प्रश्न 21. संघ एवं राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
State the financial relations between Union and States.
उत्तर – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 264 से लेकर अनुच्छेद 291 तक में संघ एवं राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों या शक्तियों के बारे में उपबन्ध किया गया है। संघीय सिद्धान्त का विश्व के किसी भी परिसंघात्मक संविधान में पूर्णरूपेण पालन नहीं किया गया है। आस्ट्रेलिया और कनाडा के संविधान के अन्तर्गत राज्यों को दिये गये राजस्व के साधन इतने अपर्याप्त हैं। के उन्हें पर्याप्त सोमा तक केन्द्रीय अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता है। स्विट्जरलैण्ड के संविधान में वित्तीय साधनों का विभाजन इसके बिल्कुल विपरीत है और वहाँ केन्द्र राज्यों के ऊपर निर्भर है क्योंकि केन्द्रीय राजस्व का अधिकतर भाग राज्यों से प्राप्त होता है। अमेरिका के मूल संविधान में इस सिद्धान्त को कठोरता से लागू करने का प्रयास किया गया था जिससे केन्द्र एवं राज्य वित्तीय मामलों में पूर्ण स्वावलम्बी रहें। किन्तु कालान्तर में राज्यों की कल्याणकारी धारणा के विकास से उनके कर्त्तव्यों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई, जिसके कारण राज्यों को केन्द्रीय अनुदान पर निर्भर रहने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसके कारण अमेरिका में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति का विकास हुआ जिसने राज्यों की स्वायत्तता को कम कर दिया।
भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों में राजस्वों का वितरण भारतीय सरकार अधिनियम, 1935 की पद्धति के आधार पर किया गया है। हमारे संविधान निर्माताओं का यह मत था कि केन्द्र व राज्यों के वित्तीय सम्बन्ध लचीले हों और बदलती हुई परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुकूलनीय रहें। इस प्रयोजन के लिए एक वित्तीय आयोग की स्थापना का उपबन्ध भी किया गया है जो समय-समय पर वित्तीय स्थिति पर पुनर्विचार करेगा और संशोधन एवं परिवर्तन का सुझाव देगा। किसी भी परिसंघीय संविधान में इस तरह की कोई विस्तृत व्यवस्था नहीं है जिसके माध्यम से केन्द्र और राज्यों में राजस्वों के वितरण का समयानुकूल समायोजन और वितरण होता रहे। इस व्यवस्था को अपनाकर भारतीय संविधान ने नि:संदेह इस जटिल क्षेत्र में एक मौलिक योगदान दिया है।
विधि के प्राधिकार के बिना करों का अधिरोपण नहीं किया जायेगा– अनुच्छेद 265 यह उपबन्ध करता है कि विधि के प्राधिकार के बिना कोई कर अधिरोपित या संग्रहीत नहीं किया जायेगा।
भारत की संचित निधियाँ- अनुच्छेद 266 यह उपबन्ध करता है कि भारत सरकार को प्राप्त सभी राजस्व की एक निधि है जिसे भारत की संचित निधि’ कहा जाता है। संचित निधि में से कोई भी धनराशि संसद द्वारा विनियोग विधेयक पारित कर दिये जाने के पश्चात् ही निकाली या व्यय की जा सकती है।
संघ और राज्यों में राजस्वों का वितरण- अनुच्छेद 268 संघ और राज्यों में राजस्वों के वितरण की व्यवस्था करता है। राज्य सूची में वर्णित विषयों पर राज्यों को कर लगाने का आत्यन्तिक अधिकार है। संघ सूची में वर्णित विषयों पर केन्द्रीय सरकार को कर लगाने का आत्यन्तिक अधिकार है। समवर्ती सूची में केवल कुछ ही करों का उल्लेख है। राज्य सूची में वर्णित विषयों पर लगाये गये करों को राज्य वसूल करके अपने पास रखते हैं, जबकि संघ सूची में वर्णित विषयों पर लगे कुछ कर पूर्णत: या अंशत: राज्यों में वितरित कर दिये जाते हैं।
संविधान निम्न प्रकार के संघीय करों का उल्लेख करता है जो पूर्णत: या अंशत: राज्यों को सौंप दिये जाते हैं –
(1) संघ द्वारा उद्गृहीत किन्तु राज्यों द्वारा संग्रहीत तथा विनियोजित किये जाने वाले शुल्क [अनुच्छेद 26158]
(2) केन्द्र सरकार को ‘सेवा कर’ अधिरोपित करने की शक्ति [अनुच्छेद 268 क]
(3) संघ द्वारा उद्ग्रहीत और संग्रहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले कर [अनुच्छेद 269]
(4) संघ द्वारा उद्ग्रहीत और संघ एवं राज्यों के वितरित कर [ अनुच्छेद 270]
(5) संघ के प्रयोजन के लिए कर लगाने की शक्ति [अनुच्छेद 27]
(6) राज्यों को संघ से अनुदान [ अनुच्छेद 273, 275 एवं 282]
प्रश्न 22 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात उद्घोषणा से सम्बन्धित उपबन्धों की विवेचना करें। संक्षेप में यह बतायें कि मौलिक अधिकारों पर आपात उद्घोषणा का क्या प्रभाव पड़ता है?
Discuss the provisions under Article 352 of Indian Constitution relating to declaration of Emergency. What is the effect of declaration of Emergency on Fundamental Rights?
उत्तर – किसी भी राष्ट्र की अखण्डता तथा एकता के लिए मजबूत संघ एक अपरिहार्य आवश्यकता है। इसीलिए संघीय संविधान में केन्द्र को मजबूत करने के प्रावधान सम्मिलित किये जाते हैं। संघ के घटकों की स्वायत्तता के साथ मजबूत केन्द्र से सम्बन्धित प्रावधान सामंजस्य के साथ भारतीय संविधान में सम्मिलित किये गये हैं। भारतीय संविधान की यह एक विशेषता है कि आपात काल या संकट के समय वह एकात्मक हो जाता है तथा संघ के घटक राज्यों की स्वायत्तता आपात काल में देश की एकता तथा अखण्डता के हित में समाप्त हो जाती है।
भारतीय संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक के उपबन्ध आपात उपबन्ध (Emergency provisions) के रूप में सम्मिलित किये गये हैं। जर्मनी तथा स्विट्जरलैण्ड के संविधान में क्रमश: सन् 1919 तथा सन् 1874 में आपात के उपबन्ध (Provisions of emergency) किये गये थे। अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा कनाडा के संविधानों में यद्यपि आपात उपबन्ध तो नहीं किये गये हैं परन्तु आपात कालीन स्थितियों का सामना करने के लिए इन राष्ट्रों की कार्यपालिकाओं को असाधारण शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
भारतीय संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352 से 360 तीन प्रकार की आपात स्थितियों का उल्लेख है –
(1) युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न आपात (अनुच्छेद 352)
(2) राज्यों के सांविधानिक तंत्र के विफल होने से उत्पन्न आपात (अनुच्छेद 356)
(3) वित्तीय आपात (अनुच्छेद 360)
राष्ट्रीय आपात (National Emergency) या युद्ध, वाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न आपात या अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात उद्घोषणा– भारतीय सुरक्षा संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार जब राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाय कि राष्ट्र में एक ऐसी गम्भीर आपात स्थिति विद्यमान हो गई है जो भारत या भारत क्षेत्र के किसी भाग की को युद्ध या बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण संकट पहुँचाने वाली या सुरक्षा संकट में है, तो वह इस आशय से राष्ट्रीय आपात की घोषणा कर सकता है। इसे राष्ट्रीय आपात की संज्ञा दी जाती है। यहाँ उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति इस अनुच्छेद में आपात की उद्घोषणा या तो पूरे राष्ट्र के लिए कर सकता है या राष्ट्र के किसी क्षेत्र विशेष के लिए कर सकता है। ऐसी घोषणा को राष्ट्रपति उत्तरवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस (revoke) ले सकता है या परिवर्तित (varied) कर सकता है।
इस प्रकार इस अनुच्छेद के अन्तर्गत आपात उद्घोषणा के लिए यह आवश्यक नहीं कि युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह का अस्तित्व है। यही पर्याप्त है कि इसके उत्पन्न होने का आसन्न खतरा उत्पन्न हो गया हो। गुलाम सरवर बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1335 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यह प्रश्न कि क्या वास्तव में संकटपूर्ण स्थिति विद्यमान है या नहीं यह निश्चित किया जाना कार्यपालिका की सन्तुष्टि पर छोड़ दिया जाना चाहिए तथा कार्यपालिका राष्ट्रपति की सन्तुष्टि (Satisfaction) अन्तिम है तथा यह न्यायालय की जाँच का विषय नहीं है।
44 वें संविधान संशोधन द्वारा अब यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति आपातकाल की उद्घोषणा तभी जारी करेगा जब उसे मंत्रिमण्डल का निर्णय लिखित रूप से संसूचित किया गया है अर्थात् जब यह निर्णय पूरे मंत्रिमण्डल का निर्णय होगा सिर्फ प्रधानमंत्री का नहीं जैसा कि सन् 1975 में हुआ था।
ऐसी प्रत्येक उद्घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जायेगी तथा मास (44वें संशोधन के पश्चात् 2 मास) की समाप्ति पर, यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा अनुमोदित नहीं कर दिया जाता तो यह उद्घोषणा प्रवर्तन में नहीं रहेगी। यदि ऐसी उद्घोषणा उस समय जारी की जाती है जब लोकसभा का विघटन हो गया है या उसका विघटन खण्ड (2) के अन्तर्गत बिना कोई संकल्प पारित किए एक मास की अवधि के भीतर हो जाता है, जबकि राज्य सभा में संकल्प का अनुमोदन कर दिया जाता है तो वह उद्घोषणा पुनर्गठित लोकसभा की प्रथम बैठक की तारीख से 30 दिनों की समाप्ति के पूर्व उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाले वाला संकल्प पारित न कर दिया गया हो। उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प सदन के विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिए अर्थात् कुल संदस्यों की संख्या के बहुमत से उपस्थित तथा मतदान कर रहे सदस्यों की संख्या के 2/3 बहुमत से पारित होना चाहिए।
संसद द्वारा अनुमोदित हो जाने पर आपात उद्घोषणा दूसरे संकल्प के पारित होने की तिथि से 6 मास तक की अवधि तक लागू रहेगी यदि इसके पूर्व उद्घोषणा को वापस न ले। लिया गया हो। छ: मास से अधिक की अवधि तक उद्घोषणा को जारी रखने के लिए प्रत्येक छ: मास पर संसद का अनुमोदन आवश्यक होगा। यदि इस छः मास की अवधि के दौरान आपात उद्घोषणा का अनुमोदन किए बिना लोकसभा का विघटन हो जाता है तो उद्घोषणा चुनाव के पश्चात् नवीन लोकसभा की प्रथम बैठक से 30 दिनों की समाप्ति पर प्रवर्तन में न रहेगी। यदि इस अवधि के पूर्व उद्घोषणा का सदन द्वारा अनुमोदन न कर दिया गया हो।
यदि संसद आपात उद्घोषणा को समाप्त करने का संकल्प साधारण बहुमत से पारित कर देती है तो राष्ट्रपति को उद्घोषणा को वापस (revoke) करना पड़ेगा। (अनुच्छेद 352 खण्ड 7)
यदि लोक सभा की कुल सदस्य संख्या 1/10 सदस्यों द्वारा लिखित नोटिस उद्घोषणा की समाप्ति के आशय का संकल्प, यदि सदन चल रहा है तो स्पीकर को यदि सदन नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति को देते हैं तो उस पर विचार करने के लिए राष्ट्रपति को या स्पीकर को 14 दिनों के भीतर सदन का विशेष सत्र बुलाना होगा। (अनुच्छेद 352 खण्ड 8 )
अनुच्छेद 352 (1) के अधीन विभिन्न आधारों पर पृथक-पृथक आपात काल की घोषणा करने की शक्ति भी सम्मिलित है; कि भले ही इसके अधीन ऐसी घोषणा पहले ही की जा चुकी हो तथा वह प्रवर्तन में (लागू) हो। [अनुच्छेद 352 (1), खण्ड (9) ]
सन् 1978 में 44वें संशोधन द्वारा अब यह उपबन्ध किया गया है कि आपात उद्घोषणा तभी जारी की जाएगी जब भारत अथवा भारतीय क्षेत्र का कोई भाग युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के खतरे में पड़ जाय। आन्तरिक अशांति यदि सशस्त्र विद्रोह के रूप में नहीं है तो उसके आधार पर आपात उद्घोषणा नहीं की जा सकती।
आपात उद्घोषणा का प्रभाव (Effect of Declaration of Emergency ) आपात उद्घोषणा के निम्न प्रभाव हो सकते हैं –
(1) केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्य सरकार को निदेश देने की शक्ति प्राप्त हो जाती है – आपात उद्घोषणा जो अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत की जाती है उसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह है कि केन्द्र अधिभावी स्वरूप धारण कर लेता है तथा संघ को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह राज्य सरकार को इस बात का निदेश दे कि राज्य सरकार को अपनी कार्यपालिकीय शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करना है। इस प्रकार आपात स्थिति के दौरान राज्य कार्यपालिका, संघ कार्यपालिका के अधीन कार्य करती है। संविधान के 42वें संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि आपात घोषणा की अवधि में संघ का कार्यपालिका तथा विधायी शक्ति का विस्तार उन राज्यों में भी हो जाता है जहाँ आपात उद्घोषणा का विस्तार नहीं किया गया है।
(2) राज्य सूची में उल्लिखित विषयों पर संघ या संसद विधि बना सकता है – आपात उद्घोषणा होते ही भारत की संघीय व्यवस्था एकात्मक व्यवस्था का स्वरूप धारण कर लेती है। इन स्थितियों में, अनुच्छेद 250 संसद को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह राज्य सूची में उल्लिखित विषयों पर भी विधि निर्माण करे। संसद द्वारा निर्मित इस प्रकार की विधि आपात स्थिति की समाप्ति के पश्चात् छ: माह से अधिक प्रवर्तन में (लागू) नहीं रहता। परन्तु इस विधि के अन्तर्गत किये गये कार्य या चूक पर अप्रभावित रहती है। यदि उस अवधि में संसद द्वारा निर्मित विधि के साथ उसी विषय पर राज्य सरकार ने किसी विधि का निर्माण किया है तो राज्य सरकार द्वारा निर्मित विधि, संसद द्वारा निर्मित विधि की विसंगतता या असंगतता की सीमा तक शून्य मानी जायेगी।
(3) वित्तीय सम्बन्धों में परिवर्तन (Change in Financial Relations) – आपात घोषणा के लागू होने की अवधि में राष्ट्रपति आदेश द्वारा जैसा कि वह उचित समझे अनुच्छेद 268 से 279 तक में उपबन्धित केन्द्र तथा राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों में परिवर्तन कर सकता है। ऐसे आदेश को यथासम्भव शीघ्र संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा। [माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1964 सु० को० 381]
(4) लोकसभा की अवधि में वृद्धि– जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब संसद् विधि द्वारा लोकसभा की अवधि को एक वर्ष के लिए बढ़ा सकती है। यह अवधि एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती है। लोकसभा की अवधि आपात उद्घोषणा के समाप्त हो जाने के पश्चात् 6 मास बाद स्वयं ही समाप्त हो जायेगी।
(5) आपात काल की उद्घोषणा का मूल अधिकारों (Fundamental Rights) पर प्रभाव- अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत उद्घोषित आपात काल के दौरान संविधान के अन्तर्गत प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकारों का निलम्बन हो जाता है अर्थात् मूल अधिकारों के प्रवर्तन अर्थात् लागू कराने हेतु न्यायालय में जाने का अधिकार आपात अवधि के दौरान समाप्त हो जाता है परन्तु ज्यों ही आपात उद्घोषणा वापस कर ली जाती है यह अधिकार पुनर्जीवित हो जाता है। (अनुच्छेद 359), अर्थात् आपात घोषणा के प्रवर्तन काल में राज्य के ऊपर से यह प्रतिबन्ध समाप्त हो जाता है कि वह ऐसी विधि निर्मित नहीं कर सकती जो संविधान के भाग 3 में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करती है तथा राज्य द्वारा बनायी गयी विधि को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे मूल अधिकारों के विरूद्ध हैं या मूल अधिकारों का उल्लंघन करते है।
एम० ए० पाठक बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1978 सु० को० 803 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि आपात उद्घोषणा का प्रभाव यह होता है कि अनुच्छेद 14 तथा 19 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार निलम्बित नहीं होते परन्तु उनकों लागू कराने का अधिकार निलम्बित होता है। इसका अर्थ है आपातकाल के दौरान विधिक दावे (legal action) स्वयं निलम्बित नहीं होते उन्हें विधि बनाकर निलम्बित किया जा सकता है।
सन् 1975 के 38वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 359 में एक नया खण्ड जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि खण्ड (1) के अधीन भाग 3 में वर्णित किसी अधिकार के निलम्बन की घोषणा प्रवर्तन में है तो भाग 3 की कोई भी बात राज्य को कोई विधि बनाने या कार्यपालिका की कार्यवाही करने की शक्ति पर कोई निर्बन्धन (restriction) नहीं होगा जिन्हें राज्य उस भाग के उपबन्धों के अधीन करने में सक्षम है।
सन् 1978 में संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 358 में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए –
(1) यह कि अब अनुच्छेद 358 के अधीन अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अधिकारों का युद्ध या बाह्य आक्रमण से देश को संकट के आधार पर आपात उद्घोषणा होने पर ही निलम्बित किया जा सकेगा सशस्त्र विद्रोह के आधार पर नहीं।
(2) अनुच्छेद 358 में एक नवीन खण्ड (2) जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि खण्ड (1) की कोई भी बात किसी विधि या उसके अधीन किये गये किसी कार्यपालिका के कार्य पर लागू नहीं होगी जिसमें इस बात का उल्लेख नहीं है कि ऐसी विधि या कार्यपालिका के कोई कार्य आपात उद्घोषणा से सम्बन्धित है अर्थात् 44 वे संशोधन के पश्चात् अनुच्छेद 358 के अधीन सिर्फ उन्हीं विधियों को न्यायालय में चुनौती दिये जाने से संरक्षण मिलेगा जो आपात उद्घोषणा से सम्बन्धित हैं। इस संशोधन से पूर्व अन्य विधियों को भी विधिमान्यता को आपात काल के दौरान न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात की उद्घोषणाएँ –
(1) सन् 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था 26 अक्टूबर 1962 से 10 जनवरी, 1968 तक;
(2) सन् 1971 में पाकिस्तान भारत युद्ध के कारण दिसम्बर, 1970 से मार्च 1971 तक;
(3) सन् 1975 में आन्तरिक अशांति के आधार पर 26 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक।
प्रश्न 23. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्यों में लगाये जाने वाले राष्ट्रपति शासन पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखें। क्या आप विचार से सहमत हैं कि यह अधिकार संवैधानिक अधिकार की अपेक्षा राजनीतिक हथकंडा बन गया है। इस विषय में राष्ट्रपति की क्या भूमिका है? क्या राष्ट्रपति, राज्यपाल के प्रतिवेदन के आधार पर किसी राज्य सरकार को भंग करने की केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की संस्तुति को मानने के लिए बाध्य है तथा राष्ट्रपति की अनुच्छेद 356 की उद्घोषणा को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है?
Write a brief essay on imposition of President’s rule in the States under Article 356 of Indian Constitution. Do you agree with the view that the imposition of President’s rule is more a political act rather than Constitutional act. What is the role of President in this regard. Is President bound to dissolve the legislative of a State on advice of Council of Ministers on the report of Governor of that state? Can the declaration under Article 356 be challenged in Court of Law.
अथवा (Or)
राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उत्पन्न आपातकाल की घोषणा का वर्णन कीजिए।
Discuss the provisions as to the proclamation of emergency in case of failure of Constitutional machinery in States.
उत्तर – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 355 यह उपबन्धित करता है कि प्रत्येक राज्य की सरकार इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलाई जाय यह सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा। अनुच्छेद 356 इस कर्त्तव्य पालन को सुनिश्चित करने का अधिकार संघ कार्यपालिका (राष्ट्रपति) को देता है। अनुच्छेद 356 यह उपबन्धित करता है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा राष्ट्रपति को यह समाधान (Satisfaction) हो जाता है कि ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है जिसमें कि उस राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो राष्ट्रपति उद्घोषणा (Declaration) द्वारा –
(1) उस राज्य के सरकार के सभी या कोई कृत्य या राज्यपाल या राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य प्रयोग की जाने वाली सभी या कोई शक्ति अपने हाथ में ले सकेगा।
(2) यह घोषित कर सकेगा कि राज्य के विधान मण्डल की शक्तियाँ संसद के प्राधिकार द्वारा या संसद के प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जाएँगी।
(3) संघ (राष्ट्रपति) ऐसे प्रासंगिक तथा आनुषंगिक उपबन्ध बना सकेगा जो राष्ट्रपति की उद्घोषणा के उद्देश्य को प्रभावी करने के लिए आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों।
किन्तु राष्ट्रपति इस उद्घोषणा द्वारा उच्च न्यायालयों से सम्बन्धित किसी उपबन्ध के प्रवर्तन को पूर्णत: या अंशत: निलम्बित नहीं कर सकता।
अनुच्छेद 356 के उपबन्धों से स्पष्ट है कि इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त शक्ति के प्रयोग के लिए राष्ट्रपति का समाधान पर्याप्त है तथा यह समाधान केंन्द्रीय मंत्रिमण्डल का समाधान होगा जो मंत्रिमण्डल की संस्तुति के माध्यम से प्रकट हो सकता है तथा राष्ट्रपति राज्य के राज्यपाल से कोई प्रतिवेदन (Report) न मिलने पर भी कार्यवाही कर सकता है। ऐसा सम्भव है कि राज्यपाल राज्य के मुख्यमंत्री से मिल जाय तथा राष्ट्रपति को राज्य में संवैधानिक विफलता की सूचना प्रेषित न करे। ऐसी स्थिति में केन्द्र सरकार को अपने कर्त्तव्य का पालन स्वयं करना होगा।
उद्घोषणा की अवधि (Duration of Declaration)– अनुच्छेद 356 के अधीन जारी की गयी उद्घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जायेगी तथा यदि वह पूर्ववर्ती उद्घोषणा द्वारा प्रतिसंहत (खण्डित revoked) नहीं कर दी गई है तो 2 माह तक प्रवर्तन में रहेगी। यदि 2 महीने के अन्दर संसद संकल्प द्वारा उद्घोषणा का अनुमोदन कर देती है तो वह 6 माह तक प्रवर्तन (Enforced) में रहेगी संसद एक बार में उस अवधि को 6 माह तक के लिए बढ़ा सकती है किन्तु कोई ऐसी उद्घोषणा किसी भी अवस्था में तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए नहीं बढ़ाई जा सकती। यदि 6 माह के भीतर अनुमोदन करने वाले संकल्प को बिना पारित किये लोकसभा भंग हो जाती है तो वह पुनर्गठित लोकसभा की प्रथम बैठक की तिथि से 30 दिनों की समाप्ति पर प्रवर्तन में (लागू) नहीं रहेगी, जब तक लोकसभा 30: दिनों के भीतर उस घोषणा को प्रवर्तन में बनाये रखने का संकल्प न पारित कर दे। इस प्रकार असंशोधित अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा की अधिकतम अवधि 3 वर्ष है।
44 वाँ संविधान संशोधन- सन् 1978 में किये गये संविधान संशोधन ने अनुच्छेद 356 के क्षेत्र को काफी सीमित कर दिया है। इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 356 में एक नवीन खण्ड (5) जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि एक वर्ष से अधिक अवधि के लिए आपात को जारी रखने वाला संकल्प किसी भी सदन द्वारा पारित नहीं किया जायेगा जब तक कि –
(1) ऐसा संकल्प पारित करते समय उद्घघोषणा प्रवर्तन में है।
(2) चुनाव आयोग इस बात का प्रमाण पत्र न दे दें कि सम्बन्धित विधानसभा के लिए आम चुनाव कराने में कठिनाइयों के कारण आपात स्थिति का जारी रहना आवश्यक है।
संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन प्रदत्त शक्ति का प्रयोग– अब तक इस शक्ति का प्रयोग 80 बार किया जा चुका है। अधिकतर मामलों में राष्ट्रपति शासन ऐसी स्थिति में लागू किया गया था जबकि किसी न किसी कारण से एक स्थायी सरकार का गठन सम्भव नहीं था। सन् 1964 में गुजरात में राष्ट्रीय शासन तब लागू किया गया जब कि छात्रों के आन्दोलन के फलस्वरूप विधान मण्डल का विघटन कर दिया गया था। सन् 1975 में कांग्रेस दल के स्वयं के झगड़ों के निपटारे के लिए उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। सन् 1977 में राष्ट्रपति शासन का 9 राज्यों में अभिनव प्रयोग किया गया।
इस अधिकार का राजनैतिक उपयोग (दुरुपयोग) – इस अनुच्छेद में प्रदत्त अधिकार का दुरुप या राजनैतिक उद्देश्य से प्रयोग के उदाहरण की कमी नहीं है। अक्सर यह होता था कि केन्द्र तथा राज्यों में भिन्न दलों की सरकार आ जाती थी। ऐसा होने पर केन्द्र में शासन में आयी सरकार को यह भ्रम हो जाता था कि उसके पक्ष में जनता की सहानुभूति है। अतः वह येन केन प्रकारेण उस राज्य सरकार को भंग कर उस राज्य में नवीन चुनाव कराना चाहती थी। राज्य का राज्यपाल चूँकि केन्द्र का प्रतिनिधि होता है। अतः ऐसे मोर्चों पर अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए केन्द्र सरकार राज्यपाल से अपने अनुकूल प्रतिवेदन प्राप्त कर राष्ट्रपति को राज्य सरकार को भंग करने की संस्तुति कर देता थी एक उत्तर पूर्वी राज्य में तो वहाँ की सरकार को राज्यपाल के प्रतिकूल भंग करने का आदेश दे दिया गया था। केन्द्र सरकार अपने विरोधी दल की सरकार की राज्य में उपस्थिति सहन नहीं कर पाती थी। अतः किसी न किसी बहाने उसे भंग कर राष्ट्रपति शासन उस राज्य पर थोप देती थी।
सन् 1976 में तमिलनाडु सरकार को अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत इसलिए भंग कर दिया गया कि उसने केन्द्र सरकार के निर्देशों की अवहेलना की। केन्द्र का यह कृत्य किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता क्योंकि तमिलनाडु सरकार को दोनों सदनों में बहुमत प्राप्त था।
सन् 1976 में गुजरात तथा उड़ीसा में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। गुजरात में दल-बदल के कारण राज्य सरकार के गिर जाने के कारण और उड़ीसा सरकार को केन्द्र सरकार में बैठे नेताओं की नाराजगी का फल भोगना पड़ा था।
सन् 1977 में लागू किया गया राष्ट्रपति शासन उस समय की सरकार में सम्मिलित उन लोगों द्वारा लागू किया गया था जो उसके दुरुपयोग की निन्दा करते नहीं थकते थे। सन् 1977 में आपात काल की समाप्ति के पश्चात् चुनाव कराया गया था। जनता पार्टी, जो विभिन्न दलों के विलय से अस्तित्व में आयी थी, प्रचण्ड बहुमत से सभा में आयी थी तथा इन्दिरा कांग्रेस पर जनता ने आपात काल की ज्यादती के कारण अपना क्रोध जताया तथा कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार ने नौ राज्यों में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लगा दिया कि इन राज्यों में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का एक भी प्रत्याशी विजय प्राप्त नहीं कर सका है। अतः उन राज्यों की कांग्रेस सरकारों ने अपना विश्वास खो दिया है। क्या केन्द्र सरकार राज्य सरकार को निदेश दे सकती है कि वह, राज्यपाल को राज्य सरकार को भंग करने को रिपोर्ट केन्द्र को दे। गृहमंत्री ने उन नौ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सलाह दी कि वे अपने अपने राज्यपालों को विधानसभा भंग करने की सलाह दें और राज्यों में चुनाव कराये गृहमंत्री का विचार था कि इन राज्यों की सरकारों ने जनता का विश्वास खो दिया है।
गृहमंत्री के इस सुझाव को इन राज्यों के कांग्रेस मंत्रिमण्डलों ने अस्वीकार कर दिया। 9 राज्यों में से छः राज्यों ने केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की। राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1977 सु० को० 1361 नामक याद में उच्चतम न्यायालय को सात न्यायाधीशों की विशेष खण्डपीठ ने यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार द्वारा विधान सभाओं को भंग करने की शक्ति का प्रयोग संवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 356 के अधीन यह आवश्यक नहीं कि राष्ट्रपति केवल राज्यपालों की रिपोर्ट पर ही कार्य करे। यदि केन्द्र सरकार किन्हीं कारणों से सन्तुष्ट है कि राज्य सरकारों को संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलाया जाना सम्भव नहीं है तो वह राष्ट्रपति को उन्हें अपदस्थ करने की सलाह दे सकती है। न्यायालय के अनुसार यदि संघीय सरकार किसी राजनीतिक अथवा कार्यपालिकीय नीति अथवा सुगमता के अन्तर्गत कार्य करती है तो न्यायालय उसके कार्यों की वैधानिकता की चुनौती को स्वीकार नहीं कर सकता।।
इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने संघ सरकार के गृहमंत्री द्वारा राज्य सरकारों को यह सलाह देने के अधिकार को स्वीकार कर लिया कि राज्य सरकार अपने राज्यपालों को सलाह दे कि वे राज्य सरकार को बर्खास्त करने की रिपोर्ट संघ सरकार को प्रेषित करें। यहाँ तक कि संघ सरकार बिना राज्यपाल की रिपोर्ट के भी अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को किसी राज्य की सरकार को भंग करने की सलाह दे सकती है।
जनता पार्टी की सरकार आपसी कलह के कारण चल नहीं पाई तथा राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग कर दी और दिसम्बर, 1979 में पुनः चुनाव हुए तथा कांग्रेस पार्टी बहुमत से केन्द्र में आयी और कांग्रेस सरकार ने 1980 में जनता पार्टी द्वारा शासित नौ प्रदेशों की सरकारों को उसी प्रकार तथा उसी आधार पर 18 फरवरी, 1980 को भंग कर दिया। सरकार ने अपने आदेश में किसी कारण का उल्लेख नहीं किया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 356 का राजनीतिक क्षेत्र में दुरुपयोग किया गया।
इसी प्रकार कभी अनुच्छेद 356 के अधीन राज्य सभाओं को दल-बदल के कारण विद्यमान सरकार के अल्पमत में आ जाने के कारण तो कभी उग्रवादियों द्वारा उत्पन्न अशांति तथा अलगाववादी गतिविधियों के कारण विधानसभा भंग की गई।
सन् 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई तथा उत्तर प्रदेश में कुछ विषम तथा अप्रिय स्थिति उत्पन्न हुई। केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस की सरकार ने उसकी आड़ लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश की भी सरकारों को भंग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया हालांकि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को वैध माना परन्तु अन्य चार राज्यों की राज्य सरकारों को भंग किये जाने को राजनीति से प्रेरित माना।
क्या राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की किसी राज्य सरकार को भंग करने की सलाह मानने को बाध्य है- राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1977 सु० को० 1361 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि राज्य सरकार को भंग करने हेतु केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की सलाह को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है। परन्तु अब संविधान में संशोधन कर यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की सलाह को एक बार पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है। यदि केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की सलाह को पुनर्विचार के पश्चात् पुनः राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु प्रेषित करती है तो राष्ट्रपति उस सलाह को मानने के लिए बाध्य है।
सन् 1999 में बाजपेयी मंत्रिमण्डल ने बिहार सरकार को भंग करने की संस्तुति बिहार के राज्यपाल श्री सुन्दर सिंह भण्डारी की रिपोर्ट पर की। राष्ट्रपति श्री के० आर० नारायणन ने इसे मंत्रिमण्डल को पुनर्विचार के लिए प्रेषित किया क्योंकि राष्ट्रपति के मतानुसार किसी पक्षकार को अनुच्छेद 356 में भंग करने का कदम अन्तिम कदम के रूप में उठाया जाना चाहिए जब राज्य सरकार के संविधान के अनुसार चलाये जाने की सभी सम्भावनायें समाप्त हो गई हों। केन्द्रीय मंत्रिमंण्डल ने अपनी सलाह पर पुनर्विचार कर राष्ट्रपति को पुनः भेजना उचित नहीं समझा क्योंकि बाजपेयी सरकार का राज्यसभा में बहुमत नहीं था। अत: इस संकल्प को राज्यसभा में पारित किये जाने की सम्भावना क्षीण थी।
क्या राष्ट्रपति द्वारा किसी राज्य मंत्रिमंण्डल को भंग करने के कृत्य को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है – अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत यद्यपि राष्ट्रपति की सन्तुष्टि उसकी स्वयं की संतुष्टि है जो मंत्रिमण्डल के माध्यम से प्रयोग की जा सकती है परन्तु यदि असद्भाव या दुर्भावना के अन्तर्गत है तो न्यायालय इसकी जाँच कर सकता है।
जे० पी० राव बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2014) एन० ओ० सी० 411 के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया। है कि –
(i) अनुच्छेद 355 एवं 356 संविधान के मूल प्रावधान है।
(ii) उन्हें विधि के न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है, तथा
(iii) विधि के न्यायालय द्वारा इन्हें न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही इन्हें असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
प्रश्न 24. वित्तीय आपात से सम्बन्धित उपबन्धों की विवेचना कीजिए।
Discuss the provisions relating to financial emergency?
उत्तर- वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency)- संविधान का अनुच्छेद 360 यह उपबन्ध करता है कि –
(1) यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिससे भारत या उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या प्रत्यय संकट में हैं तो वह उद्घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा कर सकेगा।
(2) खण्ड (1) के अधीन जारी की गयी उद्घोषणा –
(क) किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकेगा;
(ख) संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जायेगी;
(ग) दो मास की समाप्ति पर यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता तो प्रवर्तन में नहीं रहेगी:
परन्तु यदि ऐसी कोई उद्घोषणा उस समय जारी की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो जाता है या लोकसभा का विघटन उपखण्ड (ग) में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया जाता है किन्तु ऐसी उद्घोषणा के सम्बन्ध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उदघोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है तो प्रवर्तन में नहीं रहेगी।
(3) उस अवधि के दौरान, जिसमें खण्ड (1) में उल्लिखित उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को वित्तीय औचित्य सम्बन्धी ऐसे सिद्धान्तों का पालन करने के लिए निर्देश देने तक जो निर्देशों में विनिर्दिष्ट किये जायें और ऐसे अन्य निर्देश देने तक होगा जिन्हें राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिए देना आवश्यक और उचित समझे।
(4) इस संविधान में किसी बात के होते (क) ऐसे किसी निर्देश के अन्तर्गत हुए भी –
(1) किसी राज्य के कार्य-कलापों के सम्बन्ध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के वेतनों और भत्तों में कमी की अपेक्षा करने वाले उपबंध;
(ii) धन विधेयकों या अन्य ऐसे विधेयकों को, जिनको अनुच्छेद 207 के उपबंध लागू होते हैं, राज्य के विधानमण्डल द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखने के लिए उपबंध हो सकेंगे;
(ख) राष्ट्रपति, उस अवधि के दौरान, जिसमें इस अनुच्छेद के अधीन जारी की गयी उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है, संघ के कार्यकलापों के सम्बन्ध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के, जिनके अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश हैं, वेतनों और भत्तों में कमी करने के लिए निर्देश जारी करने के लिए सक्षम होगा।
प्रश्न 25. निम्न की संक्षेप में विवेचना करें –
(i) राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया
(ii) आपातकाल तक निवारक निरोध
(iil) अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत प्राधिकारी
(iv) केन्द्र तथा राज्य के कानून विधि से परस्पर विसंगति
(v) अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ
Explain in short the followings –
(i) Process of impeachment of President
(i) Emergency and preventive detention (iii) Authorities under Article 12
(iv) Mutual Inconsistency between law made by Centre and State
(v) Residuary Legislative Power
उत्तर- (i) भारत के राष्ट्रपति पर महाभियोग (Impeachment of President of India)– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 67 के अन्तर्गत राष्ट्रपति पर महाभियोग को प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 61 के अनुसार राष्ट्रपति पर महाभियोग का आरोप संसद के किसी सदन द्वारा लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति पर महाभियोग का आरोप तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक कि (1) प्रस्थावित आरोप एक संकल्प के रूप में न हो। (2) यह संकल्प कम से कम 14 दिनों की लिखित सूचना देने के बाद प्रस्तुत न किया गया हो। (3) प्रस्ताव या संकल्प पर सदन के 1/4 सदस्यों ने हस्ताक्षर करके प्रस्तावित करने के संकल्प का अनुमोदन किया है। (4) सदन, जिसमें प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है उसके कुल सदस्य संख्या के कम से कम 2/3 बहुमत द्वारा ऐसे संकल्प को पारित न कर दिया गया हो।
जब संसद के एक सदन द्वारा महाभियोग का आरोप लगा दिया गया हो तो दूसरा सदन उस आरोप की जाँच करेगा। जाँच या तो सदन स्वयं करेगा या किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण के द्वारा करायेगा जिसे सदन विनिर्दिष्ट करे राष्ट्रपति को स्वयं या किसी वकील द्वारा अपना बचाव करने का अधिकार होगा। यदि जाँच के पश्चात् वह सदन अपनी सदस्य संख्या के कम से कम 2/3 बहुमत द्वारा एक संकल्प पारित करके यह उद्घोषित कर देता है कि राष्ट्रपति पर लगाया गया आरोप सिद्ध हो चुका है तो ऐसे संकल्प का प्रभाव उसको पारित किए जाने की तिथि से राष्ट्रपति को अपने पद से हटाया जा सकेगा [अनुच्छेद 61 (4) ]। अमेरिकन संविधान तथा भारतीय संविधान में इस सम्बन्ध में अन्तर यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को राजद्रोह, घूस लेने या अन्य अपराध के आधार पर महाभियोग लगाकर हटाया जा सकता है जबकि भारतीय राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग संविधान के अतिक्रमण के लिए लगाया जा सकता है। अमेरिकी संविधान के अनुसार राष्ट्रपति महाभियोग को प्रक्रिया सिर्फ निचले सदन द्वारा प्रारम्भ की जा सकती है जबकि भारतीय राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की कार्यवाही किसी भी सदन में प्रारम्भ की जा सकती है।
भारत में अभी तक किसी भी राष्ट्रपति के विरूद्ध महाभियोग की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं की गई है जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को मोनिका लेवेन्सकी काण्ड के कारण इस प्रकार के आरोप का सामना करना पड़ा।
उत्तर- (ii) निवारक निरोध तथा आपात काल (Preventive Detention and Emergency)- निवारक निरोध (Preventive detention) वह निरोध है जो बिना न्यायालय के विचारण के कार्यपालिका द्वारा किया जाता है। देश हित में तथा लोक शांति व्यवस्था एवं देश की अखण्डता के हित में यदि कार्यपालिका को यह संदेह हो जाता है कि कोई व्यक्ति लोक शान्ति, देश की एकता तथा अखण्डता एवं सामुदायिक सद्भाव के लिए खतरा है तथा उसके द्वारा इसके विपरीत कोई कार्य किया जा सकता है तो कार्यपालिका उस व्यक्ति को निरुद्ध (detain) या कारावासित कर सकेगी। निवारक निरोध का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 22 में किया गया है। इन अनुच्छेद के अन्तर्गत अन्य प्रावधानों के अतिरिक्त निरुद्ध व्यक्ति को कुछ संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है।
सर्वप्रथम निवारक विधि सन् 1950 में बनी इस अधिनियम की धारा 14 के द्वारा केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों तथा कतिपय प्राधिकारियों को किसी व्यक्ति को निरुद्ध करने के लिए प्राधिकृत करती है। यदि उन्हें समाधान (Satisfaction) हो जाय कि किसी व्यक्ति को भारत की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था तथा समुदाय के लिए आवश्यक प्रदाय और सेवायें बनाये रखने के विरुद्ध किसी कार्य से रोकना आवश्यक है तो वह उस व्यक्ति को निरुद्ध कर सकती है। इस अधिनियम की धारा 7 के अनुसार निरुद्ध व्यक्ति को उसे गिरफ्तार किए जाने के कारणों की यथाशक्ति जानकारी दी जाय धारा 9 यह प्रावधान करती है कि 7 सप्ताह के अन्दर निरुद्ध व्यक्ति के मामले को सलाहकार बोर्ड के समक्ष रखे।
सन् 1969 में निवारक निरोध अधिनियम, 1950 को समाप्त कर सन् 1971 में आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) पारित किया गया जिसे सन् 1977 में समाप्त कर दिया गया तथा सन् 1979 में इसे प्रिवेन्सन आफ ब्लैक मार्केटिंग एण्ड मेन्टिनेस ऑफ सप्लाइज ऑफ एसेन्शियल कामोडिटी आर्डिनेन्स, 1979 के रूप में पारित किया गया सन् 1983 में एक और निवारक निरोध अधिनियम राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के नाम से पारित किया गया।
आपातकाल की घोषणा का सबसे प्रमुख प्रभाव यह है कि आपातकाल की उद्घोषणा के दौरान संविधान में निहित मूल अधिकार निलम्बित हो जाते हैं। आपात काल के दौरान कार्यपालिका का महत्व बढ़ जाता है। आपात काल के दौरान निवारक निरोध विधियों का सबसे अधिक दुरुपयोग होता है। निर्दोष व्यक्तियों को भी कार्यपालिका के प्राधिकारियों द्वारा कारावास में बन्द कर दिया जाता है। इसके लिए कार्यपालिका की शक्तियों पर संविधान संशोधन के माध्यम से निबंन्ध लगाना आवश्यक है तथा न्यायालयों को निवारक विधियों की विधिमान्यता की जाँच करने का अधिकार दिया जाना आवश्यक है।
सन् 1978 में पारित 44वें संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि आपात की उद्घोषणा के दौरान अनुच्छेद 20 तथा अनुच्छेद 21 में प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को निलम्बित नहीं किया जा सकता।
न्यायिक विनिश्चयों ने यह सुस्थापित किया है कि आपात काल की घोषणा के दौरान भी कार्यपालिका निदार निरोध अधिनियम का प्रयोग मनमाने ढंग से नहीं कर सकती।
उत्तर- (iii) अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत प्राधिकारी (Authorities Under Section 12)– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के सन्दर्भ में प्राधिकारी शब्द का अर्थ है जिन्हें विधि, उपविधि, आदेश तथा अधिसूचना आदि के निर्माण या उन्हें जारी करने का अधिकार प्राप्त होता है। यदि किसी प्राधिकारी को यह शक्ति प्राप्त है तो वह धारा 12 के उद्देश्यों के लिए राज्य माना जायेगा। अनुच्छेद 12 में स्थानीय प्राधिकारी (Local (Authorities) तथा अन्य प्राधिकारी (Other Authorities) शब्दावली का प्रयोग किया गया। है। स्थानीय अधिकारियों के अन्तर्गत नगर पालिकाएँ, जिला परिषद् ग्राम पंचायत इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट, माइनिंग सेटेलमेन्ट परिषद् आदि संस्थाएँ आती हैं।
अनुच्छेद 12 में कुल प्राधिकारियों के उल्लेख करने के उपरान्त अन्य प्राधिकारी शब्दावली का प्रयोग किया गया है। प्रारम्भ में कई उच्च न्यायालयों ने इसकी विस्तृत व्याख् करके यह विचार किया कि अन्य प्राधिकारी पदावली में उपर्युक्त वर्णित पदाधिकारियों की तरह अन्य प्राधिकारी सम्मिलित हैं। मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शान्ता बाई, ए० आई० आर० 1953 मद्रास 67 नामक बाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि अन्य प्राधिकारी में केवल वे प्राधिकारी सम्मिलित किए जायेंगे जो शासकीय प्रभुता सम्पन्न शक्तियों का प्रयोग करते हैं। उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार प्राकृतिक तथा विधिक व्यक्ति जैसे विश्वविद्यालय, कम्पनी आदि उस पदावली के अन्तर्गत राज्य नहीं माने जा सकते। परन्तु उज्जमा बाई बनाम उत्तर प्रदेश ए० आई० आर० 1962 सु० को० 162 नामक बाद में इस पदावलों के अन्तर्गत उपरोक्त निकायों को राज्य माना गया।
राजस्थान विद्युत परिषद् बनाम मदन लाल, ए० आई० आर० 1967 सु० को० 1857 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अन्य प्राधिकारी के अन्तर्गत के सभी व्यक्ति आते हैं जो संविधान या परिनियम (Statute) द्वारा स्थापित किए जाते हैं जिन्हें विधि, उपविधि आदि निर्मित करने की शक्ति प्राप्त होती है। यह आवश्यक नहीं कि ऐसे कानूनी प्राधिकारी शासकीय तथा प्रभुता सम्पन्न शक्ति का प्रयोग करते हों इस निर्णय के अनुसार विद्युत् परिषद्, देवासन परिषद, सहकारी समितियाँ जैसी संस्थाएँ उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अन्य अधिकारी माने जायेंगे।
उत्तर- (iv) केन्द्र तथा राज्य के कानून विधि में परस्पर विसंगति (Mutual Inconsistency Between The Law made by Centre and State) – केन्द्रीय विधान माण्डल तथा राज्य विधान मण्डल के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन है। केन्द्र तथा राज्य विधान मण्डल को विधायी शक्तियों का उल्लेख तीन सूचियों में किया गया है- (1) केन्द्र सूची, (2) राज्य सूची तथा (3) समवर्ती सूची केन्द्रीय सूची में संघीय प्रकृति के महत्वपूर्ण मामले जैसे रक्षा, संचार, विदेश तथा मुद्रा जैसे विषय रखे गये हैं। केन्द्रीय सूची में उल्लिखित विषय पर विधि बनाने का केन्द्रीय विधान मण्डल (संसद) को आत्यन्तिक (Absolute) अधिकार है।
इसी प्रकार राज्य विधान मण्डल को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का आत्यन्तिक अधिकार (Absolute Right) है। समवर्ती सूची (Concurrent List) में उल्लिखित विषय पर संसद तथा राज्य विधान मण्डल दोनों को विधि निर्माण का अधिकार है।
अनुच्छेद 254 यह प्रावधान करता है कि यदि किसी राज्य के विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि का कोई उपबन्ध संसद द्वारा बनाई गई विधि के किसी भी उपबन्ध के विरुद्ध है तो अनुच्छेद 254 खण्ड (2) के प्रावधानों के अधीन रहते हुए संसद द्वारा बनाई गई विधि चाहे वह राज्य विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि से पहले या उसके बाद में पारित की गई हो राज्य की विधि पर अधिभावी होगी तथा राज्य के विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि विरोध या असंगति की सीमा तक शून्य होगी। अनुच्छेद 254 खण्ड (2) में एक अपवाद है। उसके अनुसार यदि राज्य द्वारा समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर निर्मित किसी विधि में कोई ऐसा उपबन्ध है जो संसद द्वारा उस विषय पर पहले बनाई गई विधि के या किसी वर्तमान विधि से असंगत हैं तो राज्य द्वारा बनाई गई ऐसी विधि या वर्तमान विधि यदि उसको राष्ट्रपति की अनुमति मिल गई है तो उस राज्य में अभिभावी होगी। उक्त अपवाद का भी एक अपवाद है अनुच्छेद 254 खण्ड (2) के परन्तुक के अनुसार संसद राष्ट्रपति की अनुमति के पश्चात् भी उस विषय पर विधि बना सकती है तथा राज्य द्वारा निर्मित विधि का परिवर्द्धन, परिवर्तन या निरसन कर सकती है।
जखर भाई बनाम बम्बई राज्य, ए० आई० आर० 1954 सु० को० 752 कर मामला इस विषय पर एक अच्छा उदाहरण है। सन् 1946 में केन्द्रीय विधानमण्डल ने आवश्यक वस्तु अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार इसके उल्लंघन करने वालों की धारा 3 के अन्तर्गत अधिक से अधिक 3 वर्ष का कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है। बम्बई राज्य के विधान मण्डल ने इस दण्ड को कम समझकर एक अधिनियम पारित कर इस सजा को बढ़ाकर 7 वर्ष का कारावास या जुर्माना या दोनों कर दिया। सन् 1957 में संसद ने अपने सन् 1946 वाले अधिनियम में संशोधन कर धारा 3 में विहित (Prescribe) दण्ड में काफी परिवर्तन कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि 1957 में संसद के संशोधित अधिनियम द्वारा बम्बई विधान मण्डल का अधिनियम विवक्षित रूप से निरस्त हो गया। अतः केन्द्रीय विधि संवैधानिक थी।
एम० करुणानिधि बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 898 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने वे कसौटियाँ निर्धारित की थीं जिसके आधार पर संसद द्वारा तथा राज्य विधान मण्डल द्वारा निर्मित विधि को असंगत कहेंगे ये निम्न हैं –
(1) जहाँ दोनों विधियों में प्रत्यक्ष विरोध हो अर्थात् एक कहती है करो तथा दूसरी कहती है मत करो।
(2) जब केन्द्रीय तथा राज्य विधि में सीधी असंगति है जो सुलझाई नहीं जा सकती अर्थात् दोनों विधियाँ एक ही क्षेत्र में लागू होती हों।
(3) जब केन्द्र विधि तथा राज्य विधि में कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं है परन्तु यदि केन्द्र का उद्देश्य किसी पूरे क्षेत्र को अधिकृत करना है तो राज्य द्वारा उस पर विधायन केन्द्र का विरोधी होगा।
उत्तर (v)-अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ (Residuary Legislative Powers) – भारत के संविधान के अनुच्छेद 248 के अनुसार, अनुच्छेद 246 (क) के अधीन रहते हुए संसद को किसी ऐसे विषय के सम्बन्ध में, जो समवर्ती सूची या राज्य सूची में प्रगणित नहीं है, विधि बनाने की अनन्य शक्ति है अर्थात जो विषय राज्य सूची या समवर्ती सूची में उल्लिखित नहीं है उसे अवशिष्ट विषय माना जायेगा तथा अवशिष्ट विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति संसद में अर्थात् केन्द्रीय विधायिनी में होगी। यह पद्धति अमेरिकी, स्विट्जरलैण्ड तथा आस्ट्रेलिया के संविधान से भिन्न है जहाँ अवशिष्ट विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति राज्य सरकारों में है।
इस सम्बन्ध में प्रारम्भिक धारणा यह रही है कि यदि कोई विषय राज्य सूची में नहीं है तो उसे अवशिष्ट विषय मान लिया जाना चाहिए। लेकिन यह धारणा स्वयं न्यायपालिका के गले नहीं उतरी, क्योंकि इससे राज्य विधानमण्डल की शक्तियाँ अत्यन्त संकुचित हो जाती हैं। अतः कालान्तर में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अवशिष्ट शक्ति का प्रयोग इतना व्यापक रूप से नहीं किया जाना चाहिए कि राज्य विधानमण्डल की विधायी शक्तियाँ क्षीण हो जायें और संघात्मक सिद्धान्तों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। अवशिष्ट शक्ति का प्रयोग सबसे अन्त में करना चाहिए जब इस बात का पता न चल जाय कि वह विषय तीनों सूचियों में से किसी भी सूची में नहीं है। [इंटरनेशनल ट्यूरिस्ट कारपोरेशन बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा, ए० आई० आर० (1981) एस० सी० 774]
प्रश्न 26. राज्यों के प्रशासन में राज्यपाल की भूमिका का वर्णन कीजिए।
अथवा
राज्यों में राज्यपाल सम्बन्धी प्रावधानों की व्याख्या कीजिए तथा उनकी शक्तियों की भी विवेचना कीजिए।
Discuss the role of Governor in the Administration of States. Explain the provisions of Governor in the States and discuss his powers.
उत्तर- राज्यपाल (Governor) – केन्द्र की तरह राज्यों के रूप भी संसदात्मक है और राज्यों में भी राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल के पद की रचना की गयी है। यह पद केवल शोभा के रूप में नहीं रखा गया है बल्कि इस पद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बुद्धिमय व सूझबूझ वाला हो जिससे वह अपनी योग्यता से राज्य कार्यपालिका के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भलीभाँति पूरा कर सके। राज्यपाल केन्द्र व राज्य के बीच की एक कड़ी है, एक महत्वपूर्ण संस्था है जो दोनों के बीच सौहार्दपूर्ण कार्यान्वयन को प्रोत्साहित करता है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 123 के अन्तर्गत राज्यपाल पद का सृजन किया गया है जिसके अनुसार प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा लेकिन कभी-कभी दो या अधिक राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल को नियुक्त कर दिया जाता है ऐसा प्राय: छोटे-छोटे राज्यों अथवा नव-निर्मित राज्यों के लिए किया जाता है तथा राज्य की कार्यपालिकीय शक्ति राज्यपाल में निहित होगी। वह अपनी कार्यपालिकीय शक्तियों का प्रयोग या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के माध्यम से करता है। (अनुच्छेद 154)
हरगोविन्द बनाम रघुकुल, ए० आई० आर० (1979) सु० को० 1109 के बाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि राज्यपाल का पद केन्द्रीय सरकार के अधीन नियुक्त पद नहीं है और अनुच्छेद 319 (घ) का प्रतिषेध उस पर लागू नहीं होता है। राज्यपाल का पद एक स्वतन्त्र संवैधानिक पद है। वह केन्द्रीय सरकार के अधीन या उसके नियंत्रण में नहीं होगा।
स्टेट ऑफ गुजरात बनाम जस्टिस आर० ए० मेहता, ए० आई० आर० (2013) सु० को० 693 के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि राज्यपाल अपनी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह एवं सहायता से करता है। अपने विवेक से शक्ति का प्रयोग केवल तभी करता है जब वह पदाभिहित व्यक्ति के तौर पर अथवा संविधि के अन्तर्गत कार्य कर रहा हो।
राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति – भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है। अनुच्छेद 154 (1) के अनुसार, राज्य की कार्यकारी शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और उसके द्वारा व्यवहार में या तो प्रत्यक्षत: या अधीनस्थ पदाधिकारियों के माध्यम से संविधान के अनुकूल प्रयुक्त की जायेगी। संविधान निर्माताओं ने इस कार्यकारी शक्ति को स्पष्ट नहीं किया है परन्तु न्यायपालिका ने अपने निर्णयों में इसे स्पष्ट किया कि सरकार के वे अवशिष्ट कार्य जो विधायी और न्यायिक कार्यों के अलग किये जाने पर शेष रहते हैं, के रूप में की है।
राज्यपाल को राज्यों के सम्बन्ध में भूमिका का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 163 से हो प्रारम्भ होता है। अनुच्छेद 163 (1) में यह प्रावधान किया गया है कि “राज्यों में मुख्यमंत्री सहित एक मंत्रिमण्डल होगा जो राज्यपाल को उसके कार्यों के क्रियान्वयन में सहायता व सलाह देगा-उन कार्यों को छोड़कर जिन्हें राज्यपाल को इस संविधान के अन्तर्गत या उसके द्वारा स्वविवेक के अनुसार कार्य करना होगा।”
जबकि संविधान के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति की इच्छा के अनुसार पद पर कायम रहता है और उसका कार्यकाल 5 वर्ष तक का हो सकता है परन्तु व्यवहारतः इच्छा केन्द्रीय सरकार की हो जाती हैं जबकि संविधान के अनुच्छेद 163 (2) एवं (3) राज्यपाल को अपने स्वविवेक की शक्तियों के निर्धारण के विषय में स्वविवेक का अधिकार देता है।
राज्य के सन्दर्भ में संविधान के राज्यपाल को तीन रूपों में रखा गया है –
(1) राज्य मंत्रिमण्डल की सलाह मानना (अनुच्छेद 164)
(2) केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करना
(3) स्वविवेक से कार्य करना [अनुच्छेद 163 (2) एवं (3) ]
राज्य मंत्रिमण्डल की सलाह मानना– अनुच्छेद 164 राज्यपाल को मुख्यमंत्री और उसकी सलाह पर मंत्रिमण्डल की नियुक्ति का अधिकार प्रदान करता है। राज्य के सारे कार्यकारी कार्य राज्यपाल के नाम पर किये जाने का प्रावधान है। (अनुच्छेद 166 एव 168) राज्यपाल विधान सभा का सत्र बुलाने, सत्रावसान, विघटन तथा अभिभाषण व सन्देश भेजने में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है (अनुच्छेद 213)। अनुच्छेद 217 के अनुसार राज्यपाल उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति की ओर से करता है। राज्यपाल राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजता है जिसके आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तथा अपने पद के शपथ के अनुसार राज्यपाल राज्य की जनता की सेवा व कल्याण के लिए तथा संविधान व विधि की रक्षा व संरक्षण के लिए बाध्य है।
केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करना – केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल की भूमिका उसे राष्ट्रीय एकता और सार्वजनिक प्रशासन के क्षेत्र में राष्ट्रीय मापदण्डों के संरक्षण के महत्वपूर्ण कार्य सौंपती है। राज्यपाल एक विशिष्ट ख्याति प्राप्त वरिष्ठ राजनीतिज्ञ होता है जो सम्मान के साथ अपने कर्त्तव्यों को पूरा कर सके। संविधान राज्य के चुनाव व नियुक्ति के विषय में सम्पूर्ण शक्तियाँ राष्ट्रपति को सौंपता है जिसका व्यावहारिक अर्थ यह होता है कि राज्यपाल केन्द्र सरकार का मनोनीत व्यक्ति होता है फिर भी इस मनोनयन के समय प्राय: दो प्रकार की परम्पराओं का पालन किया गया है साधारणत: केन्द्र सरकार राज्यपाल की नियुक्ति की घोषणा से पूर्व सम्बद्ध राज्य से सलाह करती है जिससे इस पद पर आने वाला व्यक्ति सम्बद्ध राज्य के मंत्रिमण्डल को स्वीकार हो। यह एक उचित परम्परा है यद्यपि सदैव ही इसका पालन नहीं किया जाता है। इसका उदाहरण जम्मू-कश्मीर है।
(3) स्वविवेक से कार्य करना– संविधान का अनुच्छेद 162 (2) एव (3) राज्यपाल को स्वविवेक की शक्तियों के निर्धारण के विषय में स्वविवेक का अधिकार देता है। राज्य के संवैधानिक मुखिया की भूमिका में राज्यपाल राज्य का औपचारिक मुखिया होता है। राज्य की सभी कार्यकारी शक्तियाँ राज्यपाल के नाम पर राज्य मंत्रिमण्डल द्वारा प्रयुक्त की जाती हैं और राज्यपाल संवैधानिक तौर पर मंत्रिपरिषद् की सलाह पर कार्यों करता है परन्तु संविधान के स्पष्ट उपबन्धों के अनुसार राज्यपाल स्वविवेक पर आधारित कार्यों के विषय में राज्यपाल मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं होगा बल्कि स्वविवेक के आधार पर निर्णय लेगा।
यदि राज्यपाल के स्वविवेक के प्रयोग पर कोई प्रश्न उठता है तो राज्यपाल का निर्णय इस विषय में अन्तिम होगा और कोई कार्य राज्यपाल के स्वविवेक के अन्तर्गत आता है या नहीं और उसके ऐसे किसी कार्य की वैधता पर प्रश्न नहीं किया जा सकता। राज्यपाल के स्वविवेक के कार्यों पर न्यायालय भी प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं रखते और इस विषय में राज्यपाल का निर्णय अन्तिम होगा।
इस प्रकार राज्य के मुखिया की भूमिका में राज्यपाल स्वविवेक पर आधारित अनेक कार्य करता है और इन कार्यों के सम्पादन में वह मंत्रिपरिषद् की सलाह पर कार्य करने को बाध्य नहीं होता। इस तरह के कार्य के दो प्रकार के हो सकते हैं –
(1) एक तो यह कि जिनसे संविधान में ही स्वविवेक का स्पष्ट उल्लेख है या सांविधानिक स्वनिर्णय पर आधारित कार्य;
(2) अन्तर्निहित या स्वविवेक के अनुकूल निर्णय लेने का अधिकार जो राजनीतिक परिस्थितियों की आपात आवश्यकताओं का परिणाम होता है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी राज्यपाल के स्वविवेक की चर्चा की है। इनके अनुसार, राज्यपाल के स्वनिर्णय के अनेक अधिकार है मंत्रिमण्डल का बर्खास्त किया जाना, विधान सभा का विघटन, विधेयकों पर अनुमति न देना तथा मंत्रिमण्डल को परामर्श, सुझाव व चेतावनी देने का अधिकार इत्यादि।
उत्तर प्रदेश कल्याण सिंह सरकार बनाम राज्यपाल रोमेश भण्डारी का आचरण– कल्याण सिंह की सरकार से कुछ सदस्य बाहर निकल गये जिससे सरकार अल्पमत में आ गयी और उसे राज्यपाल ने बहुमत सिद्ध करने का मौका नहीं दिया और आनन-फानन में लोकतांत्रिक कांग्रेस के नेता जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय तक पहुँचा। दोनो न्यायालयों ने कल्याण सिंह को पुनः बहाल किया। राज्यपाल के तथाकथित आचरण की काफी आलोचना हुई।
इस प्रकार स्पष्टत: भारतीय संविधान के अन्तर्गत राज्य का राज्यपाल दोहरी भूमिका और क्षमता का स्वामी होता है परन्तु राज्यपाल का विशेष स्थान कुछ सीमित कार्यों के साथ है। सामान्य रूप से उनका स्वनिर्णय का अधिकार विधायी व मंत्रिमण्डल दोनों ही क्षेत्रों में संसदीय सरकार के सिद्धान्तों व भावना को बनाये रखने के प्रयत्नों तक सीमित है। यह स्वनिर्णय का अधिकार सामान्य प्रकृति का है और इसका प्रयोग राज्य की विशिष्ट परिस्थिति और सन्दर्भ पर निर्भर करता है। इस प्रकार राज्यपाल राज्य व केन्द्र के बीच की कड़ी का काम करता है तथा अपने पद के उद्देश्य के अनुसार राष्ट्र की एकता को बनाये रखना है और राज्य विकास व अन्य गतिविधियों के विषय में केन्द्र को सूचित करना है। राज्यपाल का पद, इस प्रकार उत्तरदायित्वपूर्ण पद है तथा आवश्यक है कि राज्यपाल के पद की गरिमा बनी रहे जो लोकतान्त्रिक और संघीय परम्पराओं के स्वरूप का विकास और पालन कर सके तथा केन्द्र व राज्यों के बीच की कड़ी की अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सके।
राज्यपाल से सम्बन्धित प्रावधान – भारतीय संविधान में राज्यपाल से सम्बन्धित प्रावधानों का उल्लेख अनुच्छेद 153 से 167 तक किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 153 में राज्यपाल पद का सृजन किया गया है जिसके अनुसार प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा। दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल हो सकता है। अनुच्छेद 154 यह कहता है कि राज्य को कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और राज्यपाल अपनी इस कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करता है।
राज्यपाल की नियुक्ति– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 में राज्यपाल की नियुक्ति सम्बन्धी प्रावधान किया गया है जिससे भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल को नियुक्ति की जाती है और यह नियुक्ति न तो प्रत्यक्ष मतदान के माध्यम से की जाती है और न विशेष रूप से राष्ट्रपति के लिए गठित निर्वाचन मण्डल द्वारा जो अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करता है। यह केन्द्र सरकार द्वारा नामांकित व्यक्ति होता है। हरगोविन्द बनाम रघुकुल, ए० आई० आर० 1979 सु० को० 1109 के मामले में यह धारित किया गया कि राज्यपाल का पद केन्द्रीय सरकार के अधीन नियुक्त पद नहीं है और अनुच्छेद 319 (घ) का प्रतिषेध उस पर लागू नहीं होता अतः राज्य के लोक सेवा आयोग के किसी सदस्य को राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जा सकता है। अतः राज्यपाल का पद एक स्वतन्त्र संवैधानिक गरिमा वाला पद है।
उच्चतम न्यायालय ने रामेश्वर प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 2006 सु० को० 980 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि सरकारिया आयोग द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति के लिए जो सिफारिशें की गई थीं उनका दुरुपयोग लगभग सभी सत्तारूढ राजनैतिक दलों द्वारा किया जाता रहा है। न्यायालय ने सभी राजनैतिक दलों की सहमति से इस विषय में राष्ट्रीय आम राय बनाये जाने की अपेक्षा की है। सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राज्यपाल पद पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने की सिफारिश की है यदि –
(i) वह जीवन के किसी क्षेत्र में विशेष स्थान रखता हो (He should be eminent in some walk of life);
(ii) वह व्यक्ति राज्य के बाहर का हो;
(iii) वह पृथक अस्तित्व रखता हो और क्षेत्रीय राजनीति से अभिन्न रूप से सम्बद्ध न हो (He should be a detached figure and not too intimately connected with the local politics of the state); और
(iv) वह ऐसा व्यक्ति हो जो साधारण रूप से राजनीति में बहुत अधिक भाग न लिया हो और विशेष तौर पर हाल में (recent part) राजनीति में भाग न लिया हो।
राज्यपाल के पद की योग्यताएँ – संविधान का अनुच्छेद 157 राज्यपाल के पद के लिए योग्यताओं को घोषित करता है। इसके अनुसार वही व्यक्ति राज्यपाल हो सकेगा जो इस अनुच्छेद 151 की योग्यताओं को पूरी करता है जो इस प्रकार से है –
(1) वह भारत का नागरिक हो,
(2) वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
राज्यपाल के पद के लिए शर्तें- अनुच्छेद 158 यह प्रावधान करता है कि राज्यपाल न तो किसी सदन का और न ही राज्य के विधान मण्डल का सदस्य हो सकता है यदि केन्द्र व राज्य के बीच किसी भी सदन का वह सदस्य है तो राज्यपाल के पद की शपथ लेने के पश्चात् यह समझा जाएगा कि सदन में उसका स्थान रिक्त हो गया है। राज्यपाल लाभ के किसी अन्य पद को धारण नहीं करेगा। अनुच्छेद 158 (3) के अनुसार राज्यपाल शासकीय आवास का हकदार होगा और ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों को जो संसद विधि द्वारा समय समय पर अवधारित करेगी और जब तक संसद इस बारे में कुछ नहीं कहती तब तक दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट तथ्यों के अनुसार हकदार होगा।
राज्यपाल की पदावधि– अनुच्छेद 156 यह कहता है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करेगा। सामान्यतः राज्यपाल का पद 5 वर्ष का होता है। परन्तु राष्ट्रपति किसी समय राज्यपाल को पद से हटा सकता है। इस मामले में राष्ट्रपति केन्द्र सरकार की इच्छा पर निर्भर होता है और राज्यपाल की पदावधि राष्ट्रपति के हाथ में होती है। राज्यपाल त्यागपत्र देकर भी अपने पद से हट सकता है।
संविधान के अन्य प्रावधान जो राज्यपाल को शक्तियाँ प्रदान करते हैं। अतः आगे के अनुच्छेदों को शक्तियों के रूप में वर्णित किया जा रहा है।
राज्यपाल की शक्तियाँ- भारतीय संविधान के अन्य अनुच्छेद राज्यपाल की शक्तियों के विषय में प्रावधान करते हैं। राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान ही हैं। राष्ट्रपति को कूटनीति सेवा तथा संकटकालीन शक्तियों को छोड़कर राज्यपाल की शक्तियों को चार शक्तियों में बांटा गया है जो निम्नलिखित हैं –
(1) कार्यपालिकीय शक्तियाँ;
(2) वित्तीय शक्तियाँ;
(3) विधायी शक्तियाँ तथा
(4) न्यायिक शक्तियाँ।
(1) कार्यपालिकीय शक्तियाँ (Executive Powers)- संविधान का अनुच्छेद 162 राज्य की कार्यपालिका शक्तियों का विस्तार करता है। राज्य की कार्यपालिकीय शक्ति राज्य में निहित होती है जिसका प्रयोग राज्यपाल स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करता है। राज्यों के सारे कार्य राज्यपाल के नाम पर ही किये जाते हैं। समस्त आज्ञाएँ एवं लिखित राज्यपाल के नाम विधिवत प्रभावीकृत किये जायेंगे जो उसके द्वारा बनाये गये विभागों के अनुसार किये जायेंगे तथा किसी भी आदेश या अधिकार पत्र पर जो प्रमाणीकृत है आपत्तियाँ नहीं उठायी जा सकेंगी। अनुच्छेद 166 (1), (2) के उपबन्धों का तात्पर्य है कि यदि कोई आदेश इन उपबन्धों का उल्लंघन करता है तो वह केवल इस आधार पर अवैध नहीं होगा कि राज्यपाल द्वारा व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षरित नहीं किया गया है। ऐसे विवादों में केवल इतना ही साबित करना उपयुक्त रहेगा कि अनुच्छेद 166 (3) के अधीन आदेश उचित प्राधिकार द्वारा पारित किये गये थे। यदि ऐसा नहीं होता तो अनुच्छेद 166 (2) के अधीन न्यायालय में ऐसे आदेशों की विधिमान्यता को चुनौती दी जा सकती है और यदि राज्यपाल ने इन आदेशों के प्रमाणीकरण में कानून के अनुसार पृष्ठांकन नहीं किया तो उक्त आदेश को चुनौती दी जा सकती हैं। राज्य कार्यों के सफल संचालन के लिए मंत्रियों में कार्य वितरण के लिए राज्यपाल को नियमों का निर्माण करने का अधिकार है।
(2) वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers)–राज्य में राज्यपाल की सिफारिश के बिना विधानसभा में कोई भी धन विधेयक पेश नहीं किया जा सकता। अनुदान की माँग भी राज्यपाल की संस्तुति पर की जा सकती है। विधानमण्डल के सदन या दोनों सदनों के समक्ष राज्यपाल द्वारा ही वार्षिक वित्तीय विवरण जिसे बजट भी कहा जाता है, पेश किया जाता है।
(3) विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers)- राज्यपाल को अधिवेशन बुलाने का भी अधिकार है। राज्यपाल चाहे तो एक सदन या दोनों सदनों को एक निश्चित समय एवं निर्दिष्ट स्थान पर अधिवेशन के लिए बुला सकता है, किन्तु दोनों अधिवेशनों के बीच 6 मास से अधिक का समय नहीं बीतना चाहिए। वह दोनों सदनों का सत्रावसान कर सकता है तथा विधानसभा को भंग भी कर सकता है। वह राज्य के विधानमंण्डल को सम्बोधित करता है। राज्यपाल की अनुमति के बिना भी कोई विधेयक कानून नहीं बन सकता है। वह विवेकानुसार कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए अपने पास रोक सकता है। राज्यपाल विधान परिषद् के लिए 1/6 सदस्यों को नामांकित भी कर सकता है वे सदस्य ऐसे होंगे जो साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आन्दोलन और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखते हों।
राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति (अनुच्छेद 213) – राज्यपाल की सबसे महत्वपूर्ण विधायी शक्ति अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। जब कभी विधान मण्डल सत्र में न हो और राज्यपाल को यह समाधान हो जाए कि ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाही करना आवश्यक हो तो राज्यपाल ऐसे अध्यादेश जारी कर सकता है जो उसे अपेक्षित प्रतीत हो; किन्तु निम्न मामलों में राष्ट्रपति के निर्देश के बिना राज्यपाल ‘अध्यादेश जारी नहीं कर सकता है –
(1) जिन अध्यादेशों पर राष्ट्रपति की अनुमति लेनी आवश्यक होती हो; तथा
(2) जिस पर राष्ट्रपति की सलाह की आवश्यकता है।
यह अध्यादेश सदन के समक्ष तभी रखा जायेगा जब सदन की बैठक हो रही हो। नहीं तो वह सदन के बुलाने के 6 सप्ताह बाद निष्प्रभावी हो जायेगा इससे पूर्व भी यदि दोनों सदन इसे अस्वीकृत कर दें तो वह 6 सप्ताह पूर्व भी निष्प्रभावी हो जायेगा। राज्यपाल यदि चाहे तो छः सप्ताह पूर्व अध्यादेश वापस भी ले सकता है। यहाँ ध्यातव्य हो कि राज्यपाल अपनी इस शक्ति का प्रयोग अपने विवेक से नहीं कर सकता। इस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल मंत्रि परिषद की सहायता और परामर्श से करता है इसके अलावा राज्यपाल की इस शक्ति पर कुछ सीमाएँ भी हैं –
(1) अध्यादेश तभी जारी किये जायेंगे जब विधान मण्डल का सत्र चल रहा हो।
(2) जब दोनों सदनों की बैठक हो तो अध्यादेश उनके समक्ष रखा जाना चाहिए, अन्यथा सत्र आरम्भ होने के 6 सप्ताह पश्चात् अध्यादेश निष्प्रभावी हो जायेगा, परन्तु यदि सदन की स्वीकृति हो तो यह प्रभावी रहेगा।
(3) राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति सहविस्तीर्ण है अर्थात् राज्यपाल केवल उन्हीं विषयों पर अध्यादेश जारी करेगा जिन पर विधान मण्डल विभि निर्माण कर सकता है। जैसे- राज्य सूची, समवर्ती सूची के विषय।
आर० कृष्णय्या बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य ए० आई० आर० 2005 आन्ध्र प्रदेश 10 के बाद में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि जब विधान सभा सत्र में न हो, तब राज्यपाल द्वारा किसी भी समय अध्यादेश जारी करने की अपनी शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है।
(4) न्यायिक (क्षमादान की) शक्तियाँ (Judicial Powers) – अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्यपाल को किसी अपराध के लिए सिद्धदोष किसी व्यक्ति के दण्ड को क्षमा, प्रविलम्बन, विराम या परिहार करने या दण्डादेश का प्रविलम्बन, परिहार या लघुकरण करने की शक्ति प्रदान की गयी है। राज्यपाल को यह शक्ति न्यायिक भूलों को सुधारने के लिए दी गयी है। न्यायालयों में न्याय प्रशासन का कार्य मनुष्यों द्वारा ही किया जाता है अत: उनसे भूल होना सम्भाव्य है। अपराध विधायिका द्वारा पारित किसी विधि के विरुद्ध किया गया होना चाहिए। प्रत्येक राज्य की राज्यपालिका शक्ति का विस्तार उन्हीं विषयों तक सीमित है जहाँ तक राज्य विधान मण्डल को विधि बनाने की शक्ति प्राप्त है।
प्रश्न 27. (i) जनहित याचिका से आप क्या समझते हैं? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।
What do you maen by Public Interest Litigation? Explain with the help of decided cases.
(ii) राज्य के संविदात्मक एवं दुष्कृत्यात्मक दायित्व की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
Discuss in brief Contractual and Tortious liability of State.
उत्तर-(i) जनहित याचिका (PIL).- संविधान का अनुच्छेद 32 यह उपबन्ध करता है कि बाद वही व्यक्ति ला सकता है जिसके मूल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो। इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे व्यक्ति वाद नहीं ला पाते थे जो साधन-सम्पन्न नहीं थे भले ही उनके मूल अधिकारों का अतिक्रमण हुआ हो। परन्तु उच्चतम न्ययालय ने अपने आधुनिक निर्णयों में उपर्युक्त नियम में परिवर्तन किया है और अनुच्छेद 32 के क्षेत्र का विस्तार किया है। अब कोई भी व्यक्ति या संस्था जो लोकहित प्रेरित है, मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए वाद ला सकता है। ऐसे अनेक वाद हैं जिन्हें उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने लोकहित वाद माना है –
उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत वाद– सुनील बत्रा बनाम डेलही एडमिनिस्ट्रेशन, ए० आई० आर० 1980 सु० को० 1579 के मामले में एक व्यक्ति जो आजीवन कारावास की सजा काट रहा था, जेल के एक वार्डेन द्वारा उसके साथ क्रूर एवं अमानुषिक आचरण किया जा रहा था। इसकी शिकायत एक-दूसरे कैदी ने पत्र द्वारा न्यायालय को की। न्यायालय ने इस पत्र को ही रिट मान लिया। जेल अधिकारियों को निर्देश दिया कि बन्दी के साथ निर्दयता एवं अमानुषिक आचरण बन्द किया जाय। मामले की जाँच की जाय और दोषी कर्मचारियों के खिलाफ कार्यवाही की जाय।
अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1981 सु० को० 298 नामक मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि लोकहित के संरक्षता के लिए कोई अपंजीकृत संघ भी अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत रिट के लिए आवेदन कर सकता है।
अय्यूब खाँ नूरखाँ पठान बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, ए० आई० आर० (2013) एस० सी० 58 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि लोक हित वादों का उपयोग मानव अधिकारों की सेवार्थ एवं रक्षार्थ किया जाना चाहिये। इसमें सेवा सम्बन्धी मामलों को नहीं उठाया जाना चाहिये।
एम० पी० गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 149 के बाद में एक सामाजिक संस्था ने उच्चतम न्यायालय को पत्र लिखकर यह सूचना दी कि हरियाणा राज्य के फरीदकोट जिले में पत्थर की खानों में श्रमिकों के साथ अमानवीय सलूक किया जा रहा है। उच्चतम न्यायालय ने इस पत्र को रिट मानते हुए शिकायत की जाँच करने के लिए दो दिवसीय आयोग गठित किया। आयोग ने शिकायत को सही पाया। न्यायालय ने बन्धुआ श्रमिकों को मुक्त करने का आदेश दिया और उन पर श्रमिक कल्याण सम्बन्धी विधियों को लागू करने का आदेश दिया।
पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 1473 के बाद में भी उच्चतम न्यायालय ने एक पत्र को रिट मान लिया। इसमें याचिकाकर्ता संघ ने एशियाड परियोजना में कार्य कर रहे मजदूरों को कम मजदूरी देने की शिकायत की थी। उच्चतम न्यायालय ने उचित मजदूरी भुगतान करने का आदेश देते हुए यह मत व्यक्त किया कि लोकहित के वादों में समाज का कोई भी व्यक्ति या संस्था आवेदन कर सकता है।
डी० एस० नकारा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, [ (1983) 1 SCC)] के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पंजीकृत और अपंजीकृत संघ भी लोकहित के मामले के लिए रिट दाखिल कर सकते हैं।
भीम सिंह बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर (1985) 4 SCC 677 एवं रूदल सिंह बनाम बिहार स्टेट (1983) 4 SCC 141 के मामलों में उच्चतम न्यायालय ने मामले को लोकहित का मानते हुए सरकार को नुकसानी देने का आदेश दिया।
एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1988 सु० को० 1115) के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि गंगा नदी के प्रदूषण को रोकने के लिए कोई भी व्यक्ति वाद ला सकता है क्योंकि यह लोकहित का मामला है।
पी० के० सिन्हा बनाम उड़ीसा राज्य, ए० आई० आर० 1989 सु० को० 1783 के मामले में न्यायालय ने उस समाचार को ही रिट मान लिया जो नेत्रहीन बालिका विद्यालय की लड़कियों के लैंगिक शोषण के बारे में था। न्यायालय ने इसे लोकहित का मामला मानते हुए, सरकार को जाँच करने एवं उचित प्रबन्ध का निर्देश दिया।
दिल्ली न्यायिक सेवा संघ बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, [(1991) 4 SCC 406)) इस मामले में नाडियाड के चीफ जुडीशियल जज श्री पटेल को पुलिस ने झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया था और हथकड़ी लगाकर सड़क पर घुमाया था। न्यायिक संघ ने लोकहित का वाद दायर करके न्यायालय में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा के लिए समुचित कदम उठाने की प्रार्थना की थी।
एम० सी० मेहता० बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया [ (1991) 2 SCC 137] नामक मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि दिल्ली में जो प्रदूषण पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों से फैल रहा है, उसके लिए लोकहित का वाद लाया जा सकता है।
उपर्युक्त वादों के विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि अब उच्चतम न्यायालय के द्वारा गरीब, दीन-हीन, दरिद्रों के लिए भी खुल गये हैं। अब कोई भी व्यक्ति या संस्था लोकहित के मामले के लिए वाद ला सकता है।
यह आवश्यक नहीं है कि वह उससे सम्बद्ध हो। परन्तु वाद दायर तभी किया जाना चाहिए जब मामला लोकहित का हो। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने पी० एन० कुमार बनाम नगर निगम दिल्ली, ए० आई० आर० 1988 सु० को० 1 के मामले में यह विचार व्यक्त किया कि नागरिकों को सीधे उच्चतम न्यायालय में नहीं आना चाहिए। पहले उन्हें सम्बन्धित उच्च न्यायालय में जाना चाहिए जब उन्हें वहाँ उपचार न मिले तभी उच्चतम न्यायालय में जाना चाहिए।
उत्तर- (ii) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 299 एवं 300 के अन्तर्गत राज्य के संविदात्मक एवं दुष्कृत्यात्मक दायित्व के बारे में बताया गया है।
संविदा के मामले में राज्य का दायित्व– भारतीय संविधान का अनुच्छेद 299 भारत सरकार और राज्य सरकारों को अपनी कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में किसी भी प्रयोजन हेतु कोई भी संविदा करने के लिए प्राधिकृत करता है। अनुच्छेद 299 के अधीन कोई भी संविदा भारत सरकार अथवा राज्य सरकार पर तभी आबद्धकर होगी, जब –
(1) वह स्पष्ट रूप से राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा दी गई हो;
(2) वह राष्ट्रपति या राज्यपाल की ओर से की गई हो;
(3) वह ऐसे व्यक्तियों द्वारा तथा ऐसी रीति से की गयी हो कि राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा निर्देशित और प्राधिकृत किया गया हो।
यदि उपर्युक्त शर्तों का पालन नहीं किया जाता तो संविदा अवैध होगी और सरकार पर आबद्धकर नहीं होगी।
संविदा के अन्तर्गत राज्य का संविदात्मक दायित्व उसी प्रकार है जैसा कि सामान्य संविदा विधि के अन्तर्गत किसी प्राइवेट व्यक्ति का वर्तमान संविधान में इस मामले से सम्बन्धित विधिक स्थिति में कोर्म परिवर्तन नहीं लाया गया है। राज्य का दायित्व बिल्कुल उसी प्रकार है जैसा कि सन् 1858 के पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी का था।
यद्यपि सभी संविदाएँ राष्ट्रपति या राज्य के राज्यपाल के नाम से की जाती हैं, किन्तु वै वैयक्तिक रूप से किसी संविदा के लिए उत्तरदायी नहीं होते हैं।
(2) अपकृत्य के मामले में राज्य का दायित्व – अनुच्छेद 300 यह उपबन्धित करता है कि जब तक संसद विधि द्वारा कोई अन्य उपबन्ध न करे, इस मामले में विधिक स्थिति वैसी ही होगी जैसी संविधान के प्रवर्तित होने के पूर्व थी।
संविधान के पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा बाद में परिषदों में राज्य के सचिव, जिनको भारत सरकार अधिनियम, 1858 के द्वारा भारत सरकार के अधिकारों एवं दायित्वों का हस्तान्तरण हुआ था, कर्मचारियों द्वारा उनकी सेवाओं के दौरान किये गये अपकृत्यों के लिए दायित्वाधीन हुआ करते थे। संक्षेप में, संघ और राज्यों का दायित्व वैसा ही है जैसे कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी का था।
राजस्थान सरकार बनाम विद्यावती, ए० आई० आर० 1962 सु० को० 933 के मामले में राजस्थान सरकार को एक सरकारी जीप को एक अस्थायी कर्मचारी ने वर्कशाप से मरम्मत के बाद तेजी एवं असावधानी से जीप को चलाते हुए अपने प्रभावपूर्ण चालन के फलस्वरूप एक पदयात्री को कुचल दिया। इससे पदयात्री को गम्भीर चोटें आयीं जिनके कारण वह मर गया। मृतक की पत्नी ने राजस्थान सरकार के विरुद्ध नुकसानी प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित किया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि राज्य सरकार उत्तरदायी है और नुकसानी देने के लिए बाध्य है। दुर्घटना उस समय हुई थी जबकि जीप वर्कशाप से वापस लायी जा रही थी जो कि प्रभुतासम्पन्न कार्य नहीं था। न्यायालय ने ‘स्टीम नेवीगेशन कम्पनी’ के विनिश्चय में प्रभुता सम्पन्न कृत्यों के बीच किये गये प्रभेद का अनुमोदन किया। किन्तु मुख्य न्यायाधीश श्री सिन्हा ने एक महत्त्वपूर्ण अवलोकन किया है। उन्होंने कहा कि “सम्राट अपकृत्य नहीं कर सकता” के सिद्धान्त पर आधारित सामान्य विधि का विशेषाधिकार इस देश में प्रयोजनीय तथा वैध नहीं है। यह स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि राज्य को एक अपकृत्य के लिए जो उसके सेवक द्वारा किया जाता है उसी प्रकार उत्तरदायी होना चाहिए जैसे कि एक सामान्य नियोजक। जितेन्द्र सिंह बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, ए० आई० आर० (2012) हिमाचल प्रदेश 61 के मामले में पुलिस फायरिंग में पुलिस की लापरवाही से एक व्यक्ति को गोली लग गई। इसके लिए राज्य को उत्तरदायी माना गया। राज्य संप्रभु कार्य के आधार पर अपने दायित्व से नहीं बच सकता। भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय से ही सम्प्रभु संविदाओं के मामले में वादों के संस्थित किये जाने पर उत्तरदायी ठहराये जाते रहे हैं और भारत में सामान्य विधि के अन्तर्गत आने वाले विशेषाधिकार का सिद्धांन्त कभी भी लागू नहीं हुआ है। अब हमने अपने संविधान के माध्यम से लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना की है जिसका एक उद्देश्य समाजवादी राज्य की स्थापना करना है। सिद्धान्ततः अथवा लोकहित में यह न्यायपूर्ण नहीं होगा कि राज्य अपने सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं हो। इस अवलोकन से यह स्पष्ट है कि इससे सम्बन्धित विधि अनिश्चित स्थिति में है और संसद को समुचित विधि पारित करके इसे दूर करना चाहिए। समुचित विधान के अभाव में वर्तमान विधि वही है जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय से प्रवर्तित चली आ रही है।
प्रश्न 28 निम्नलिखित विधियों के पारित होने की प्रक्रिया का संक्षेप में वर्णन करें –
(क) साधारण विधेयक
(ख) धन विधेयक
उपरोक्त विधेयक पारित करने में कार्य लोकसभा तथा राज्यसभा में मतभेद हो तो उस स्थिति में क्या होगा? उपरोक्त के सम्बन्ध में लोकसभा तथा राज्यसभा का सापेक्षिक महत्व समझाइये।
Describe the procedure of passing the following –
(1) General Bill
(2) Money Bill
What will happen when there is difference of opinion between Lok Sabha and Rajya Sabha? Discuss the relative importance of Lok Sabha and Rajya Sabha in this respect.
उत्तर- (क) साधारण विधेयक (General Bill) पारित होने की प्रक्रिया – सामान्य या साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में पेश (initiate) किये जा सकते हैं। जबकि धन विधयेक तथा वित्त विधेयक सिर्फ लोकसभा में ही पेश किये जा सकते हैं। कोई विधेयक राष्ट्रपति को अनुमति (हस्ताक्षर) के अभाव में अधिनियम नहीं बन सकता। अतः कोई विधेयक जब दोनों सदनों द्वारा एकमत से पारित हो जाता है तो राष्ट्रपति को अनुमति के लिये प्रेषित किया जाता है। साधारण विधेयक का प्रत्येक सदन में तीन बार वाचन होता है। प्रथम वाचन में मंत्रि-परिषद की अनुमति से विधेयक को सदन में पेश किया जाता है उस समय जब तक कि विधेयक विवादास्पद न हो उस पर कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता। द्वितीय वाचन के दो भाग होते हैं-(1) विधेयक के उपबंधों पर सामान्य बहस तथा (2) विधेयक के खण्ड उपखण्ड पर विचार विमर्श सामान्य बहस तब होती है जब विधेयक का प्रस्तावक सदन के समक्ष यह प्रस्ताव रखता है कि विधेयक पर विचार किया जाय अथवा उसे प्रवर समिति (select committe) को विचार के लिये सुपुर्द किया जाय। प्रवर समिति की रिपोर्ट के पश्चात विधेयक के एक-एक खण्ड पर विचार किया जाता है। इस स्थिति में विधेयक में संशोधन किये जा सकते हैं। इस प्रकार के विचार-विमर्श के पश्चात् विधेयक पर मतदान होता है। इसके पश्चात तृतीय वाचन को स्थिति आती है। तृतीय वाचन मुख्यतया औपचारिक (formal) होता है। इस वाचन में विधेयक में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया जाता सामान्य विचार-विमर्श के पश्चात् विधयेक सदन द्वारा पारित कर दिया जाता है। एक सदन द्वारा पारित कर दिये जाने पर विधेयक दूसरे सदन को प्रेषित किया जाता है। दूसरे सदन में भी वही प्रक्रिया दोहराई जाती है। दूसरा सदन यदि विधेयक को बहुमत से पारित कर देता है तो विधेयक राष्ट्रपति के अनुमति के लिये प्रेषित किया जाता है।
दोनों सदनों में यदि असहमति हो– यदि विधेयक दोनों सदनों में पारित नहीं होता तो उस विधेयक को पारित नहीं समझा जायेगा तथा दोनों सदनों में गतिरोध की स्थिति में सदन का संयुक्त सत्र (joint session) बुलाया जाता है। दोनों सदनों का सत्र अनुच्छेद 108 के अनुसार निम्न परिस्थितियों में बुलाया जायेगा-(1) यदि विधेयक को अस्वीकृत कर दिया गया है। (2) यदि विधेयक में किये गये संशोधनों पर दोनों सदन असहमत नहीं हैं। (33) यदि दूसरे सदन में विधेयक पारित किये बिना छ: मास की अवधि बीत जाती है।
परन्तु यदि विघटन (dissolution) के कारण विधेयक व्यपगत (lapse) हो जाता है सो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक नहीं बुला सकता। परन्तु यदि विघटन राष्ट्रपति द्वार संयुक्त बैठक बुलाने के पश्चात होता है तो ऐसी बैठक विघटन के बावजूद होगी। यदि कोई विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है और राष्ट्रपति को अनुमति के लिये गया। हुआ है तो वह लोकसभा के विघटन के कारण व्यपगत नहीं होगा। राष्ट्रपति की अनुमति विघटन के बाद भी मिल सकती है।
यदि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में दोनों सदनों में उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों की कुल संख्या के बहुमत से पारित हो जाता है तो वह दोनों सदनों से पारित समझा जायेगा। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में ऐसे संशोधन के सिवाय जो कि विधेयक पारित होने में देरी के कारण आवश्यक हो गये हाँ कोई अन्य संशोधन प्रस्तावित नहीं किया जायेगा।
(ख) धन विधेयक (Money Bill)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 109 के अनुसार धन विधेयक सिर्फ लोकसभा में पेश (Initiate) किया जा सकता है धन विधेयक के विषय में लोकसभा को आत्यन्तिक (absolute) अधिकार प्राप्त है। इसे राज्य सभा में पेश नहीं किया जा सकता। कोई धन विधेयक राष्ट्रपति की संस्तुति के बिना लोकसभा में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः राष्ट्रपति की संस्तुति मंत्रिमण्डल की संस्तुति ही होती है। परन्तु कर (tax) को घटाने या समाप्त करने के लिये उपबंध करने वाले किसी संशोधन को प्रमाणित करने के लिये इस खण्ड के अन्तर्गत राष्ट्रपति की संस्तुति की आवश्यकता नहीं होती।
धन विधेयक लोकसभा द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् राज्य सभा को उसकी संस्तुति के लिये प्रेषित किया जाता है। राज्यसभा द्वारा इस विधेयक को अपनी संस्तुति के पश्चात् 14 दिनों के भीतर लौटा दिया जाना चाहिये। लोकसभा राज्यसभा द्वारा की गयी संस्तुतियों में से किसी को या सभी को निरस्त कर सकती है। यदि लोकसभा राज्यसभा द्वारा की गयी संस्तुतियों में से किसी को स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक दोनों सदनों में पारित समझा जायेगा। यदि लोकसभा, राज्यसभा द्वारा की गयी संस्तुतियों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करती तो भी विधेयक पारित माना जायेगा। यदि राज्य सभा विधयेक 14 दिनों के भीतर वापस नहीं करती तो उक्त अवधि की समाप्ति के पश्चात् धन विधेयक पारित समझा जायेगा।
धन विधेयक पर लोकसभा तथा राज्यसभा में गतिरोध होने पर – धन विधेयक पर लोकसभा को अन्तिम शक्ति प्राप्त है। राज्यसभा उसे अधिक से अधिक 14 दिनों तक रोक सकती है। यदि लोकसभा तथा राज्यसभा के मध्य धन विधेयक के बारे में गतिरोध या मतभेद हैतो भी विधेयक को पारित समझा जायेगा जैसा कि लोकसभा ने उसे पारित किया था. राज्यसभा के मत या संस्तुतियों का कोई प्रभाव नहीं होगा।
धन विधेयक के बारे में खास बात यह है कि राष्ट्रपति इस पर या तो अनुमति दे या न दे उसे धन विधेयक को लौटाने का अधिकार नहीं है अर्थात् राष्ट्रपति लोकसभा द्वारा पारित करने के पश्चात धन विधेयक को लौटा नहीं सकता वह हस्ताक्षर करने को बाध्य है।
वित्त विधेयक (Financial bill) तथा धन विधेयक (Money bill) निम्न मामलों में समान हैं –
(1) दोनों सिर्फ लोकसभा में ही प्रकाशित हो सकते हैं।
(2) दोनों को प्रस्तावित होने के पूर्व राष्ट्रपति की संस्तुति आवश्यक है। अन्य मामलों में वित्त विधेयक साधारण की भाँति होता है।
प्रश्न 29. सूचना का अधिकार क्या है? इसमें लोकसभा प्राधिकारियों की बाध्यता को भी स्पष्ट करें।
What is Right to information? Explain its obligation of Public authorities.
उत्तर -सूचना का अधिकार (Right to information)-सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 2 (ब) में सूचना का अधिकार” को परिभाषित किया गया है। धारा 2 (ञ) के अनुसार, सूचना का अधिकार से इस अधिनियम के अधीन प्राप्त करने योग्य सूचना का अधिकार अभिप्रेत है जिसे किसी लोक प्राधिकारी द्वारा या उसके नियन्त्रण के अधीन धारित किया जाता है और इसमें निम्न के लिये अधिकार शामिल होता है –
(1) संकर्म (Inspection of Work), दस्तावेजों, अभिलेखों का निरीक्षण;
(ii) दस्तावेजों या अभिलेखों के नोट्स, उद्धरण या प्रमाणित प्रतियाँ लेना;
(iii) सामग्री के प्रमाणित नमूने लेना; तथा
(iv) डिस्क, फ्लापी, टेप, वीडियो कैसेट के रूप में या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक तरीके में या प्रिण्टआउट के जरिये सूचना प्राप्त करना;
जहाँ ऐसी सूचना कम्प्यूटर में या किसी अन्य उपकरण में संचित की जाती है, सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 3 के अनुसार सभी नागरिकों के पास सूचना का अधिकार होगा।
लोक प्राधिकारियों के बाध्यतायें– सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के धारा 4 के अनुसार- (1) प्रत्येक लोक अधिकारी –
(क) ऐसे तरीके और प्ररूप में अपने सभी अभिलेखों को सम्यक् रूप से सूचीबद्ध और सारणीबद्ध रखेगा, जो इस अधिनियम के अधीन सूचना का अधिकार सुगम करता है और यह सुनिश्चित करेगा कि सभी अभिलेख जो कम्प्यूटरीकृत किये जाने हेतु युक्तियुक्त हैं, युक्तियुक्त समय के भीतर और संसाधनों की उपलब्धता के अनुसार कम्प्यूटरीकृत है और पूरे देश में अलग-अलग प्रणालियों पर नेटवर्क के जरिये जुड़े हैं ताकि ऐसे अभिलेखों तक पहुँच सुगम की जा सके।
(ख) इस अधिनियम की अधिनियमिति से 120 दिनों के भीतर निम्नलिखित प्रकाशित करेगा –
इसके संगठन, कार्यों और कर्तव्यों के विवरण;
अपने अधिकारियों और कर्मचारियों की शक्तियों और कर्तव्य इसके नियंत्रण के अधीन या इसके तथ्य धारित या इसके कार्यों के निर्वहन के लिये इसके कर्मचारियों उस प्रयुक्त नियम, विनियम, निर्देश निर्देशिका और अभिलेख।
इसके अधिकारियों और कर्मचारियों की डायरेक्टरी।
महत्वपूर्ण नीतियों को विनियमित या ऐसे निर्णय, जो जनता को प्रभावित कर, घोषित करते समय सभी सम्बन्धित तथ्यों को प्रकाशित करेगा।
प्रभावित व्यक्तियों को अपने प्रशासनिक या अर्द्ध-न्यायिक विनिश्चयों के लिये कारण प्रदान करेगा।
(2) संसचूना के विभिन्न साधनों, जिनमें इण्टरनेट शामिल है, के जरिये नियमित अन्तरालों पर जनता की स्वप्रेरणा से सूचना प्रदान करने के लिये धारा 4 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) की अपेक्षाओं की अनुपालना में उपाय करना प्रत्येक लोक प्राधिकारी का लगातार प्रयास रहेगा, ताकि जनता को सूचना प्राप्त करने के लिये इस अधिनियम का न्यूनतम प्रयोग करना पड़े।
(3) धारा 4 की उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिये, प्रत्येक सूचना व्यापक रूप से और ऐसे प्ररूप तथा तरीके में प्रचारित की जायेगी जो सरलता से जनता तक पहुँच सके।
(4) सभी सामग्रियाँ लागत प्रभावित, स्थानीय भाषा और स्थानीय क्षेत्र में संसूचना का अत्यधिक प्रभावी तरीका विचारित करते हुये प्रचारित की जायेगी और सूचना केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी यथास्थिति के पास इलेक्ट्रानिक रूप में सम्भव सीमा तक सरलता से पहुँचने योग्य होनी चाहिये, जो निःशुल्क या माध्यम के ऐसे व्यय पर या मुद्रित व्यय मूल्य पर उपलब्ध होनी चाहिये, जिसे विहित किया जाये।
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