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Constitutional law 1 in Hindi Long Answer Part -1 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर प्रथम सेमेस्टर

प्रश्न- 1 संविधान एवं संवैधानिक विधि की परिभाषा दीजिए एवं इसके को भी स्पष्ट कीजिए। Define Constitution and Constitutional Law and Explain in classification.

अथवा (or) 

“भारत का संविधान एक सामाजिक दस्तावेज है।” टिप्पणी कीजिए। “The Constitution of India is a social document.” Comment.

उत्तर- संविधान (Constitution)- संविधान किसी राष्ट्र के सम्बन्ध में उस दस्तावेज को कहते हैं जिसके अनुसार किसी राष्ट्र को सरकार तथा उसके प्रशासनिक अंगों को प्रस्थापना की जाती है। यह दस्तावेज किसी राष्ट्र की सरकार तथा उसके प्रशासनिक अंगों के स्वरूप, उनको संरचना, उनकी शक्तियों, उनके मुख्य कार्यों को परिभाषित करता है। इसके साथ-साथ संविधान में सरकार तथा सरकार के विभिन्न अंगों के आपसी सम्बन्धों को परिभाषित किया गया होता है। संविधान राज्य तथा नागरिकों के मध्य राजनैतिक सम्बन्धों को विनियमित करने का प्रयत्न करता है। इसके अलावा विभिन्न विद्वानों ने भी संविधान को अपने ढंग से परिभाषित किया है-

बेड और फिलिप्स के अनुसार, “संविधान एक विशेष वैधानिक मान्यता, विश्वसनीयता एवं पवित्रता लिये हुए ऐसा दस्तावेज होता है जो राज्य की सरकार के अंगों के प्रमुख कार्यों का ढांचा तैयार करता है और इन अंगों की कार्य प्रणाली के सिद्धान्तों का निर्धारण करता है।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर के अनुसार, “संविधान एक मौलिक दस्तावेज है। यह एक ऐसा दस्तावेज है जो राज्य के तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका) को स्थिति एवं शक्तियों को स्पष्ट करता है। यह केवल राज्य के अंगों का सृजन हो नहीं करता अपितु उनके प्राधिकार को परिसीमित करते हुए उन्हें निरंकुश एवं तानाशाह होने से रोकता है।”

प्रो० ए० वी० डायसी के अनुसार, “किसी समाज की सरकार का प्रारूप अथवा ढाँचा हो उस समाज एवं सरकार का संविधान होता है। संविधान ही राज्य अथवा राजनीतिक समाज में शक्तियों के विवरण का विनिश्चय करता है और सम्प्रभु शक्ति का प्रयोग करता है।

        अन्त में सभी परिभाषाओं को देखकर यह कहा जा सकता है, “संविधान देश की की आशाओं एवं आकांक्षाओं का पुंज होता है।”

संवैधानिक विधि (Constitutional Law)- संवैधानिक विधि किसी देश या राष्ट्र को सर्वोच्च विधि है। संवैधानिक विधि उन समस्त नियमों को अपने में समाविष्ट करती है जो सम्प्रभु की शक्तियों उसके सदस्यों सदस्यों के मध्य सम्बन्ध परिभाषित या (Regular) करते हैं। ये नियम सम्प्रभु तथा सदस्यों की शक्तियों के निष्पादन की विधि को भी सुनिश्चित करते हैं। प्रो० ए० बी० डायस के अनुसार संवैधानिक विधि के मों में राज्य प्रमुख के उत्तराधिकार तथा प्रमुख न्यायकर्ता के परमाधिकार का भी निर्धारण करता है।

     संक्षेप में संवैधानिक विधि किसी राष्ट्र की यह सर्वोच्च विधि है जो उस राष्ट्र के स्वरूप, इस राष्ट्र के तीनों अंगों, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका की संरचना तथा अधिकारों का विवेचन करती है। संवैधानिक विधि किसी राष्ट्र के नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को अन्तर्विष्ट करती है। संवैधानिक विधि किसी राष्ट्र के प्रमुख अंगों तथा नागरिकों एवं उसके राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के सम्बन्ध में नियमों को अन्तर्विष्ट करती है।

संविधान का वर्गीकरण– संविधान को सम्पूर्ण विश्व में प्राय: दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

(1) संघात्मक संविधान (Federal Constitution); तथा

(2) एकात्मक संविधान (Unitary Constitution )

(1) संघात्मक संविधान (Federal Constitution) संघात्मक संविधान से तात्पर्य ऐसे संविधान से है जिसमें केन्द्र एवं राज्य अपने-अपने मामलों में पूरी तरह से स्वतन्त्र होते हैं, केन्द्र का राज्यों के मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। ऐसा संविधान संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा तथा भारत में देखने को मिलता है।

(2) एकात्मक संविधान (Unitary Constitution)– एकात्मक संविधान से तात्पर्य ऐसे संविधान से होता है जिसमें केन्द्र सर्वशक्तिशाली होता है तथा राज्य केन्द्र के दिशा निर्देशों के अनुरूप कार्य करते हैं। राज्यों का अपना अलग कोई अस्तित्व नहीं होता है अर्थात् राज्य पूरी तरह केन्द्र पर आश्रित रहते हैं

प्रश्न 2 संविधान सभा के गठन और संविधान के निर्माण एवं प्रकृति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Write short notes on framing of Constitutional assembly making and nature of Constitution. अथवा (or)

संघात्मक एवं एकात्मक संविधान के क्या-क्या आवश्यक तत्व है? विवेचना करें।

What one the essential ingredients of a Federal and Unitary Constitution? Discuss.

उत्तर- अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद स्वतन्त्रता प्राप्ति के सुख की अनुभूति भारतवासियों के लिए स्वाभाविक एवं अनोखी थी। लेकिन साथ ही साथ एक नये संघर्ष और चुनौतियों का बोझ भी हमारे सिर पर था। यह संघर्ष था न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, एकता एवं बन्धुत्व के आधार पर लोकतन्त्रात्मक राज्य की स्थापना करने का यह संघर्ष था, एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राष्ट्र के रूप में जीवित रहने का इन आदर्शों की प्राप्ति के लिए एक ऐसे संविधान की आवश्यकता थी जो देश का आधारभूत विधान बन सके। अतः स्वतन्त्र भारत में सर्वप्रथम एक नूतन संविधान के निर्माण का कार्य अपने हाथ में लिया। कैबिनेट योजना के अनुसार नवम्बर, 1946 को संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव किया गया जिसमें कुल 296 सदस्य थे जिसमें से 211 सदस्य कांग्रेस और 73 मुस्लिम लीग तथा शेष स्थान खाली रहे संविधान सभा के प्रमुख सदस्य निम्नलिखित थे-जवाहर लाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, गोपाल स्वामी आयंगर, गोविन्द बल्लभ पन्त, अब्दुल गफ्फार खाँ, टी० टी० कृष्णामाचारी, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, हृदयनाथ कुंजरू सर एच० एस० गौड, के० टी० शाह, आचार्य कृपलानी, डॉ० अम्बेडकर, डॉ० राधाकृष्णन, डॉ० जयशंकर, लियाकत अली खाँ, सर फिरोज खान, डॉ०. सच्चिदानन्द सिन्हा आदि।

      संविधान बनाने के लिए जब संविधान सभा की पहली बैठक  9 दिसम्बर, 1946 को हुई तो उसके सामने अनेक चुनौतियाँ थीं। एक ओर तो वे सीमाएँ थीं जिन्हें कैबिनेट योजना, 1946 ने लगाया था और दूसरी ओर मुस्लिम लीग ने यह निर्णय किया था कि वह संविधान सभा की बैठक में सम्मिलित नहीं होगी। लेकिन हमारे संविधान निर्माता अपने कार्य में साहस से डटे रहे और इसी दौरान 3 जून, 1947 को यह निर्णय हुआ कि देश का विभाजन होना है। इसके बाद संविधान सभा के सामने जो समस्यायें थीं, वे समाप्त हो गयीं और सन् 1947 के अधिनियम के पारित होने पर संविधान सभा एक सम्प्रभु निकाय बन गया और यह भारत के लिए, जैसा भी चाहे संविधान बना सकती थी। वह कैबिनेट मिशन सीमाओं के भीतर कार्य करने के लिए बाध्य नहीं थी।

      इस अनिश्चितता की स्थिति के बावजूद डॉ० अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित प्ररूप समिति ने संविधान सभा में संविधान का प्ररूप प्रस्तुत किया। संविधान सभा की बैठक में संविधान के प्ररूप पर 8 महीने बहस हुई और इस दौरान उसमें भी अनेक संशोधन किये गये। संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुए, इस प्रकार संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 माह 18 दिन के अथक और निरन्तर परिश्रम के पश्चात् 26 नवम्बर, 1949 तक संविधान के निर्माण का कार्य पूरा कर लिया। संविधान के कुछ उपबन्ध तो उसी दिन अर्थात् 26 नवम्बर, 1949 को प्रवृत्त हो गये और शेष उपबन्ध 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए जिसे संविधान के लागू होने की तारीख कहा जाता है। इस प्रकार लागू संविधान में कुल 395 अनुच्छेद थे जो 22 में भागों में विभाजित थे और इसमें 8 अनुसूचियाँ थीं वर्तमान समय में संविधान में लगभग 105 संशोधन हो चुके हैं, संविधान अब 26 भागों में विभक्त हो गया है तथा अनुसूचियों की संख्या बढ़कर अब 12 हो गयी है।

    भारतीय संविधान की प्रकृति (Nature of Indian Constitution) किसी भी संविधान को दो ब्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है

(1) एकात्मक (Unitary); तथा

(2) संघात्मक (Federal)

       एकात्मक संविधान में सभी शक्तियाँ एक ही सरकार (केन्द्रीय सरकार) में निहित होती है जबकि संघात्मक संविधान के अन्तर्गत शासन की शक्तियों का विभाजन केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मध्य होता है। कुछ महत्वपूर्ण मामलों को छोड़कर अन्य मामलों में राज्य सरकारें स्वतन्त्र घटक के रूप में कार्य करती हैं।

      भारतीय संविधान एकात्मक है या संघात्मक इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे एकात्मक मानते हैं तो कुछ भारतीय संविधान को संघात्मक संविधान मानते है।

भारतीय संविधान एक अलौकिक प्रपत्र है जिसमें एकात्मक तथा संघात्मक दोनों संविधानों के लक्षण विद्यमान हैं। इन दोनों दृष्टिकोणों की चर्चा करना उपयुक्त होगा। एस० आर० बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1994 सु० को० 1918 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संविधान को ‘ अर्द्ध-संघात्मक’ (Quasi-federal) प्रकृति का कहा है, क्योंकि इसमें संघात्मक एवं एकात्मक दोनों प्रकार के संविधानों के तत्व विद्यमान हैं।

भारतीय संविधान का एकात्मक स्वरूप- एकात्मक संविधान वह है जिसमें शासन की सभी सत्ता एक केन्द्र में केन्द्रित होती है। राज्यों को कोई स्वतन्त्र अधिकार नहीं होता है। भारतीय संविधान के अवलोकन से कुछ प्रावधान ऐसे मिलते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि कुछ क्षेत्रों में केन्द्र को आत्यन्तिक (absolute) अधिकार प्राप्त है। इन क्षेत्रों में राज्यों को केन्द्र के अधिकारों के अधीन अपने को समर्पित करना होता है। ये उपबन्ध निम्न हैं

(1) राज्यपाल की नियुक्ति (Appointment of Governor)- राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है। राज्यपाल प्रदेश के मंत्रिमण्डल की सलाह पर काम करता है। राज्यपाल राज्य में केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि होता है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा, जो केन्द्रीय सरकार का अध्यक्ष होता है, मंत्रिमण्डल की सलाह पर की जाती है। राज्यपाल राज्य मंत्रिमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है। राज्य का कोई भी विधेयक राज्यपाल के हस्ताक्षर के अभाव में अधिनियम का स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता। कुछ मामलों में वह विधेयक राष्ट्रपति को विचारार्थ प्रेषित कर सकता है। कुछ मामलों में राज्यपाल अपने विवेक के अनुसार कार्य कर सकता है। ये प्रावधान राज्य की स्वायत्तता के प्रतिफल हैं।

(2) राष्ट्रहित में राज्य सूची के विषयों पर विधि बनाने की संसद की शक्ति– संघीय संविधान का यह आवश्यक तत्व है कि केन्द्र तथा राज्य के मध्य शक्तियों का पृथक्करण है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 249 यह घोषित करता है कि यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक तथा इष्टकर है कि राज्य सूची में उल्लिखित किसी विषय पर संसद विधि बनाये तो संसद द्वारा उस विषय पर विधि बनाना विधिसंगत होगा। यह प्रावधान एकात्मक संविधान के अनुरूप है।

( 3 ) नये राज्यों के निर्माण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की शक्ति (Power to create new states and power to alter the boundary and names of existing states)– भारतीय संविधान का अनुच्छेद 3 संसद को नये राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों (Territory), सीमाओं (boundary) तथा नामों को बदलने की शक्ति देता है। संविधान का यह उपबन्ध भी राज्यों पर केन्द्र सरकार के नियन्त्रण तथा वरीयता का द्योतक है। इस प्रावधान के अनुसार राज्यों का अस्तित्व केन्द्र के विवेक पर निर्भर है। यह व्यवस्था संघीय व्यवस्था के लिए घातक है क्योंकि संघीय व्यवस्था में स्वतन्त्र राज्य घटकों की कल्पना की गई है। भारतीय संविधान राज्यों की क्षेत्रीय अखण्डता की प्रतिभूति ( guarantee) नहीं देता।

(4) आपात उपबन्ध (Emergency Provisions)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक में आपात उपबन्धों की चर्चा की गई है। अनुच्छेद 352 राष्ट्रपति को युद्ध, बाह्य आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह की दशा में आपात घोषणा की शक्ति देता है। अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को राज्य के राज्यपाल की रिपोर्ट पर राज्य सरकार के अस्तित्व को समाप्त कर देने की शक्ति प्रदान करता है। अनुच्छेद 360 आर्थिक आपात (economic emergency) की चर्चा करता है। आपात घोषणा का परिणाम यह होता है कि देश का सम्पूर्ण प्रशासन केन्द्र में निहित हो जाता है तथा संसद पूरे देश के लिए विधि बनाने में सक्षम हो जाती है। राज्यों का प्रशासन केन्द्र के निर्देश के अनुसार चलाना होता है। आपात उपबन्धों के फलस्वरूप राज्य की स्वतन्त्रता, समाप्त हो जाती है तथा केन्द्र हॉ सर्वशक्तिमान बन जाता है। हमारा संविधान आपात घोषणा के पश्चात् एकात्मक संविधान बन जाता है। 25 जून सन् 1975. को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के शासन काल में आपातकाल की घोषणा की गई थी। आपातकालीन घोषणा से राज्यों के साथ-साथ देश के नागरिकों के अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं।

भारतीय संविधान का संघात्मक स्वरूप (Federal Character of Indian Constitution )- भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान (Federal Constitution) के निम्न गुण विद्यमान हैं

(1) लिखित संविधान- संघात्मक संविधान का प्रमुख गुण यह है कि यह लिखित होता है। भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 22 भाग एवं 12 अनुसूचियों को सम्मिलित किया गया है।

(2) शक्तियों का विभाजन (Separation of Powers)– संघीय संविधानों का प्रमुख तत्व शासन की शक्तियों का केन्द्र तथा घटक राज्यों में विभाजन होता है। संघीय व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण मामलों को छोड़कर, जो देश की एकता तथा अखण्डता के लिए आवश्यक है, राज्य एक स्वतन्त्र शासन घटक के रूप में कार्य करते हैं। भारत में भी शासन व्यवस्था में शक्तियों का विभाजन केन्द्रीय तथा राज्य के मध्य हुआ है। कुछ मामलों में छोड़कर राज्य स्वतन्त्र घटक के रूप में कार्य करते हैं।

“शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों द्वारा किया गया है-

(1) संघ सूची (Union list):

(ii) राज्य सूची (State list); तथा

(iii) समवर्ती सूची (Concurrent list)।

(3) संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution)-भारत में लिखित संविधान के प्रावधानों के अनुरूप सभी विधायी कार्यपालिकीय तथा न्यायिक कार्यों का संचालन होता है। यह सुनिश्चित करना कि क्या कोई कार्य संविधान के प्रावधानों का अतिक्रमण करके हुआ है, न्यायपालिका का कर्तव्य है। हमारी न्यायपालिका संविधान को संरक्षक है तथा असंवैधानिक कार्यों को शून्य घोषित करने का अधिकार रखती है।

(4) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता तथा सर्वोच्चता (Independence and Supremacy of Judiciary)– हमारे संविधान में स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रावधान है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए इनकी पदावधि, वेतन सुनिश्चित हैं। इनके यों की आलोचना से सम्बन्धित प्रतिबन्धात्मक उपाय भी संविधान में हैं। न्यायपालिका की सर्वोच्चता को संविधान में मान्यता दी गई है।

(5) संविधान की परिवर्तनशीलता- भारतीय संविधान में अन्य संघात्मक संविधानों की भाँति संविधान में संशोधन की एक विशेष प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 368 में निर्धारित की गई है।
सारांश – भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान है परन्तु आपात काल में यह एकात्मक हो जाता है। भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान के सभी आवश्यक गुण (तत्व) विद्यमान हैं। अत: भारतीय संविधान पूर्ण रूप से संघात्मक संविधान है। वास्तव में भारतीय संविधान की रचना भारत सरकार अधिनियम, 1935 को आधार मानकर की गई थी. जिसमें संघात्मक व्यवस्था को स्वीकार किया गया था। भारतीय संविधान में एकात्मक संविधान के जो भी तत्व विद्यमान हैं, वह भारतीय परिस्थितियों के लिए अपरिहार्य थे। विविध धर्मों, विविध भाषाओं तथा विविध संस्कृतियों वाले विशाल देश को एकता तथा अखण्डता के सूत्र में बाँधे रखने के लिए मजबूत केन्द्र आवश्यक तथा अपरिहार्य है। एक मजबूत केन्द्र ही विविधताओं में एकता बनाये रखने के लिए आवश्यक है। भारतीय संविधान में यद्यपि ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली की शासन व्यवस्था को स्वीकार किया गया है परन्तु अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जर्मनी तथा कनाडा में प्रचलित संघीय शासन व्यवस्था को संवैधानिक ढाँचे के रूप में स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान आमतौर पर सामान्य परिस्थिति में संघात्मक रहता है परन्तु राष्ट्रहित, देश की एकता और अखण्डता को संकट उपस्थित होने पर आपातकाल में एकात्मक रूप ग्रहण कर लेता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत का संविधान न तो विशुद्ध संघात्मक है न ही विशुद्ध एकात्मक परन्तु यह दोनों का मिश्रण है। यह अपने किस्म का अलौकिक तथा अनोखा संविधान है। यह इस सिद्धान्त को मान्यता देता है कि संघात्मक सिद्धान्त की अपेक्षा देश को अखण्डता तथा देश की एकता सर्वोपरि है। भारतीय संघात्मक व्यवस्था एक परिवर्तनशील व्यवस्था है तथा आवश्यकतानुसार यह एकात्मक तथा संघात्मक दोनों ही रूप धारण कर लेती है।

प्रश्न 3. (i) भारत का वर्तमान संवैधानिक ढाँचा बहुत कुछ सन् 1935 के अधिनियम पर आधारित है। व्याख्या कीजिए। Present Constitutional Structure of India mostly depend upon Act of 1935. Explain. (ii) उद्देशिका (प्रस्तावना) की परिभाषा कीजिए तथा उसके महत्व की विवेचना कीजिए क्या उद्देशिका, संविधान का अंग है? व्याख्या कीजिए।

Define Preamble and discuss its importance. Whether Preamble is part of Constitution? Explain.

अथवा (or)

भारतीय संविधान की उद्देशिका में किन-किन उद्देश्यों को स्थापित किया गया है? क्या उद्देशिका में अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन किया जा सकता है।

What are the objectives enshrined in the Preamble to the Indian constitution? Can Preamble be amended under Article 368?

उत्तर – (i) भारत सरकार अधिनियम, 1935 भारत के संविधान के इतिहास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। यदि यह कह दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारा वर्तमान संविधान काफी कुछ इस अधिनियम पर आधारित है। इस अधिनियम की विशेषताएं निम्नलिखित थीं-

(1) संघात्मक सरकार की स्थापना- सन् 1935 के अधिनियम ने सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की। पिछले सभी अधिनियमों के अन्तर्गत स्थापित सरकारों का स्वरूप एकात्मक था संघात्मक सरकार विभिन्न प्रान्तों एवं रियासतों से मिलकर बनता था। राज्यों का संघ में सम्मिलित होना उनकी इच्छा पर निर्भर करता था।

(2) केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना-प्रान्तों में स्थापित की गई दोहरी शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और इसे केन्द्र में प्रारम्भ किया गया। प्रशासन सम्बन्धी विषयों को दो भागों में बाँटा गया है – (अ) आरक्षित विषय तथा (ब) हस्तान्तरित विषय।

     आरक्षित सूची में प्रतिरक्षा, विदेश जैसे महत्वपूर्ण विषय सम्मिलित किये गये, जबकि हस्तान्तरित सूची में कम महत्व के विषय रखे गये थे। दोनों का प्रशासन गर्वनर जनरल इन कौंसिल के हाथों में था।

(3) प्रान्तों में स्वायत्त शासन की स्थापना– इस अधिनियम की महत्वपूर्ण देन एवं उपलब्धि प्रान्तों में स्वायत्त शासन की स्थापना मानी जाती है। यद्यपि यह व्यवस्था सन् 1919 के अधिनियम द्वारा ही कर दी गई थी।

       लेकिन सन् 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तीय विषयों पर विधि निर्माण का अनन्य अधिकार प्रान्तों को सौंप दिया गया और इस पर केन्द्र के नियन्त्रण को समाप्त कर दिया गया।

(4) केन्द्रीय विधान मण्डल- केन्द्रीय विधान मण्डल को नया स्वरूप प्रदान किया गया। इसके दो सदन होते थे-

(1) विधान सभा; तथा      (2) राज्य परिषद्

      विधान सभा की अधिकतम अवधि पाँच वर्ष थी जबकि राज्य परिषद् एक स्थायी संस्था थी, जिसके एक-तिहाई सदस्य प्रति दूसरे वर्ष की समाप्ति पर निवृत्त होते थे।

      धन विधेयक केवल विधान सभा में ही पेश किया जा सकता था। साधारण विधेयक किसी भी सदन में लाया जा सकता था। जब किसी विधेयक के सम्बन्ध में दोनों सदनों में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाते थे तो उसे निपटाने के लिए गवर्नर जनरल दोनों सदनों का एक संयुक्त अधिवेशन आहूत कर सकता था।

(5) प्रान्तीय शासन व्यवस्था-सन् 1935 के अधिनियम ने प्रान्तों में एक उत्तरदायित्व पूर्ण सरकार की स्थापना की और शासन की शक्ति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में आ गई।

      प्रान्तों की कार्यपालिका गवर्नर एवं मन्त्रिपरिषद् द्वारा गठित होती थी। गवर्नर मंत्रिमण्डल का प्रमुख होता था। गवर्नरों को तीन प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त थीं-

(1) विवेकीय शक्तियाँ

(2) विशिष्ट उत्तरदायित्व की शक्तियाँ ; तथा

(3) मंत्रिमण्डल की सलाह से प्रयुक्त शक्तियाँ।

(6) प्रान्तीय विधान मण्डल – केन्द्र की तरह प्रान्तों में भी दो सदनों वाले विधान मण्डल की स्थापना की गई। यह सदन विधान सभा एवं विधान परिषद् के नाम से सम्बोधित किये जाते थे। विधान सभा की अवधि 5 वर्ष की होती थी, जबकि विधान परिषद् एक स्थाई संस्था होती थी। जिसके एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष की समाप्ति पर निवृत्त हो जाते थे। ठीक इसी व्यवस्था को वर्तमान संविधान में भी अंगीकृत किया गया।

(7) केन्द्र एवं प्रान्तों में शक्तियों का विभाजन– इस अधिनियम द्वारा केन्द्र तथा प्रान्तों में शक्तियों का विभाजन किया गया। इसके लिए विधि-निर्माण के प्रयोजनार्थ विषयों को तीन भागों में वर्गीकृत करके उन्हें निम्नलिखित सूचियों में रखा गया

(i) संघ सूची (Union list);

(ii) राज्य सूची (State list); तथा

(iii) समवर्ती सूची (Concurrent list)

       संघ सूची में सम्पूर्ण भारत के हित वाले विषय सम्मिलित किये गये, जबकि प्रान्तीय सूची में प्रान्तों के हित वाले विषय रखे गये। समवर्ती सूची में विहित विषय यद्यपि प्रान्तीय हित वाले विषय थे, लेकिन इनमें एकरूपता बनाये रखने के लिए केन्द्रीय विधान मण्डल भी इन विषयों पर विधि बना सकता था। दोनों में असंगति होने पर प्रान्तीय विधि पर केन्द्रीय विधि अधिभावी होती थी। वर्तमान संविधान में भी यह व्यवस्था है।

(8) फेडरल न्यायालय की स्थापना-न्यायिक क्षेत्र में उच्चतम न्यायालय के रूप में भारत में एक ‘फेडरल न्यायालय’ की स्थापना की गई। इसका मुख्यालय दिल्ली में रखा गया। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश होते थे जो 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रहते थे। इसे निम्नांकित अधिकारिता सौंपी गई थीं-

(क) प्रारम्भिक अधिकारिता;

(ख) अपीलीय अधिकारिता एवं

(ग) परामर्शदात्री (सलाहकारी) अधिकारिता ।

     यद्यपि सन् 1935 के अधिनियम में ऐसी कई महत्वपूर्ण व्यवस्थायें की गई जो वर्तमान संविधान का आधार थीं लेकिन वे भी अन्तिम रूप से भारतवासियों की आशाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप साबित नहीं हो सकीं। परिणाम यह हुआ कि भारतवासियों की आशाओं के अनुरूप बनने के लिए कालान्तर में क्रिप्स मिशन, कैबिनेट मिशन आदि का गठन किया गया जिनके सुझावों की परिणति भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम, 1947 में हुई।

उत्तर (ii) संविधान की उद्देशिका- उद्देशिका प्रत्येक अधिनियम के प्रारम्भ में सामान्यतया एक प्रस्तावना या उद्देशिका होती है। इस उद्देशिका में अधिनियम को पारित करने का आशय तथा अधिनियम के माध्यम से प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य (ध्येय) का उल्लेख रहता है। जैसा कि न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने कहा है-“प्रस्तावना किसी अधिनियम के मुख्य आदर्शों तथा आकांक्षाओं का उल्लेख करती है। प्रस्तावना अधिनियम के उद्देश्यों तथा नीतियों को समझने में सहायक होती है। इन री बेरूबारी यूनियन, ए० आई० आर० 1960 सु० को० 845 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने सही कहा है कि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुन्जी है।

हमारे संविधान की प्रस्तावना निम्न है

     “हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता, सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

        संविधान की उपरोक्त प्रस्तावना के अवलोकन से निम्न बातें विदित होती हैं-

     प्रथम यह कि संविधान का स्रोत क्या है। दूसरे यह कि संविधान का उद्देश्य क्या है तथा तीसरे यह कि संविधान को किस तिथि को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित किया गया था?

संविधान का स्त्रोत- भारतीय संविधान का स्रोत (हम) भारत लोग हैं। भारत को जनता ने अपनी सम्प्रभु आकांक्षा को इस संविधान के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। यह सर्वविदित है कि भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐसी प्रतिनिधि सभा द्वारा किया गया था। जो सीधे जनता द्वारा निर्वाचित नहीं थी। अत: कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय संविधान में इन प्रतिनिधियों की आकांक्षा प्रतिलक्षित होती है। भारत की आम जनता की आकांक्षा नहीं तथा संविधान निर्मात्री सभा एक ब्रिटिश अधिनियम द्वारा गठित की गई थी।

संविधान का उद्देश्य-संविधान की प्रस्तावना में यह स्पष्ट उल्लेख है कि संविधान का उद्देश्य भारत को प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी तथा लोकतांत्रिक गणराज्य बनाना था।

प्रभुतासम्पन्न (Sovereign)– प्रभुतासम्पन्न शब्द इस बात का द्योतक है कि भारत आन्तरिक तथा बाह्य रूप से किसी भी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं है। भारत की प्रभुसम्पन्नता (Sovereignty) भारत की जनता में निहित है। भारत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से राष्ट्र मण्डल (Common Wealth) का सदस्य है परन्तु भारत ने यह सदस्यता अपनी इच्छा से स्वीकार की है तथा जब चाहे वह इससे पृथक् हो सकता है। अतः इससे भारत की सम्प्रभुता पर कोई असर नहीं पड़ता।

      लोकतांत्रिक शब्द इस बात का परिचायक है कि भारत की सम्प्रभुता भारत की जनता में निहित है। अब्राहम लिंकन के शब्दों में लोकतन्त्रतात्मक सरकार जनता की जनता के द्वारा स्थापित तथा जनता के लिए सरकार है। भारत की सरकार का गठन जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव के आधार पर पाँच वर्ष के लिए चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा होता है।

       गणराज्य का अर्थ एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसका प्रमुख वंश उत्तराधिकार द्वारा नहीं आता। उसका चुनाव जनता या जनता के प्रतिनिधि करते हैं। इस प्रकार ब्रिटेन तथा जापान लोकतांत्रिक देश तो हैं परन्तु गणराज्य नहीं हैं क्योंकि वहाँ शासनाध्यक्ष सम्राट या साम्राज्ञी उत्तराधिकार द्वारा अपना पद ग्रहण करता है जबकि भारत का राष्ट्रपति एक अप्रत्यक्ष चुनाव प्रक्रिया द्वारा जानता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है।

       भारत के संविधान ने भारत को एक समाजवादी राष्ट्र के रूप में निर्मित किया है। समाजवादी राष्ट्र वह है जिसमें समाज कल्याण को प्राथमिकता दी जाती है यहाँ समाज का हित सर्वोपरि होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्तिहित के माध्यम से राष्ट्रहित की बात सोची जाती है। भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई है जिसमें समाज का कल्याण सर्वोपरि होता है।

       नन्दिनी सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, ए० आई० आर० (2011) एस० सी० 2839 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय का वचन दिया गया है, जिससे विमुख नहीं हुआ जा सकता। नक्सलवाद एवं माओवाद से इस वचन की रक्षा करना राज्य का दायित्व है।

       पंथ निरपेक्ष शासन प्रणाली से तात्पर्य एक ऐसी सरकार से है जिसमें किसी धर्म विशेष को राज्य धर्म के रूप में मान्यता प्रदान नहीं की गई है। परन्तु सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाता है। ऐसी शासन प्रणाली में सभी धर्मों को समान संरक्षण प्रदान किया जाता है। भारत में सभी व्यक्ति अपनी पसंद के धर्म को मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने के लिए स्वतन्त्र हैं। पंथनिरपेक्ष शब्द 42वें संशोधन द्वारा संविधान में जोड़ा गया।

       इस प्रकार भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका) से यह प्रतिलक्षित होता है कि भारत की शासन व्यवस्था क्या होगी? भारत के राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव कैसे होगा? भारत में शासन का लक्ष्य क्या होगा? तथा भारत में धर्म के बारे में क्या दृष्टिकोण अपनाया जायेगा?

       भारत के संविधान की प्रस्तावना यह स्पष्ट करती है कि भारत के संविधान का ध्येय क्या है संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत में सभी नागरिकों को सामाजिक तथा आर्थिक न्याय के साथ-साथ राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा तथा भारत में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति (Expression), विश्वास (faith) तथा धर्म एवम् उपासना की स्वतन्त्रता होगी। भारत में सभी नागरिकों को प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता प्राप्त होगी। भारत के संविधान की प्रस्तावना में यह संकल्प व्यक्त किया गया है कि इस शासन व्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गरिमा प्राप्त होगी तथा राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता के उद्देश्य से सभी व्यक्तियों में बन्धुत्व स्थापित करने का प्रयास होगा।

प्रस्तावना (उद्देशिका) का महत्व (Importance of Preamble)– किसी अधिनियम की प्रस्तावना को इस अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या करते समय ध्यान में रखना होता है कि अधिनियम किस उद्देश्य को ध्यान में रखकर पारित किया गया है तथा अधिनियम किस ध्येय को प्राप्त करने के लिए पारित किया गया है। अधिनियम द्वारा किस प्रकार की बुराइयों को दूर किया जाना प्रस्तावित है। यह सब जानने के लिए प्रस्तावना या उद्देशिका का महत्व बढ़ जाता है।

      अब प्रश्न यह उठता है कि क्या संविधान की प्रस्तावना को संविधान का अंश (अंग) माना जाता सकता है। इस विषय में इन रीफरेन्स बेरूबारी यूनियन (ए० आई० आर० 1960 सु० को० 845 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना को संविधान का प्रेरणातत्व भले ही मान लिया जाय, इसे संविधान का अंश नहीं. माना जा सकता। प्रस्तावना के रहने या न रहने से संविधान के मूल उद्देश्यों में कोई अन्तर नहीं आता प्रस्तावना का महत्व तब होता है जब संविधान के प्रावधानों की भाषा संदिग्ध तथा अस्पष्ट हो। ऐसी परिस्थितियों में संविधान की प्रस्तावना की सहायता ली जा सकती है। परन्तु केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 1461 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय को पलट दिया तथा यह निर्णय दिया कि प्रस्तावना या उद्देशिका (Preamble) संविधान का भाग है तथा संविधान का मूल स्वरूप (Basic feature) है। प्रोफेसर स्टोरी ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका) एक फुजी के रूप में संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क को खोलने का काम करती है। संविधान के विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या करते समय संविधान की समाप्ति के लिए उद्देशिका या प्रस्तावना की सहायता लेना वैध है। परन्तु यह स्मरणीय है कि राज्य की शक्तियों को कम अथवा विस्तृत करने की शक्ति संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना से नहीं प्राप्त की जा सकती। सुप्रसिद्ध विधिशास्त्री कार्विन उद्देशिका या प्रस्तावना को संविधान का अंग मानने के लिए तैयार नहीं है। उनके अनुसार यद्यपि संविधान की उद्देशिका संविधान का अंग नहीं है. परन्तु यह संविधान को दिशा-निर्देश प्रदान करती है।

एस० आर० बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1994 सु० को० 1918 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान का अंग माना है।

क्या प्रस्तावना या उद्देशिका में संशोधन किया जा सकता है?– केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 1461 नामक बाद में सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया कि चूँकि प्रस्तावना संविधान का आवश्यक अंग है। अतः अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत उसमें संशोधन किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने बहुमत द्वारा यह अभिनिर्धारित किया कि प्रस्तावना या उद्देशिका संविधान का एक अंग है तथा उसमें अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संशोधन किया जा सकता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि प्रस्तावना के उस भाग में संशोधन नहीं किया जा सकता है जो आधारभूत ढाँचा (Basic structure) से सम्बन्धित है।

      सन् 1976 में भारतीय संसद द्वारा किये गये 42वें संविधान संशोधन से यह स्पष्ट है कि संविधान की प्रस्तावना या उद्देशिका संविधान का आवश्यक अंग है तथा उसमें उसी प्रकार संशोधन किया जा सकता है जिस प्रकार संविधान के अन्य अनुच्छेदों में।

    सन् 1976 में किये गये 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में कई महत्वपूर्ण संशोधन किये गये 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की उद्देशिका में समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया। राष्ट्र की सामाजिक तथा आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन एवम् संविधान का ध्येय तथा लक्ष्य प्रकट करने के लिए ‘सामाजिक’ शब्द को उद्देशिका में जोड़ा गया।

     संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संविधान की उद्देशिका में पंथनिरपेक्ष राष्ट्र शब्द जोड़ा गया। इस शब्द के जोड़ने से यह स्पष्ट किया गया कि भारत सरकार न तो किसी धर्म या पंथ का पक्ष लेगी तथा किसी धर्म या पंथ का विरोध करेगी। भारत सरकार का कोई धर्म या पंथ नहीं होगा अर्थात् भारत सरकार किसी धार्मिक आस्था के अनुसार अपने कार्यकलाप को संचालित नहीं करेगी। पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अन्य मुस्लिम राष्ट्रों ने इस्लाम को शासन के धर्म के रूप में स्वीकार किया है। नेपाल एकमात्र हिन्दू राष्ट्र है। भारत एक धर्म बाहुल्य राष्ट्र होने के बावजूद पंथनिरपेक्ष है। इसके नागरिक अपनी इच्छानुसार धर्म में आस्था रखकर आचरण करने को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं, परन्तु भारत सरकार का अपना कोई धर्म या पंथ नहीं होगा। यह सभी धर्मों तथा पंथों के प्रति समभाव रखेगी।

       इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संविधान की प्रस्तावना संविधान का आवश्यक अंग ही नहीं इसका मूलभूत ढाँचा (Basic feature) है तथा इसमें संशोधन भी हो सकता है। परन्तु संविधान की प्रस्तावना में किये गये संशोधन को सिर्फ एक आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि इस संशोधन से संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन हुआ है।

       संविधान की प्रस्तावना में जिन अर्थमूलक शब्दों का प्रयोग किया गया है, वे संविधान का आधारभूत ढाँचा है। स्टेट ऑफ बिहार बनाम बालमुकुन्द शाह, ए० आई० आर० (2000) एस० सी० 1296 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन की अवधारणा तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संविधान का आधारभूत ढाँचा माना गया है। इसी प्रकार इन्दिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2000) एस० सी० 498 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा समता के सिद्धान्त को संविधान का आधारभूत ढाँचा माना गया है। अनुच्छेद 14 एवं 16 का उल्लंघन संविधान के आधारभूत ढाँचे का उल्लंघन है।

      एस० बशीर बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2015) मद्रास 250 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि-बौद्धिक सम्पदा अपीलीय बोर्ड के उप सभापति एवं न्यायिक सदस्यों के लिए निर्धारित की गई अर्हतायें असंवैधानिक हैं, क्योंकि ये शक्तियों के पृथक्करण, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं संविधान के आधारभूत ढाँचे के प्रतिकूल हैं।

प्रश्न 4. भारतीय संविधान के मूल तत्वों या विशिष्टताओं का संक्षेप में विवेचन करें।

Describe in brief the fundamental elements or special features of Indian Constitution.

उत्तर – भारतीय संविधान के मूलभूत तत्व या भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ- स्वतन्त्र भारत का संविधान देश की एक अमूल्य निधि है। यह न केवल एक पवित्र दस्तावेज है अपितु सम्पूर्ण देशवासियों की आशाओं एवं आकांक्षाओं का पुंज है। यह अपने आप में कई नवीनताओं को ग्रहण किए हुए है। अत: भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं –

(1) विश्व का विशालतम संविधान (Bulkiest Constitution of the World) – भारतीय संविधान को सर आइवर जेनिंग ने विश्व का विशालतम संविधान कहा है। अब 68वें संशोधन के पश्चात् भारतीय संविधान में कुल 408 अनुच्छेद हैं जो 24 भागों में विभाजित हैं तथा इसमें 10 अनुसूचियाँ (Schedules) जुड़ी हैं।

       भारतीय संविधान विश्व के लगभग सभी संविधानों का मिश्रण हैं। इसमें सभी राष्ट्रों के संविधान के अनुभवों का लाभ उठाने का प्रयास किया गया है। इसमें अमेरिका के संविधान से मूल अधिकार, ब्रिटेन की संसदीय शासन प्रणाली, आयरलैण्ड के संविधान से राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त तथा जर्मन संविधान से आपात उपबन्धों को सम्मिलित किया गया है।

       भारत कई राज्यों का परिसंघ है। अतः उनकी शासन व्यवस्था के संचालन के लिए लिखित उपबन्धों की आवश्यकता ने इसे विशाल बनाने में सहयोग दिया है। भारतीय संविधान में सभी समस्याओं के निराकरण के लिए प्रावधान सम्मिलित किये गये हैं। कुछ विद्वानों का कथन है कि संविधान जितना ही विशद होगा उतनी ही स्पष्टता आयेगी तथा संविधान में जितनी स्पष्टता होगी उतना ही बोधगम्य होगा। परन्तु यह भी सत्य है कि देश की सर्वोच्य विधि संविधान को संक्षिप्त तथा सरल होना चाहिए जिससे देश का प्रत्येक नागरिक उसे पढ़ तथा जान सके। किसी संविधान की विशालता भ्रम तथा झगड़ों को जन्म देती है। इसीलिए भारतीय संविधान को वकीलों का स्वर्ग (lawyers paradise) कहा जाता है।”

(2) प्रभुत्वसम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना (Establishment of Sovereign Democratic Republic)— भारतीय संविधान की प्रस्तावना से स्पष्ट है कि भारत के लोगों ने स्वयं के लिए स्वयं को एक लोकतान्त्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित किया है। भारत में एक निर्वाचन आयोग (Election Commission) है जिसका उत्तरदायित्व समय-समय पर चुनाव कराकर देश को लोकतांत्रिक सरकार प्रदान करना है चाहे यह सरकार केन्द्रीय हो या राज्य सरकार भारत के प्रत्येक नागरिक को एकल मत प्रदान करने का अधिकार है। मतदाता सूची को चुनाव आयोग तैयार करता है जिसका समय-समय पर संशोधन तथा पुनर्निरीक्षण होता है। देश के प्रत्येक उस नागरिक को अपना प्रतिनिधि स्वतन्त्रतापूर्वक चुनने का अधिकार है जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है तथा जिसका नाम मतदाता सूची में सम्मिलित हो गया हो।

       भारत के लोगों ने भारत को एक गणराज्य के रूप में अंगीकृत किया है। गणराज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है जिसका राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर चुनाव द्वारा अपना पद ग्रहण करता है। भारत का राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष मताधिकार द्वारा एक विशिष्ट चुनाव प्रक्रिया द्वारा चुना जाता है। इसका चुनाव प्रत्येक पाँच वर्ष के पश्चात् होता है। भारत का राष्ट्रपति पाँच वर्ष तक अपना पद ग्रहण कर सकता है। उसे पुनः चुने जाने का अधिकार है।

      भारत एक प्रभुतासम्पन्न राष्ट्र है जिसका अर्थ है भारत किसी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रभुतासम्पन्न सदस्य है। यद्यपि यह राष्ट्रकुल का भी सदस्य है। फिर भी यह किसी भी तरह किसी राष्ट्र के अधीन नहीं है। भारत की सरकार आन्तरिक तथा बाह्य मामलों में अपनी इच्छानुसार आचरण करने के लिए स्वतन्त्र हैं।

(3) संसदीय सरकार (Parliamentary form of Government)- भारतीय संविधान ने संसदीय शासन प्रणाली ब्रिटेन से अपनाई है। चूँकि स्वतन्त्रता के पूर्व हमारे देश का शासन ब्रिटेश द्वारा चलाया जाता था जहाँ संसदीय शासन प्रणाली सदियों से स्थापित है। अतः ब्रिटिश संसदीय शासन व्यवस्था अपनाना समीचीन था क्योंकि हम इसी शासन प्रणाली के अभ्यस्त थे। संसदीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति प्रतीकात्मक अध्यक्ष होता है जो अपने मंत्रिमण्डल की सलाह के अनुसार कार्य करता है। ऐसी शासन व्यवस्था में संसद की बहुमत प्राप्त पार्टी का नेता ही प्रधानमंत्री होता है जो अपने विवेकानुसार अपने संसदीय मण्डल से अपने मंत्रिमण्डल का गठन करता है। इसी प्रत्येक राज्य के विधान मण्डल में बहुमत दल का नेता अपने मंत्रिमण्डल का गठन अपने विवेकानुसार करता है।

        संसदीय शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री को संसद के किसी भी सदन का या तो सदस्य होना चाहिए या पदग्रहण के छ: माह के भीतर उसे संसद के किसी सदन का सदस्य निर्वाचित हो जाना चाहिए। इसी प्रकार का प्रावधान किसी राज्य सरकार के मंत्री के लिए है।

(4) मूल अधिकार या मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)– प्रायः सभी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के संविधानों में राष्ट्र के सभी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) प्रतिभूत (guaranteed) हैं। ये अधिकार के अधिकार हैं जो व्यक्ति के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए अपरिहार्य हैं। परिसंघात्मक संविधान में यह मौलिक अधिकार लिखित रूप से प्रत्येक नागरिक को प्रतिभूत (guarantee) किये गये होते हैं। इन मौलिक अधिकारों की प्रेरणा हमारे संविधान निर्माताओं को अमेरिका के संविधान में मिली है। भारतीय संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई है। ये अधिकार राज्य की विधायी और कार्यपालिकीय शक्ति पर निर्बन्धन (Restrictions) हैं। क्योंकि केन्द्र या राज्य कार्यपालिका या विधायिका कोई भी ऐसा कार्य नहीं कर सकती या ऐसी विधि नहीं बना सकती जिससे नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन हो। अन्यथा न्यायपालिका ऐसे कार्य या विधायन को असंवैधानिक घोषित कर देगी। इन अधिकारों का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय है। इन अधिकारों का अतिक्रमण होने का सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद-32) तथा उच्च न्यायालय (अनुच्छेद-226) विभिन्न याचिका निर्गत कर सकती है।

        मौलिक अधिकार पूर्ण (आत्यन्तिक absolute) नहीं हैं। इन पर लोकहित के आधार पर आवश्यकता पड़ने पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। अमेरिकी संविधान में मूल अधिकारों की घोषणा तो की गई है परन्तु उन पर निर्बन्ध (restriction) लगाने के प्रावधान नहीं हैं। परन्तु यह कार्य अमेरिकी उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से बहुत बाद में किया गया।

(5) राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Policy of State)– भारतीय संविधान का भाग-4 राज्य के नीति निदेशक तत्वों से सम्बन्धित है। इसमें कुछ ऐसे निदेश हैं जिन्हें पूरा करने की राज्य से अपेक्षा रखी जाती है। संविधान में नीति निदेशक तत्वों को सम्मिलित करने की प्रेरणा आयरलैण्ड के संविधान से मिली है। राज्य इन्हीं नीति निदेशक सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए अपने कार्यकलापों का संचालन करेगा। राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त विधान मण्डल तथा कार्य पालिका के पथ प्रदर्शन हेतु संविधान में सम्मिलित किये गये हैं। राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त नागरिकों को कोई अधिकार प्रदान नहीं करते। ये उपबन्ध वास्तव में नैतिक आदर्शों के रूप में हैं और राज्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इन निर्देशों का पालन करना अपना कर्तव्य समझेंगे।

       संविधान के 26वें तथा 42वें संशोधन द्वारा राज्य के नीति निदेशक तत्वों के महत्व को और बढ़ा दिया गया है। इन्हें मूल अधिकारों पर वरीयता दी गई है। अब नीति निदेशक तत्वों को कार्यान्वित करने वाली विधियों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे संविधान के अनुच्छेद 14 तथा अनुच्छेद 19 में नागरिकों को प्रदत्त मूल अधिकारों (Fundamental Rights) का उल्लंघन करती है।

(6) नम्यता तथा अनम्यता का अनोखा मिश्रण (Mixture of Rigidity and Flexibility)- अन्य संघात्मक संविधानों की प्रमुख विशेषता परिवर्तनशीलता के अनुरूप भारतीय संविधान भी परिवर्तनशील है। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया तथा संविधान संशोधन के संसद के अधिकार का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 368 में किया गया है। भारतीय संविधान में संवैधानिक संशोधन-एक विशिष्ट प्रक्रिया अपनाकर किया जा सकता है। यह प्रक्रिया विश्व के अन्य संघात्मक संविधानों की अपेक्षा सरल है। इस सम्बन्ध में भारतीय संविधान में संविधान संशोधन की जो प्रक्रिया दी गई है वह इंग्लैण्ड को भाँति बहुत लचीली (Flexible) है न ही अमेरिका के संविधान में दी गई प्रक्रिया की भाँति अति कठोर भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस विषय में मध्यम मार्ग का चयन किया है तथा भारतीय संविधान को नम्यता तथा अनम्यता को अनोखें मिश्रण के रूप में निर्मित किया है। भारतीय संविधान में पचास वर्षों में 90 से अधिक संविधान संशोधन हुए हैं जबकि अमेरिकी संविधान में 200 वर्षों में सिर्फ 26 संविधान संशोधन हुए हैं।

(7) केन्द्रोन्मुखता (Centralisation)- मजबूत केन्द्र भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। यद्यपि विधायी मामलों का केन्द्रीय सूची तथा राज्य सूची के रूप में बँटवारा कर केन्द्र तथा राज्य के विधायी अधिकार को सीमित किया गया है परन्तु यह स्पष्ट किया गया है कि यदि केन्द्रीय संसद तथा किसी राज्य की विधान सभा द्वारा एक ही विषय पर अधिनियमित प्रावधान में विसंगतता या विरोध है तो राज्य विधान सभा द्वारा अधिनियमित विधि केन्द्र संसद द्वारा अधिनियमित विधि से असंगतता या विरोधाभास की सीमा तक शून्य होगी। अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा कनाडा के संविधानों में संघात्मक संविधान के राज्य तथा केन्द्र की समानता पर विशेष काम किया गया है परन्तु यह सुस्थापित तथ्य है कि राष्ट्रीय अखण्डता तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए केन्द्र का शक्तिमान होना अपरिहार्य है। इसका कारण यह है कि विभिन्न राज्यों के हितों की अपेक्षा राष्ट्र का हित सर्वोपरि है।

(8) वयस्क मताधिकार (Adult Franchise)- प्रत्येक लोकतांत्रिक संघात्मक संविधान के अनुरूप भारत में भी प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को मतदान का अधिकार दिया गया है। मतदान हेतु वयस्कता की उम्र 18 वर्ष निर्धारित की गई है। मताधिकार गरीब, अमीर तथा सभी स्त्री-पुरूष को समान रूप से प्राप्त हैं। भारतीय संविधान एक निर्वाचन आयोग (Election Commission) के गठन का प्रावधान करता है। यह आयोग निष्पक्ष मतदान या चुनाव की व्यवस्था करता है। प्रत्येक मतदाता को संसद तथा विधान मण्डलों में अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने का अधिकार प्राप्त है। हमारे संविधान में साम्प्रदायिक मताधिकार की प्रणाली को समाप्त कर दिया गया है।

(9) स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)– स्वतन्त्र न्यायपालिका सभी संघात्मक संविधानों का एक प्रमुख तत्व है संघात्मक संविधान में संविधान के प्रावधानों की निष्पक्ष व्याख्या के लिए एक तन्त्र का होना आवश्यक है। इसके लिए ऐसा निष्पक्ष न्याय तन्त्र आवश्यक है जो संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के संरक्षक (Guardian) को भूमिका निभा सके। केन्द्र तथा राज्य के सम्बन्धों एवम् अन्य क्षेत्रों में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य भविष्य में उठने वाले विवादों में इस न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका रहती है। अमेरिकी न्याय तन्त्र में दोहरी न्याय व्यवस्था की प्रणाली लागू है जब कि भारत में एकात्मक न्याय तंत्र स्थापित है जिसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय देश के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। इस एकात्मक न्याय प्रणाली की उपयोगिता देश के कानून में एकरूपता, स्पष्टता तथा स्थिरता के लिए आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय न केवल देश के कानून का अपितु देश के नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक तथा जागरूक प्रहरी भी है। स्वतन्त्र न्यायपालिका प्रजातंत्र की आधारशिला है। हमारे देश की न्यायपालिका केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार के नियन्त्रण से मुक्त है। उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की एक निश्चित पदावधि है। इसके पूर्व उन्हें अपने पद पर महाभियोग की प्रक्रिया के सिवाय हटाया नहीं जाता। महाभियोग की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। इनका निर्धारित वेतन बजट के प्रावधानों से मुक्त भारत की समेकित निधि (Consolidated fund) से प्राप्त होता है। इनके निर्णयों की आलोचना या चर्चा संसद या विधान सभा में नहीं हो सकती। इनके न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने नाम तथा गुहर के अन्तर्गत एक निष्पक्ष चुनाव मण्डल की सिफारिश पर की जाती है।

(10) एकल नागरिकता (Single Nationality or Citizenship)– संघात्मक • संविधान में प्राय: दोहरी नागरिकता का प्रावधान होता है। जैसा कि अमेरिकन संविधान में है, प्रत्येक नागरिक को एक केन्द्र की तथा एक राज्य की इस प्रकार दोहरी नागरिकता देने की व्यवस्था है। परन्तु भारतीय संविधान, संघात्मक होते हुए एकल नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है। भारत का प्रत्येक नागरिक सिर्फ भारत का नागरिक है तथा भारत के प्रत्येक नागरिक को समान रूप से अधिकार विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ (Immunities) प्राप्त हैं। एकल नागरिकता का उद्देश्य सिर्फ भारत के प्रति निष्ठावान होने की प्रेरणा देना है।

(11) धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना (Establishment of Secular State) – धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। भारतीय संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को अपनाने तथा उसके अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। भारतीय संविधान के अनुसार राज्य (शासन) सभी धर्मों के प्रति समभाव रखेगा अर्थात् सरकार न तो किसी धर्म को विशेष सुविधा देगी, न ही किसी धर्म के प्रति विरोध का भाव रखेगी। भारत का प्रत्येक नागरिक अपनी आस्था के अनुसार धर्म का प्रचार-प्रसार तथा आचरण करने के लिए स्वतन्त्र है। राज्य घोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का प्रतिषेध है।

(12) नागरिकों के मूल कर्त्तव्य (Fundamental Duties of Citizens) — सन् 1976 में भारतीय संविधान में 42वाँ संशोधन किया गया। इस संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में भाग 4 (क) जोड़ा गया। इसमें नागरिकों के दस कर्त्तव्य (duties) जोड़े गये। अब तक संविधान में मौलिक अधिकारों का ही उल्लेख था। अब संविधान में निम्न मूल कर्त्तव्य जोड़े गए –

(1) संविधान का सम्मान करना।

(2) राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान का आदर करना।

(3) स्वतन्त्रता आन्दोलन के आदर्शों का स्मरण रखना और उनका पालन करना।

(4) भारत की एकता, सम्प्रभुता तथा अखण्डता की रक्षा करना। (5) आह्वान करने पर सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा करें।

(6) भारत के सभी लोगों में समरसता तथा भ्रातृत्व का निर्माण करें।

(7) स्त्री विरुद्ध प्रथाओं का त्याग करें।

(8) भारत की संस्कृति का परिरक्षण करें।

(9) प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सम्वर्द्धन तथा प्राणिमात्र के प्रति सम्मान रखें।

(10) सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें तथा व्यक्तिगत तथा सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का प्रयास करें।

प्रश्न 5. परिसंघवाद का सिद्धान्त क्या है? भारतीय संघवाद के सन्दर्भ में परिसंघीय लक्षणों की विवेचना कीजिए। एक परिसंघात्मक (Federal) संविधान आवश्यक तत्व क्या हैं? इनका संक्षेप में वर्णन करें।

What is the principles of federalism discuss identification of federal features in reference to Indian Federalism. What are the essential elements of Federal Constitution? Describe them in brief.

उत्तर- परिसंघवाद (Federalism) – परिसंघवाद को परिभाषित करने के संदर्भ में विद्वानों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रहे हैं जैसे कठोर दृष्टिकोण, आधुनिक व गतिशील दृष्टिकोण।

     कठोर दृष्टिकोण (Rigid Approach) के अनुसार परिसंघवाद की परिभाषा इस दृष्टिकोण के समर्थक फ्रीमैन व गारमैन के अनुसार संघवाद केन्द्र व राज्यों के बीच सम्प्रभुता का विभाजन है।” जैसे अमेरिकन संविधान

        प्रो० के० सी० हियर ने कठोर दृष्टिकोण में अपनाये गये संप्रभुता के विभाजन को नकारते हुए एक नया सुधरा हुआ दृष्टिकोण अपनाया जिसके अनुसार, “जिस तरह एक रेलगाड़ी के विभिन्न डिब्बे (कोच), प्रकाश आदि इंजन से जुड़े रहते हैं फिर भी वे अपने क्षेत्र के मामले में भिन्न होते हैं और उनका अपना स्वतंत्र क्षेत्र होता है उसी प्रकार परिसंघीय सरकार में भी यद्यपि सभी राज्य, संघ के रूप में जुड़े रहते हैं फिर भी वे अपने-अपने क्षेत्र में पूर्णतः स्वतंत्र होते है। इसी को संघवाद कहते हैं।

      जबकि गतिशील दृष्टिकोण के समर्थक डायसी, सैविनी के अनुसार, संघ व राज्य इकाइयों के बीच सहयोग, संगठन, सहकारिता की आवश्यकता होती है और इसी को संघवाद कहते हैं।

       अत: हम कह सकते हैं कि समय परिवर्तन के साथ संघवाद की दिशा सहकारी संघवाद की ओर बढ़ चली है।

परिसंघवाद का सिद्धान्त – परिसंघवाद के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं-

(i) मोडाक्स का सिद्धान्त ( Modox theory)

(ii) संविदारूपो सिद्धान्त (Theory of contract)

(iii) भागीदारी का सिद्धान्त (Partnership theory)

(iv) न्यास रूपी सिद्धान्त (Trust Theory)

(v) संधि का सिद्धान्त (Treaty Theory)

(i) मोडाक्स का सिद्धान्त- संघवाद एक स्थायी व्यवस्था नहीं है बल्कि यह एक परिवर्तित प्रक्रिया है अतः विभिन्न इकाइयाँ अलगाव की स्थिति से उबरने हेतु संघ बनाती है और अपनी कुछ शक्तियाँ संघ को प्रदान करती हैं और कुछ समय बाद अलगाववादी शक्तियाँ जोर पकड़ने लगती हैं और यह व्यवस्था कमजोर पड़कर एकात्मक रूप परिवर्तित हो जाती है यहाँ चक्र निरन्तर चलता रहता है अर्थात् शासन व्यवस्था का स्परूप संघवाद से एकात्मवाद और एकात्मवाद से संघवाद के रूप में परिवर्तित होता रहता है।

(ii) संविदारूपी सिद्धान्त – अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए दो या दो से अधिक राज्य परस्पर संविदा करते हैं और इस प्रकार संघवाद की स्थापना होती है।

(iii) भागीदारी का सिद्धान्त- संघवाद केन्द्र व राज्यों के बीच में एक साझेदारी है।

(iv) न्यासरूपी सिद्धान्त – संघवाद में केन्द्र और राज्य का सम्बन्ध न्यास के तहत मंचालित होता है और राज्य और केन्द्र न्यासी (Trustee) होते हैं।

(v) संधि का सिद्धान्त – आइवर वर्नियर अन्तर्राष्ट्रीय विधि में निपुण थे अतः इन्होंने संघवाद के लिए संधि का सिद्धान्त दिया। इनके अनुसार, केन्द्र व राज्यों के बीच परस्पर संधि व समझौते के तहत देश की व्यवस्था चलती है तो वहाँ संघवाद पाया जाता है। भारतीय संघवाद : परिसंघीय लक्षणों की पहचान

(क) विधायी सम्बन्ध – संघ एवं राज्यों में शक्तियों का विभाजन परिसंघवाद का एक आवश्यक लक्षण है। प्रत्येक सरकार अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र होती हैं और एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। यह संघवाद का सैद्धान्तिक रूप है। व्यावहारिक रूप में प्रत्येक देश इसका पालन अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप करता है। अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने प्रारम्भ में संघवाद का कठोरता से पालन किया परिणामत: केन्द्र, राज्यों से कमजोर हो गया। जबकि कनाडा ने इन घटनाओं से अनुभव प्राप्त करके केन्द्र को सशक्त रखा और अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को प्रदान की। हमारे देश के संविधान निर्माता इन देशों में हुए परिवर्तनों के अनुभवों के आधार पर सशक्त केन्द्र की स्थापना को व्यवहारतः उचित समझा।

भारतीय संविधान विधायी सम्बन्ध को दो श्रेणियों में विभाजित करता है –

(1) विस्तार की दृष्टि से, (2) विषयवस्तु की दृष्टि से संघ सूची-97, राज्य सूची 66, समवर्ती सूची – 47

      विस्तार की दृष्टि से अनुच्छेद 245- इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा तथा किसी राज्य का विधानमण्डल उस सम्पूर्ण राज्य के अलावा उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा।

     अनुच्छेद 245 (2)- यह उपबन्धित करता है कि संसद द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण से अमान्य नहीं समझी जायेगी कि वह भारत के राज्य क्षेत्र से बाहर भी लागू होती है।

(ख) प्रशासनिक सम्बन्ध – (अनुच्छेद 256-263) प्रशासकीय कठिनाइयों को दूर करने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में आवश्यक उपबंधों का समावेश किया है और संसदीय विषयों के प्रशासन के लिए राज्यों के ऊपर आवश्यक नियंत्रण की शक्ति प्रदान की है। आपातकालीन स्थिति में तो राज्य सरकारें पूर्ण रूप से केन्द्रीय सरकार के अधीन कार्य करती हैं। सामान्य परिस्थितियों में भी संविधान राज्यों के ऊपर केन्द्र के नियंत्रण का उपबंध करता है, जो इस प्रकार है –

(1) संघ द्वारा राज्यों को निर्देश (अनुच्छेद 256, 257, 305)
(2) (i) संघ के कृत्यों को राज्यों को सौंपना, (ii) राज्यों के कृत्य को केन्द्र को सौपना [अनुच्छेद 258 (क)]।

(3) अखिल भारतीय लोक सेवायें (अनुच्छेद 312)

(4) केन्द्रीय अनुदान (अनुच्छेद 275)

(ग) वित्तीय सम्बन्ध – (अनुच्छेद 264 से 291) – किसी भी परिसंघात्मक प्रणाली की सफलता के लिए आवश्यक है कि केन्द्र और राज्यों के वित्तीय साधन पर्याप्त हो जिससे संविधान द्वारा आरोपित अपने अपने उत्तरदायित्वों का वे सुचारू रूप से पालन कर सकें। भारतीय संविधान में केन्द्र एवं राज्यों में राजस्वों का वितरण भारत सरकार अधिनियम, 1935 की पद्धति के आधार पर किया गया है।

भारतीय संघवाद में कौन-कौन से उपबंध संघीय सिद्धान्त के प्रतिकूल हैं –

(i) राज्यपाल की भूमिका- यह उपबंध भी संघीय सिद्धान्त पर प्रहार करता है क्योंकि राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा ही नियुक्त किये जाते हैं और उन्हीं के प्रसाद पर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं। वे राज्य विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी न होकर राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इसके अतिरिक्त विधान-मण्डल द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की स्वीकृति आवश्यक होती है।

(ii) आपात स्थिति में राज्यों पर केन्द्र की शक्तियाँ- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 352, 356 और 360 राष्ट्रपति को निम्नलिखित परिस्थितियों में आपातकालीन घोषणा करने की शक्ति प्रदान करता है –

(i) जब युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण देश की सुरक्षा को खतरा हो;

(ii) जब किसी राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार न चलाया जा रहा हो (अनुच्छेद 356);

(iii) जब देश या इसका कोई भाग वित्तीय संकट में हो। (अनुच्छेद 360)

(iii) जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति- (अनुच्छेद 370) यद्यपि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का एक भाग है और प्रथम अनुसूची में विनिर्दिष्ट राज्यों की सूची में सम्मिलित है किन्तु निम्नलिखित मामलों में उसकी स्थिति अन्य राज्यों से भिन्न है –

(1) जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना संविधान है।

(2) इस राज्य के लिए संसद की विधि निर्माण की शक्ति संघसूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी जिनकों राष्ट्रपति उस राज्य की सरकार से परामर्श करके यह घोषित करे कि वे अधिमिलन पत्र में विनिर्दिष्ट विषयों के अनुरूप हैं।

(3) अन्य विषयों पर विधि राज्य सरकार की सहमति से बनाई जा सकती है।

      संघात्मक या परिसंघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व- संघात्मक व्यवस्था या परिसंघवादी व्यवस्था (Federal) एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें राष्ट्र की विभिन्न इकाइयाँ कुछ क्षेत्रों में स्वतंत्र रहते हुए अपने आय को केन्द्रीय व्यवस्था से सम्बद्ध रखती है। संघात्मक deral) लेटिन शब्द ‘foedus’ से लिया गया है जिसका अर्थ है संधि या अनुबन्ध संघात्मक या परिसंघवाद का उदय इस निमित्त हुआ कि विभिन्न स्वायत्तशासी, पृथक् विभक्त या असम्बद्ध राजनीतिक अस्तित्वों अथवा प्रशासनिक घटकों को एक राजनीतिक संघ में परिभाषित करके एक संघ में बाँधकर रखे। प्रो० डायसी के अनुसार, संघात्मक (Federal) व्यवस्था का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता व शक्तियों का राज्य के अधिकारों के अनुरक्षण के साथ समन्वय स्थापित करना है। इसमें शक्तियों का केन्द्र तथा राज्य इकाई में विभाजन होता है। अतः इस विभाजन की सीमा रेखा सुनिश्चित करने के लिए संघात्मक संविधान का लिखित होना आवश्यक है।

(1) लिखित तथा अनम्य संविधान (Written and Nonflexible Constitution)- संघात्मक संविधान की प्रमुख विशेषता है कि इसमें केन्द्र तथा राज्य की शक्ति पृथक् होती है। इनमें स्पष्ट विभाजन होता है। अतः केन्द्र तथा राज्यों की शक्तियों को परिभाषित तथा नियंत्रित करने हेतु लिखित दस्तावेज की आवश्यकता पड़ती है। लिखित संविधान की सर्वोच्चता केन्द्र तथा संघ के घटक राज्य समान रूप से स्वीकार करते हैं। पूरे देश की व्यवस्था उस लिखित संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करती है। ब्रिटेन का संविधान संघात्मक नहीं है। यह एकात्मक (Unitary) संविधान है। अमेरिका का संविधान संघात्मक परिसंघात्मक संविधान का सर्वोत्तम उदाहरण है।

(2) शक्तियों का विभाजन (Distribution of Powers)- परिसंघात्मक संविधान का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इसमें राष्ट्रीय सरकार (केन्द्र सरकार) तथा राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों का विभाजन होता है। परिसंघात्मक संविधान में लिखित रूप से केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार की शक्तियों का उल्लेख रहता है। ऐसी शक्तियाँ जो राष्ट्रीय महत्व की होती हैं केन्द्र सरकार में निहित होती हैं तथा ऐसी शक्तियाँ जो स्थानीय महत्व की होती हैं, वे राज्य सरकारों में निहित होती हैं। इस प्रकार इस दोहरी शासन व्यवस्था में लिखित रूप से केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों के विभाजन के माध्यम से समन्वय तथा तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया गया होता है।

      भारतीय संविधान में भी केन्द्र तथा राज्यों के मध्य कार्यकारिणी, विधायी तथा न्यायिक शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है।

(3) स्वतंत्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)– परिसंघात्मक संविधान का तीसरा महत्वपूर्ण तत्व स्वतंत्र न्यायपालिका का अस्तित्व है। परिसंघात्मक संविधान चूँकि एक लिखित संविधान होता है तथा उसके लिखित प्रावधानों के अनुसार राष्ट्र के विभिन्न अंगों को कार्य करना होता है। अतः यह देखने के लिए कि देश की शासन व्यवस्था संविधान के प्रावधानों के अनुसार चल रही है या नहीं, केन्द्र तथा राज्य घटक सरकारें उन्हें प्रदत्त शक्तियों का अतिक्रमण कर रही हैं या नहीं, तथा नागरिकों को प्रदत्त महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकारों का लाभ उन्हें प्राप्त हो रहा है या नहीं। एक स्वतंत्र व्यवस्था आवश्यक है। इसके लिए परिसंघीय संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान आवश्यक है। स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान के विभिन्न प्रावधानों की उचित व्याख्या करती है। स्वतंत्र न्यायपालिका देश के नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों की प्रहरी है। स्वतंत्र न्यायपालिका केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा सम्पन्न कार्यकलापों का न्यायिक निरीक्षण कर यह देखती है कि केन्द्र या राज्य सरकारों ने अपनी शक्तियों का अतिक्रमण तो नहीं किया है। केन्द्रीय संसद या राज्य विधायिनी ने कोई असंवैधानिक विधि यदि पारित की है तो स्वतंत्र न्यायपालिका उस पर निगरानी रखती है। स्वतंत्र न्यायपालिका एक ऐसा माध्यम है जो यह सुनिश्चित करे कि राज्य के किसी अंग द्वारा दूसरे के कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का अतिक्रमण न किया जाय। स्वतंत्र न्यायपालिका ऐसी न्यायपालिका है जिस पर न तो केन्द्र सरकार का नियंत्रण हो न ही राज्य सरकार का यह निष्पक्ष रूप से शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त के अनुसार हर घटकों के कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का विनिश्चयन कर सके।

        आस्ट्रेलिया में उच्चतम न्यायालय को संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने का उत्तरदायित्व है। केनेडा में सन् 1949 तक संविधानिक मामलों में अन्तिम निर्णय प्रिवी काउन्सिल द्वारा दिया जाता था। अब केनेडा के उच्चतम न्यायालय यह कार्य कर रहे हैं। भारत में भी संविधान लागू होने के पश्चात् संविधान की व्याख्या अन्तिम रूप से सर्वोच्च या उच्चतम न्यायालय द्वारा की जाती है। भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका विद्यमान है जिसके निर्णय का सम्मान राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति तथा शासन का प्रत्येक अंग करता है।

       भारत तथा अमेरिका का संविधान परिसंघात्मक (Federal) है परन्तु उन दोनों राष्ट्रों की न्याय पद्धति में भिन्नता है। अमेरिका में दोहरी न्याय व्यवस्था है। यहाँ एक तरफ तो परिसंघात्मक (Federal) न्याय व्यवस्था है जिसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय है। वहीं अमेरिका में परिसंघात्मक न्याय व्यवस्था के समानान्तर प्रत्येक राज्य की अपनी पृथक-पृथक् न्यायपालिकाएँ हैं। भारत की न्यायपालिका एकीकृत तथा समाकलित है। भारत में दूसरे न्याय को परिकल्पना नहीं की गई है। यहाँ प्रत्येक राज्य में प्रत्येक जनपद के जनपद न्यायालय हैं जिनसे अपील प्रत्येक राज्य में स्थापित उच्च न्यायालय द्वारा सुनी जाती है तथा प्रत्येक राज्यों में स्थापित उच्च न्यायालयों से अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय सभी मामलों में देश का अन्तिम न्यायालय है। इसके निर्णय की अपील कहीं नहीं हो सकती। यद्यपि उच्चतम न्यायालय अपने निर्णयों से बाध्य नहीं है तथा अपने पूर्ववर्ती निर्णयों को पलट सकता है।

(4) संविधान का अनम्य होना (Federal Constitutions are Rigid) – परिसंघात्मक संविधान सामान्यत: अनम्य (Rigid) होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि चूँकि संविधान किसी राष्ट्र की सर्वोच्च विधि है अत: उसमें बार-बार परिवर्तन की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इसलिए संविधान में परिवर्तन की प्रक्रिया आसान नहीं होनी चाहिए। परन्तु यह स्मरणीय है कि विश्व परिवर्तनशील है। इसी प्रकार समय के बीतने पर राष्ट्र की आवश्यकताओं में भी परिवर्तन अवश्यम्भावी है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक संविधान में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है जिसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर संविधान में परिवर्तन किया जा सके। जिस संविधान में यह प्रक्रिया जटिल तथा कठिन होती है उस संविधान को अनम्य (Rigid) संविधान कहते हैं। भारत के संविधान परिवर्तन या संशोधन की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 368 में दी गई है।

(5) संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution) – संविधान एक ऐसा दस्तावेज है जिसके प्रावधानों के अनुसार किसी राष्ट्र की शासन व्यवस्था का संचालन किया जाता है। देश की सभी विधियाँ, राष्ट्र के तीन अंगों विधायिनी, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के क्रिया-कलाप संविधान के प्रावधानों के अनुरूप होना है। संविधान इन तीन अंगों के अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है। इस प्रकार किसी राष्ट्र की शासन व्यवस्था के प्रत्येक अंग अपने संविधान की सर्वोच्चता (supremacy) को स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 6 दल-बदल कानून से आप क्या समझते हैं? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।

What is Anti Defection Law? Explain with help of decided cases.

उत्तर – भारतीय संविधान के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा अनुच्छेद 122 में एक नया खण्ड 2 जोड़ा गया है जो यह उपबन्धित करता है कि किसी संसद सदस्य या विधान सभा सदस्य के सदन की सदस्यता दसवीं अनुसूची में उल्लिखित आधारों पर समाप्त हो जायेगी। दसवीं अनुसूची के अनुसार संसद और विधानसभाओं के सदस्य, जो किसी राजनीतिक दल का सदस्य है, को सदस्यता निम्न परिस्थितियों में समाप्त हो जायेगी –

(1) यदि वह राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ देता है; या

(2) यदि वह अपने दल या उसके द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति के पूर्व अनुमति के बिना सदन में मतदान करता है या नहीं करता है जिसे 15 दिन के भीतर माफ नहीं कर दिया गया है; या

(3) यदि कोई निर्दलीय सदस्य निर्वाचन के पश्चात् किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है या

(4) यदि कोई नामजद (Nominated) सदस्य शपथ लेने की तारीख से 6 माह के पश्चात् किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाता है।

      अपवाद – निम्नलिखित परिस्थिति में दल-परिवर्तन निरर्हता नहीं होगा और सदन की सदस्यता समाप्त नहीं होगी।

(1) यदि मूल राजनीतिक दल का अन्य दल में विलय हो जाय और उसे विधान दल के 2/3 सदस्य स्वीकृति दे दें।

(2) यदि लोक सभा अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अपने दल की सदस्यता छोड़ देते हैं।

      संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम, 2004 द्वारा दसवीं अनुसूची में संशोधन करके पैरा 3 को निरस्त कर दिया गया है। इसके अनुसार, यदि दल विभाजन के आधार पर एक तिहाई सदस्य दल को विभाजित करके दूसरा दल बना लें या दूसरे या दूसरे दल में चले जायें तो उनकी सदस्यता स्वतः समाप्त हो जायेगी।

     दसवीं अनुसूची का पैरा-1 जिसके अधीन दल-बदल से सम्बन्धित सभी मामलों पर पीठासीन अधिकारी के निर्णय को अन्तिम बना दिया गया था, उसे किहोतो होलोहन बनाम जे० चिल्हू और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है।

     दल परिवर्तन की भयंकर बुराई रोकने के लिए पारित किया गया यह संशोधन स्वागत योग्य है। राजनीतिक जीवन में स्वच्छता लाने के प्रयास में यह एक महत्वपूर्ण कदम है।

     केन्द्र और विभिन्न राज्यों में घटी घटनाओं ने सिद्ध किया है कि दल-बदल विरोधी कानून भारतीय राजनीति के दलबदल की बुराई को दूर करने में असफल रहा है। इस अधिनियम के अन्तर्गत विधानमण्डल के किसी सदस्य ने दलबदल किया है या नहीं इस पर अन्तिम निर्णय देने की शक्ति अध्यक्ष को प्रदान की गई है। न्यायालय उसके निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। विभिन्न राज्यों में अध्यक्षों ने अपनी शक्ति का मनमाना प्रयोग किया है और उक्त अधिनियम की खिल्ली उड़ाई है। लोकसभा अध्यक्ष श्री रवि राय ने श्री चन्द्रशेखर के साथ जनता दल से अलग हुए 25 सदस्यों को “असम्बद्ध” घोषित करने का निर्णय देने में गलत कार्य किया था क्योंकि अधिनियम में इसका कहीं उल्लेख नहीं है। अधिनियम के अनुसार, यदि विधान मण्डल में पार्टी का विभाजन होता है और अलग हुए दल की संख्या 1/3 है तो वह एक नया राजनीतिक दल बन जाता है और यदि संख्या 1/3 से कम है तो उक्त कानून के तहत उनकी सदस्यता स्वतः समाप्त हो जाती है।

      उन्हें यह मालूम था कि जनता दल का विधिवत विभाजन हो गया है और अलग होने वाले दल के सदस्यों की संख्या 1/3 से अधिक है। उनका अनुमान था कि 25 को असम्बद्ध घोषित करने पर 31 असन्तुष्टों की संख्या 1/3 से कम थी और वे दल-बदल कानून के अन्तर्गत निरर्ह हो जाते हैं। सौभाग्य से अध्यक्ष ने अन्तिम निर्णय देते समय अपनी भूल को सुधार लिया और उन्हें नये दल के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।

     काशीनाथ जालमी बनाम दी स्पीकर, ए० आई० आर० 1993 सु० को० 1873 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अध्यक्ष को दल-बदल विरोधी विधि के अधीन अपने पूर्व आदेशों के पुनर्विचार करने की शक्ति नहीं है। 15 फरवरी, 1991 को गोवा विधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष ने गोवा के मुख्यमंत्री आर० एस० नायक और दो मंत्रियों को दल-बदल विरोधी विधि के अधीन निरर्ह घोषित कर दिया था। गोवा और बम्बई उच्च न्यायालय ने अध्यक्ष के उक्त आदेश के विरुद्ध स्थगन आदेश दे दिया था।

       मार्च, 1991 को कार्यवाहक अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री और दो अन्य मंत्रियों की निरर्हता के आदेश पर पुनर्विचार करके उसे वापस ले लिया। दो व्यक्तियों ने अध्यक्ष के निरर्हता सम्बन्धी वापस लेने के आदेश को चुनौती दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अध्यक्ष को अपने आदेश पर पुनर्विचार करने की शक्ति नहीं प्राप्त है। निरर्हता के विरुद्ध न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति विद्यमान है अतः अध्यक्ष को पुनर्विचार की शक्ति नहीं है। पक्षकार उच्च न्यायालय जाकर मामले का निपटारा करवा सकता है।

     एम० पी० सिंह बनाम चेयरमैन बिहार विधान परिषद्, आर० आर० 2005 सु० को० 69 के मामले में पिटीशनर भारतीय कांग्रेस पार्टी के अभ्यर्थी के रूप में बिहार विधान परिषद् का चुनाव लड़ा था। बाद में वह एक स्वतन्त्र सदस्य के रूप में संसदीय चुनाव लड़ा। विधान परिषद् के सभापति ने यह निर्णय दिया कि उसने स्वेच्छा से कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी थी अत: दसवीं अनुसूची के पैरा 2 (1) (डी) के अधीन विधान परिषद् का सदस्य बनने के लिए निरह है और उसका पद रिक्त हो गया है। उसने बिहार विधान परिषद् के सभापति के निर्णय को इस आधार पर चुनौती दिया कि वह अभी भी कांग्रेस पार्टी का सदस्य था क्योंकि उसने पार्टी से त्यागपत्र नहीं दिया था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधान परिषद् के सभापति का निर्णय विधिमान्य है। कांग्रेस विधान मण्डल के नेता द्वारा उसे इस बात की सूचना पत्र द्वारा देना आवश्यक नहीं था पार्टी से त्यागपत्र देना भी आवश्यक नहीं है। स्वेच्छा से दल परिवर्तन किसी सदस्य के आचरण से भी परिलक्षित हो सकता है।

संसद ( Union Parliament)

प्रश्न 7. (1) संसद का निर्माण कैसे होता है तथा इसका विघटन कैसे और कब होता है ?

Constitution and dissolution of Parliament, how and when made?

(ii) संसद के कार्यों की विस्तृत व्याख्या कीजिए।

Discuss in detail the functions of Parliament.

उत्तर-(i) भारतीय संसद का निर्माण तीन अंगों के मिलने से बनता है –

(1) राष्ट्रपति:

(2) राज्य सभा तथा

(3) लोक सभा।

      राष्ट्रपति – संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं होता परन्तु वह संसद का एक अभिन्न अंग होता है तथा संसद की कार्यवाहियों में भाग लेता है। वह संसद के सत्र को आहूत करता है, उसे स्थगित भी कर सकता है और लोक सभा को विघटित भी कर सकता है तथा संघ की कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है।

      राज्य सभा– राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 होती है जिसमें 238 सदस्य राज्य व संघ राज्य क्षेत्रों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं तथा 12 सदस्यों को राष्ट्रपति नामांकित करता है जो साहित्य, विज्ञान कला तथा सामाजिक सेवा के क्षेत्र के विशिष्ट ज्ञान रखने वाले होते हैं। नामांकित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन राज्य की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। राज्य सभा एक स्थायी सदन होता है, इसका विघटन नहीं होता परन्तु इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष की समाप्ति पर सेवानिवृत्त कर दिये जाते हैं। राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है। तथा भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। राज्य सभा अपने सदस्यों में से किसी सदस्य को उपसभापति चुनती है। जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहा होता है तब सभापति का पद खाली होने पर उपसभापति उस पद के कर्त्तव्यों का निर्वहन करता है परन्तु जब उपसभापति का पद भी खाली होता है तब इस पद को राज्य सभा का कोई ऐसा व्यक्ति सम्भालता है जिसे राष्ट्रपति विहित करे। राज्य सभा अपने तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से प्रस्ताव पारित करके सभापति तथा उपसभापति को हटा सकती है। उपराष्ट्रपति तथा उपसभापति अपने पद से त्यागपत्र भी दे सकते हैं। यदि राज्य सभा को किसी बैठक में उपराष्ट्रपति को उनके पद से हटाने सम्बन्धी कोई प्रस्ताव विचारधीन हो तो उपराष्ट्रपति उस सभा की अध्यक्षता नहीं करेगा।

       लोकसभा- लोकसभा, जनता की सभा मानी जाती है। इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा होता है। इसके सदस्यों की अधिकतम संख्या 550 है। (1) 530 सदस्य राज्यों से तथा 20 संघ शासित क्षेत्रों से लिये जाते हैं। इसके अलावा यदि राष्ट्रपति को यह संज्ञान हो कि लोकसभा में एंग्लो इण्डियन समाज को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है तो वह अनुच्छेद 331 के अधीन एंग्लो इण्डियन समुदाय के दो सदस्यों को नामांकित कर सकता है।

      राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष मतदान द्वारा होता है।

      लोक सभा के स्थानों की संख्या – प्रत्येक राज्य के लिए लोकसभा के स्थानों की ऐसी रीति से की जायेगी कि उस संख्या के राज्य की जनसंख्या का अनुपात समस्त राज्य के लिए चाय एक ही हो। इस प्रकार संविधान सोकसभा के प्रति निर्वाचन में प्रतिनिधित्व को एकरूपता दो प्रकार से स्थापित करता है- (1) विभिन्न राज्यों से तथा (2) एक राज्य के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से।

       लोक सभा की अवधि– लोक सभा की अवधि 5 वर्ष की होती है। राष्ट्रपति से समय से पूर्व भी विघटित कर सकता है। परन्तु आपात उद्घोषणा में यह अवधि 1 वर्ष लिए बढ़ायी जा सकती है। इस प्रकार बढ़ायी गयी अवधि किसी भी अवस्था में आपात उद्घोषणा के समाप्त हो जाने के पश्चात् 6 माह से अधिक न होगी।

      सदस्यों की अर्हताएँ– अनुच्छेद 84 लोक सभा के सदस्यों के लिए निम्न योग्यता का प्रावधान करता है –

(क) वह भारत का नागरिक हो,

(ख) राज्य सभा के लिए कम से कम 30 वर्ष तथा लोक सभा के लिए कम से कम 25 वर्ष की आयु पूरी होना आवश्यक है तथा

(ग) निर्वाचन आयोग के द्वारा अधिकृत (प्राधिकृत) कोई व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची के अन्तर्गत इस उद्देश्य के लिये दिये गये निदेशानुसार शपथ ग्रहण किया हो,,

(घ) संसद के लिए सम्बन्धित विषय पर ऐसी योग्यताएँ रखें जो किसी विधि के द्वारा बनायी गयी है। उदाहरणस्वरूप- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में उस व्यक्ति का नाम मतदाता के रूप में पंजीकृत हो।

     संसद सदस्यों की अयोग्यताएं- अनुच्छेद 102 के अनुसार किसी व्यक्ति में निम्नलिखित अयोग्यताएँ होने पर वह संसद का सदस्य नहीं बन सकता –

(क) यदि वह व्यक्ति भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीनस्थ कोई लाभ का पद धारण करता हो;

(ख) यदि सक्षम न्यायालय द्वारा उसे विकृतचित्त घोषित किया गया हो और ऐसी विकृति विद्यमान हो,

(ग) यदि वह अनुमानत: (अनुन्मोचित) दिवालिया है;

(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है अथवा किसी विदेशी राज्य की नागरिकता अपनी इच्छानुसार ग्रहण करे, अथवा विदेशी राज्य प्रति विश्वसनीयता (निष्ठा या अनुशास्ति) को स्वीकार करता है,

(ङ) यदि वह संसद द्वारा बनायी गयी किसी विधि के द्वारा अयोग्य घोषित किया जाता है।

       संसद के किसी भी सदन का कोई सदस्य अपने पद के अलावा लाभ का कोई अन्य पद धारण नहीं कर सकता है लाभ का पद न तो संविधान में परिभाषित है और न ही लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संविधान में कहा गया है कि मंत्री पद लाभ का पद नहीं है।

       जया बच्चन बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० (2006) सु० को० 2119 के मामले में समाजवादी पार्टी की सदस्यता से इस आधार पर निरर्ह घोषित कर दिया गया कि वे उत्तर प्रदेश फिल्म निगम की अध्यक्षा के रूप में लाभ का पद धारण करती थीं जया बच्चन ने इस विनिश्चय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की जिसमें अभिनिर्धारित किया गया कि उनका पद लाभ का पद था क्योंकि यह पद स्थायी था और उसको धारण करने वाला उससे युक्तियुक्त रूप से कुछ लाभ पा सकता था। वास्तविक धन सम्बन्धी लाभ पाना आवश्यक नहीं है।

       पी० ए० संगमा बनाम प्रणब मुखर्जी, ए० आई० आर० (2013) सु० को० 372 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि लाभ के पद से अभिप्राय ऐसे पद से है, जिसके साथ कुछ आर्थिक लाभ जुड़े हुए हों।

       सदस्यता की समाप्ति– यदि संसद के किसी सदन का सदस्य त्यागपत्र दे देता है तो वह संसद का सदस्य नहीं रह जाता परन्तु राज्य सभा का सदस्य राज्य सभा के सभापति को अपना त्यागपत्र देगा और लोकसभा का सदस्य लोक सभा अध्यक्ष को अपना त्यागपत्र दे सकता है। संविधान के 33वें संशोधन अधिनियम, 1974 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 101 और 190 में संशोधन करके एक नया परन्तुक जोड़ा है इस परन्तुक के अनुसार यदि संसद के किसी सदन का सदस्य अपना त्यागपत्र देता है और वह स्वीकृत हो जाता है तो उसका स्थान रिक्त हो जायेगा बशर्ते कि त्यागपत्र स्वेच्छया दिया गया हो।

       संसद की बैठक – संसद के प्रत्येक सदन की बैठक राष्ट्रपति समय-समय पर आहूत करता है। वर्ष में दो बार यह बैठक बुलायी जानी अनिवार्य है परन्तु चालू सत्र को बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के बीच 6 मास का अन्तर नहीं होना चाहिए।

उत्तर-(ii) संसद के कार्य– संसद का महत्वपूर्ण कार्य देश के लिए विधि या कानून का निर्माण करना है अर्थात् एक विधेयक के अधिनियम बनने तक की यात्रा (विधायी प्रक्रिया) संसद में ही पूरी होती है।

      संसद में तीन प्रकार के विधेयक प्रस्तुत किये जाते हैं-साधारण विधेयक, धन विधेयक तथा संविधान संशोधन विधेयक इत्यादि पर संसद का कार्य निर्भर होता है।

     साधारण विधेयक – कोई विधेयक संसद में ही अपनी विधायी प्रक्रिया के दौरान गुजरते हुए कानून का स्वरूप धारण करता है। कोई भी साधारण विधेयक बिना राष्ट्रपति, राज्य सभा तथा लोक सभा की अनुमति प्राप्त किये अधिनियम नहीं बन सकता। किसी विधेयक को सदन के तीन वाचनों से गुजरना आवश्यक होता है। प्रथम वाचन में विधेयक को सदन के सामने रखा जाता है तथा इस दौरान यदि विधेयक विवादास्पद न हो तो इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया जाता। द्वितीय वाचन के दौरान प्रस्तुत किये गये विधेयक पर सदन विचार-विमर्श करता है इस पर सामान्य बहस होती है तथा इसे प्रवर समिति के विचारार्थ प्रस्तुत किया जाता है। उसके पश्चात् तृतीय वाचन की स्थिति आगे है जो केवल औपचारिक ही होती है। इसके पश्चात् विधेयक को सदन द्वारा पारित करके दूसरे सदन के विचारार्थ भेज दिया जाता है। दूसरे सदन में फिर उन्हीं प्रक्रियाओं से विधेयक को गुजरना पड़ता है। इस प्रकार दूसरा सदन यदि इसे एकमत से पारित कर देता है तो ऐसे विधेयक को राष्ट्रपति अनुमति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की अनुमति मिल जाने पर यहाँ विधेयक का रूप धारण कर लेता है।

      परन्तु यदि विधेषक किसी एक सदन में पारित है दूसरे में नहीं तो वह पारित नहीं समझा जायेगा और ऐसे विधेयक पर दोनों सदनों में गतिरोध की स्थिति में संविधान दोनों सदन को संयुक्त बैठक का प्रावधान करता है।

     सदनों की संयुक्त बैठक- जब कोई विधेयक एक सदन में पारित होकर दूसरे सद में भेजा जाता है और वह दूसरा सदन –

(1) विधेयक को अस्वीकृत कर देता है:

(2) विधेयक में किये गये संशोधन पर असहमत हो,

(3) इसे पारित किये बिना ही 6 महीने से ज्यादा समय बीत चुका हो, तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आहूत कर सकता है, बुला सकता है।

      इनके अलावा यदि विधेयक लुप्त हो गया हो तो भी राष्ट्रपति संयुक्त बैठक करवा सकता है और जब राष्ट्रपति के इस आशय की सूचना दोनों सदनों को दी गई हो तो कोई भी सदन विधेयक पर आगे कार्यवाही नहीं करेगा।

     लोक सभा के प्रत्येक आम चुनाव होने के तत्पश्चात् की प्रथम बैठक को तथा प्रत्येक वर्ष की प्रथम बैठक में दोनों सदनों को संयुक्त बैठक को राष्ट्रपति सम्बोधित करता है तथा ऐसी बैठक बुलाये जाने के अपने कारणों को इंगित करता है। हालांकि यह राष्ट्रपति का व्यक्तिगत अभिभाव्य नहीं होता, इसे मंत्रिमण्डल तैयार करती है। राष्ट्रपति केवल इसे पढ़ता है। राष्ट्रपति सदन में लम्बित किसी विधेयक को बिचारार्थ किसी सदन को संदेश भेज सकता है और वह सदन इस पर विचार करेगा।

        संसद का विघटन – विघटन से तात्पर्य है सदन की कालावधि को समाप्त कर देन जिसके पश्चात् नयी लोकसभा का निर्माण होता है। विघटन करने की यह शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है परन्तु राष्ट्रपति लोक सभा का विघटतंत्रिपरिषद् के परामर्श से ही करता है। यदि कोई प्रधानमंत्री स्वयं सदन से त्यागपत्र दे देता है तो राष्ट्रपति उसका विघटन करेगा। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को अपदस्थ भी कर सकता है। विघटन कई कारणों से हो सकता है –

(1) सदन का कार्यकाल 5 वर्ष पूरा होने पर;

(2) लोक सभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त न होने पर;

(3) सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर;

(4) त्याग पत्र देने पर;

(5) मृत्यु होने पर या अन्य स्थितियों में राष्ट्रपति लोकसभा का विघटन कर सकता है।

       लोक सभा यदि उपर्युक्त कारणों से विघटित नहीं कर दी जाती तो अपनी नियत अवधि 5 वर्ष तक चलेगी परन्तु आपात काल के दौरान लोकसभा के कार्यकाल की अवधि 1 वर्ष और बढ़ायी जा सकती है और आपात की समाप्ति पर 6 मास के भीतर नयी लोकसभा के लिए निर्वाचन आवश्यक हो जाता है।

       विघटन का प्रभाव – जब किसी लोक सभा का विघटन होता है तब इससे सदन की कार्यवाहियों पर निम्न तरह से प्रभाव पड़ता है –

(1) यदि कोई विधेयक जो राज्य सभा में लम्बित है परन्तु लोकसभा में पारित नहीं हुआ है तो वह विघटन के साथ समाप्त नहीं हो जाता है।

(2) यदि कोई विधेयक जो लोकसभा में लम्बित है वह सदन के विघटन के पश्चात् हो समाप्त हो जाता है।

(3) यदि कोई विधेयक जो लोक सभा में तो पारित हो गया हो किन्तु राज्य सभा में लम्बित हो तो वह विघटन के पश्चात् लुप्त हो जाता है जब तक कि राष्ट्रपति इसे सदनों की संयुक्त बैठक में पारित नहीं करवा लेता।

       संयुक्त बैठक का यह उपबन्ध धन विधेयकों पर लागू होता है क्योंकि धन विधेयक पर केवल लोकसभा का अधिकार क्षेत्र है। राज्य सभा धन विधेयक को अधिक से अधिक 14 दिनों तक रोक सकती है परन्तु यदि राज्य सभा स्वीकृति न दे तो भी लोकसभा धन विधेयक को पारित कर सकती है।

       राष्ट्रपति की अनुमति– कोई भी विधेयक बिना राष्ट्रपति की मंजूरी के अधिनियम नहीं बन सकता भले ही दोनों सदनों से पारित हो गया हो परन्तु उस पर राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक है। किसी विधेयक के सम्बन्ध में मंजूरी देते समय राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह घोषित कर सकता है कि

(क) वह विधेयक पर अनुमति देगा; या

(ख) अनुमति रोक लेता है; या

(ग) पुनर्विचार के लिए वापस लौटा सकता है।

     इस प्रकार वापस लौटाये गये विधेयक पर सदन पुनर्विचार के लिए बाध्य है परन्तु यदि बिना विचारित किये ही पुनः पारित कर देता है तो राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिए बाध्य है क्योंकि राष्ट्रपति उसके पश्चात् अपनी अनुमति नहीं रोक सकता।

       धन विधेयक– धन विधेयक राज्य सभा में पेश नहीं किया जाता, इसे केवल लोकसभा में पेश किया जाता है और कोई भी धन विधेयक बिना राष्ट्रपति की सिफारिश के लोकसभा में पेश नहीं किया जा सकता परन्तु कर सम्बन्धी मामलों में ऐसा नहीं होता। धन विधेयक राज्य सभा में सिफारिश के लिए भेजा जाता है जिसे वह अधिक से अधिक 14 दिनों तक अपने यहाँ रोक सकती है फिर उसे लोक सभा को वापस कर देती है। यह लोक सभा के ऊपर निर्भर रहता है कि वह राज्य सभा की सिफारिशों की स्वीकार करे या अस्वीकार करें। धन विधेयक के सम्बन्ध में लोक सभा को अन्तिम शक्ति प्राप्त है जबकि राज्य सभा को धन विधेयक को अस्वीकार करने या संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं प्राप्त है।

     इस प्रकार संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद का प्रत्येक सदन विधायी प्रक्रिया तथा कार्य संचालन के लिए संसद विधि द्वारा प्रत्येक सदन की प्रक्रिया और कार्य संचालन का विनियमन कर सकती है। चूँकि एक विधेयक के अधिनियम बनने तक के सारे क्रियाकलाप संसद में ही होते हैं। इसलिए संसद विधायिका में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

प्रश्न 8. संसद के सदस्यों के विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ क्या हैं? क्या राज्य विधान मण्डल के अध्यक्ष द्वारा संसदीय विशेषाधिकार के किसी प्रश्न पर दिये गये निर्णय का उच्च न्यायालय में परीक्षण किया जा सकता है? इस सन्दर्भ में न्यायालयों की स्थिति का आलोचनात्मक परीक्षण करें। क्या भारतीय स्थिति इंग्लैण्ड की स्थिति से भिन्न है? निर्णीत वादों का उल्लेख करें। 

What are the privileges and immunities of Members of Parliament? Can High Court examine the decision given by Speaker of State Legislative Assembly on question of parliamentary privileges? Critically examine the status of courts in this reference. Is Indian condition is different from that of England? Mention with the help of decided cases.

उत्तर- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में संसद तथा विधानमण्डल के सदस्यों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था इंग्लैण्ड से अपनाई है जहाँ संसद तथा विधान मण्डल के सदस्य कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) का भी निर्माण करते हैं। संसद सदस्य तथा विधान मण्डल के सदस्य जन प्रतिनिधि के रूप में अपने कार्य निर्भीकता तथा निष्पक्षता में सम्पादित कर सकें इसलिए उन्हें कुछ विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ प्रदान किया जाना आवश्यक है। सर थामस इ० ने के अनुसार ये विशेषाधिकार संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक सदन के सदस्यों को सामूहिक रूप से तथा सदन के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से प्राप्त है जिनके अभाव में वे अपने संसदीय कर्त्तव्यों का निर्वहन नहीं कर सकते। ये विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ आम नागरिकों को प्राप्त विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियों से विस्तृत हैं तथा अन्य व्यक्तियों तथा निकायों के इसी प्रकार के अधिकारों पर अभिभावी रहते हैं।

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 में वर्णित संसदीय विशेषाधिकार निम्न प्रकार के हैं –

(1) वाक स्वातंत्र्य (Freedom of Speech)

(2) कार्यवाहियों के प्रकाशन का अधिकार (Right of publication of proceedings)

(3) अन्य विशेषाधिकार (Other privileges)

(4) अन्य व्यक्तियों तक शक्तियों, विशेषाधिकारों तथा उन्मुक्तियों का विस्तार।

(1) वाक् स्वातंत्र्य या भाषण की स्वतंत्रता (Freedom of Speech)– इंग्लैण्ड का संसदीय इतिहास तीन सौ वर्षों से अधिक पुराना है। सन् 1629 में इंग्लैण्ड की संसद में राजद्रोहात्मक (Seditious) भाषण देने के लिए इलियट, हालिस तथा वेलेन्टाइन को सजा दी गई थी। इसके पश्चात् काफी आन्दोलन के पश्चात् सन् 1689 में बिल ऑफ राइट्स द्वारा संसद में दिये गये भाषणों अथवा किये गये कार्यों या विचार-विमर्शो (debates) के आधार पर किसी भी न्यायालय में चुनौती देने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105 इसी विशेषाधिकार के सांविधानिक प्रतिभूति (Guarantee) प्रदान करता है। संविधान के अनुच्छेद 105 के अनुसार, “संविधान के उपबन्धों तथा संसद की प्रक्रिया को नियन्त्रित करने वाले नियमों तथा स्थायी आदेशों के अधीन रहते हुए संसद में वाक् स्वातन्त्र्य होगा तथा संसद में या उसकी समिति में कही हुई बात अथवा दिये गये किसी मत के विषय में संसद के किसी सदस्य के विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही न चल सकेगी।

      तेज किरन जैन बनाम संजीव रेड्डी, ए० आई० आर० 1970 सु० को० में कहा गया कि बोलने की ही नहीं अपितु सदन में प्रश्न करने, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाने की भी पूरी छूट होती है। किसी विषय पर अपने अन्तःकरण के अनुसार मत देने का भी उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त है।

      अनुच्छेद 105 में प्रदत्त विशेषाधिकार तभी उपलब्ध होगा जब कोई बात सदन के भीतर कही गई है। वही बात यदि सदन के बाहर कही जाय तो कथनकर्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 500 के अन्तर्गत मानहानि के लिए अभियोजन चलाया जा सकता है।

       संसद के सदस्यों की यह स्वतन्त्रता आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। इसके ऊपर दो प्रतिबन्ध हैं –

(1) अनुच्छेद 121 के अनुसार, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों का पालन में किये गये किसी आचरण के विषय में कोई चर्चा संसद में नहीं की जायेगी; तथा

(2) लोकसभा ने अनुच्छेद 349-356 के नियमों के अनुसार, संसद में अशिष्ट भाषा तथा अशिष्ट आचरण पर प्रतिबन्ध लगाया है।

      डॉ० जतीश चन्द्र घोष बनाम हरिसदन मुखर्जी, ए० आई० आर० 1956 कलकत्ता 433 नामक बाद में पश्चिम बंगाल विधान सभा के एक सदस्य ने सदन के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न प्रस्तुत किये जो किसी व्यक्ति के प्रति मानहानिकारक थे। परन्तु अध्यक्ष ने उसकी अनुमति नहीं दी। तदोपरान्त ये कथन किसी प्रेस ने प्रकाशित किया उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रकाशन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है तथा उसे मानहानि के लिए दण्डित किया जा सकेगा।

      हाल में नरसिहा राव सरकार को बचाने के लिए कुछ संसद सदस्यों को घूस दिया गया था। घूस दिये जाने के पश्चात् भी घूस लेने वाले संसद सदस्यों ने अविश्वास प्रस्ताव में मत न देकर धोखा दिया था। उच्चतम न्यायालय ने ऐसे संसद सदस्यों को मुक्त करते हुए कहा कि संसद में अभिव्यक्त विचारों या किये गये कार्यों को न्यायिक विचारण का विषय नहीं बनाया जा सकता।

(2) सदन की कार्यवाहियों के प्रकाशन का अधिकार – संविधान का अनुच्छेद 105 खण्ड (2) यह प्रावधान करता है कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध संसद के किसी सदन के अधिकार के द्वारा या अधीन किसी प्रतिवेदन, मत (vote) या कार्यवाहियों के विषय में कोई कार्यवाही न चल सकेगी। इंग्लैण्ड में इस अधिनियम को पार्लियामेण्टरी एक्ट, 1840 पारित करके सुनिश्चित कर लिया है। भारतीय विधान मण्डलों को भी यह अधिकार प्राप्त है। सदन किसी कार्यवाही को प्रकाशित करने का अधिकार दे सकता है या रोक सकता है। अनुच्छेद 105 (2) में संरक्षण केवल उन प्रकाशनों को प्राप्त है जो सदन के प्राधिकार (authority) के अन्तर्गत प्रकाशित किये जाते हैं।

       सुरेन्द्र बनाम नावाकृष्ण, ए० आई० आर० 1958 उड़ीसा 163 नामक बाद में एक समाचार पत्र के सम्पादक ने सदन के प्राधिकार के बिना सदन में किये गये बयान को प्रकाशित किया जिससे उच्च न्यायालय की अवमानना होती थी। उच्च न्यायालय ने उसे न्यायालय की अवमानना के लिए दोषों उहराया। इंग्लैण्ड में सदन की कार्यवाहियों के प्रकाशन पर रोक नहीं है चाहे वह सदन के प्राधिकार के बिना प्रकाशित की गई हो। [बासन बनाम वाल्टर, एल. आर० 4 क्यू० बी० 72 (1968)]]

     सन् 1978 में पारित संविधान के 44वें संशोधन द्वारा एक नया अनुच्छेद 361 (क) जोड़कर यह उपबन्ध किया गया कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध जो संसद के किसी सदन की कार्यवाही को सारतः सही प्रकाशित करता है, किसी भी न्यायालय में उसके विरुद्ध कोई भी कार्यवाही दीवानी या आपराधिक नहीं की जायेगी जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाय कि प्रकाशन दुर्भावना से किया गया था।

(3) अन्य विशेषाधिकार (Other Privileges)- संविधान के मूल अनुच्छेद 105 में यह उपबन्ध था कि संसद सदस्यों के विशेषाधिकार वहाँ होंगे जो संविधान लागू होने के दिन ब्रिटिश संसद सदस्यों को प्राप्त थे 42वें संविधान संशोधन द्वारा सन् 1976 में यह प्रावधान किया गया कि अन्य बातों में संसद प्रत्येक सदन की तथा संसद के प्रत्येक सदन के सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ वही होंगी जिन्हें संसद समय-समय पर विकसित करे। सन् 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 105 (3) के प्रावधान की स्थिति वहाँ कर दी गई जो 44वें संविधान संशोधन से पूर्व था तथा संसद को संसदीय विशेषाधिकार नियम बनाकर परिभाषित कर सकती है। इस प्रकार वर्तमान में संसद सदस्य को निम्न विशेषाधिकार प्राप्त है –

(1) सभी विशेषाधिकार भी 44वाँ संविधान संशोधन लागू होने से पूर्व थे। ये वे सभी अधिकार हैं जो ब्रिटिश संसद के सदस्यों को उक्त समय में प्राप्त थे।

(2) अन्य मामलों में वे सभी विशेषाधिकार होंगे जो संसद की विधि द्वारा विहित किये जायें।

       44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के लागू होने के पूर्व संसद तथा भारतीय विधान मण्डलों तथा उसके सदस्यों को निम्न उन्मुक्तियाँ प्राप्त थीं –

 (1) गिरफ्तारी से उन्मुक्ति (Immunity from arrest)–  इंग्लैण्ड में संसद सदस्यों  को यह उन्मुक्ति प्राप्त है कि उन्हें संसद के सत्र के प्रारम्भ होने के 40 दिनों पूर्व तथा संसद के सत्र की समाप्ति के 40 दिनों पश्चात् तक गिरफ्तार भी किया गया है तो उसे मुक्त कर दिया जायेगा। परन्तु यह उन्मुक्ति सिर्फ दीवानी मामलों के लिए है। यह संरक्षण आपराधिक आरोप, न्यायालय अवमान (contempt of court), निवारक निरोध (preventive detention) कानूनों के विरुद्ध उपलब्ध नहीं है। इन मामलों में एक संसद सदस्य की स्थिति साधारण नागरिक की भाँति ही है।

(2) गुप्त सत्र चलाने का अधिकार– सामान्यतः सदन की कार्यवाही में बाहरी सदस्य दर्शक की हैसियत से दर्शक दीर्घा में बैठ सकते हैं। परन्तु अपवादित परिस्थितियों में सदन को यह अधिकार है कि वह सत्र में सम्मिलित होने से बाहरी व्यक्तियों को अपवर्जित कर सके।

(3) कार्यवाहियों का विनियमन– संसद या विधान मण्डल के सदन को अपनी कार्यवाहियों के विनियमन तथा उससे सम्बन्धित मामलों पर उचित व्यवस्था देने का अधिकार है। इस मामले में न्यायालय को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 122 में यह स्पष्ट उल्लेख है कि प्रक्रिया में किसी कथित अनियमितता के आधार पर संसद को किसी कार्यवाही की मान्यता पर कोई आपत्ति नहीं की जा सकेगी। [एम० एम० एम० शर्मा बनाम श्रीकृष्ण ए० आई० आर० 1959 सु० को ० 395 ]

(4) कार्यवाहियों के प्रकाशन पर रोक लगाने का अधिकार– इंग्लैण्ड की भाँति भारत में भी संसद या विधान मण्डल की कार्यवाहियों के प्रकाशन पर रोक लगाने का अधिकार संसद या विधानमण्डल को है। इस बिन्दु पर सर्चलाइट बाद महत्वपूर्ण है। इस मामले में बिहार विधान मण्डल में दिये गये एक भाषण का कुछ अंश वादी के लिए अपमानजनक था। अतः अध्यक्ष ने उसे संसद की कार्यवाही से निकाल दिया। प्रतिवादी ने इसे प्रकाशित किया। वादी ने उसके विरुद्ध मानहानि कथन प्रकाशित करने का आरोप लगाया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सदन को अपनी कार्यवाही को रोकने का अधिकार है। उसे प्रकाशित करके सदन के विशेषाधिकार का उल्लंघन प्रतिवादी ने किया। अतः प्रतिवादी उत्तरदायी थे।

(5) सदनों की अवमानना के लिए दण्डित करने का अधिकार (To Punish for Contempt of House)- संसद के प्रत्येक सदन के किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह सदन का सदस्य हो या बाहरी व्यक्ति अपने विशेषाधिकारों के उल्लंघन या अवमानना के लिए दण्डित करने की शक्ति प्राप्त है। संसद की यह शक्ति सबसे महत्वपूर्ण है तथा संसदीय विशेषाधिकार की आधारशिला है जिस मामले में सदन के किसी विशेषाधिकार का उल्लंघन हुआ है अथवा नहीं इसका निर्णय करने का अधिकार सदन को ही है। इसमें कोई भी न्यायालय हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं रखता। अवमानना शब्द के अन्तर्गत वे सभी कृत्य सम्मिलित हैं जिनसे सदन की कार्यवाही में किसी प्रकार की बाधा पहुँचती है। यदि किसी व्यक्ति को सदन की अवमानना के लिए दण्डित किया गया है तो न्यायालय उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। परन्तु यदि वारण्ट में अवमानना के कारणों का उल्लेख कर दिया गया हो तो उसकी वैधता की जाँच न्यायालय कर सकता है। सामान्य तौर पर सदन अपने किसी सदन को सदन से निलम्बित कर सकता है। उसे निष्कासित कर सकता है, चेतावनी दे सकता है तथा उसे कारावास का दण्ड दे सकता है। कारावास का दण्ड सदन के सत्र तक ही चलता है।

     ताजा उदाहरण के लिए आपरेशन दुर्योधन के तहत रिश्वतखोर सांसदों की सदस्यता समाप्त करना इसके लेखक के मतानुसार सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप अनावश्यक था।

      न्यायालय तथा संसदीय विशेषाधिकार (Court and Parliamentary Privileges) – आदर्श लोकतांत्रिक संघीय व्यवस्था का आवश्यक तत्व शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त है। इसके अनुसार राज्य के तीनों अंगो, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियों में पृथक्करण आवश्यक होंगे। तीनों अंग स्वयं में स्वतन्त्र तथा प्रभुतासम्पन्न हैं। इसी कारण इनमें कभी-कभी टकराव हो जाता है। विधायिका अपने को सर्वोपरि मानती है। विधायनी भी अपने कार्यों के संचालन में न्यायिक (अर्द्ध न्यायिक) कार्यों को सम्पादित करती है तथा यह चाहती है कि उसके इस प्रकार के कार्यों पर न्यायपालिका का अंकुश न हो। न्यायपालिका अपने को नागरिकों के अधिकारों तथा संविधान के प्रावधानों का ईर्ष्यालु (invoice) संरक्षक मानती है तथा जहाँ भी किसी नागरिक के संवैधानिक या दीवानी अधिकारों का हनन होता है, उस पर हस्तक्षेप करना अपना कर्त्तव्य समझी है। इस प्रकार विधायिका तथा न्यायपालिका में टकराव के उदाहरण कम नहीं हैं। विधायिनी संसदीय विशेषाधिकार की आड़ में अपने कार्यों को न्यायपालिका के हस्तक्षेप से परे होने का दावा करती है अर्थात् यह प्रश्न कि क्या न्यायालय विधायिका द्वारा संसदीय विशेषाधिकार का अनुचित ढंग से प्रयोग किये जाने पर जाँच कर सकता है या नहीं, काफी विवादपूर्ण रहा।

     इस बिन्दु पर केशव सिंह बनाम उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 1985 एस० सी० 745 का मामला उल्लेखनीय है। इस मामले में केशव सिंह, जो किसी सदन के सदस्य नहीं थे, ने 14 मार्च को एक ऐसा पर्चा मुद्रित तथा प्रकाशित करवाया जिससे विधान सभा के सदन की अवमानना होती थी। इसके लिए उन्हें उत्तर प्रदेश विधान सभा में सदन की अवमानना के लिए अपराधी घोषित किया गया। सदन ने उन्हें एक सप्ताह के कारावास के लिए दण्डित किया तथा उन्हें जेल में बन्द कर दिया। 19 मार्च को उनके वकील ने इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत की। उच्च न्यायालय की पीठ ने इस कारावास को अनुचित मानते हुए उन्हें दो प्रतिभुओं को जमानत पर छोड़ने का आदेश दिया। उत्तर प्रदेश विधान सभा ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय से अवमानना महसूस की तथा केशव सिंह को कारागार में डालने का आदेश दिया। उच्च न्यायालय की पीठ के दोनों न्यायाधीशों को तथा केशव सिंह के वकील को सदन के सामने उपस्थित होने का आदेश दिया। उक्त दोनों न्यायाधीशों तथा वकील ने अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत पृथक् रूप से उच्च न्यायालय में एक पिटीशन दायर करके यह निवेदन किया कि विधान मण्डल के इस आदेश से न्यायालय की अवमानना हुई है। इस पिटीशन को स्वीकार करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समस्त न्यायाधीशों की 28 सदस्यीय पीठ ने उत्तर प्रदेश विधान मण्डल को काई वारण्ट जारी न करने का आदेश किया तथा यदि वारण्ट जारी कर दिया गया हो तो उसे निरस्त करने का आदेश दिया।

      मामले ने एक गम्भीर समस्या उत्पन्न की। मामले को गम्भीरता को देखते हुए राष्ट्रपति ने मामले को संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के अन्तर्गत परामर्श के लिए उच्चतम न्यायालय को सन्दर्भित किया।

     उच्चतम न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि उच्च न्यायालय केशव सिंह के पिटीशन पर विचार करने के लिए सक्षम था। उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों तथा वकीलों ने विधान सभा की अवमानना नहीं की थी। विधान सभा सक्षम नहीं थी कि वह अधिवक्ता तथा न्यायाधीशों को वारण्ट जारी करके विधान सभा में बुलाये। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय का यह अधिकार है कि वह सदनों की दण्डात्मक कार्यवाहियों की वैधानिकता की जाँच करे। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि न्यायालय संसदीय विशेषाधिकारों की प्रकृति, उसके विस्तार क्षेत्र तथा उसकी शक्तियों के प्रभाव का परीक्षण कर सकता है।

  संसदीय विशेषाधिकार तथा मूल अधिकार (Parliamentary Privileges and Fundamental Rights )- यह प्रश्न कि क्या संसदीय विशेषाधिकार मूल अधिकारों के अधीन है, मुन्नुपति केशव रेड्डी बनाम नजीबुल हसन, ए० आई० आर० 1954 एस० सी॰ 636 नामक बाद में उठा उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसदीय विशेषाधिकार मूल अधिकारों के अधीन है। एम० ए० एम० शर्मा बनाम श्रीकृष्ण सिन्हा, ए० आई० आर० 1959 एस० सी० 395 नामक बाद में भी उक्त मत प्रकट किया। केशव सिंह बनाम उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 1065 सु० को० 745 नामक बाद में उपरोक्त दोनों मामलों में दिये गये अभिनिर्णय को स्पष्ट करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एम० ए० एम० शर्मा के वाद में बहुमत के अभिनिर्णय को इस रूप में ग्रहण करना चाहिए कि यद्यपि अनुच्छेद 19 (1) (क) में अभिसमय मूल अधिकारों के अधीन संसदीय विशेषाधिकार नहीं है परन्तु वे अनुच्छेद 71 में अभिव्यक्त प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकारों के अधीन है।

प्रश्न 9. (i) धन विधेयक को परिभाषित कीजिए तथा उसके पारित किये जाने की प्रक्रिया का भी उल्लेख कीजिए।

Define Money Bill and explain the procedure of passing Money Bill

(ii) प्रधानमंत्री के कर्त्तव्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।

Write short note on the Duties of Prime Minister.

उत्तर – (i) धन विधेयक (Money Bill)– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 110 (1) के अनुसार धन विधेयक एक ऐसा विधेयक है जो निम्नलिखित विषयों में सभी या किसी एक विषय से सम्बन्धित है।

(क) किसी कर का आरोपण, उत्सादन, परिहार, बदलना या विनियमन करना।

(ख) भारत सरकार द्वारा धन उधार लेने का विनियमन (Regulate) करना प्रत्याभूत करना।

(ग) भारत की संचित निधि अथवा आकस्मिकता निधि की अभिरक्षा तथा उसमें धन डालना या उसमें से धन निकालना।

(घ) भारत की संचित निधि में धन का विनियोग करना। (ङ) किसी व्यय का भारत की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना।

(च) भारत की संचित निधि के या भारत के लोक लेखे के मद्धे धन प्राप्त करना ऐसे धन की अभिरक्षा या निकासी या संघ या राज्य के हिसाब का लेखा परीक्षण करना।

(छ) उपरोक्त उपबन्ध (क) से (च) तक में उल्लिखित विषयों में से किसी आनुषंगिक विषय का उपबन्ध करना।

      यदि कभी यह प्रश्न उठता है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं तो उस पर लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा। अतः जब कोई धन विधेयक राज्य सभा को प्रेषित किया जाता है या राष्ट्रपति के समक्ष उसकी अनुमति के लिए रखा जाता है तो उस पर लोकसभा अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पत्र अंकित होगा कि वह विधेयक धन विधेयक है। [ अनुच्छेद 110 (4)]

      धन विधेयक पारित किए जाने की विशेष प्रक्रिया (Special Procedure for Passing Money Bill)—धन विधेयक सिर्फ लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है। वह राज्यसभा में पेश नहीं किया जा सकता। [अनुच्छेद 109 (1)] कोई धन विधेयक राष्ट्रपति की संस्तुति के अभाव में लोकसभा में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः यह मंत्रिमण्डल की संस्तुति होती है। किन्तु किसी कर के घटाने या समाप्त करने के लिए उपबन्ध करने वाले किसी संशोधन को प्रस्तावित करने के लिए इस खण्ड के अन्तर्गत राष्ट्रपति की सिफारिश की आवश्यकता नहीं होती।

     धन विधेयक लोकसभा द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् राज्यसभा को उसकी संस्तुति के लिए प्रेषित किया जाता है। राज्यसभा के लिए यह आवश्यक है कि वह 14 दिनों के भीतर अपनी संस्तुति के पश्चात् धन विधेयक लोकसभा को वापस कर दे। लोकसभा, धन विधेयक पर राज्यसभा की संस्तुतियों में से सबको या किसी को अस्वीकार कर सकती है। यदि लोकसभा, धन विधेयक पर राज्यसभा की संस्तुतियों को स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक पारित माना जायेगा। यदि लोक सभा, धन विधेयक पर राज्यसभा द्वारा की गई सिफारिश को अस्वीकार कर देती है तो धन विधेयक उसी प्रारूप में पारित समझा जायेगा जैसे कि लोकसभा द्वारा पारित किया गया था। यदि राज्य सभा धन विधेयक को 14 दिनों के भीतर वापस नहीं करती तो उक्त अवधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पारित समझा जायेगा जिसमें कि लोकसभा ने उसको पारित किया था।

     इस प्रकार राज्यसभा अधिक से अधिक 14 दिनों तक धन विधेयक को रोक सकती है। (अनुच्छेद 101)

     इस प्रकार दोनों सदनों से पारित हो जाने के पश्चात् धन विधेयक राष्ट्रपति के समक्ष उसकी अनुमति के लिए पेश किया जाता है। इस पर राष्ट्रपति अपने विवेकानुसार सहमति देता है या सहमति रोक लेता है। धन विधेयक राष्ट्रपति सदन में पुनर्विचारण के लिए लौटा नहीं सकता।

उत्तर- (ii) प्रधानमंत्री के कर्त्तव्य (Duties of Prime Minister)– प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति और मन्त्रिपरिषद् के बीच एक कड़ी का काम करता है तथा दोनों को आपस में जोड़े रखता है। जिससे दोनों एक-दूसरे की गतिविधियों से अवगत रहते हैं। प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य होता है कि वह –

(i) राष्ट्रपति को संघ के प्रशासन एवं विधान विषयक कार्यों के सम्बन्ध में लिए गये मन्त्रिपरिषद् के निर्णयों को संसूचित करे, एवं

(iii) राष्ट्रपति को संघ के प्रशासन एवं विधान-विषयक प्रस्थापनाओं सम्बन्धी वह सारी जानकारी दे जिसकी वह माँगे करे। [ अनुच्छेद 78]

     प्रधानमन्त्री के कर्त्तव्यों को लेकर एक महत्वपूर्ण विवाद राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह एवं प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के बीच उभरा। जिस विवाद ने विवादग्रस्त व्यवस्था के महत्व को स्पष्ट कर दिया है।

    हुआ यह था कि सन् 1987 से बोफोर्स काण्ड के बहुचर्चित मामले की सम्पूर्ण जानकारी प्रधानमन्त्री द्वारा राष्ट्रपति को नहीं दिये जाने का आरोप श्री राजीव गाँधी पर लगाया गया तथा राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से उन्हें बर्खास्त किये जाने की माँग की गई। यह विवाद अनुच्छेद 74 एवं 78 के सन्दर्भ का था। अनुच्छेद 78 यह कहता है कि प्रधानमन्त्री का यह कर्त्तव्य है। कि वह सभी प्रशासनिक मामलों की जानकारी राष्ट्रपति को दे। ऐसा नहीं किया जाना संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन है जिसके लिए प्रधानमंत्री बर्खास्त किया जा सकता है। दूसरी तरफ अनुच्छेद 74 यह कहता है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री को (मन्त्रिपरिषद्) की सलाह से कार्य करेगा। ऐसी स्थिति में प्रधानमन्त्री को बर्खास्त किया जाना भी टेढ़ी खीर है। निष्कर्ष यही निकला कि दोनों को अपनी संवैधानिक शक्तियों एवं दायित्वों का आभास रखते हुए पदीय गरिमा का परिचय देना चाहिये।

     राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् के लोक सभा के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त की पुष्टि करता है और उसे ठोस बनाने की चेष्टा करता है। जब किसी मन्त्री विशेष द्वारा कोई नीति निर्धारित की जाती है अथवा निर्णय लिया जाता है तो उसके क्रियान्वयन से पूर्व वह यह अपेक्षा कर सकता है कि ऐसी नीति और ऐसे निर्णय पर मन्त्रिपरिषद् की राय जान ली जाये, ताकि भविष्य में कोई विवाद अथवा मतभेद उत्पन्न न हो। वस्तुतः राष्ट्रपति का यह कार्य –

(i) मन्त्रिपरिषद् में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण तैयार करता है,

(ii) मन्त्रिपरिषद् में टीम भावना का संचार करता है,

(iii) जल्दबाजी में लिये गये निर्णय पर पुनर्विचार का अवसर प्रदान करता है, एवं

(iv) लोकसभा के प्रति मन्त्रिपरिषद् के सामूहिक उत्तरदायित्व की परम्परा को प्रबल करता है।

प्रश्न 10. (i) शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त की व्याख्या करें। भारतीय संविधान के अन्तर्गत इस सिद्धान्त की क्या स्थिति है? यह सिद्धान्त भारतीय संविधान में किस सीमा तक समाविष्ट है?

Discuss the Principle of Separation of Power. What is the position of this principle under Indian Constitution? How far the doctrine (principle) been incorporated in Indian Constitution?

(ii) डायसी का विधि का शासन क्या है? स्पष्ट करें।

What is Prof. Dicey’s Rule of Law? Explain.

उत्तर- (i) सुप्रसिद्ध संवैधानिक विधि विद्वान प्रोफेसर ए० वी० डायसी ने कहा था, शक्तियाँ व्यक्तियों को भ्रष्ट बनाती हैं (powers corrupts the man and absolute power corrupts absolutely)। इसलिए यह वांछनीय है कि शक्तियों का एक राज्य के एक ही अंग में केन्द्रीयकरण (सान्द्रीकरण Concentration) न हो अर्थात् राज्य की शक्तियों का राज्य के विभिन्न अंगों में पृथक्करण होना चाहिए। दूसरे शब्दों में राज्य को कार्यपालिका में विधायी शक्ति तथा न्यायिक शक्ति विहित नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार विधायिनी में कार्यपालिका शक्ति तथा न्यायिक शक्ति विहित नहीं होनी चाहिए। न्यायपालिका को कार्यपालिका (executive) तथा विधायी शक्ति प्राप्त नहीं होनी चाहिए। इसी को शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त कहते हैं।

     शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू द्वारा प्रथम बार प्रतिपादित किया गया। उनके अनुसार यदि तीनों शक्तियाँ एक अंग में केन्द्रित हो जायेंगी तो वह निरंकुश हो जायेगा। इस सिद्धान्त का कठोरतापूर्वक पालन लोकतांत्रिक राष्ट्र द्वारा जिसने संसदीय शासन प्रणाली अपनाई है, सम्भव नहीं है। परन्तु अमेरिकी संवधिान में उसका पालन काफी हद तक सुनिश्चित किया गया है। अमेरिका में सरकार की शक्तियाँ पृथक् पृथक् तीनों अंगों में निहित हैं। वहाँ कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है। राष्ट्रपति तथा उसका मंत्रिमण्डल विधानमण्डल के सदस्य नहीं होते। विधायी शक्ति अमेरिका में कांग्रेस (संसद) में निहित है। न्यायपालिका की शक्ति अमेरिकन सुप्रीम कोर्ट में निहित है। तीनों अंगों द्वारा उनको शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के पर्याप्त उपबन्ध अमेरिकन संविधान में हैं।

     इंग्लैण्ड में संसदीय शासन व्यवस्था है तथा वहाँ शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त पूरी तरह से लागू नहीं होता। यहाँ मंत्रिमण्डल के सदस्य कार्यपालिका तथा विधान मण्डल (संसद) दोनों के सदस्य होते हैं। ब्रिटिश संसद का ऊपरी सदन हाउस ऑफ लाईस न्यायिक शक्ति का प्रयोग करता है तथा वह ब्रिटेन का सर्वोच्च न्यायालय भी है। लाई चान्सलर न्यायपालिका का प्रधान होता है तथा साथ ही वह कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिमण्डल का सदस्य होता है।

      भारतीय स्थिति (Indian Position) – भारतीय संविधान के अन्तर्गत अपनाई गई शासन व्यवस्था इंग्लैण्ड की भाँति संसदीय शासन व्यवस्था है। भारत में कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिमण्डल के सदस्य विधान मण्डल के भी सदस्य होते हैं। यहाँ मंत्रिमण्डल का सदस्य होने के लिए विधान मण्डल का सदस्य होना आवश्यक है। यदि नियुक्ति के समय वह विधान मण्डल का सदस्य नहीं है तो नियुक्ति के छः मास के भीतर उसे विधान मण्डल के किसी सदन की सदस्यता ग्रहण कर लेना आवश्यक है। राष्ट्रपति जो कार्यपालिका का अध्यक्ष है, उसे अनुच्छेद 72 के अन्तर्गत क्षमादान का अधिकार है जो न्यायिक शक्ति है। राष्ट्रपति जो कार्यपालिका का अध्यक्ष है, वह उस समय जब विधान मण्डल का सत्र नहीं चल रहा है, अध्यादेश जारी कर सकता है (अनुच्छेद 132)। संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका का तथा विधायिका का पृथक्करण सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त न्यायपालिका का सर्वोच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासन का कार्य करता है। यह एक कार्यपालिकीय कार्य है तथा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों के सम्बन्ध में तथा स्वयं अपने कार्यकलापों को विनियमित करने के उद्देश्य से विनियम तथा नियम बनाते हैं। यह विधायिका का कार्य है। संसद के सदस्य तथा मंत्रिमण्डल अपने कर्त्तव्यों के निष्पादन में कुछ निर्णय लेते हैं जो अर्द्ध न्यायिक प्रकृति के होते हैं। अतः ऐसा करते समय वे न्यायिक प्रकृति के कार्य करते हैं।

      इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आधुनिक युग में राज्य के विभिन्न अंगों को भाँति-भाँति के कार्य निष्पादित करने होते हैं। अतः उनके मध्य कठोरतापूर्वक पृथक्करण (water-tight separation) के सिद्धान्त को लागू करना सम्भव नहीं होता है।

     भारतीय संविधान में यद्यपि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को कठोरतापूर्वक (In water tight manner) लागू नहीं किया गया है परन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि सरकार का कोई अंग निरंकुश न हो जाय। संविधान में रोकथाम (check and balance) की व्यवस्था की गई है और शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त का उद्देश्य यही है इन अंगों में रोकथाम (check and balance) की व्यवस्था को हो कठोरतापूर्वक लागू करने का प्रयास किया जाय।

      भारत में कार्यपालिका को संसद के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है तथा न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह कार्यपालिका तथा विधायिका के मनमाने ढंग से किये गये कार्यों को अविधिमान्य घोषित करके तथा उनके कार्यों पर पैनी दृष्टि रखे तथा हमारी न्यायपालिका इस कार्य को बखूबी कर रही है।

     भारतीय संविधान के अन्तर्गत शक्ति पृथक्करणीयता के सिद्धान्त की स्थिति– इसके बारे में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में प्रावधान किया गया है, जिसमें कहा गया है कि संविधान पूर्व निर्मित विधि के यदि कुछ प्रावधान संविधान के प्रावधानों से असंगत है तो इससे सम्पूर्ण विधि शून्य नहीं होगी अपितु केवल वे ही उपबन्ध शून्य माने जायेंगे जो असंगत हैं तथा शेष उपबन्ध यथावत् प्रभावशील बने रहेंगे। लेकिन शर्त यह है कि ऐसे असंगत प्रावधान शेष प्रावधानों को प्रभावित किये बिना आसानी से पृथक किये जा सकते हों।

      स्टेट ऑफ बिहार बनाम कामेश्वर सिंह, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 252 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि किसी अधिनियम के असंगत प्रावधान अन्य प्रावधानों में इस प्रकार मिले-जुले हैं कि उनको पृथक् कर देने से सम्पूर्ण अधिनियम का उद्देश्य ही विफल हो जाता है तो वह सम्पूर्ण अधिनियम असंवैधानिक घोषित किये जाने योग्य होगा।

उत्तर- (ii) डायसी ने विधि के शासन की संकल्पना इंग्लैण्ड को ध्यान में रखकर की थी। डायसी ने कहा था कि इंग्लैण्ड में विधि का शासन है न कि व्यक्ति का अर्थात् विधि के शासन में भेदभाव तथा असमानता का सदैव अभाव होना चाहिए। वास्तव में विधि के शासन की कल्पना इंग्लैण्ड में सर्वप्रथम एडवर्ड कोक ने की थी। एडवर्ड कोक ने कहा था कि सम्राट को विधि तथा ईश्वर के अधीन होना चाहिए। विधि के शासन की परिकल्पना से उसका तात्पर्य था कार्यपालिका पर विधि की सम्प्रभुता या सर्वोच्चता। वह यह कहना चाहता है कि प्रशासन को विधि द्वारा प्रदत्त विवेकाधीन अधिकार के अतिरिक्त कोई भी विवेकाधीन अधिकार नहीं होना चाहिए। विधि के शासन का वास्तविक अर्थ है विवेक की अनुपस्थिति। विधि का शासन मनमानेपन या विवेकाधीन शक्ति का विलोम है। इस परिकल्पना का दूसरा अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को उपयुक्त प्रक्रिया द्वारा स्थापित विधि के अन्तर्गत ही विधि के अतिक्रमण के लिए सिर्फ न्ययालय द्वारा ही शारीरिक या साम्पत्तिक रूप से दण्डित किया जा सकता है अन्यथा नहीं। विधि के शासन से डायसी का यह भी तात्पर्य था कि इंग्लैण्ड में फ्रांस की भाँति पृथक् न्यायालय नहीं है। फ्रांस में प्रशासी न्यायालयों की एक श्रेणीबद्ध श्रृंखला है। डायसी ऐसे पृथक् न्यायालयों के विरुद्ध थे। डायसी के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह सम्राट हो या सामान्य व्यक्ति, सामान्य विधि द्वारा शासित होता है तथा सामान्य न्यायालयों के अध्यधीन होता है। यद्यपि डायसी के आलोचकों के अनुसार डायसी ने प्रशासी न्यायालयों की फ्रेंच पद्धति का भ्रामक अर्थ लगाया था।

      यद्यपि विधि के शासन की परिकल्पना सर्वप्रथम एडवर्ड कोक द्वारा प्रतिपादित की गई। परन्तु प्रो० ए० वी० डायसी ने अपनी पुस्तक ‘The Law of Constitution’ में विधि के प्रशासन ‘Rule of Law’ की परिकल्पना की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की जो विधि के विद्वानों में काफी चर्चित रही।

     डायसी के विधि के शासन की परिकल्पना (concept) के तीन अर्थ हैं –

(1) विधि की सर्वोच्चता (Supremacy of Law)– डायसी के अनुसार विधि के शासन से तात्पर्य मनमानी शक्ति के विपरीत नियमित विधि की सर्वोच्चता या प्रभुता है। विधि का शासन मनमानेपन के अस्तित्व को अपवर्जित करता है। विधि के शासन के अनुसार सरकार को भी विस्तृत विवेकाधीन अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। डायसी के अनुसार मनमानेपन की शक्ति या विवेकाधिकार सामान्य नागरिकों के अधिकार को असुरक्षा की ओर उन्मुख करता है। विधि का शासन इस असुरक्षा के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। यदि हम विधि की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते हैं तो नागरिकों के अधिकार असुरक्षित हो जायेंगे। इस प्रकार विधि के शासन की परिकल्पना, सरकार के मनमानेपन या विवेकाधिकार पर अंकुश लगाकर सामान्य नागरिक के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है। आदर्श समाज में विधि ही सर्वोच्च है न कि व्यक्ति।

(2) विधि के समक्ष समानता (Equality before Law)-विधि के शासन का दूसरा अर्थ डायसी के अनुसार विधि के समक्ष समानता तथा विधि समान संरक्षण है (Equality before law and equal protection of law)। डायसी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह सामान्य व्यक्ति हो या सम्राट हो या ऊँचे से ऊँचे पद पर स्थित कोई व्यक्ति हो, देश की विधि के अधीन है तथा उसे देश की सामान्य अदालत के अधीन होना होगा। सम्राट या किसी ऊँचे पद पर पदासीन व्यक्ति को विधि के समक्ष कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। इसी आधार पर डायसी ने फ्रांस की प्रशासी न्याय पद्धति की आलोचना की। फ्रांस में प्रशासन तथा सामान्य व्यक्ति के मध्य विवादों के निस्तारण हेतु पृथक् प्रशासी न्यायालयों को श्रृंखला है। डायसी के अनुसार यह व्यवस्था विधि शासन परिकल्पना के विरुद्ध है क्योंकि विधि के शासन की परिकल्पना के अन्तर्गत सिर्फ सामान्य न्यायालय का अस्तित्व ही अनुमत है। विशिष्ट न्यायालय की परिकल्पना विधि के शासन की परिकल्पना से मेल नहीं खाती क्योंकि विशिष्ट न्यायालय का अस्तित्व ही विधि के समक्ष समानता को नकारता है। डायसी एक भ्रम के अन्तर्गत थे कि फ्रांस के प्रशासी न्यायालय प्रशासन को विशेषाधिकार प्रदान करते थे। अत: इस पद्धति को डायसी ब्रिटिश संविधान के विरुद्ध मानते थे।

      न्यायालयों की सम्प्रभुता (Predominance of Courts)– डायसी के विधि के शासन का तीसरा तात्पर्य एक अवधारणा है जिसके अनुसार सामान्य जन के अधिकार किसी संविधान में अन्तर्निहित प्रावधान नहीं है अपितु सामान्य जनों को अधिकार न्यायालय द्वारा सांविधानिक प्रावधानों की व्याख्या के माध्यम से प्राप्त होते हैं। डायसी कहते हैं- इंग्लैण्ड में अलिखित संविधान है अतः सामान्य नागरिकों के अधिकारों का मूल स्रोत कॉमन लॉ में नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं वे न्यायिक निर्णयों के फलस्वरूप प्राप्त हैं। यदि सामान्य न्यायालय किसी अधिकार को अपने निर्णय से मान्यता प्रदान नहीं करता तो सामान्य नागरिक के लिए उस अधिकार का कोई अर्थ नहीं होता। जहाँ लिखित संविधान है वहाँ संविधान के अन्तर्गत प्रदत्त अधिकार का कोई अर्थ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य न्यायालयों द्वारा मान्यता न प्रदान कर दी जाय। इस प्रकार डायसी आम नागरिकों के अधिकारों के सम्बन्ध में भी सामान्य न्यायालय की प्रभुता को महत्व देते हैं। डायसी नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्य का स्रोत संविधान को नहीं मानते परन्तु डायसी के अनुसार इनका स्रोत न्यायालय है।

      डायसी के सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Diecy’s theory) – डायसी का विधि के शासन की परिकल्पना का प्रथम अर्थ है विधि की सर्वोच्चता। इस अर्थ के अनुसार सरकार को विवेक शक्ति प्रदान नहीं की जानी चाहिए। परन्तु आधुनिक तकनीकी युग में विशेषज्ञता तथा आपात स्थिति से निपटने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रशासनिक अधिकारियों को विवेकाधीन शक्ति प्रदान की जाय जिससे वे आपात स्थिति से निपट सकें तथा यदि किसी मामले में विशेषतया आवश्यक है तो प्रशासनिक अधिकारियों की विशेषज्ञता का उपयोग किया जा सके क्योंकि विधायिका से प्रत्येक क्षेत्रों में विशेषज्ञता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इस प्रकार प्रशासन को विवेकाधीन शक्ति प्रदत्त किया जाना आवश्यक बुराई के रूप में अपरिहार्य है। आवश्यक यह है कि उनकी विवेकाधीन शक्ति पर प्रभावी नियन्त्रण हो जिससे इनके दुरुपयोग की सम्भावना को अधिक से अधिक कम किया जा सके। यह नियन्त्रण न्यायालीय निरीक्षण के प्रावधान के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है।

      डायसी के विधि के शासन का दूसरा पहलू है विधि के समक्ष समानता अर्थात् सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान हैं; कोई विधि से ऊपर नहीं है। डायसी कहते हैं कि किसी को विशेषाधिकार प्रदान नहीं किया जाना चाहिए। चाहे सम्राट हो या उच्च पदस्थ प्रशासी अधिकारी सभी को सामान्य जनता की भाँति न्यायिक प्रक्रिया के अधीन होना चाहिए। परन्तु वर्तमान युग में राष्ट्रपति, राज्यपाल तथा विदेशी दूतों को न्यायालय की प्रक्रिया से छूट प्राप्त है। डायसी के अपने देश में कुछ व्यक्तियों को न्यायिक प्रक्रिया से छूट प्राप्त है। डायसी को फ्रान्स में प्रचलित प्रशासी न्यायालयों की श्रृंखला के बारे में यह भ्रम था कि इस न्यायालय में प्रशासी अधिकारियों को छूट या विशेषाधिकार प्राप्त है। अतः डायसी प्रशासी न्यायालयों की उपस्थिति को विधि के समक्ष समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध मानते थे। उनके अनुसार इंग्लैण्ड में न्याय प्रशासन के लिए पृथक् न्यायालय नहीं हैं। परन्तु इंग्लैण्ड में ऐसे न्यायाधिकरणों (Tribunals) की कमी नहीं है जिन्हें सामान्य न्यायालय नहीं कहा जा सकता तथा जो सामान्य विधि से प्रशासित नहीं होते। कोर्ट मार्शल तथा बाल अपराध न्यायाधिकरण के अतिरिक्त अन्य न्यायाधिकरण इसके उदाहरण हैं। इन न्यायाधिकरण सदस्यों विशिष्ट अधिकार तथा उन्मुक्तियाँ प्राप्त हैं। कुछ मामलों में ये न्यायाधिकरण सामान्य न्यायालय से ऊपर हैं। होडल्स वर्थ ने सत्य ही कहा है कि यदि इन न्यायाधिकरणों पर न्यायिक निगरानी का अंकुश है तो विशिष्ट न्यायालयों की उपस्थिति से कोई खतरा नहीं है। आजकल विश्व की प्रत्येक पद्धति में न्यायालयों को विशेषाधिकार दिया जाना अपरिहार्य है। जैसा कि श्रीमती इंदिरा गाँधी बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 2299 नामक बाद में न्यायमूर्ति मैथ्यू ने उल्लेख किया है, स्वयं डायसी ने अपनी पुस्तक के उत्तरवर्ती संस्करण में इस सच्चाई को स्वीकार किया है।

      विधि का शासन तथा भारतीय संविधान (Rule of Law and Indian Constitution) – भारत में संविधान सर्वोच्च है अतः संविधान के प्रावधान स्वयं में विधि के शासन की भाँति प्रशासी कृत्यों पर एक अंकुश है। यदि कार्यपालिका का कोई भी कार्य संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है तो वह अवैध तथा आधिकारातीत (Ultra vires) होने के कारण निरस्त कर दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त भारतीय नागरिकों को संविधान के भाग तीन में कुछ मौलिक अधिकार प्रदान कये गये हैं। कार्यपालिका (प्रशासन) का प्रत्येक कार्य संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय द्वारा तथा अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय द्वारा कसौटी पर कसा जायेगा तथा यदि कोई कार्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो यह निरस्त घोषित कर दिया जायेगा।

      विधि के समक्ष समानता – भारतीय संविधान के अन्तर्गत समता का अधिकार अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत सुनिश्चित किया गया है। इस अनुच्छेद का आशय यह है कि समान परिस्थितियों में किसी व्यक्ति के साथ जाति, लिंग, पद तथा निवास स्थान के आधार पर विभेद की अनुमति नहीं होगी। विधि की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान होंगे परन्तु न्यायिक निर्णयों ने यह सिद्धान्त सुस्थापित कर दिया है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 वर्ग विभेद की अनुमति देता है अर्थात् कुछ व्यक्ति यदि समान परिस्थिति के अन्तर्गत हैं तो उनका एक वर्ग बनाकर दूसरे वर्ग से विभेद की अनुमति तो है परन्तु एक ही वर्ग के दो व्यक्तियों के मध्य विभेद करने की अनुमति संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत नहीं है।

       न्यायमूर्ति पी० एन० भगवती ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1325 नामक बाद में यहाँ तक कहा कि विधि शासन भारतीय संविधान के रोम-रोम में छाया हुआ है। विधि शासन भारतीय संविधान का मूलभूत ढाँचा या मूलभूत लक्षणों का एक अंग है।

        विवेकाधिकार का अस्तित्व परन्तु मनमानेपन का अपवर्जन (Existence of discretion but exclusion of Arbitrariness)– विधि के शासन की संकल्पना भारतीय परिवेश में विवेकाधिकार प्रदान किये जाने की आवश्यकता को तो स्वीकारती है परन्तु मनमानेपन को अधिकारों के दुरुपयोग का मुख्य कारण समझती है।

      इस सम्बन्ध में श्रीमती इंदिरा गाँधी बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 सु० को० 2299 नामक वाद में न्यायमूर्ति मैथ्यू ने कहा कि विश्व में कोई भी सरकार अथवा विधि पद्धति नहीं है जिसमें विवेकाधीन अधिकारों को स्वीकार न किया गया हो।

     सोमराज बनाम हरियाणा राज्य, (1990) 2 सु० को० के० 653 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि मनमानी करने की शक्ति का अभाव विधि नियमों को प्रमुख मान्यता है जिस पर सम्पूर्ण सांविधिक व्यवस्था आधारित है। यदि विवेकाधिकार का प्रयोग बिना किसी सिद्धान्त या विधि के किया जाता है तो यह विधि के शासन के सिद्धान्त के विरोध के समतुल्य है।

      न्यायालय की सर्वोच्चता- भारतीय संविधान में नागरिकों को प्रदत्त अधिकार न्यायालय के माध्यम से लागू करवाये जाते हैं। हाल के वर्षों में न्यायिक सक्रियता ने इस तथ्य को साबित कर दिया है। न्यायालय की सर्वोच्चता भारत में मंत्री, विधायिका तथा सभी वर्गों ने स्वीकार की है।

     केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 सु० को० 1461 नामक बाद में विधि के शासन को भारतीय संविधान का मूलभूत ढाँचा माना गया है जिसे संसद के संशोधन द्वारा भी मिटाया नहीं जा सकता। ए० डी० एम० जबलपुर बनाम शिवाकान्त शुक्ला, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1207 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विधि के शासन के अनुसार कार्य करना हमारे संविधान का प्रमुख लक्षण है तथा विधि का शासन हमारे संविधान का मूलभूत ढाँचा है।

      इस प्रकार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हमारे संविधान में विधि के शासन के तीनों सिद्धान्त अपनाये गये हैं। भारतीय संविधान विधि कि समक्ष समानता, मनमानेपन का अपवर्जन तथा न्यायिक अधिकारिता को सर्वोच्चता से ही स्वीकार करता है।

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