उपताप कब्जे के किसी अधिकार के प्रति क्षति है।

(7) उपताप अदृश्य पदार्थ जैसे शोर, कम्पन, दुर्गन्ध या धूम्र के हो सकता है। माध्यम से

(7) सहमति से क्षति नहीं तथा योगदायी उपेक्षा में अन्तर (Distinction between Volenti non fit Injuria and Contributory Negligence)

सहमति से क्षति नहीं (Volunti non fit Injuria)

(1) सहमति से क्षति नहीं पूर्ण बचाव है। प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होता है।

(2) सहमति वादी की सहमति होती है परन्तु वह अपनी सुरक्षा के प्रति सतर्क होता है।

(3) सहमति में वादी तथा प्रतिवादी दोनों स्वयं के खतरों से भिज्ञ (जानकार) रहते हैं।

(4) सहमति में प्रतिवादी की उपेक्षा को बचाव के रूप में समाप्त कर देते हैं।

योगदायी उपेक्षा (Contributory negligence)

(1) योगदायी उपेक्षा में दोनों क्षति के लिए उत्तरदायी होते हैं तथा प्रतिकर की राशि उनके दोष के अनुपात में समायोजित होती है।

(2) योगदायी उपेक्षा में वादी तथा प्रतिवादी दोनों उपेक्षा के दोषी होते हैं।

(3) योगदायी उपेक्षा में वादी अपने खतरों से अनजान या अनभिज्ञ हो सकता है। यद्यपि उसे उनसे भिन्न होना चाहिए।

(4) योगदायी उपेक्षा में प्रतिवादी की उपेक्षा भी एक प्रमुख कारक होती है।

(8) सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में अन्तर (Distinction between Servant and Independent Contractor)

सेवक (Servant)

(1) सेवक वह है जो पारिश्रमिक या पुरस्कार के लिए नियोजित होता है।

(2) सेवक स्वामी के नियन्त्रण तथा पर्यवेक्षण में काम करता है।

(3) सेवक के कार्यों के लिए स्वामी उत्तरदायी होता है।

(4) सेवक को यह बताया जाता है कि कार्य कैसे (How) किया जाना है।

स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor)

(1) स्वतन्त्र ठेकेदार वह है जो किसी एक विशिष्ट प्रयोजन के लिए नियुक्त होता है तथा प्रयोजन पूरा होते ही, उसके तथा स्वामी के मध्य सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं।

(2) स्वतन्त्र ठेकेदार की कार्य प्रणाली पर स्वामी का प्रत्यक्ष नियन्त्रण तथा पर्यवेक्षण नहीं होता।

(3) स्वतन्त्र ठेकेदार के अपकृत्यात्मक कार्यों के लिए आमतौर पर अपवादित परिस्थितियों को छोड़ कर स्वामी उत्तरदायी नहीं होगा।

(4) स्वतन्त्र ठेकेदार को सिर्फ यही बताना होता है कि क्या (What) कार्य किया जाना है। कार्य कैसे किया जाना है उस पर स्वामी का कोई नियन्त्रण नहीं होता।

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