प्रश्न 1. संविधान क्या है? What is Constitution?
उत्तर- संविधान किसी राष्ट्र के सम्बन्ध में उस देश को कहते हैं जिसके अनुसार किसी राष्ट्र की सरकार तथा उसके प्रशासनिक अंगों की स्थापना की जाती है। यह किसी राष्ट्र की सरकार तथा उसके प्रशासनिक अंगों के स्वरूप, उनको संरचना, उनकी शक्तियों उनके मुख्य कार्यों को परिभाषित करता है। साथसंविधान में सरकार तथा सरकार के विभिन्न अंगों के आपसी संबंधों को परिभाषित किया गया होता है। संविधान राज्य तथा नागरिकों के मध्य राजनैतिक संबंधों को विनियमित करने का प्रयत्न करता है। अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि संविधान देश की जनता की आशाओं एवं आकांक्षाओं का पुंज होता है।”
प्रश्न 2. सांविधानिक विधि की परिभाषा दीजिये। Define Constitutional Law,
उत्तर- संवैधानिक विधि किसी देश या राष्ट्र की सर्वोच्च विधि है। संवैधानिक विधि उन समस्त नियमों को अपने में समाविष्ट करती है जो सम्प्रभु की शक्तियाँ, उसके सदस्यों व सदस्यों के मध्य सम्बन्धों को परिभाषित या विनियमित (Regular) करते हैं। ये नियम सम्प्रभु (Severeign) तथा सदस्यों की शक्तियों के निष्पादन की विधि (Method) को भी सुनिश्चित करते हैं। प्रो० ए० वी० डायसी के अनुसार संवैधानिक विधि के नियमों में राज्य प्रमुख के उत्तराधिकार तथा प्रमुख न्यायकर्ता के परमाधिकार का भी निर्धारण रहता है। इन नियमों में विधायकों के निर्वाचन की विधि भी सम्मिलित रहती है। संवैधानिक विधि के अन्तर्गत मंत्रियों की नियुक्तियाँ, उनके दायित्व और कार्य क्षेत्र भी निर्धारित रहते हैं। संवैधानिक विधि में राज्यों की अधिकारिता तथा नागरिकता से सम्बन्धित उपबंध भी सम्मिलित रहते हैं।
संक्षेप में संवैधानिक विधि किसी राष्ट्र की वह सर्वोच्च विधि है जो उस राष्ट्र के स्वरूप उस राष्ट्र के तीनों अंगों, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका की संरचना कर्तव्य तथा अधिकारों का विवेचन करती है। संवैधानिक विधि किसी राष्ट्र के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को अन्तर्विष्ट करती है।
प्रश्न 3. संवैधानिक विधि तथा सामान्य विधि में क्या अन्तर है? What is difference between Constitutional Law and General Law?
उत्तर- मार्शल के अनुसार संविधान की शक्तियां अपरिवर्तित होती हैं तथा उन्हें विधि की सामान्य प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता। संविधान अन्य विधियों के समक्ष स्तर और शक्ति में सर्वोच्च तथा प्रमुख होता है। अन्य विधियाँ उसके अधीन होती हैं तथा संविधान के स्रोत तथा शक्ति से जीवन पाती हैं।
प्रश्न 4. संविधान की प्रस्तावना। Preamble of Constitution.
उत्तर- प्रत्येक अधिनियम के प्रारम्भ में सामान्यतया एक प्रस्तावना होती है जो अधिनियम को पारित किये जाने के आशय एवं अधिनियम के माध्यम से प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य का उल्लेख रहता है। जैसा कि न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने कहा है प्रस्तावना किसी अधिनियम के मुख्य आदशों तथा आकांक्षाओं का उल्लेख करती हैं।” प्रस्तावना अधिनियम के उद्देश्यों तथा नीतियों को समझने में सहायक होती है। इन री बेरूवारी यूनियन, ए० आई० आर० 1960 सु० को 845 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यही कहा है कि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुंजी है।
हमारे संविधान की प्रस्तावना निम्न है-
”हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर को समता प्राप्त करने के लिये तथा उन सबमें व्यक्ति को गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता, सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। संविधान को उपरोक्त प्रस्तावना के अवलोकन से निम्न बातें विदित होती हैं प्रथम यह कि संविधान का स्रोत क्या है। दूसरे यह कि संविधान का उद्देश्य क्या है तथा तोसरे यह कि संविधान को किस तिथि को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित किया गया था?
प्रशन 5. ( क ) क्या उद्देशिका संविधान का भाग है?
Whether the Preamble is the Part of the Constitution?
(ख) भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित उद्देश्यों का वर्णन
कीजिये।
Discuss the objects set out in the Preamble of Indian Constitution.
उत्तर – (क) क्या उद्देशिका संविधान का भाग है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है इस विषय
में इन री बेरूबारी यूनियन ए० आई० आर० 1960 सु० को० 845 नामक बाद में उच्चतम
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना को संविधान का प्रेरणातत्व
भले ही मान लिया जाय, इसे संविधान का अंश नहीं माना जा सकता। प्रस्तावना के रहने
या न रहने से संविधान के मूल उद्देश्यों में कोई अन्तर नहीं आता। प्रस्तावना का
महत्व तब होता है जब संविधान के प्रावधानों की भाषा संदिग्ध तथा अस्पष्ट हो। ऐसी
परिस्थितियों में संविधान की प्रस्तावना की सहायता ली जा सकती है। परन्तु
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई आर० 1973 सु० को० 1461 नामक वाद में
उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय को पलट दिया तथा यह निर्णय दिया कि
प्रस्तावना या उद्देशिका (Preamble) संविधान का भाग है तथा संविधान का मूल स्वरूप
(Basic feature) है। प्रोफेसर स्टोरी ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना
(उद्देशिका) एक कुंजी के रूप में संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क को खोलने का काम
करती है। संविधान के विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या करते समय संविधान की समाप्ति
के लिये उद्देशिका या प्रस्तावना की सहायता लेना वैध है। परन्तु यह स्मरणीय है कि
राज्य की शक्तियों को कम अथवा विस्तृत करने की शक्ति संविधान की उद्देशिका या
प्रस्तावना से नहीं प्राप्त की जा सकती। सुप्रसिद्ध विधिशास्त्री कार्बिन
उद्देशिका या प्रस्तावना को संविधान का अंग मानने के लिये तैयार नहीं हैं। उनके
अनुसार यद्यपि संविधान की उद्देशिका संविधान का अंग नहीं है परन्तु यह संविधान को
दिशा निर्देश प्रदान करती है। एस० आर० बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई आर
(1994) सु० को० 1918 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान
का अभिन्न अंग माना है।
उत्तर- (ख) प्रस्तावना के उद्देश्य-संविधान की प्रस्तावना में यह स्पष्ट उल्लेख है कि संविधान का उद्देश्य भारत को
प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी तथा लोकतांत्रिक गणराज्य बनाना था।
प्रभुतासम्पन्न (Sovereign)- प्रभुतासम्पन्न शब्द इस बात का घोतक है कि भारत आंतरिक तथा बाह्य रूप से किसी भी
विदेशी सत्ता के अधीन नहीं है। भारत को प्रभुतासम्पन्नता (Sovereignty) भारत की
जनता में निहित है। भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से राष्ट्र मण्डल
(Common Wealth) का सदस्य है परन्तु भारत ने यह सदस्यता अपनी इच्छा से स्वीकार की
है तथा जब चाहे वह इससे पृथक हो सकता है। अतः इससे भारत की सम्प्रभुता पर कोई असर
नहीं पड़ता। लोकतांत्रिक शब्द इस बात का परिचायक है कि भारत को सम्प्रभुता भारत
की जनता में निहित है। गणराज्य का अर्थ एक ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसका प्रमुख
वंश उत्तराधिकार द्वारा नहीं आता। उसका चुनाव जनता या जनता के प्रतिनिधि करते
हैं। इस प्रकार ब्रिटेन तथा जापान लोकतांत्रिक देश तो हैं परन्तु गणराज्य नहीं
हैं क्योंकि वहाँ शासनाध्यक्ष सम्राट या साम्राज्ञी उत्तराधिकार द्वारा अपना पद
ग्रहण करता है जबकि भारत का राष्ट्रपति एक अप्रत्यक्ष चुनाव प्रक्रिया द्वारा
जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा पाँच वर्ष के लिये चुना जाता है। भारत
के संविधान में भारत को एक समाजवादी राष्ट्र के रूप में निर्मित किया है।
समाजवादी राष्ट्र वह है जिसमें समाज कल्याण को प्राथमिकता दी जाती है। यहाँ समाज
का हित सर्वोपरि होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्तिहित के माध्यम से
राष्ट्रहित की बात सोची जाती है। भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई है जिसमें
समाज का कल्याण सर्वोपरि होता है। पंथ निरपेक्ष शासन प्रणाली से तात्पर्य एक ऐसी
सरकार से है जिसमें किसी धर्म विशेष की राज्य धर्म के रूप में मान्यता प्रदान
नहीं की गयी है। परन्तु सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाता है। ऐसी शासन
प्रणाली में सभी धर्मों का समान संरक्षण प्रदान किया जाता है। भारत में सभी
व्यक्ति अपनी पसंद के धर्म को मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने के लिये स्वतंत्र
हैं। पंथनिरपेक्ष शब्द 42वें संशोधन द्वारा संविधान में जोड़ा गया। इस प्रकार
भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका) से यह प्रतिलक्षित होता है कि भारत की
शासन व्यवस्था क्या होगी? भारत के राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव कैसे होगा? भारत में
शासन का लक्ष्य क्या होगा? तथा भारत में धर्म के बारे में क्या दृष्टिकोण अपनाया
जायेगा?
भारत के संविधान की प्रस्तावना यह स्पष्ट करती है कि
भारत के संविधान का ध्येय क्या है संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत में सभी
नागरिकों को सामाजिक तथा आर्थिक न्याय के साथ-साथ राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा
तथा भारत में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति (Expression), विश्वास (Faith)
तथा धर्म एवं उपासना की स्वतंत्रता होगी। भारत में सभी नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा
अवसर की समानता प्राप्त होगी। भारत के संविधान की प्रस्तावना में यह संकल्प
व्यक्त किया गया है कि इस शासन व्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गरिमा प्राप्त
होगी तथा राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता के उद्देश्य से सभी व्यक्तियों में बंधुत्व
स्थापित करने का प्रसास होगा।
उत्तर- संविधान की रचना (Making of Constitution) स्वतंत्रता प्राप्ति के सुख की अनुभूति भारतवासियों के लिये स्वाभाविक एवं
अनोखी थी। लेकिन साथ ही साथ एक नये संघर्ष और चुनौतियों का बोझ भी हमारे सिर पर
था। यह संघर्ष था न्याय, स्वतंत्रता, समानता, एकता एवं बन्धुत्व के आधार पर
लोकतंत्रात्मक राज्य की स्थापना करने का यह संघर्ष था एक सम्पूर्ण
प्रभुत्वसम्पन्न राष्ट्र के रूप में जीवित रहने का। इन आदर्शों की प्राप्ति के
लिये एक ऐसे संविधान की आवश्यकता थी जो देश का आधारभूत विधान बन सके। अतः
स्वतंत्रत भारत ने सर्वप्रथम एक नूतन संविधान के निर्माण का कार्य अपने हाथ में
लिया।कैबिनेट योजना के अनुसार नवम्बर, 1946 को संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव
किया गया जिसमें कुल 296 सदस्य थे जिसमें से 211 सदस्य कांग्रेस और 73 मुस्लिम
लीग तथा शेष स्थान खाली रहे। संविधान बनाने के लिये जब संविधान सभा की पहली बैठक
9 दिसम्बर, 1946 को हुयी तो उसके सामने अनेक चुनौतियां थीं। एक ओर तो वे सीमायें
थी जिन्हें कैबिनेट योजना ने लगाया था और दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने निर्णय किया था
कि वह संविधान सभा की बैठक में सम्मिलित नहीं होगी। लेकिन हमारे संविधान निर्माता
अपने कार्यों में साहस से डरे रहे और इसी दौरान 3 जून, 1947 को यह निर्णय हुआ कि
देश का विभाजन होना है। इसके बाद संविधान सभा के सामने जो समस्यायें थी, वे
समाप्त हो गयीं और सन् 1947 के अधिनियम के पारित होने पर संविधान सभा एक सम्प्रभु
निकाय बन गया और यह भारत के लिये जैसा भी चाहे, संविधान बना सकती थी। वह कैबिनेट
मिशन की सीमाओं के भीतर कार्य करने के लिये बाध्य नहीं थी।
इस अनिश्चितता की स्थिति के बावजूद डॉ० अम्बेडकर की
अध्यक्षता में गठित प्रारूप समिति ने संविधान सभा में संविधान का प्रारूप
प्रस्तुत किया। संविधान सभा की बैठक में संविधान के प्रारूप पर 8 महीने बहस हुयी
और इस दौरान उसमें भी अनेक संशोधन किये गये। संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुये। इस
प्रकार संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 माह 18 दिन के अथक् और निरन्तर
परिश्रम के पश्चात् 26 नवम्बर, 1949 तक संविधान
उत्तर – संघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व– एक संघात्मक संविधान में सामान्यतया निम्नलिखित आवश्यक तत्व पाये जाते हैं (1)
लिखित संविधान संघात्मक संविधान का प्रमुख गुण यह है कि यह लिखित होता है। भारतीय
संविधान एक लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 22 भाग एवं 12 अनुसूचियों
को सम्मिलित किया गया है।
( 2 ) शक्तियों का विभाजन (Separation of Powers)- संघीय संविधानों का प्रमुख तत्व शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा घटक राज्यों
में विभाजन होता है। संघीय व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण मामलों को छोड़कर, जो देश
की एकता एवं अखण्डता के लिये आवश्यक है, राज्य एक स्वतंत्र शासन घटक के रूप में
कार्य करते हैं। भारत में भी शासन व्यवस्था में शक्तियों का विभाजन केन्द्र तथा
राज्य के मध्य हुआ है। कुछ मामलों को छोड़कर राज्य स्वतंत्र घटक के रूप में कार्य
करते हैं।
शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों द्वारा किया गया है.-
(3) संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution)-भारत में लिखित संविधान के प्रावधानों के अनुरूप सभी विधायी कार्यपालिकीय तथा
न्यायिक कार्यों का संचालन होता है। यह सुनिश्चित करना कि क्या कोई कार्य संविधान
के प्रावधानों का अतिक्रमण करके हुआ है, न्यायपालिका का कर्तव्य है। हमारी
न्यायपालिका संविधान को संरक्षक है तथा असंवैधानिक कार्यों को शून्य घोषित करने
का अधिकार रखती है।
(4) न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा सर्वोच्चता (Independence and Supremacy of
Judiciary) हमारे संविधान में स्वतंत्रत न्यायपालिका का प्रावधान है। न्यायपालिका की
स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिये इनकी पदावधि, वेतन सुनिश्चित है। इसके
निर्णयों की आलोचना से सम्बन्धित प्रतिबंधात्मक उपाय भी संविधान में हैं।
न्यायपालिका की सर्वोच्चता को संविधान में मान्यता दी गयी है।
(5) संविधान की परिवर्तनशीलता – लिखित संविधान स्वभावतः अनम्य होता है। भारतीय संविधान में अन्य संघात्मक
संविधानों की भाँति संशोधन को एक विशेष प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 368 में
निर्धारित की गयी है।
उत्तर- प्रत्यायोजित विधान (Delegated Legistation)- विधि का निर्माण मुख्यत: विधान मण्डल द्वारा किया जाता है किन्तु प्राय:
विधान मंडल विधि बनाने की शक्तिअन्य व्यक्तियों अथवा निकायों को प्रत्यायोजित कर
देता है। इन व्यक्तियों या निकायों द्वारा बनाये गये नियमों, परिनियमों, आदेशों
और उपविधियों को प्रत्यायोजित विधान कहते हैं। परन्तु विधान मंडल के लिये यह
जरूरी होता है कि अधिनियम बनाकर उन मार्गदर्शक सिद्धान्तों को विहित करें जिसके
अनुसार अन्य निकायों अथवा व्यक्तियों द्वारा प्रत्यायोजित विधान बनाये जा सकते
हैं।
उत्तर- अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ (Residuary Powers) भारतीय संविधान के अनुच्छेद
248 के अनुसार, अनुच्छेद 246 (क) के अधीन रहते हुए, जो विषय संघ सूची, राज्य सूची
तथा समवर्ती सूची में उल्लिखित नहीं हैं, उसे अवशिष्ट विषय माना जायेगा तथा
अवशिष्ट विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति संसद में अर्थात् केन्द्रीय विधायनी को
होगी। अनुच्छेद 246 (क) माल और सेवाओं के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध से सम्बन्धित
है। यह पद्धति अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड तथा आस्ट्रेलिया से भिन्न है, उनके संविधान
में अवशिष्ट विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति राज्य सरकारों को प्राप्त है जबकि
भारत में केन्द्र को इससे स्पष्ट होता है कि हमारे संविधान निर्माता भारत में एक
सबल केन्द्र की स्थापना करना चाहते थे।
उत्तर- सहकारी परिसंघवाद (Co-operative Federalism)- सहकारी परिसंघवाद, परिसंघवाद की ही उपज है। परिसंघवाद के अन्तर्गत एक संघ के घटक
होते हुये राज्यों के मध्य प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति थी एक राज्य, दूसरे राज्य
के प्रतिस्पर्धा में •सम्मिलित था। कालान्तर में कुछ घटनाओं के घटित होने के कारण
प्रतिस्पर्धा तथा प्रयोगात्मक दृष्टिकोण में बदलाव आया तथा यह विचारधारा अस्तित्व
में आयी कि एक राज्य दूसरे राज्य का सहयोगी है तथा सहयोग एवं सामंजस्य ही आज की
आवश्यकता है। अतः अब परिसंघवाद, सहकारी परिसंघवाद में परिवर्तित हो गया। इस
प्रकार सहकारी परिसंघवाद वह व्यवस्था है जिसमें संघ के घटक राज्य एक दूसरे के
सहयोगी तथा सहायक हैं।
भारतीय संविधान में सहकारी परिसंघवाद को निम्न अनुच्छेद प्रतिलक्षित करते हैं-
(1) विधि निर्माण में सहयोग (अनुच्छेद 252) (2) राजस्व (Tax) विभाजन में सहयोग (अनुच्छेद 268-269) (3) प्रशासनिक सहकारिता (i) अखिल भारतीय सेवायें (अनुच्छेद 312) (ii) पूरा विश्वास तथा पूरी मान्यता खण्ड (अनुच्छेद 261) (iii) अन्तर्राज्यीय परिषद् (अनुच्छेद 263) (iv) अन्तर्राज्यिक जल विवादों का निपटारा (अनुच्छेद 262)
उत्तर- परिसंघवाद (Federalism)– परिसंघवाद को परिभाषित करने के संदर्भ में विद्वानों के भिन्न-भिन्न
दृष्टिकोण हैं जैसे-कठोर दृष्टिकोण, आधुनिक व गतिशील दृष्टिकोण।
कठोर दृष्टिकोण (Rigid Approach)- के अनुसार परिसंघवाद को परिभाषा इस दृष्टिकोण के समर्थक फ्रीमैन व गारमैन
के अनुसार “संघवाद केन्द्र व राज्यों के बीच सम्प्रभुता का विभाजन है। “जैसे
अमेरिकन संविधान
प्रो० के० सी० हियर ने कठोर दृष्टिकोण में अपनाये गये संप्रभुता के
विभाजन को नकारते हुये एक नया सुधरा हुआ दृष्टिकोण अपनाया जिसके अनुसार, “जिस तरह
एक रेलगाड़ी के विभिन्न डिब्बे (कोच), प्रकाश आदि इंजन से जुड़े रहते हैं फिर भी
वे अपने क्षेत्र के मामले में भिन्न होते हैं और उनका अपना स्वतंत्र क्षेत्र होता
है। उसी प्रकार परिसंघीय सरकार में भी यद्यपि सभी राज्य, संघ के रूप में जुड़े
रहते हैं फिर भी वे अपने-अपने क्षेत्र में पूर्णतः स्वतंत्र होते हैं। इसी को
संघवाद कहते हैं।
जबकि गतिशील दृष्टिकोण के समर्थक डायसी, सैविनी के अनुसार, संघ व
राज्य इकाइयों के बीच सहयोग, संगठन, सहकारिता की आवश्यकता होती है और इसी को
संघवाद कहते हैं।
अतः हम कह सकते हैं कि समय परिवर्तन के साथ संघवाद की दिशा
सहकारी संघवाद की ओर बढ़ चली है।
उत्तर- आच्छादन का सिद्धान्त (Doctrine of Eclipse) आच्छादन का सिद्धान्त संविधान
के अनुच्छेद 13 (1) से संबंधित है। अनुच्छेद 13 (1) के अनुसार इस संविधान के लागू
होने से ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियाँ उस सीमा तक
शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग (भाग-3 मूलाधिकार) के उपबंधों से असंगत हैं।
संविधान लागू होने से पूर्व भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकार (Fundamental
Rights ) उपलब्ध नहीं थे। संविधान का अनुच्छेद 13 खण्ड (1) संविधान से पूर्व
निर्मित विधियों को शून्य नहीं बनाता। ये विधियाँ यथावत् बनी रहेंगी परन्तु उनका
अंश प्रभावी या शून्य होने से निरस्त समझा जायेगा जितना संविधान के भाग-3 में
प्रदत्त मूल अधिकारों से प्रभावित है। संविधान से पूर्व निर्मित विधियाँ उन पर
मूल अधिकारों की छाया या ग्रहण की सीमा तक अप्रभावी होंगी। संविधान लागू होने के
पश्चात् संविधान से पूर्व लागू विधियों पर मौलिक अधिकारों का ग्रहण (छाया) लग
जाता है तथा ये विधियाँ इस ग्रहण (eclipse) या छाया की सीमा तक निष्प्रभावो समझी
जायेंगी। अनुच्छेद 13 (1) संविधान पूर्व निमित विधियों को पूरी तरह निष्प्रभावी
नहीं बनाता परन्तु उनके मूल अधिकारों से प्रभावी होने की सीमा तक निष्प्रभावी बना
देता है।
उत्तर- धन
विधेयक एवं वित्त विधेयक में अन्तर-
धन विधेयक (Money Bill)
(1) धन विधेयक वह विधेयक है जो केवल अनुच्छेद 110 में वर्णित विषय से सम्बन्धित
होता है।
(2) प्रत्येक धन विधेयक वित्त विधेयक होता है।
(3) धन विधेयक अनुच्छेद 109 में विहित प्रक्रिया के अनुसार पारित किया जाता है।
इसे केवल लोक सभा में ही पेश किया जा सकता है, लोक सभा में पारित किये जाने के
पश्चात् राज्य सभा को उसकी सिफारिश के लिये भेजा जाता है। राज्य सभा को किसी धन
विधेयक को अस्वीकार करने या संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है।
वित्त विधेयक (Finance Bill)
(1) जबकि वित्त विधेयक अनुच्छेद 110 में वर्णित विषयों के साथ-साथ अन्य
विषयों में भी संबंधित हो सकता है। इस तरह वित्त विधेयक एक ऐसा धन विधेयक होता है
जिसमें साधारण विधेयक के उपबंध भी जोड़ दिये जाते हैं।
(2) जबकि प्रत्येक वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होता है।
(3) जबकि वित्त विधेयक साधारण प्रक्रिया द्वारा पारित किया जाता है। इसे दोनों
सदनों में पारित होना चाहिये। राज्य सभा इसमें संशोधन कर सकती है या अस्वीकृत कर
सकती है।
उत्तर – सदनों की
संयुक्त बैठक [ अनुच्छेद 108 ] – जब कोई विधेयक एक सदन में पारित होकर दूसरे सदन
में भेजा जाता है और वह दूसरा सदन- (1) विधेयक को अस्वीकृत कर देता है, (2) विधेयक में किये गये संशोधन पर असहमत हो
(3) इसे पारित किये बिना ही 6 महीने से ज्यादा समय बीत चुका हो, तो राष्ट्रपति
दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आहूत कर सकता है, बुला सकता है।
लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव होने के तत्पश्चात् की प्रथम
बैठक को तथा प्रत्येक व की प्रथम बैठक में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को
राष्ट्रपति सम्बोधित करता है तथा ऐसी बैठक बुलाये जाने के अपने कारणों को इंगित
करता है। हालांकि यह राष्ट्रपति का व्यक्तिगत अभिभाषण नहीं होता, इसे मंत्रिमण्डल
तैयार करती है। राष्ट्रपति केवल इसे पढ़ता है। राष्ट्रपति सदन में लम्बित किसी
विधेयक को विचारास किसी सदन की संदेश भेज सकता है और वह सदन इस पर विचार करेगा।
उत्तर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 84 के अनुसार- संसद सदस्य के लिए निम्न अर्हता होगी- (क) वह भारत का नागरिक हो;
(ख) लोक सभा के लिये 25 वर्ष तथा राज्य सभा के लिये 30 वर्ष की आयु प्राप्त कर
चुका हो; तथा
(ग) संविधान तथा उसके अधीन निहित (Prescribed) किसी विधि के लिये निर्धारित अन्य
अर्हतायें रखता हो।
(घ) जो तीसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट प्ररूप में शपथ लेने अथवा प्रतिज्ञान करने
के लिये तत्पर हो;
लोक सभा एवं राज्य सभा के सदस्य के लिये किसी भी प्रकार की
शैक्षणिक योग्यता का प्रावधान नहीं किया गया है लेकिन अपेक्षा यह है कि ऐसे
व्यक्ति ही संसद के सदस्य वर्ने जो उच्च शैक्षणिक योग्यता अथवा अनुभव रखते हो
ताकि वे विधायिका को लक्ष्य पूर्ति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें।
(ख) धर्म-निरपेक्ष
Secularism?
उत्तर- (क) न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)- न्यायिक सक्रियता का क्षेत्र सन् 1995-96 से उभर कर सामने आये हैं। उच्चतम
न्यायालय ने अपनी अधिकारिता से दो कदम आगे बढ़कर विधायिका एवं कार्यपालिका के
कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप कर समाज, शासन एवं राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार
का पर्दाफास किया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा सेंट किट्स झारखण्ड मुक्ति मोर्चा
रिश्वत काण्ड, चन्द्रास्वामी काण्ड, चारा घोटाला प्रकरण, सतीश शर्मा प्रकरण,
हवाला काण्ड आदि मामलों में उच्च पदों पर आसीन मंत्रियों एवं अधिकारियों को एक
बार यह आभास करा दिया है कि भारत में विधि का शासन (Rule of Law) अभी भी विद्यमान
हैं। कुछ राजनेताओं द्वारा न्यायिक सक्रियता पर भले ही कटाक्ष किया गया हो, लेकिन
जन साधारण इससे काफी प्रसन्न नजर आ रहा है।
न्यायिक सक्रियता का मुख्य उद्देश्य शासन-प्रशासन एवं सरकार
को पारदर्शी बनाना तथा शासन एवं प्रशासन को अपने कर्तव्यों का बोध कराना है।
परन्तु ऑल इंडिया कौंसिल फॉर टेक्निकल एजूकेशन बनाम ओमनी कौशिक, ए० आई० आर० 2006
एन० ओ० सी० 496 दिल्ली के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित
किया गया है कि न्यायिक सक्रियता का प्रयोग आपवादिक परिस्थितियों में ही किया
जाना चाहिये तथा वहाँ किया जाना चाहिये, जहाँ परिस्थितियाँ ऐसा करने के लिये
बाध्य करती हो। साथ ही न्यायिक सक्रियता का प्रयोग करते समय राष्ट्रहित को भी
ध्यान में रखा जाना चाहिये।
उत्तर- ( ख ) धर्म निरपेक्षता (Secularism)- धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि धर्म के आधार पर भेदभाव न किया जाना। सभी
धर्मों को समान संरक्षण प्रदान करना। जनता को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना
धर्मनिरपेक्षता का ही प्रतीक है। राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं
करना चाहिये। राज्य राजकीय कार्यों में संप्रभु होता है, धार्मिक क्षेत्र में
इसका क्षेत्राधिकार नहीं होता है। कई बार धर्मनिरपेक्षता को धर्म के विरुद्ध माना
जाता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। धर्मनिरपेक्षेता व धार्मिक स्वतंत्रता
दोनों का साथ में अस्तित्व हो सकता है। धर्म अन्तःकरण का विषय है। इसे किसी पर
थोपा नहीं जा सकता। इसका सीधा सम्बन्ध मन अर्थात् आत्मा से है। भारत राष्ट्र का
अपना कोई धर्म नहीं है। यह प्रत्येक धर्म को समान आदर प्रदान करता है। यह एक
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
उत्तर- न्यायिक पुनर्विलोकन- न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial Review) शब्द का प्राथमिक तथा विधिक अर्थ किसी
उच्च न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय की दोषसिद्धि अथवा आज्ञप्ति (Decree)
के अभिनिश्चय का पुनर्विचारण करना है। संविधान के अनुच्छेद 13 के सन्दर्भ में
न्यायिक पुनर्विलोकन शब्द का तात्पर्य न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका व विधायिका
के कार्यों की संवैधानिकता की जाँच करना है। कारविन ने न्यायिक पुनर्विलोकन को
न्यायालयों के उस अधिकार के रूप में परिभाषित किया है जिसके अन्तर्गत न्यायालय
विधान मंडलों द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता की परख कर सकते हैं तथा किसी
भी असंवैधानिक विधि को रोक देने का अधिकार रखते हैं।
उत्तर – भारतीय संसद का निर्माण तीन अंगों के मिलने से बनता है (1) राष्ट्रपतिः (2) राज्य सभा तथा (3) लोक सभा । राष्ट्रपति- संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं होता परन्तु वह संसद का एक अभिन्न अंग
होता है तबा संसद की कार्यवाहियों में भाग लेता है। वह संसद के सत्र को आहूत करता
है, उसे स्थगित भी कर सकता है और लोक सभा को विघटित भी कर सकता है तथा संघ की
कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है। राज्य सभा -राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 होती है जिसमें 238 सदस्य राज्य व
संघ राज्य क्षेत्रों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं तथा 12 सदस्यों को
राष्ट्रपति नामांकित करता है जो साहित्य, विज्ञान, कला तथा सामाजिक सेवा के
क्षेत्र के विशिष्ट ज्ञान रखने वाले होते हैं। नामांकित सदस्य राष्ट्रपति के
निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन राज्य की
विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार
एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। राज्य सभा एक स्थायी सदन होता है, इसका विघटन
नहीं होता परन्तु इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष की समाप्ति पर
सेवानिवृत्त कर दिये जाते हैं। राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है
तथा भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। राज्य सभा अपने
सदस्यों में से किसी सदस्य को उपसभापति चुनती है। जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के
रूप में कार्य कर रहा होता है तब सभापति का पद खाली होने पर उपसभापति उस पद के
कर्त्तव्यों का निर्वहन करता है परन्तु जब उपसभापति का पद भी खाली होता है तब इस
पद को राज्य सभा का कोई ऐसा व्यक्ति सम्भालता है जिसे राष्ट्रपति विहित करे राज्य
सभा अपने तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से प्रस्ताव पारित करके सभापति तथा
उपसभापति को हटा सकती है। उपराष्ट्रपति तथा उपसभापति अपने पद से त्यागपत्र भी दे
सकते हैं। यदि राज्य सभा की किसी बैठक में उपराष्ट्रपति को उनके पद से हटाने
सम्बन्धी कोई प्रस्ताव विचारधीन हो तो उपराष्ट्रपति उस सभा की अध्यक्षता नहीं
करेगा।
लोकसभा- लोकसभा, जनता की सभा मानी जाती है। इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष
रूप से जनता द्वारा होता है। इसके सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 है। (1) 530
सदस्य राज्यों से तथा 20 संघ शासित क्षेत्रों से लिये जाते हैं। इसके अलावा यदि
राष्ट्रपति को यह संज्ञान हो कि लोकसभा में एंग्लो इण्डियन समाज को पर्याप्त
प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है तो वह अनुच्छेद 331 के अधीन एंग्लो इण्डियन समुदाय
के दो सदस्यों को नामांकित कर सकता है।
राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के
आधार पर प्रत्यक्ष मतदान द्वारा होता है।
उत्तर- लोक सभा (Lok Sabha)- लोक सभा, जनता की सभा मानी जाती है इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष
रूप से जनता द्वारा होता है। इसके सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 है। (1) 530
सदस्य राज्यों से तथा 20 संघ शासित क्षेत्रों से लिये जाते हैं। इसके अलावा यदि
राष्ट्रपति को यह संज्ञान हो कि लोक सभा में एंग्लो इंडियन समाज को पर्याप्त
प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है तो वह अनुच्छेद 331 के अधीन एंग्लो इंडियन समुदाय
के दो सदस्यों को नामांकित कर सकता है [ अनुच्छेद 81]
राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर
प्रत्यक्ष मतदान द्वारा होता है।
लोक सभा के स्थानों की संख्या- प्रत्येक राज्य के लिये लोक सभा के स्थानों की बाँट ऐसी रीति से की जायेगी
कि उस संख्या के राज्य की जनसंख्या के राज्य की जनसंख्या का अनुपात समस्त राज्यों
के लिये यथासाध्य एक ही हो। इस प्रकार संविधान लोक सभा के प्रति निर्वाचन में
प्रतिनिधित्व की एकरूपता दो प्रकार से स्थापित करता है- (1) विभिन्न राज्यों से
(2) एक राज्य के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से
लोक सभा की अवधि- लोक सभा की अवधि 5 वर्ष की होती है। राष्ट्रपति इसे समय से पूर्व भी
विघटित कर सकता है। परन्तु आपात उद्घोषणा में यह कार्यकाल 1 वर्ष के लिये बढ़ाया
जा सकता है। इस प्रकार बढ़ायी गयी अवधि किसी भी अवस्था में आपात उद्घोषणा के
समाप्त हो जाने के पश्चात् 6 माह से अधिक न होगी।
सदस्यों की अहंतायें- अनुच्छेद 84 लोक सभा के सदस्यों के लिये निम्न योग्यता का प्रावधान करता
है- (क) वह भारत का नागरिक हो; (ख) राज्य सभा के लिये कम से कम 30 वर्ष तथा लोक
सभा के लिये कम से कम 25 वर्ष के आयु पूरी होना आवश्यक है। (ग) संसद द्वारा विहित
आवश्यकतायें पूरी करता हो।
सदस्यता की समाप्ति- यदि संसद के किसी सदन का सदस्य त्यागपत्र दे देता है तो वह संसद का सदस्य नहीं
रह जाता परन्तु राज्य सभा का सदस्य राज्यसभा के सभापति को अपना त्यागपत्र देगा और
लोक सभा का सदस्य लोकसभा अध्यक्ष को अपना त्यागपत्र दे सकता है। संविधान के 33वें
संशोधन अधिनियम, 1974 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 101 और 190 में संशोधन करके एक
नया परन्तुक जोड़ा है इस परन्तुक के अनुसार यदि संसद के किसी सदन का सदस्य अपना
त्यागपत्र देता है और वह स्वीकृत हो जाता है तो उसका स्थान रिक्त हो जायेगा।
उत्तर – संविधान
का अनुच्छेद 93 लोकसभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के विषय में बतलाती है लोक सभा
अपने सदस्यों में से दो को क्रमश: अध्यक्ष (Speaker) और उपाध्यक्ष चुनती है
अध्यक्ष लोक सभा का प्रमुख पदाधिकारी होता है, वह इसकी बैठकों की अध्यक्षता करता
है तथा इसके संचालन का नियंत्रण करता है। अध्यक्ष तभी तक अपने पद पर बने रहते हैं
जब तक वे लोक सभा के सदस्य रहते हैं। किन्तु लोक सभा के विघटित हो जाने के बावजूद
भी अध्यक्ष नवनिर्वाचित लोक सभा के प्रथम अधिवेशन तक अपने पद पर बना रहता है।
अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को ऐसे वेतन और भत्ते दिये जायेंगे जिसे संसद विधि द्वारा
नियत करे।
उत्तर- सार तत्व का सिद्धान्त (Doctrine of Pith and Substance) – जहाँ एक राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि दूसरे विधान मंडल के क्षेत्र
में अतिक्रमण करती है वो यह प्रश्न उठता है कि यदि विधि, उसे निर्मित करने वाले
विधानमंडल की विधायो शक्ति के अन्तर्गत है या नहीं। ऐसी परिस्थिति में विधायी
शक्ति का निर्धारण करने के संबंध में न्यायालयों द्वारा सारतत्व के सिद्धान्त
(Doctrine of pith and substance) का विकास किया गया। प्रायः अधिनियमों में ऐसे
उपबंध होते हैं जो आनुषंगिक रूप से (Incidentally) दूसरे विधान मण्डल के विधान
विषयों का अतिक्रमण करते हैं। यदि शाब्दिक व्याख्या की जाय तो ऐसे विधायन अवैध हो
जायेंगे। किन्तु यदि विधान (अधिनियम) सारवान् रूप से (Substantially) या यदि
विधान का वास्तविक उद्देश्य ऐसे विषय से सम्बन्धित है जिस पर वह विधान मंडल विधि
बनाने में सक्षम है तो ऐसे विधायन या अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया जायेगा।
भले ही वह दूसरे विधान मण्डल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय पर आनुषंगिक
रूप से अतिक्रमण करता है। उस विधान या अधिनियम की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप का
पता लगाने के लिये पूरे अधिनियम पर विचार किया जायेगा तथा उसके उद्देश्य और
विस्तार तथा उसके उपबंध के प्रभाव की जाँच की जायेगी।
उत्तर- राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) संसदीय शक्ति- राष्ट्रपति की विधायी शक्ति के अन्तर्गत निम्नलिखित संसदीय शक्तियाँ हैं-
(i) भारत को संसद में राष्ट्रपति तथा लोकसभा व राज्यसभा संसद के दोनों सदन
सम्मिलित हैं।
(ii) संसद के सत्र का अवसान तथा विघटन राष्ट्रपति करता है।
(iii) संसद के किसी सदन या संसद के दोनों सदनों को संयुक्त रूप से सम्बोधित
करताहै।
(iv) कोई भी विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होने के पश्चात् राष्ट्रपति
के हस्ताक्षर के बिना अधिनियम नहीं बन सकता।
(ख) कुछ विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक
है, जैसे-
(i) राज्य के क्षेत्र के परिवर्तन या निर्माण से संबंधित विधेयक (अनुच्छेद 3)
(ii) धन विधेयक (अनुच्छेद 110) (iii) भाषा संबंधी विधेयक (अनुच्छेद 349)
(ग) अध्यादेश निर्गत करने की शक्ति-अनुच्छेद 123 के अनुसार उस समय को छोड़कर जब दोनों सदन सत्र में हैं, कतिपय
परिस्थितियों के अनुकूल अध्यादेश राष्ट्रपति जारी कर सकता है। यदि राष्ट्रपति को
समाधान हो गया हो कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयी हैं। यह अध्यादेश संसद के
दोनों सदनों के सत्र में आने के पश्चात् छ: मास तक प्रभाव में रहता है।
राष्ट्रपति अध्यादेश किसी भी समय वापस कर सकता है।
प्रश्न 23. राष्ट्रपति की न्यायिक शक्ति का संक्षेप में उल्लेख करें। Discuss in
briefly the judicial powers of President.
उत्तर – राष्ट्रपति की निम्न न्यायिक शक्तियाँ- राष्ट्रपति को निम्न न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त हैं-
(1) उच्चतम न्यायालय से किसी मामले में राय (Opinion) लेना तथा [अनुच्छेद 143]
(2) वह दोषसिद्ध व्यक्तियों के दण्ड को क्षमा (Pardon) प्रतिलम्बन (Reprieve),
परिहार (Respite) या लघुकरण (Remission) प्रदान कर सकता है। ऐसी दोषसिद्धि के
अन्तर्गत सैन्य न्यायालय द्वारा की गयी दोषसिद्धि भी सम्मिलित है।
प्रश्न 24. भारत के राष्ट्रपति की शक्तियाँ। Powers of the President of India.
उत्तर- भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति को बृहद शक्ति प्राप्त है।
अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति राष्ट्रपति में निहित है।
राष्ट्रपति भारतीय गणतंत्र का प्रधान है। भारत सरकार की समस्त कार्यपालिकीय
कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की जाती है। (अनुच्छेद 77 )। वह देश के सभी
उच्चाधिकारियों की नियुक्ति करता है। जैसे- प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल के सदस्यों
की उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की, राज्य के राज्यपालों की भारत के
महान्यायवादी, भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा
लोक सेवा आयोग के सदस्यों आदि की। राष्ट्रपति को विधायी शक्तियों में उसकी
अध्यादेश जारी करने की शक्ति सबसे महत्वपूर्ण है (अनुच्छेद (123) संविधान द्वारा
राष्ट्रपति को प्रदत्त शक्तियों को हम निम्नलिखित भागों में बाँट सकते हैं- (1) कार्यपालिकीय शक्तिः (2) सैनिक शक्तिः (3) कूटनीतिक शक्ति (4) विधायी शक्तिः (5) न्यायिक शक्तिः (6) आपात्कालीन शक्ति।
उत्तर- राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियाँ- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 52 के
अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 के खण्ड (1) के अनुसार संघ की
कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और राष्ट्रपति इसका प्रयोग संविधान
के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करेगा। अनुच्छेद 53 के अनुसार
संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। इस संदर्भ में अनुच्छेद 74
प्रावधान करता है कि राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिका शक्ति (Executive Power) का
प्रयोग एक मंत्रिपरिषद् की सहायता तथा सलाह पर करेगा। इस मंत्रिपरिषद् का प्रधान
प्रधानमंत्री होगा। पुनः अनुच्छेद 78 के अनुसार प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य होगा
कि वह संघ के कार्यों के प्रशासन और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रिपरिषद
के सभी विनिश्चय राष्ट्रपति को संसूचित करें, यदि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की
सहायता तथा सलाह से कार्य नहीं करता तो उसे संसद में महाभियोग (Impeachment) का
सामना करना पड़ सकता है। परन्तु यह स्मरणीय है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् के
निर्णय के अनुसार कार्य करने के लिये तो बाध्य है परन्तु वह मंत्रिपरिषद्
संस्तुतियों( Recommendations) को मानने के लिये बाध्य नहीं है।
राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करता है, (अनुच्छेद 75)
तथा प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है। राष्ट्रपति,
मंत्री, राज्यपालों (अनुच्छेद 155) उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के
न्यायाधीशों (अनुच्छेद 124 तथा अनुच्छेद 217) की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति
महान्यायवादी (Solicitor General) की नियुक्ति भी करता है, ये सभी राष्ट्रपति के
प्रसाद पर्यन्त कार्य करते हैं। राष्ट्रपति मुख्य निर्वाचन आयुक्त, अन्य निर्वाचन
आयुक्त, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा उसके सदस्यों की नियुक्ति भी है।
उत्तर भारत के राष्ट्रपति की अर्हतायें (Qualifications of President of
India)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार राष्ट्रपति पद के लिये पात्र
होने के लिये निम्न अर्हतायें आवश्यक हैं-
(1) उसे भारत का नागरिक होना चाहिये। (2) उसे 35 वर्ष की आयु का होना चाहिये। (3) उसे लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की अर्हता रखनी चाहिये अर्थात् उसका
नाम किसी संसदीय निर्वाचन मंडल में मतदाता के रूप में पंजीकृत होना चाहिये।
(अनुच्छेद 58)
(4) उसे भारत सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी
के अधीन नियंत्रित किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण
किये हुये नहीं होना चाहिये।
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, संघ या राज्य के मंत्री के पद
को लाभ का पद नहीं माना जायेगा। [ बाबू राव पटेल बनाम जाकिर हुसैन, ए० आई० आर०
(1988) सु० को० 904]
Discuss the powers of President of India related to grant of pardon.
उत्तर- संविधान के अनुच्छेद 72 (1) के अन्तर्गत राष्ट्रपति को, किसी अपराध के
लिये सिद्धदोष ठहराये गये किसी व्यक्ति के दण्ड को क्षमा, उसका प्रविलम्बन, विराम
या परिहार करने की अथवा दण्डादेश के निलम्बन, परिहार या लघुकरण की- (क) उन सभी मामलों में जिनमें दण्ड या दण्डादेश सेना न्यायालय ने दिया है,
(ख) उन सभी मामलों में, जिनमें दण्ड या दण्डादेश ऐसे विषय संबंधी किसी विधि के
विरुद्ध अपराध के लिये दिया गया है जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का
विस्तार है,
(ग) उन सभी मामलों में जिनमें दण्डादेश, मृत्यु दण्डादेश है, शक्ति होंगी।
उत्तर- राष्ट्रपति पर महाभियोग (Impeachment of President )- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 61 के अन्तर्गत राष्ट्रपति पर महाभियोग की
प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति पर महाभियोग
का आरोप संसद के किसी सदन द्वारा लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति पर महाभियोग का
आरोप तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक कि (1) प्रस्तावित आरोप एक संकल्प के रूप
में न हो। (2) यह संकल्प कम से कम 14 दिनों की लिखित सूचना देने के बाद प्रस्तुत
न किया गया हो। (3) प्रस्ताव या संकल्प पर सदन के 1/4 सदस्यों ने हस्ताक्षर करके
प्रस्तावित करने के संकल्प का अनुमोदन किया है। (4) सदन, जिसमें प्रस्ताव
प्रस्तुत किया गया है उसके कुल सदस्य संख्या के कम से कम 2/3 बहुमत द्वारा ऐसे
संकल्प को पारित न कर दिया गया हो।
जब संसद के एक सदन द्वारा महाभियोग का आरोप लगा दिया
गया हो तो दूसरा सदन उस आरोप की जाँच करेगा। यदि जाँच के पश्चात् वह सदन अपनी
सदस्य संख्या के कम से कम 2/3 बहुमत द्वारा एक संकल्प पारित करके यह उद्घोषित कर
देता है कि राष्ट्रपति पर लगाया गया आरोप सिद्ध हो चुका है तो ऐसे संकल्प का
प्रभाव उसको पारित किये जाने की तिथि से राष्ट्रपति को अपने पद से हटाया जा
सकेगा। [अनुच्छेद 61 (4) ]।
उत्तर- राष्ट्रपति की अध्यादेश प्रख्यापित करने की शक्ति (Power of President
to issue Ordinance)- राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों में उसकी अध्यादेश जारी करने की शक्ति
महत्वपूर्ण है। संविधान का अनुच्छेद 123 यह प्रावधान करता है कि जब संसद के दोनों
सदन सत्र में न हों तथा राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाये कि ऐसी
परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनमें तुरन्त कार्यवाही करना आवश्यक हो गया है तो वह
ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर पायेगा जो उसे उक्त परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत
हो। राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये अध्यादेशों का वही बल और प्रभाव होगा जो
संसद द्वारा पारित अधिनियम का प्रत्येक अध्यादेश का जीवन काल छः मास होगा यदि वह
जारी होने के छः मास के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित (अनुमोदित) नहीं
कर दिया जाता, वह छः मास के पश्चात् स्वयमेव समाप्त हो जायेगा। राष्ट्रपति अपने
द्वारा जारी किये गये अध्यादेश को कभी भी समाप्त कर सकता है। राष्ट्रपति उन्हीं
विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकता है जिन पर संसद को विधायन की शक्ति प्राप्त है।
यदि राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश ऐसे उपबंध करता है जिस पर संसद को विधायी
शक्ति नहीं है तो ऐसा अध्यादेश शून्य होगा।
उत्तर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 में संसद की सदस्यता के लिए निरर्हताओं का
उल्लेख किया गया है इस अनुच्छेद के अनुसार- (1) कोई व्यक्ति संसद के किसी सदन का
सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा-
(क) यदि वह भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर,
जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना संसद ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई
लाभ का पद धारण करता है।
(ख) यदि वह विकृतचित्त हो और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है: (ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है:
(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता
स्वेच्छा से अर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या
अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए हैं:
(ङ) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरहित
कर दिया जाता है।
यहाँ कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या किसी राज्य
की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे
राज्य का मंत्री हैं।
(2) कोई व्यक्ति संसद के किसी सदन का सदस्य होने के निरहित होगा यदि वह दसवीं
अनुसूची के अधीन इस प्रकार निरहित हो जाता है।
पी० ए० संगम्मा बनाम प्रणव मुखर्जी, ए० आई० आर० (2013) एस० सी० 372 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि लाभ के
पद से अभिप्राय ऐसे पद से है जिसके साथ कुछ आर्थिक लाभ जुड़े हुए हो।
Discuss about procedure of election of President.
उत्तर -संविधान के अनुच्छेद 54 के अनुसार राष्ट्रपति का निर्वाचन (चुनाव) एक
निर्वाचन मण्डल (Electoral college) के सदस्य करेंगे जिसमें (क) संसद के दोनों
सदनों के निर्वाचन सदस्य तथा (ख) राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य
होंगे अर्थात् संसद के या विधान मण्डल के नाम निर्दिष्ट सदस्य राष्ट्रपति के
चुनाव में निर्वाचन के लिए निर्वाचन मण्डल (Electoral College) के सदस्य नहीं
होंगे।
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा सीधे न
होकर जनता द्वारा निर्वाचित संसद सदस्य या विधान मण्डल के सदस्यों द्वारा अपरोक्ष
(अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
राज्य विधानसभा के निर्वाचनगण के सदस्य को उतनी
संख्या में मत देने का अधिकार है जितना निम्न सूत्र से निश्चित हो-
विधान सभा सदस्य के मतों की संख्या
राज्य की जनसंख्या × 1
=
———————————— ÷ 1000
राज्य की विधान सभा के सदस्यों की संख्या
संसद सदस्यों के मतों की संख्या की गणना के लिए
निम्न सूत्र हैं-
संसद सदस्य के मतों की संख्या
निर्वाचक मण्डल में राज्य विधान सभाओं के सदस्यों के लिए नियत मतों की संख्या
= ————————————————————-
संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या
उत्तर-छद्म विधायन का सिद्धान्त (Doctrine of Colourable Legislation)- हमारा संविधान केन्द्र तथा राज्य विधान मंडलों के मध्य विधायी शक्तियों का
विभाजन करता है। प्रथम अनुसूची के अन्तर्गत उल्लिखित विषयों पर संसद को अधिनियम
बनाने का अधिकार है तथा द्वितीय सूची में उल्लिखित विषयों पर राज्य विधान मंडल
विधि बना सकती है। किसी विधि की संवैधानिकता को इस आधार पर भी चुनौती दी जा सकती
है कि क्या संसद या राज्य विधान मंडल ने विधि बनाने में अपनी विधायी शक्तियों का
अतिक्रमण तो नहीं किया है। विधायी शक्तियों का अतिक्रमण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
दोनों ढंग से हो सकता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि यद्यपि विधान मंडल किसी विधि को
बनाने में ऊपरी तौर पर (प्रत्यक्षत:) अपनी शक्तियों के भीतर कार्य करता है तथापि
यथार्थ में अप्रत्यक्षतः अपनी संवैधानिक विधायी शक्ति का अतिक्रमण करता है। इस
प्रकार के परोक्ष या अप्रत्यक्ष विधायन को छद्म विधायन कहते हैं। ऐसे मामले में
अधिनियम या विधि के ऊपरी प्रारूप का महत्व न होकर महत्व उस अधिनियम के सार
(Substance) होता है। ऐसे विधायन से ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि विधान मंडल ने
अपनी विधायी शक्तियों के अन्तर्गत ही कार्य किया है परन्तु यदि विधायन का सार या
विधायन के उद्देश्य तथा सार (Substance) की जाँच की जाये तो यह विदित होता है कि
विधायिका ने उस विषय पर विधि का निर्माण किया है जिस पर विधि बनाने का उसे अधिकार
नहीं था। इस प्रकार यदि विधायन की विषय वस्तु सारतः उस विधान मंडल की शक्ति से
बाहर है तो उसका बाह्य स्वरूप उसे न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने से
नहीं बचा सकता क्योंकि विधान मंडल कोई अप्रत्यक्ष या परोक्ष तरीका अपनाकर
संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता।
इस सिद्धान्त का आधार यह है कि जो कार्य विधान मंडल
प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कर सकता। यह
सम्पूर्ण सिद्धान्त संबंधित विधान निर्माता की सक्षमता के इस प्रश्न के
इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या वह विधान मंडल उस विधान के निर्माण हेतु सक्षम था।
उत्तर- क्षेत्रीय संबंध का सिद्धान्त (Doctrine of Territorial Nexus)- क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 से
संबंधित है। संविधान का अनुच्छेद 245 संसद तथा राज्य विधान मंडल की क्षेत्रीय
विधायी शक्ति का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 245 का खण्ड (1) यह प्रावधान करता है
कि इस संविधान के अधीन रहते हुये संसद भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र के लिये या
उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकती है तथा किसी राज्य का विधान मंडल सम्पूर्ण
राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा। अनुच्छेद 245 खण्ड (2)
के अनुसार संसद द्वारा बनाई गयी कोई विधि इस आधार पर अविधिमान्य नहीं समझी जायेगी
कि उसका राज्य क्षेत्रातीत प्रवर्तन होगा।
इसका तात्पर्य है कि संसद की विधायी शक्ति सम्पूर्ण देश है
तथा राज्य विधान मंडल विधायी शक्ति का क्षेत्रीय विस्तार सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र
है। इस नियम का एक अपवाद है कि राज्य द्वारा बनाई गयी विधि भी राज्य क्षेत्र के
बाहर के क्षेत्र में लागू हो सकेगी। यदि बाहरी क्षेत्र तथा उस विषयवस्तु से कोई
संबंध है जिसके ऊपर यह विधि लागू थी। इस सिद्धान्त को क्षेत्रीय सम्बन्ध का
सिद्धान्त (Doctrine of territorial nexus) कहते हैं। इस प्रकार यदि एक राज्य
अपने राज्य क्षेत्र के लिये विधि बनाता है परन्तु यदि विधि की विषयवस्तु का
सम्बन्ध अन्य क्षेत्रों से भी है जो राज्य क्षेत्र के बाहर है तो क्षेत्रीय
सम्पन्नता के सिद्धान्त के अन्तर्गत वह विधि उस राज्य क्षेत्र के बाहर भी लागू
होगी जिसके विधान मंडल द्वारा प्रश्नगत विधि बनाई गयी है। ई० बचिया बनाम आन्ध्र
प्रदेश राज्य ए० आई० आर० (2005) सु० को० 162 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा
कि क्षेत्रीय सामीप्य के सिद्धान्त को लागू करते समय संविधि के उद्देश्य क्षेत्र
एवं प्रभाव को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
उच्चतम न्यायालय के अनुसार क्षेत्रीय सम्बन्ध के सिद्धान्त
(Doctrine of territorial (nexus) को लागू होने की दो शर्तें है –
(1) विषयवस्तु में तथा इस राज्य में जहाँ अधिनियम लागू होता है वास्तविक संबंध हो
भ्रामक नहीं।
(2) दायित्व जो उस अधिनियम के अन्तर्गत उत्पन्न होता है, उसे संबंध के
प्रसंगानुकूल होना चाहिये। यह तथ्य कि किसी मामले में पर्याप्त संबंध है या नहीं
प्रत्येक वाद के तथ्य तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
उत्तर- प्रसाद का सिद्धान्त- इंग्लैण्ड में प्रचलित नियम के अनुसार लोक सेवक के प्रसादपर्यन्त अपने पद
को धारण करते हैं। इसका अर्थ यह है कि उन्हें किसी भी सम्राट् समय बिना कोई कारण
दिखाये उनकी नौकरी से बर्खास्त किया जा सकता है। यहाँ तक कि सम्राट व सेवक में
यदि कोई नियोजन की संविदा भी है तो सम्राट् उससे बाध्य नहीं है। अन्य शब्दों में
यदि कोई लोक सेवक नौकरी से पदावधि के पहले ही निकाल दिया जाता है तो भी वह
सम्राट् से बकाया वेतन या किसी अन्य प्रकार के प्रतिकर का दावा नहीं कर सकता।
प्रसाद का सिद्धान्त लोकनीति पर आधारित होता है।
भारत में प्रसाद पर्यन्त के सिद्धान्त को संविधान के
अनुच्छेद 310 में समाविष्ट किया गया है। अनुच्छेद 310 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति
जो संघ की प्रतिरक्षा सेवा या असैनिक सेवा या अखिल भारतीय सेवा का सदस्य है या
संघ के अधीन प्रतिरक्षा से सम्बन्धित किसी पद को अथवा किसी असैनिक पद को धारण
करता है राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करता है। परन्तु कुछ अपवाद भी हैं
जहाँ प्रसाद का सिद्धान्त लागू नहीं होता।
लोक सेवकों के सांविधानिक संरक्षण- संविधान के अनुच्छेद 311 में लोक सेवकों को अपने पद से मनमाने ढंग से पदच्युत
किये जाने के विरुद्ध निम्नलिखित सांविधानिक संरक्षण प्रदान किये गये हैं-
(1) कोई भी लोक सेवक अपने नियुक्तिकर्ता से नीचे के किसी प्राधिकारी द्वारा
पदच्युत नहीं किया जायेगा या पद से हटाया नहीं जायेगा।
(2) कोई भी व्यक्ति तब तक पदच्युत या पद से हटाया या पंक्तिच्युत नहीं किया
जायेगा जब तक कि उसे अपने विरुद्ध दोषारोपों से अवगत न करा दिया गया हो और उसके
सम्बन्ध में सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर न दे दिया गया हो।
उत्तर – उप
राष्ट्रपति विधान के अनुच्छेद 63 में कहा गया कि भारत का एक उपराष्ट्रपति भी
होगा। उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्य मिलकर आनुपातिक
प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा करेंगे और ऐसे निर्वाचन
में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होगा। राष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्य विधान-मण्डल
के सदस्य भी भाग लेते हैं, जबकि उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में केवल संसद के सदस्य
ही भाग लेते हैं। ऐसा उसके कार्यों को देखते हुये किया गया है। उसका मुख्य कार्य
राज्यसभा की बैठकों को अध्यक्षता करना है। उप राष्ट्रपति के निर्वाचन से
सम्बन्धित किसी विषय का विनियमन संसद विधि बनाकर कर सकती है। उसके निर्वाचन से
संबंधित सभी शंकाओं और विवादों की जांच और विनिश्चय उच्चतम न्यायालय करेगा और
उसका निर्णय अन्तिम होगा।
उप-राष्ट्रपति की अर्हतायें- उप राष्ट्रपति की योग्यतायें वही हैं जो राष्ट्रपति की है, सिवाय इसके कि उसे के
लिये चुने जाने की योग्यता होनी चाहिये। वह कोई लाभ का पद धारण नहीं कर सकता है।
उप-राष्ट्रपति की पदावधि- उप-राष्ट्रपति की पदावधि 5 वर्ष की है। किन्तु इस अवधि के पहले ही (a) वह अपने
पद से राष्ट्रपति को सम्बोधित करके अपना पद त्याग सकता है।
(b) उसे राज्यसभा के संकल्प द्वारा जिसे सदन के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत
ने पारित किया हो तथा जिसे लोक सभा के साधारण ने स्वीकृत किया हो, अपने पद से
हटाया जा सकता है किन्तु ऐसे संकल्प को प्रस्तावित करने के पूर्व 14 दिन की नोटिस
देना आवश्यक है।
उप-राष्ट्रपति के कार्य- उप राष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। उसका सामान्य कार्य राज्य सभा
की बैठकों की अध्यक्षता करना है। उप-राष्ट्रपति चूंकि राज्यसभा का सदस्य नहीं
होता है अतएव उसे मतदान का अधिकार नहीं है किन्तु सभापति के रूप में निर्णायक मत
देने का अधिकार प्राप्त है। संविधान में उप राष्ट्रपति का महत्व इस नाते हैं कि
जब कभी भी राष्ट्रपति का पद किसी कारणवश रिक्त हो जाता है तो वह राष्ट्रपति के
कार्यों का तब तक सम्पादन करता है जब तक नये राष्ट्रपति का निर्वाचन नहीं हो
जाता। जब उप राष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है तो उसे राष्ट्रपति
की सब शक्तियाँ, उन्मुक्तियाँ, उपलब्धियों भत्तों तथा विशेषाधिकार का अधिकार
प्राप्त होगा।
सन् 1998 में उप-राष्ट्रपति परिलब्धियां तथा पेंशन
(संशोधन विधेयक, 1998 द्वारा) उप-राष्ट्रपति की परिलब्धियों को 14,800 रुपये से
बढ़ाकर 40,000 रुपये प्रतिमास दिया गया था। परन्तु वर्तमान में उप-राष्ट्रपति
परिलब्धियाँ तथा पेंशन (संशोधन) अधिनियम, 2009 द्वारा उप-राष्ट्रपति के वेतन को
बढ़ाकर 1,25,000 रुपये प्रतिमास कर दिया गया है।
उत्तर- भारत का महान्यायवादी भारत के महान्यायवादी (Attorney General of
India) की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त
होने के लिये अर्हित (Qualified) किसी व्यक्ति को भारत का महान्यायवादी नियुक्त
किया जायेगा।
अनुच्छेद 70 (2) के अनुसार महान्यायवादी का यह
कर्तव्य होगा कि वह भारत सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे तथा विधिक
स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राष्ट्रपति उसको समय-समय पर
निर्देशित करे या सौंपे तथा उन कर्तव्यों का निर्वहन करे जो उसको संविधान या
तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अन्तर्गत सौंपे जायें। महान्यायवादी को भारत के
राज्य क्षेत्र में किसी भी न्यायालय में सुनवाई का अधिकार होगा। महान्यायवादी
राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपना पद धारण करेगा तथा राष्ट्रपति द्वारा
निर्धारित पारिश्रमिक प्राप्त करेगा।
उत्तर- लेखानुदान (Votes of Account)- भारत की संचित निधि में से तब तक धन नहीं निकाला जा सकता, जब तक विनियोग विधेयक
पारित नहीं कर दिया जाता। लेकिन कभी-कभी सरकार को ऐसे विधेयक के पारित होने के
पूर्व ही धन की आवश्यकता हो जाती है। ऐसी दशा में लोक सभा ‘लेखा अनुदान’ पारित कर
सरकार के लिए एक अग्रिम राशि (पेशगी) स्वीकृत कर सकती है।
इसी प्रकार लोक सभा को किसी विशेष प्रयोजन के लिए
अपवादानुदान स्वीकृत करने की शक्ति प्राप्त है जो किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा
का कोई भाग नहीं होता है। (अनुच्छेद 116)
उत्तर – प्रधानमंत्री मंत्रि-परिषद् का प्रधान होता है और यह मंत्रि- परिषद् राष्ट्रपति के कार्यों के संचालन करने तथा उन्हें मंत्रणा देने में
सहायता करती है। मंत्रिमंडल (Cabinet) मंत्रि-परिषद् की एक छोटी इकाई है। हमारे
संविधान में मंत्रिमंडल शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है। फिर भी मंत्रिमंडल का
अस्तिव है। मंत्रि परिषद् में तीन श्रेणी के मंत्री आते हैं – (1) कैबिनेट स्तर के मंत्री; (2) राज्य मंत्री तथा (3) उपमंत्री।
सभी कैबिनेट मंत्री अपने-अपने विभागों के अध्यक्ष
होते हैं परन्तु सभी कैबिनेट मंत्री, मंत्रि परिषद् के सदस्य नहीं होते हैं।
मंत्रि परिषद् के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर
की जाती है और उसी के द्वारा सदस्यों की पदच्युति भी की जाती है। इस प्रकार अपने
सहयोगियों के चुनाव में प्रधानमंत्री का निर्णय ही अन्तिम होगा। प्रधानमंत्री की
नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है। प्रधानमंत्री वह व्यक्ति नियुक्त
किया जाता है जिसे लोक सभा के बहुमत का विश्वास प्राप्त हो या वह बहुमत दल का
नेता हो।
उत्तर- वित्त विधेयक- वित्त विधेयक एक ऐसा धन विधेयक होता है जिससे साधारण विधान के उपबंध भी
जोड दिये जाते हैं। प्रत्येक धन विधेयक वित्त विधेयक होता है किन्तु प्रत्येक
वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होता है। वित्त विधेयक भी धन विधेयक की ही भांति
केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है और दूसरा यह कि वित्त विधेयक भी
राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना सदन में पेश नहीं किया जा सकता है। अन्य सभी
बातो में वित्त विधेयक एक साधारण विधेयक के समान ही है। इसे दोनों सदनों में
पारित होना चाहिये। राज्य सभा इसमें संशोधन कर सकती है, या इसे अस्वीकृत कर सकती
है। यदि दोनो सदनों में वित्त विधेयक के ऊपर कोई असहमति है तो उसे सदनों को
संयुक्त बैठक बुलाकर निपटाया जा सकता है
उत्तर-धन विधेयक (Money Bill)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 110 (1) के अनुसार धन विधेयक एक ऐसा विधेयक है
जो निम्नलिखित विषयों में सभी या किसी एक विषय से सम्बन्धित है – (क) किसी कर का आरोपण, उत्सादन, परिहार, बदलना या विनियमन करना।
(ख) भारत सरकार द्वारा धन उधार लेने का विनियमन (regulate) करना या प्रत्याभूत
करना।
(ग) भारत की संचित निधि अथवा आकस्मिकता निधि की अभिरक्षा तथा उसमें धन डालना या
उसमें से धन निकालना।
(घ) भारत की संचित निधि में धन का विनियोग करना। (ङ) किसी व्यय को भारत को संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना।
(च) भारत की संचित निधि के या भारत के लोक लेखे के मद्धे धन प्राप्त करना ऐसे धन
की अभिरक्षा या निकासी या संघ या राज्य के हिसाब का लेखा परीक्षण करना।
(छ) उपरोक्त उपबंध (क) से (च) तक में उल्लिखित विषयों में से किसी आनुषंगिक विषय
का उपबंध करना।
यदि कभी यह प्रश्न उठता है कि कोई विधेयक धन विधेयक
है या नहीं तो उस पर लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा। अतः जब कोई धन विधेयक
राज्य सभा को प्रेषित किया जाता है या राष्ट्रपति के समक्ष उसकी अनुमति के लिये
रखा जाता है तो उस पर लोकसभा अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पत्र अंकित
होगा कि वह विधेयक धन विधेयक है। [ अनुच्छेद 110 (4)]
उत्तर – विनियोग विधेयक (Appropriation Bill) – जब तक विनियोग विधेयक नहीं पारित कर दिया जाता, भारत की संचित निधि से कोई
धनराशि नहीं निकाली जा सकती। अतएव लोकसभा द्वारा अनुदान की माँग पारित कर देने के
बाद एक विनियोग विधेयक पेश किया जाता है जिसमें लोकसभा द्वारा अनुमोदित सभी
अनुदानों तथा भारत की संचित निधि या भारित व्यय की पूर्ति के लिये धन के विनियोग
का उपबन्ध रहता है। विनियोग विधेयक में ऐसा कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं किया
जायेगा जो किसी अनुदान की राशि में फेरफार करनेया उसके साक्ष्य को बदलने या भारत
की संचित निधि पर भारित व्यय की राशि में फेरफार करने का प्रयास रखने वाला हो।
विनियोग विधेयक पारित होने के बाद ही कोई धनराशि भारत की संचित निधि से निकाली जा
सकती है।
उत्तर-धन विधेयक पारित किये जाने की प्रक्रिया (Procedure for Passing Money
Bill)- धन विधेयक सिर्फ लोकसभा में हो पेश किया जा सकता है। वह राज्यसभा में पेश
नहीं किया जा सकता। [ अनुच्छेद 109 (1) ] कोई धन विधेयक राष्ट्रपति की संस्तुति
के अभाव में लोकसभा में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः यह मंत्रिमण्डल की
संस्तुति होती है। किन्तु किसी कर के घटाने या समाप्त करने के लिये उपबंध करने
वाले किसी संशोधन को प्रस्तावित करने के लिये इस खण्ड के अन्तर्गत राष्ट्रपति की
सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती।
धन विधेयक लोकसभा द्वारा पारित किये जाने के पश्चात्
राज्यसभा को उसकी संस्तुति के लिये प्रेषित किया जाता है। राज्यसभा के लिये यह
आवश्यक है कि वह 14 दिनों के भीतर इसे वापस नहीं करती तो उक्त अवधि की समाप्ति पर
वह दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पारित समझा जायेगा जिसमें कि लोकसभा ने उसको
पारित किया था। इस प्रकार राज्यसभा अधिक से अधिक 14 दिनों तक धन विधेयक को रोक
सकती है। (अनुच्छेद 101)
इस प्रकार दोनों सदनों से पारित हो जाने के पश्चात्
धन विधेयक राष्ट्रपति के समक्ष उसकी अनुमति के लिये पेश किया जाता है। इस पर
राष्ट्रपति अपने विवेकानुसार सहमति देता है या सहमति रोक लेता है। धन विधेयक
राष्ट्रपति सदन में पुनर्विचारण के लिये लौटा नहीं सकता।
उत्तर- लोक सभा का अध्यक्ष (Speaker of Lok sabha)- लोक सभा अपने सदस्यों में से ही अध्यक्ष का चुनाव करती है। अध्यक्ष लोकसभा
का प्रमुख पदाधिकारी होता है। वह इसकी बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा इसके
संचालन का नियंत्रण करता है। लोक सभा के अध्यक्ष के चुनाव से संबंधित उपबंध
संविधान के अनुच्छेद 93 में दिये गये हैं। जब अध्यक्ष का पद रिक्त होता है तो
उपाध्यक्ष उसके पद के कर्तव्यों का पालन करता है। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तभी तक
अपने पद पर बने रहते हैं जब तक वे लोक सभा के सदस्य रहते हैं। जैसे हो वे लोक सभा
के सदस्य नहीं रहते, उन्हें अपने पद रिक्त करने होते हैं। किन्तु लोक सभा के
विघटित हो जाने के बावजूद भी अध्यक्ष नवनिर्वाचित लोक सभा के प्रथम अधिवेशन तक
अपने पद पर बना रहता है। अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को ऐसे वेतन और भत्ते दिये जायेंगे
जिसे संसद विधि द्वारा नियत करे। जब तक ऐसी कोई विधि पारित नहीं की जाती है तब तक
ऐसे चेतन और भत्ते दिये जायेंगे जो द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित हैं।
अध्यक्ष पद बड़े उत्तरदायित्व का पद होता है। वह सदन
की गरिमा तथा विशेषाधिकारों को कायम रखने के लिये जिम्मेदार होता है। एक बार चुने
जाने पर वह दलीय पक्षपातों से ऊपर उठ जाता है। भारतीय संविधान में अध्यक्ष के पद
को स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता को सांविधानिक उपबंधों द्वारा संरक्षित किया गया
है। जैसे कि- वह प्रथम बार मतदार नहीं करता है। वह केवल किसी विषय पर मतों की
बराबरी पर निर्णायक मतदान करत है।
उत्तर – मंत्रि परिषद् का सामूहिक दायित्व- मंत्रिपरिषद् का सामूहिक उत्ता दायित्व संसदीय सरकार का मुख्य अधार है।
भारतीय संविधान ने स्पष्ट उपबंध द्वारा इस सिद्धान्त को सुरक्षित किया है।
अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार मंत्रि परिषद् लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से
उत्तरदायी होती है। सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ है मंत्रिगण अपने कार्यों के
लिए टीम के रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मंत्रिगण एक टीम के रूप
में कार्य करते हैं और मंत्रिमंडल के लिये किये गये सभी निर्णय उसके सदस्यों के
संयुक्त निर्णय होते हैं। मंत्रिमंडल की बैठक में मंत्रियों में किसी विषय पर
कितना ही मतभेद क्यों न रहा हो, किन्तु एक बार जब निर्णय ले लिया जाता है तब सभी
मंत्रियों को उसे स्वीकार करना होता है तथा विधानमंडल में या बाहर उसका समर्थन
करना होता है। लार्ड सैलिसबरी ने कहा कि, जो भी निर्णय मंत्रिमंडल में लिया जाता
है सभी मंत्रीगण, जो उससे इस्तीफा नहीं दे देते हैं, पूर्ण रूप से उत्तरदायी होते
हैं।
यह प्रधानमंत्री के हाथ में सबसे बड़ा अस्त्र है
जिसके माध्यम से वह मंत्रिपरिषद् के अपने सहयोगियों में एकता और अनुशासन बनाये
रखता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मंत्रिपरिषद् लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से
उत्तरदायी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि मंत्रिपरिषद् लोक सभा का विश्वास
खो देती है, अर्थात् किसी नीति के प्रश्न पर पराजित हो जाती है तो मंत्रि परिषद
को इस्तीफा देना पड़ता है।
उत्तर- मंत्रिपरिषद् (Council of Ministers)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के
लिये एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने
कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा। मंत्रिपरिषद् में
तीन श्रेणी के मंत्री आते हैं-(i) कैबिनेट स्तर के मंत्री, (ii) राज्यमंत्री,
(iii) उपमंत्री। सभी कैबिनेट मंत्री अपने-अपने विभागों के अध्यक्ष होते हैं
परन्तु सभी कैबिनेट मंत्री, मंत्रि परिषद् के सदस्य नहीं होते हैं। मंत्रि परिषद्
के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती है और
उसी के द्वारा सदस्यों की पदच्युति भी की जाती है। इस प्रकार अपने सहयोगियों के
चुनाव में प्रधानमंत्री का निर्णय ही अन्तिम होता है।
अनुच्छेद 75 के अनुसार – प्रधानमंत्री की नियुक्ति
राष्ट्रपति करता है जबकि अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की
मंत्रणा पर करने के लिये बाध्य होता है। मंत्रिपरिषद् में प्रधानमंत्री सहित
मंत्रियों की कुल संख्या लोक सभा के सदस्यों को कुल संख्या के 15% से अधिक नहीं
होगी।
मंत्रो राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपने पद धारण
करेंगे। मंत्रि-परिषद लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।
मंत्रिपरिषद के सामूहिक उसदायित्व के साथ-साथ मंत्रियों का अपने विभागों के
कार्यों के प्रति वैयक्तिक उत्तरदायित्व भी होता है। ऐसे कार्यों के लिये उसे
संसद में उत्तर देना होता है वह उसे अन्य मंत्रियों या सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद के
सिर नहीं सकता। यदि रेलवे कर्मचारियों की लापरवाही से कोई भयंकर दुर्घटना होती है
तो उसका उत्तरदायित्व रेल मंत्री पर होता है, किसी अन्य मंत्री पर नहीं इस संबंध
में स्टेट ऑफ मणिपुर बनाम ऑल मणिपुर पेट्रोलियम प्रोड्क्टस ट्रान्सपोर्ट्स
एसोसियेशन, ए० आई० आर, (2007) एन० ओ० सी० 1791 गुवाहाटी के मामले में गुवाहाटी
उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मंत्रियों द्वारा लिये जाने
वाले विनिश्वयों में विभागीय तालमेल होना अपेक्षित है। यदि किसी मंत्री द्वारा
ऐसा कोई निर्णय लिया जाता है जो वित विभाग से संबंधित है तो उसे वित्त विभाग से
परामर्श कर लेना चाहिये। वित्त विभाग के परामर्श के बिना वित्त संबंधी लिया गया
कोई भी निर्णय आरम्भतः शून्य (void-ab-initio) होगा कोई मंत्री जो निरन्तर छह माह
की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर
मंत्री नहीं रहेगा। मंत्रियों के वेतन और भसे ऐसे होंगे जो संसद, विधि द्वारा
समय-समय पर अवधारित करे और जब तक संसद इस प्रकार अवधारित नहीं करती है तब तक ऐसे
होंगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
उत्तर- संसद में विधेयक पारित करने की प्रक्रिया – (अनुच्छेद 107) संसद का महत्वपूर्ण कार्य देश के लिये विधि या कानून का
निर्माण करना है अर्थात् एक विधेयक के अधिनियम बनने तक की यात्रा (विधायी
प्रक्रिया) संसद में ही पूरी होती है।
संसद में तीन प्रकार के विधेयक प्रस्तुत किये जाते
हैं-साधारण विधेयक, धन विधेयक तथा संविधान संशोधन विधेयक इत्यादि पर संसद का
कार्य निर्भर होता है।
साधारण विधेयक – कोई विधेयक संसद में ही अपनी विधायी प्रक्रिया के दौरान गुजरते हुये
कानून का स्वरूप धारण करता है। कोई भी साधारण विधेयक बिना राष्ट्रपति, राज्य सभा
तथा लोक सभा की अनुमति प्राप्त किये अधिनियम नहीं बन सकता। किसी विधेयक को सदन के
तीन वाचनों से गुजरना आवश्यक होता है। प्रथम वाचन में विधेयक को सदन के तीन
वाचनों से गुजरना आवश्यक होता है। प्रथम वाचन में विधेयक को सदन के सामने रखा
जाता है तथा इस दौरान यदि विधेयक विवादास्पद न हो तो इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं
किया जाता। द्वितीय वाचन के दौरान प्रस्तुत किये गये विधेयक पर सदन विचार-विमर्श
करता है। इस पर सामान्य बहस होती है तथा इसे प्रवर समिति के विचारणार्थ प्रस्तुत
किया जाता है। इसके पश्चात् तृतीय वाचन की स्थिति आगे है जो केवल औपचारिक होती
है। इसके पश्चात् विधेयक को सदन द्वारा पारित करके दूसरे सदन के विचारार्थ भेज
दिया जाता है। दूसरे सदन में फिर उन्हीं प्रक्रियाओं से विधेयक को गुजरना पड़ता
है। इस प्रकार दूसरा सदन यदि इसे एकमत से पारित कर देता है तो ऐसे विधेयक को
राष्ट्रपति की अनुमति के लिये भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की अनुमति मिल जाने
पर यही विधेयक कानून का रूप धारण कर लेता है।
परन्तु यदि विधेयक किसी एक सदन में पारित है दूसरे
में नहीं तो वह पारित नहीं। समझा जायेगा और ऐसे विधेयक पर दोनों सदनों में गतिरोध
की स्थिति में संविधान दोनों सदने को संयुक्त बैठक का प्रावधान करता है।
सदनों की संयुक्त बैठक- (अनुच्छेद 108) जब कोई विधेयक एक सदन में पारित होकर दूसरे सदन में भेजा
जाता है और वह दूसरा सदन – (1) विधेयक को अस्वीकृत कर देता है, (2) विधेयक में किये गये संशोधनों पर असहमत हो,
(3) इसे पारित किये बिना ही 6 महीने से ज्यादा समय बीत चुका हो तो राष्ट्रपति
दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आहूत कर सकता है।
इसके अलावा यदि विधेयक लुप्त हो गया हो भी राष्ट्रपति
संयुक्त बैठक करवा सकता है और जब राष्ट्रपति के इस आशय की सूचना दोनों सदनों को
दी गयी हो तो कोई भी सदन विधेयक पर आगे कार्यवाही नहीं करेगा।
लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव होने के तत्पश्चात् के
प्रथम बैठक को तथा प्रत्येक वर्ष की प्रथम बैठक में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक
को राष्ट्रपति सम्बोधित करता है तथा ऐसी बैठक बुलाये जाने के अपने कारणों को
इंगित करता है। हालांकि यह राष्ट्रपति का व्यक्तिगत अभिभाषण नहीं होता, इसे
मंत्रिमण्डल तैयार करती है। राष्ट्रपति केवल इसे पढ़ता है। राष्ट्रपति सदन में
लम्बित किसी विधेयक को विचारार्थ किसी सदन को संदेश भेज सकता है और वह सदन इस पर
विचार करेगा।
उत्तर- राज्य सभा और लोक सभा की संरचना – राज्य सभा -राज्य सभा की अधिकतम संख्या 250 होती है जिसमें 238 सदस्य राज्यों व संघ राज्य
क्षेत्रों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं तथा 12 सदस्यों को राष्ट्रपति
नामांकित करता है जो साहित्य, विज्ञान, कला तथा सामाजिक सेवा के क्षेत्र के
विशिष्ट ज्ञान रखने वाले होते हैं। नामांकित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में
भाग नहीं लेते हैं। राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन राज्य की विधान सभाओं के
निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय
मत द्वारा होता है। राज्य सभा एक स्थायी सदन होता है इसका विघटन नहीं होता परन्तु
इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष की समाप्ति पर सेवानिवृत्त कर दिये जाते
हैं। राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है तथा भारत का उपराष्ट्रपति
राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। राज्य सभा अपने सदस्यों में से किसी सदस्य को
उपसभापति चुनती है। जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा होता है
तब सभापति का पद खाली होने पर उपसभापति उस पद के कर्तव्यों का निर्वहन करता है
परन्तु जब उपसभापति का पद भी खाली होता है तब इस पद को राज्य सभा का कोई ऐसा
व्यक्ति सम्भालता है जिसे राष्ट्रपति विहित करे। राज्य सभा अपने तत्कालीन समस्त
सदस्यों के बहुमत से प्रस्ताव पारित करके सभापति तथा उपसभापति को हटा सकती है।
उपराष्ट्रपति तथा उपसभापति अपने पद से त्यागपत्र भी दे सकते हैं। यदि राज्य सभा
की किसी बैठक में उपराष्ट्रपति को उनके पद से हटाने सम्बन्धी कोई प्रस्ताव
विचाराधीन हो तो उपराष्ट्रपति उस सभा की अध्यक्षता नहीं करेगा।
लोक सभा- लोक सभा, जनता की सभा मानी जाती है इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष
रूप से जनता द्वारा होता है। इसके सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 है। (1) 530
सदस्य राज्यों से तथा 20 संघ शासित क्षेत्रों से लिये जाते हैं। इसके अलावा यदि
राष्ट्रपति को यह संज्ञान हो कि लोक सभा में एंग्लो इण्डियन समाज को पर्याप्त
प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है तो वह अनु० 331 के अधीन एंग्लो इण्डियन समुदाय के
दो सदस्यों को नामांकित कर सकता है।
राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के
आधार पर प्रत्यक्ष मतदान द्वारा होता है।
उत्तर- राज्य सभा का सभापति – भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होगा। उप राष्ट्रपति के
निर्वाचन में केवल संसद के दोनों सदनों के सदस्य ही भाग लेते हैं, राज्य की विधान
सभाओं के सदस्य नहीं क्योंकि उप राष्ट्रपति केवल राज्यसभा का सभापति होता है और
यदा-कदा ही राष्ट्रपति के पद का कार्यभार संभालता है। उपराष्ट्रपति के लिये
अर्हतायें, शर्ते आदि वे ही हैं जो राष्ट्रपति के लिए है।
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन भी पाँच वर्ष के लिए किया जाता
है। वह पद ग्रहण की तारीख से पूरे पाँच वर्ष तक अपने पद पर बने रहने का हकदार
होता है। यह अवधि पाँच वर्ष से कम तभी हो सकती है, जब –
(1) उपराष्ट्रपति स्वयं अपने पद से त्यागपत्र दे देता है; या (ii) उपराष्ट्रपति को महाभियोग के माध्यम से हटा दिया जाता है।
पाँच वर्ष के बाद भी वह अपने पद पर तब तक बना रहता है
जब तक कि नव निर्वाचित उपराष्ट्रपति पद ग्रहण नहीं कर लेता है।
उपराष्ट्रपति को दोनों सदनों के साधारण बहुमत मात्र से ही
हटाया जा सकता है। हटाने का संकल्प राज्यसभा में प्रस्तुत किया जाता है और लोकसभा
उस पर अपनी सहमति देती है। प्रस्तावित संकल्प की सूचना चौदह दिन पूर्व दे दी
जाये। (अनुच्छेद 67 )
उत्तर- अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 248 में अवशिष्ट विधायी शक्तियों के विषय में
उल्लेख किया गया है। इस धारा के अनुसार, अनुच्छेद 246 (क) के अधीन रहते हुए संसद
की किसी ऐसे विषय के सम्बन्ध में, जो समवर्ती सूची या राज्य सूची में प्रगणित
नहीं है, विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।
विधि-निर्माण की अवशिष्ट शक्तियाँ संसद में निहित की
गयी हैं। अवशिष्ट शक्ति के अन्तर्गत ऐसे विषय आते हैं जो न तो राज्य सूची में हैं
और न ही समवर्ती सूची में ऐसे विषय पर विधि बनाने का अधिकार संसद को प्रदान किया
गया है।
इस सम्बन्ध में प्रारम्भिक धारणा यह रही है कि यदि
कोई विषय राज्य सूची में नहीं है। तो उसे अवशिष्ट विषय मान लिया जाना चाहिए।
लेकिन यह धारणा स्वयं न्यायपालिका के गले नहीं उतरी, क्योंकि इससे राज्य विधान
मण्डल की शक्तियाँ अत्यन्त संकुचित हो जात हैं। अतः कालान्तर में उच्चतम न्यायालय
ने कहा कि- अवशिष्ट शक्ति का प्रयोग इत व्यापक रूप से नहीं किया जाना चाहिए कि
राज्य विधान-मण्डल की विधायी शक्तियाँ शोष हो जायें और संघात्मक सिद्धान्तों पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़े। अवशिष्ट शक्ति का प्रयोग सब अन्त में करना चाहिए जब इस बात
का पता चल जाये कि वह विषय तीनों सूचियों में से किसी भी सूची में नहीं है।
स्पष्ट है कि संसद ऐसे विषय पर विधि बना सकती है जो
राज्य सूची का नहीं है। लोक व्यवस्था का संधारण (Maintenance of public order)
राज्य सूची का विषय है। लेकिन संसद द्वारा पारित सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ)
अधिनियम, 1958 का सम्बन्ध लोक व्यवस्था से नहीं होने से यह विधिसम्मत है। संसद
ऐसी विधि बनाने के लिए सक्षम है [नागा पीपुल्स मूवमेन्ट ऑफ ह्यमन राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई आर (1998) एस० सी० 431]
उत्तर- राज्य सूची के विषयों पर संसद को विधि बनाने की शक्ति- सामान्य परिस्थितियों में संघ तथा राज्य के मध्य विधायी शक्ति के पृथक्करण
का पालन कठोरता से किया जायेगा परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में शक्ति वितरण या
तो निलम्बित कर दिया जाता है या केन्द्र को राज्य सूची में उल्लिखित विषयों पर
विधान निर्माण की शक्ति प्राप्त हो जाती है। ये परिस्थितियाँ निम्न हैं –
(1) राष्ट्रहित- अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्य सभा 2/3 बहुमत से यह संकल्प पारित कर देती है
कि यह आवश्यक है कि राज्य सूची में उल्लिखित विषय पर संसद विधि बनाये तो संसद
अनुच्छेद 246 (क) के अधीन उपबन्धित माल और सेवा कर या राज्य सूची में उल्लिखित
विषय पर विधि बना सकती है।
(2) आपात घोषणा- अनुच्छेद 250 के अनुसार जब आपात घोषणा उस आपात अवधि में संसद अनुच्छेद 246
(क) के अधीन उपबन्धित माल और सेवा कर या की गयी है तो राज्य सूची में उल्लिखित
विषय पर विधि बना सकती है।
(3) राज्य की सहमति से – अनुच्छेद 252 के अनुसार यदि दो या दो से अधिक राज्य विधान मण्डल यह
संकल्प पारित कर दें कि राज्य सूची के किसी विषय पर संसद को विधि बनाना वांछनीय
है तो संसद उस पर विधि बना सकती है।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय करारों को प्रभावी करने के लिये विधान – अनुच्छेद 253 के अनुसार संसद अन्तर्राष्ट्रीय करारों को लागू करने के लिये
विधि बना सकती है चाहे वह राज्य का विषय ही क्यों न हो।
(5) राज्यों में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाने पर- अनुच्छेद 356 के राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट पर या अन्यथा यह
समाधान हो जाये कि ऐसी स्थिति पैदा अनुसार हो गयी है कि जिसमें राज्य का शासन
संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया नहीं जा सकता तो राष्ट्रपति यह घोषित करेगा
कि राज्य के संविधान मंडल की शक्तियों संसद के अधिकार के द्वारा या संसद के अधीन
प्रयोग की जायेगी।
उत्तर-लोक सभा का विघटन – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 85 लोकसभा के विघटन करने की शक्ति राष्ट्रपति
में निहित करता है किन्तु इस मामले में भी राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् को मंत्रणा से
ही कार्य करता है और उसकी सिफारिश पर ही लोकसभा का विघटन करता है। राष्ट्रपति
अपने विवेक से लोक सभा को भंग नहीं कर सकता है जब तक प्रधानमंत्री को लोक सभा के
बहुमत का समर्थन प्राप्त रहता है। राष्ट्रपति उसके परामर्श से लोकसभा का विघटन
करने के लिये बाध्य है।
परन्तु सभी संविधान शास्त्री इस पर एक मत नहीं हैं।
निम्नलिखित परिस्थितियों में प्रधानमंत्री के परामर्श को राष्ट्रपति मानने के
लिये बाध्य नहीं होना चाहिये उसे अपने विवेक से कार्य करना चाहिये जब –
(1) वह सदन में अपना बहुमत खो देता है, या (2) वह अपना बहुमत सिद्ध करने में असमर्थ हो जाता है, या (3) जब उसके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित हो जाता है, या
(4) जब वह लोक सभा के समक्ष जाने से इंकार कर देता है और राष्ट्रपति इस तथ्य से
अवगत है कि सरकार का बहुमत नहीं है।
उपर्युक्त परिस्थितियों में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री
के परामर्श को मानने के लिये बाध्य नहीं है और उसे वैकल्पिक सरकार बनाने का
प्रयास करना चाहिये।
उत्तर – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 355 यह उपबंधित करता है कि प्रत्येक राज्य को
सरकार इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाई जाय यह सुनिश्चित करना संघ का
कर्तव्य होगा। अनुच्छेद 356 यह उपबंधित करता है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल से
प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा राष्ट्रपति को यह समाधान (Satisfaction) हो जाता है
कि ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है जिसमें कि उस राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के
अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो राष्ट्रपति उद्घोषणा (Declaration) द्वारा –
(1) उस राज्य के सरकार के सभी या कोई कृत्य या राज्यपाल या राज्य के किसी निकाय
या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य प्रयोग की जाने वाली सभी या
कोई शक्ति अपने हाथ में ने सकेगा।
(2) यह घोषित कर सकेगा कि राज्य के विधान मंडल की शक्तियां संसद के प्राधिकार
द्वारा या संसद के प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जायेंगी।
(3) संघ (राष्ट्रपति) ऐसे प्रासंगिक तथा आनुषंगिक उपबंध बना सकेगा जो राष्ट्रपति
की उद्घोषणा के उद्देश्य को प्रभावी करने के लिये आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों।
किन्तु राष्ट्रपति इस उद्घोषणा द्वारा उच्च न्यायालयों से
सम्बंधित किसी उपबंध के प्रवर्तन को पूर्णत: या अंशत: निलम्बित नहीं कर सकता।
उत्तर- आपात काल की उद्घोषणा का मूल अधिकारों (Fundamental Rights) पर
प्रभाव- अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत उद्घोषित आपात काल के दौरान संविधान के अन्तर्गत
प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकारों (अनुच्छेद 20 एवं अनुच्छेद 21 को छोड़कर) का
निलम्बन हो जाता है अर्थात् मूल अधिकारों के प्रवर्तन अर्थात् लागू कराने हेतु
न्यायालय में जाने का अधिकार आपात अवधि के दौरान समाप्त हो जाता है परन्तु ज्यों
ही आपात उद्घोषणा वापस कर ली जाती है, यह अधिकार पुनर्जीवित हो जाता है।
(अनुच्छेद 359), अर्थात आपात घोषणा के प्रवर्तन काल में राज्य के ऊपर से यह
प्रतिबंध समाप्त हो जाता है कि वह ऐसी विधि निर्मित नहीं कर सकती जो संविधान के
भाग 3 में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करती है तथा राज्य द्वारा बनायी गयी विधि
को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे मूल अधिकारों के
विरुद्ध हैं या मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
एम० ए० पाठक बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 803
नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि आपात उद्घोषणा का प्रभाव यह
होता है कि अनुच्छेद 14 तथा 19 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार निलम्बित नहीं होते
परन्तु उनको लागू कराने का अधिकार निलम्बित होता है इसका अर्थ है आपातकाल के
दौरान विधिक दावे (legal action) स्वयं निलम्बित नहीं होते उन्हें विधि बनाकर
निलम्बित किया जा सकता है।
सन् 1975 के 38वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 359 में एक नया
खण्ड जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि खण्ड (1) के अधीन भाग 3 में वर्णित किसी
अधिकार के निलम्बन की घोषणा प्रवर्तन में है तो भाग 3 की कोई बात राज्य को कोई
विधि बनाने या कार्यपालिका की कार्यवाही करने की शक्ति पर कोई निर्बन्धन
(restriction) नहीं होगा जिन्हें राज्य उस भाग के उपबंधों के अधीन करने में सक्षम
है।
उत्तर- वित्तीय आपातकाल (Financial emergency)- संविधान का अनुच्छेद 360 यह उपबंध करता है कि –
(1) यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है।
जिससे भारत या उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या प्रत्यय
संकट में है तो वह उद्घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा कर सकेगा।
(2) खण्ड (1) के अधीन जारी की गयी उद्घोषणा –
(क) किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तनकिया
जा सकेगा;
(ख) संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जायेगी;
(ग) दो मास की समाप्ति पर, यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों
के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है तो, प्रवर्तन में नहीं
रहेगी:
परन्तु यदि ऐसी कोई उद्घोषणा उस समय जारी की जाती है
जब लोक सभा का विघटन हो जाता है या लोक सभा का विघटन उपखण्ड (ग) में निर्दिष्ट दो
मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प
राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है किन्तु ऐसी उद्घोषणा के संबंध में कोई
संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो,
उद्घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती
है, तीस दिन की समाप्ति पर, यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले
उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता
है तो, प्रवर्तन में नहीं रहेगी।
(3) उस अवधि के दौरान, जिसमें खण्ड (1) में उल्लिखित उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है,
संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को वित्तीय औचित्य सम्बन्धी ऐसे
सिद्धान्तों का पालन करने के लिये निर्देश देने तक, जो निर्देशों में विनिर्दिष्ट
किये जायें और ऐसे अन्य निर्देश देने तक होगा जिन्हें राष्ट्रपति उस प्रयोजन के
लिये देना आवश्यक और उचित समझे।
(4) इस संविधान में किसी बात के होते हुये भी – (क) ऐसे किसी निर्देश के अन्तर्गत –
(i) किसी राज्य के कार्य-कलापों के संबंध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के
व्यक्तियों के वेतनों और भत्तों में कमी की अपेक्षा करने वाले उपबंध:
(ii) धन विधेयकों या अन्य ऐसे विधेयकों को, जिनको अनुच्छेद 207 के उपबंध लागू
होते हैं, राज्य के विधान-मंडल द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् राष्ट्रपति के
विचार के लिये आरक्षित रखने के लिये उपबंध, हो सकेंगे
(ख) राष्ट्रपति, उस अवधि के दौरान, जिसमें इस अनुच्छेद के अधीन जारी की गयी
उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ के कार्यकलापों के सम्बन्ध में सेवा करने वाले
सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के, जिनके अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च
न्यायालयों के न्यायाधीश हैं, वेतनों और भत्तों में कमी करने के लिये निर्देश
जारी करने के लिये सक्षम होगा।
Discuss about the distribution of powers on the territorial basis in Indian
Constitution.
उत्तर- क्षेत्रीय आधार पर विधायी शक्तियों का विभाजन- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 245 यह प्रावधान करता है कि संविधान के
प्रावधानों के अधीन रहते हुये संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी
भाग के लिये विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधान मंडल उस सम्पूर्ण राज्य के
अलावा उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा। अनुच्छेद 245 के खण्ड (1) के अनुसार
संसद द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण से अमान्य नहीं समझी जायेगी कि वह भारत के
राज्य क्षेत्र के बाहर भी लागू होती है। ए० एच० वाडिया बनाम इन्कम टैक्स आयुक्त
बम्बई ए० आई० आर० 1949 फेडरल कोर्ट 18 नामक बाद में फेडरल कोर्ट ने यह निर्णय
दिया कि प्रभुतासम्पन्न विधान मंडल द्वारा निर्मित किसी विधि को किसी देशीय
न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह भारत राज्य क्षेत्र के
बाहर भी लागू होती है। ऐसा विधान जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन कर सकता है.
विदेशी न्यायालय द्वारा मान्य नहीं किया जा सकता है, उन्हें लागू करने में
व्यावहारिक कठिनाइयाँ हो सकती हैं किन्तु ये सब नीति के प्रश्न हैं जिन पर देश के
न्यायालयों में विचार नहीं किया जा सकता ।
What is the extent of laws made by Parliament and Legislature of
State? उत्तर- संसद एवं राज्यों के विधान-मण्डलों द्वारा बनाई गई विधियाँ- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 245 यह प्रावधान करता है कि इस संविधान के
प्रावधानों के अधीन रहते हुए संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी
भाग के लिए विधि बना सकेगा तथा किसी राज्य का विधान मण्डल उस सम्पूर्ण राज्य के
अलावा उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा। अनुच्छेद 245 के खण्ड (1) के अनुसार
संसद द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण से अमान्य नहीं समझी जायेगी कि वह भारत के
राज्य क्षेत्र के बाहर भी लागू होती है। ए० एच० वाडिया बनाम इन्कम टैक्स आयुक्त बम्बई, ए० आई० आर० 1949 फेडरल कोर्ट 18 नामक बाद में फेडरल कोर्ट ने यह निर्णय
दिया कि प्रभुतासम्पन्न विधान मण्डल द्वारा निर्मित किसी विधि को किसी देशीय
न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि यह भारत राज्य क्षेत्र के
बाहर भी लागू होती है। ऐसा विधान जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन कर सकता है
विदेशी न्यायालय द्वारा मान्य नहीं किया जा सकता था, उन्हें लागू करने में
व्यावहारिक कठिनाइयाँ हो सकती हैं किन्तु ये सब नीति के प्रश्न हैं जिन पर देश के
न्यायालयों में विचार नहीं किया जा सकता।
क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त – अनुच्छेद 245 खण्ड (1) के अनुसार किसी राज्य का विधान मण्डल सम्पूर्ण
राज्य या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा इसका तात्पर्य यह है कि राज्य की
विधायी शक्ति का विस्तार राज्य क्षेत्र तक ही सीमित है। परन्तु इस सामान्य नियम
का एक अपवाद भी है अर्थात् राज्य द्वारा बनाई गई विधि राज्य क्षेत्र से बाहर लागू
हो सकेगी। यदि राज्य तथा उस विषय वस्तु से कोई सम्बन्ध हो जिसके ऊपर वह विधि लागू
होती है।
उत्तर- वित्त आयोग (Finance commission)- संविधान का अनुच्छेद 280 यह उपबंधित करता है कि राष्ट्रपति संविधान के
प्रारम्भ से 2 वर्ष के अन्दर और तत्पश्चात् प्रत्येक 5 वर्ष को समाप्ति पर या
उससे पहले किसी समय जिसे वह जरूरी समझे एक वित्त आयोग गठित करेगा, जिसमें एक
अध्यक्ष एंव 4 सदस्य होंगे। संसद विधि द्वारा आयोग के सदस्यों के लिये अपेक्षित
अर्हताओं को विहित करेगी। वित्त आयोग (Finance Commission) के प्रमुख कार्य निम्न हैं-
(i) संघ तथा राज्य के बीच करों के शुद्ध आगमों के वितरण के बारे में और राज्यों
के बीच ऐसे आगमों के अपने-अपने बारे के बारे में।
(ii) भारत की संचित निधि में से राज्यों में सहायता अनुदान को शासित करने वाले
सिद्धान्तों के बारे में है।
(iii) पंचायतों तथा नगरपालिकाओं के संसाधनों को अनुपूर्ति के लिये आवश्यकउपायों
के बारे में।
(iv) सुदब वित्त हित में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को सौंपे गये किसी अन्य विषय के
बारे में।
राष्ट्रपति को सिफारिश करना। राष्ट्रपति वित्त आयोग द्वारा
की गयी प्रत्येक सिफारिश को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाता है।
उत्तर- शक्ति पृथक्करण (Separation of Power)- सुप्रसिद्ध संवैधानिक विधि विद्वान प्रोफेसर ए० वी० डायसी ने कहा था,
शक्तियाँ व्यक्तियों को भ्रष्ट बनाती हैं (Powers corrupt the man and absolute
power corrupts absolutely)। इसलिये यह वांछनीय है कि शक्तियों का एक राज्य के एक
ही अंग में केन्द्रीयकरण (सान्द्रीकरण Concentration) न हो अर्थात् राज्य की
शक्तियों का राज्य के विभिन्न अंगों में पृथक्करण होना चाहिये। दूसरे शब्दों में
राज्य की कार्यपालिका में विधायी शक्ति तथा न्यायिक शक्ति विहित नहीं होनी
चाहिये। इसी प्रकार विधायिनी में कार्यपालिका शक्ति तथा न्यायिक शक्ति विहित नहीं
होनी चाहिये। न्यायपालिका को कार्यपालिका (Executive) तथा विधायी शक्ति प्राप्त
नहीं होनी चाहिये। इसी को शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त कहते हैं।
उत्तर भारतीय संविधान में आपात उपबंध अनुच्छेद 352 से 360 तक निम्न रूप में किये
गये हैं –
(1) युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर (अनुच्छेद 352) (2) राज्यों में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाने की दशा में (अनुच्छेद 356) (3) वित्तीय संकट के आधार पर (अनुच्छेद 360) प्रभाव – (1) अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत घोषित आपातकाल का प्रभाव (क) अनुच्छेद 353- (i) संघ द्वारा राज्य को निर्देश।
(ii) संसद द्वारा राज्य विषयों पर विधि निर्माण (ख) राजस्व के वितरण सम्बन्धी
उपबंधों का लागू होना (अनुच्छेद 354)
(ग) बाह्य आक्रमण आदि से राज्य की रक्षा का संघ का कर्तव्य (अनुच्छेद 355)
(2) अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत आपात घोषणा का प्रभाव (क) आपात स्थिति के दौरान
विधायी शक्ति का प्रयोग (अनुच्छेद 357)
(ख) आपात स्थिति के दौरान अनुच्छेद 19 का निलम्बन (अनुच्छेद 358) (ग) आपात स्थिति
के दौरान संविधान के भाग-3 (मौलिक अधिकारों) का निलम्बन।
उत्तर भारत का नियंत्रक महालेखापरीक्षक- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 तक में भारत के लिये एक नियंत्रक
महालेखापरीक्षक के पद की व्यवस्था की गयो है। यह ऐसा पद है जो जनसाधारण में
ख्याति की दृष्टि से कम चर्चित लेकिन संवैधानिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
यही वह व्यक्ति है जो भारत की संचित निधि पर पूर्ण रूप से नियंत्रण रखता है और
समस्त लेखाओं की परीक्षा करता है। इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
नियंत्रण-लेखापरीक्षक दो पद नामों से मिलकर बना है –
(1) नियंत्रक एवं (ii) महालेखा परीक्षक
इन्हीं पद नामों से उसके कर्तव्यों का आभास होता है।
नियंत्रक के रूप में वही सभी संवितरणों को नियंत्रित करता है अर्थात् वह यह देखता
है कि भारत की संचित निधि से प्रत्याहरण विधि के अनुसार हुआ है या नहीं।
महालेखापरीक्षक के रूप में वह दोहरे कर्तव्य का निर्वहन करता है –
(i) लेखाओं का संधारण एवं (ii) लेखाओं का परीक्षण
उत्तर- राज्यपाल की नियुक्ति – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने
हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा। राज्यपाल की पदावधि
राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त (During the pleasure of President) होगी। सामान्यत:
राज्यपाल 5 वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा। वह अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को
सम्बोधित कर अपने हस्ताक्षर में देगा। अनुच्छेद 158 के अनुसार राज्यपाल संसद या
राज्य विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा। वह किसी लाभ के पद का लोकसेवक
नहीं होना चाहिये। राज्यपाल की उपलब्धियाँ तथा भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम
नहीं किये जा सकेंगे।
उत्तर- अपवादानुदान (Exceptional grants)- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 116 अपवादानुदान के विषय में उल्लेख करता
है-इस अध्याय के पूर्वगामी उपबन्धों में किसी बात के होते हुए भी लोक सभा को-जो
अनुदान किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का भाग नहीं है, ऐसा कोई अपवादानुदान करने
की शक्ति होगी और जिन प्रयोजनों के लिए उक्त अनुदान किये गये हैं, उनके लिए भारत
की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकृत करने को संसद की शक्ति
होगी।
खण्ड (1) के अधीन किये जाने वाले किसी अनुदान और उस खण्ड के
अधीन बनायी जाने वाली किसी विधि के सम्बन्ध में अनुच्छेद 113 और अनुच्छेद 114 के
उपबन्ध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण में वर्णित किसी
व्यय के बारे में कोई अनुदान करने के सम्बन्ध में और भारत की संचित निधि में से
ऐसे व्यय की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनायी जाने वाली
विधि के सम्बन्ध में प्रभावी है। (अनुच्छेद 116)
भारत की संचित निधि में से तब तक धन नहीं निकाला जा सकता है,
जब तक विनियोगविधेयक पारित नहीं कर दिया जाता। लेकिन कभी-कभी सरकार को ऐसे विधेयक
के पारित होने के पूर्व ही धन की आवश्यकता हो जाती है। ऐसी दशा में लोक सभा
‘लेखा-अनुदान’ पारित कर सरकार के लिए एक अग्रिम राशि (पेशगी) स्वीकृत कर सकती है।
इसी प्रकार लोक सभा को किसी विशेष प्रयोजन के लिए
अपवादानुदान स्वीकृत करने को शक्ति प्राप्त है जो किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा
का कोई भाग नहीं होता है।
उत्तर- विधान परिषद् (Legislative council)- संविधान का अनुच्छेद 169 के अनुसार विधान परिषदों के सृजन एवं उत्साहन का अधिकार
संसद को प्रदान किया गया है। विधान परिषद् एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं
होता। इसके एक तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद निवृत्त होते रहते हैं। इस प्रकार
प्रत्येक सदस्य छ: वर्ष तक के लिये निर्वाचित अथवा नाम निर्देशित होता है। इसमें
न्यूनतम 40 सदस्य होना आवश्यक है। सदस्यों की अधिकतम संख्या विधान सभा की कुल
सदस्य संख्या के एक तिहाई तक हो सकती है। विधान परिषद् के सदस्यों का निर्वाचन
सीधे जनता द्वारा नहीं किया जाकर विशेष रूप से गठित निर्वाचक-मंडलों द्वारा
परोक्ष रूप से किया जाता है। निर्वाचक मंडलों तथा उनके द्वारा निर्वाचित सदस्यों
की संख्या को हम निम्नांकित चार्ट द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं –
निर्वाचक-मंडल
(1) नगरपालिका, जिला-बोर्ड एवं स्थानीय प्राधिकारी
(2) विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक या समतुल्य अन्य अर्हता वाले
व्यक्ति ।
(3) माध्यमिक पाठशालाओं से अनिम्न स्तर की शिक्षा संस्थाओं में पढ़ाने के काम में
कम से कम तीन वर्ष से लगे व्यक्ति ।
(4) विधान सभा के सदस्य। (5) राज्यपाल द्वारा नाम निर्देशित
निर्वाचक-मंडल द्वारा निर्वाचित किये जाने वाले सदस्यों की संख्या (भागों में)
एक-तिहाई भाग।
(1) बारहवाँ भाग । (2) बारहवाँ भाग । (3) बारहवाँ भाग । (4) एक-तिहाई भाग। (5) शेष।
राज्यपाल द्वारा ऐसे व्यक्तियों को नाम निर्देशित
किया जाता है जो साहित्य, क विज्ञान, सहकारी आन्दोलन और सामाजिक सेवा के क्षेत्र
में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखते हैं। इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य
विधान-मंडलों को विभिन्न क्षेत्रों में वि योग्यता रखने वाले व्यक्तियों की
सेवायें उपलब्ध कराना है जो चुनाव के झंझट में प पसन्द नहीं करते हैं। (अनुच्छेद
171)
उत्तर- संसद में चर्चा पर निर्बंन्धन (Restrictions on discussion in
Parliament) – संविधान का अनुच्छेद 121 संसद् में चर्चा पर निर्बंन्धन का उपबन्ध करत
है-यह संसद के विशेषाधिकारों एवं उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के
न्यायाधीश की गरिमा बीच सन्तुलन स्थापित करने वाली एक अद्भुत व्यवस्था है। एक
संविध संसद सदस्यों को सदन में भाषण एवं अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान
करता है और दूसरों तरफ उन पर यह पाबन्दी लगाता है कि वे न्यायाधीशों के आचरण को
अपनी चर्चा का विषय नहीं बना सकेंगे जब तक कि उनको हटाने का कोई संकल्प विचार में
न हो। यह उचित भी है। न्यायाधीश स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कर सके,
इसके लिए यह निर्बन्धन आवश्यक है।
फिर भी यदि कोई सदस्य इसे चर्चा का विषय बना देता है तो उससे
निपटने का कार्य स्वयं सदन का है, न्यायालय का नहीं।
समस्या 1. ‘क’ नामक एक व्यक्ति को पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी बिना कारण
बताये गिरफ्तार कर लिया और चौबीस घण्टे के बाद भी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं
किया। एक अधिवक्ता की हैसियत से बताइए कि क्या भारतीय संविधान के अन्तर्गत ‘क’
को इस सम्बन्ध में कोई अधिकार प्राप्त है?
उत्तर- ‘क’
को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत इस सम्बन्ध में अधिकार प्राप्त है।
अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत गिरफ्तारी के विरुद्ध निम्नांकित संरक्षणों का उल्लेख
किया। गया है
(1) गिरफ्तार व्यक्ति का सबसे पहला अधिकार गिरफ्तारी के कारण जानने का है।
गिरफ्तारी का कारण बताये बिना किसी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से लम्बे समय तक
निरुद्ध नहीं रखा जा सकता है।
(2) गिरफ्तारी का कारण जानने के बाद गिरफ्तार व्यक्ति का दूसरा अधिकार अपनी रुचि
के विधि-व्यवसायी से परामर्श करने का है। विधि व्यवसायी के माध्यम से वह अपनी
प्रतिरक्षा करता है।
(3) – (क) गिरफ्तारी के बाद चौबीस घण्टों में (यात्रा में लगे समय को छोड़कर)
मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होना एवं (ख) चौबीस घण्टों के बाद मजिस्ट्रेट के आदेश से
हो निरुद्ध रखना।
इस प्रकार ‘क’ को गिरफ्तारी का कारण जानने, अपनी रुचि के
विधि-व्यवसायी से परामर्श करने, गिरफ्तारी के बाद चौबीस घण्टों में मजिस्ट्रेट के
समक्ष पेश करने का अधिकार प्राप्त है।
समस्या 2. ‘अ’ नामक एक महिला ‘वस्त्र निर्यात संवर्धन समिति में लिपिक के पद
पर कार्यरत थी। समिति के अध्यक्ष ने एक पत्र टाइप करने के लिए उसे ताज पैलेस
बुलाया जहाँ उसके साथ छेड़छाड़ एवं अभद्र व्यवहार किया तथा उससे यौन सम्पर्क
करने का प्रयास किया। क्या इसे ‘अ’ के मूल अधिकार का अतिक्रमण कहा जा सकता
है?
उत्तर- प्रस्तुत समस्या ‘भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 पर आधारित है। उपरोक्त
समस्या के तथ्यों के आधार पर यह कहा जाएगा कि ‘अ’ के साथ की गई छेड़छाड़ एवं अभद्र
व्यवहार एवं यौन सम्पर्क बनाने का प्रयास उसके लिंग आधारित न्याय के मूल अधिकारों
का अतिक्रमण है। उपरोक्त मामले में समिति के अध्यक्ष को सेवा में बने रहने का कोई
अधिकार नहीं है उसे सेवा से निलम्बित कर दिया जाना चाहिए। बदलते परिवेश में
महिलायें काम काज के हर क्षेत्र में आगे आई हैं। वे पुरुष के साथ कदम से कदम
मिलाकर चलने लगी हैं। लेकिन जब काम-काजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न किया जाता
है तो उनके जीने के अधिकार का हनन होता है। इस संदर्भ में विशाका बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान का मामला उल्लेखनीय है जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं का यौन
उत्पीड़न रोकने के लिए कतिपय आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किये – संस्था व कार्य स्थलों के नियोजकों या अन्य जिम्मेदार व्यक्तियों का कर्त्तव्य
।
यह संस्था के एवं कार्य स्थलों के नियोक्ताओं का एवं
जिम्मेदार अधिकारियों का कर्तव्य होगा कि इन स्थलों पर कार्यरत महिलाओं के यौन
शोषण को निवारित करें, घटित होने से रोकें तथा ऐसे कृत्यों के निदान, निष्पादन
एवं अभियोजन के लिए अपेक्षित उपाय करें।
प्रश्न 6. संविधान की रचना पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये। Write a short note on the making of Constitution.
के निर्माण का कार्य पूरा कर लिया संविधान के कुछ उपबंध तो उसी दिन अर्थात् 26
नवम्बर, 1949 को प्रवृत्त हो गये और शेष उपबंध 26 जनवरी, 1950 को लागू हुये जिसे
संविधान के लागू होने की तारीख कहा जाता है।
प्रश्न 7. संघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व क्या हैं? What are the essential elements of Federal Constitution?
प्रश्न 9. अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ क्या है? स्पष्ट करें।
What is Residuary Legislative Powers? Explain.
प्रश्न 10. “सहकारी परिसंघवाद” के विषय में बतलाइये।
Explain Co-operative Federalism.
प्रश्न 11. परिसंघवाद को परिभाषित कीजिये।
Define Federalism.
प्रश्न 12. आच्छादन का सिद्धान्त क्या है?
What is the Doctrine of Eclipse?
प्रश्न 13. धन विधेयक और वित्त विधेयक में क्या अन्तर है?
What is the difference between Money Bills and Finance Bills?
प्रश्न 14. सदन के सदस्यों की संयुक्त बैठक।
Joint sitting of both houses.
प्रश्न 15. संसद की सदस्यता के लिये अर्हता क्या है?
What is qualification for membership of Parliament?
प्रश्न 16 (क) न्यायिक सक्रियता को परिभाषित कीजिये? Define Judicial Activism?
प्रश्न 17. न्यायिक पुनर्विलोकन क्या है?
What is Judicial Review?
प्रश्न 18 संसद की संरचना।
Composition of Parliament.
प्रश्न 19. लोक सभा ।
Lok Sabha.
प्रश्न 20. लोक सभा का स्पीकर।
Speaker of Lok Sabha.
प्रश्न 21. सार-तत्व का सिद्धान्त।
Doctrine of Pith and Substance.
प्रश्न 22. राष्ट्रपति की विधायी शक्ति।
Legislative power of the President.
प्रश्न 25 राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
Discuss the executive powers of President.
प्रश्न 26. राष्ट्रपति की अर्हतायें क्या हैं?
What are qualifications of President?
प्रश्न 27. क्षमादान देने के संबंध में भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों का
उल्लेख कीजिये।
प्रश्न 28. राष्ट्रपति के महाभियोग की प्रक्रिया।
Procedure for impeachment of the President.
प्रश्न 29 राष्ट्रपति कब अध्यादेश जारी कर सकता है? When the President can
issue an ordinance?
प्रश्न 30. संसद सदस्यों के लिये क्या निरर्हतायें होती हैं? What are the
disqualifications to be a member of
Parliament?
प्रश्न 31. राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये।
प्रश्न 32 छद्म विधायन के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? What do you
understand by Doctrine of colourable Legislation?
प्रश्न 33. क्षेत्रीय संबंध का सिद्धान्त।
Territorial Nexus.
प्रश्न 34 प्रसाद पर्यन्त का सिद्धान्त।
Doctrine of Pleasure.
प्रश्न 35. उप-राष्ट्रपति कौन होता है? उप-राष्ट्रपति के मुख्य कार्य क्या
हैं?
Who is Vice-President? What are the main functions of Vice President ? प्रश्न 36. भारत का महान्यायवादी।
Attorney General of India.
प्रश्न 37 लेखानुदान।
Votes of Account.
प्रश्न 38. मंत्रि परिषद् में प्रधानमंत्री की स्थिति तथा उसकी शक्तियाँ
Position and powers of the Prime Minister in Council of Ministers.
प्रश्न 39. वित्त विधेयक। Finance Bill.
प्रश्न 40. धन विधेयक। Money bill
प्रश्न 41. विनियोग विधेयक से क्या अभिप्रेत है?
What is meant by Appropriation Bill?
प्रश्न 42 धन विधेयक पारित करने की प्रक्रिया
Procedure of passing of money Bill.
प्रश्न 43. लोकसभा के अध्यक्ष का निर्वाचन कैसे होता है?
How is Speaker of Lok Sabha elected?
प्रश्न 44. मंत्रिपरिषद् का सामूहिक उत्तरदायित्व।
Collective responsibility of the Council of Ministers.
प्रश्न 45 मंत्रि परिषद् । Council of Ministers.
प्रश्न 46.. संसद में विधेयक पारित करने की प्रक्रिया Procedure to pass a
Bill in Parliament.
प्रश्न 47 राज्यसभा और लोकसभा की क्या संरचना है?
What is the Composition of the Council of States and the House of the
People?
प्रश्न 48 राज्य सभा का सभापति।
Chairman of the Council of States?
प्रश्न 49. अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ।
Residuary Powers of Legislation.
प्रश्न 50. संसद द्वारा राज्य सूची के विषयों पर कब कानून बनाया जा सकता
है?
When Parliament can make law on state subject?
प्रश्न 51. लोक-सभा का विघटन।
Dissolution of Lok Sabha.
प्रश्न 52. राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल होने से उत्पन्न आपातकाल की
घोषणा।
Proclamation of emergency in case of failure constitutional machinery in
any state.
प्रश्न 52 राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल होने से उत्पन्न आपातकाल
की घोषणा।
Proclamation of emergency in case of failure of constitutional machinery in
any state.
प्रश्न 53. आपात-उदघोषणा का मौलिक अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ता है? वर्णन
कीजिये।
Discuss the effects of declaration of emergency on fundamental
rights.
प्रश्न 54. वित्तीय आपातकाल पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये। Write a short
note on Financial emergency.
प्रश्न 55. भारत के संविधान में क्षेत्रीय आधार पर विधायी शक्तियों का विभाजन
किया गया है। स्पष्ट कीजिये।
प्रश्न 56 संसद द्वारा और राज्यों के विधान-मण्डलों द्वारा बनाई गई विधियों का
क्या विस्तार है?
प्रश्न 57. वित्त आयोग।
Finance commission.
प्रश्न 58 शक्ति पृथक्करण से आप क्या समझते हैं?
What do you understand by separation of power?
प्रश्न 59. भारतीय संविधान में आपात उपबंध कितने प्रकार के हैं?
How many kinds of emergency provisions in Indian Constitution?
प्रश्न 60. भारत का नियंत्रक महालेखा परीक्षक
Comptroller and auditor general of India.
प्रश्न 61. राज्यपाल की नियुक्ति ।
Appointment of Governor.
प्रश्न 62. अपवादानुदान ।
Exceptional grants.
प्रश्न 63. विधान परिषद्
Legislative council.
प्रश्न 64 संसद में चर्चा पर निर्बन्धन ।
Restrictions on discussion in Parliament.
प्रश्न 65 समस्यायें। Problems.
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