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Constitutional law First Semester Question Answer in Hindi Long Part #2 | दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर प्रथम सेमेस्टर


 प्रश्न 11. (क) भारत के राष्ट्रपति होने की अर्हताएं क्या हैं? भारत के राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है? स्पष्ट करें।

What are the qualifications of President of India? How the President of India is elected? Explain.

उत्तर – भारत एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है। गणराज्य उस शासन व्यवस्था को कहते हैं जिसका अध्यक्ष या राष्ट्रपति वंशानुगत रूप से किसी का उत्तराधिकारी होने के कारण कोई व्यक्ति नहीं बनता है।

     यद्यपि हमने इंग्लैण्ड की संसदीय प्रणाली का अनुसरण किया है। परन्तु हमारे देश का राष्ट्रपति इंग्लैण्ड की भाँति वंशानुगत रूप से उत्तराधिकार के रूप में अपना पद प्राप्त नहीं करता। इंग्लैण्ड, नेपाल, जापान आदि राष्ट्रों में राष्ट्राध्यक्ष का पद उत्तराधिकार में प्राप्त होता है। परन्तु अमेरिका, भारत, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका आदि राष्ट्रों में राष्ट्राध्यक्ष अथवा राष्ट्रपति चुनाव के उपरान्त अपना पद प्राप्त करता है। भारत ने संसदीय प्रणाली को शासन व्यवस्था अपनाई है। इसमें राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष होता है तथा वास्तविक शक्ति मंत्रिमण्डल में निहित होती है। मंत्रि-परिषद् लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। यद्यपि अनुच्छेद 53 में संघ की कार्यपालक शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है। परन्तु अनुच्छेद 74 में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वह उसका प्रयोग मंत्रि-परिषद् की सहायता तथा सलाह से ही करेगा।

    भारत के राष्ट्रपति की अहंताएँ (Qualifications of President of India) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 58 के अनुसार राष्ट्रपति पद के लिए पात्र होने के लिए निम्न अर्हताएँ आवश्यक हैं –

(I) उसे भारत का नागरिक होना चाहिए।

(2) उसे 35 वर्ष की आयु का होना चाहिए।

(3) उसे लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की अर्हता रखनी चाहिए अर्थात् उसका नाम किसी संसदीय निर्वाचन मण्डल में मतदाता के रूप में पंजीकृत होना चाहिए। (अनुच्छेद 58)

(4) उसे भारत सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन उक्त सरकारों में से किसी के अधीन नियन्त्रित किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण किये हुए नहीं होना चाहिए।

     राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, संघ या राज्य के मंत्री के पद को लाभ का पद नहीं माना जायेगा। [बाबू राव पटेल बनाम जाकिर हुसैन, ए० आई० आर० 1968 सु० को० 904]

      पी० ए० संगमा बनाम प्रणव मुखर्जी, ए० आई० आर० (2013) एस० सी० 372 का मामला लाभ के पद का एक उद्धरणीय मामला है। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में मुख्य रूप से दो प्रत्याशी थे। एक पी० ए० संगमा एवं दूसरे प्रणव मुखर्जी जिसमें प्रणव मुखर्जी को विजयी घोषित किया गया पी० ए० संगमा ने इस निर्वाचन को यह कहते हुए चुनौती दी कि नामांकन पत्र दाखिल करते समय प्रणव मुखर्जी लाभ का पद धारण किये हुए थे, अतः वे राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ सकते थे। उन्होंने कहा कि प्रणव मुखर्जी कलकत्ता की इण्डियन स्टेटिस्टिकल इन्स्टीट्यूट के चेयरमैन थे जो कि एक लाभ का पद है। उस समय प्रणव मुखर्जी लोकसभा में दल के नेता भी थे, यह भी लाभ का पद है।

     लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इन पदों को लाभ का पद नहीं माना, क्योंकि इन पदों के साथ कोई आर्थिक लाभ जुड़े हुए नहीं थे।

     भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन (Election of President of India)– भारत का उपराष्ट्रपति अप्रत्यक्ष (indirect) निर्वाचन द्वारा चुना जाता है। चूँकि संसदीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति नाम मात्र का अध्यक्ष होता है तथा वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिमण्डल में निहित होती है, अत: राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष चुनाव उचित ही है।

      राष्ट्रपति का चुनाव एक ऐसे निर्वाचन मण्डल द्वारा होता है। जिसमें (1) संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य तथा (2) राज्य की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होंगे (अनुच्छेद 54)। राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा तथा ऐसे निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका (secret ballot) द्वारा होगा (अनुच्छेद SS)। संविधान भी यह अपेक्षा करता है कि जहाँ तक व्यवहार्य हो राष्ट्रपति के निर्वाचन में विभिन्न राज्यों का एक ही मापमान होगा तथा समस्त राज्यों तथा संघ में भी ऐसी समतुल्यता का प्रयास होगा [ अनुच्छेद 55 (2)]। विभिन्न राज्यों में ऐसी एकरूपता तथा समस्त राज्यों और संघ में समतुल्यता बनाये रखने के लिए निम्नांकित फार्मूला (सूत्र) अपनाया गया है। इस फार्मूला के अनुसार किसी राज्य के विधान सभा के प्रत्येक सदस्य के उतने मत होंगे जितने कि 1000 के गुणित (multiples) उस भागफल में हो जो राज्य की जनसंख्या को उस सभा के निर्वाचित सदस्यों की सम्पूर्ण संख्या में भाग देने पर आये। यदि 1000 से उक्त गुणित के लेने के बाद शेष 500 से कम न हो (अधिक हो) तो उपखण्ड (2) में उल्लिखित प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या में एक मत और जोड़ दिया जायेगा।

राज्य विधान मण्डल के प्रत्येक सदस्य का मत =

राज्य की जनसंख्या

————————————————–  ÷ 1000

विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या

उदाहरण के रूप में यदि किसी राज्य की जनसंख्या दस करोड है तथा विधान मण्डल के सदस्यों की संख्या 500 है तो

10000000                     200000

————— ÷ 1000  =    ————  = 200

    500                              1000

राज्य विधान मण्डल के प्रत्येक सदस्य के मत की कीमत (Value) 200 है तथा उदाहरण के लिए दिये गये राज्यों के मतों की कुल संख्या = 500 × 200 = 1,00,000 होगी।

इसी प्रकार प्रत्येक संसद सदस्य के मत की कीमत (value) निम्न फार्मूले से निकाली जायेगी –

  राज्य विधान सभाओं के मतों की कुल संख्या

———————————————–    =  753

   संसद के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या

      मान लो भारत संघ की राज्य विधान सभाओं के मतों की संख्या 7530000 है तो प्रत्येक संसद सदस्यों के मतों का मूल्य 10000 मतों का होगा। इस प्रकार एक संसद सदस्य जिस व्यक्ति को मत देगा उसे 10000 मत प्राप्त होंगे तथा राज्य विधान सभा का एक सदस्य जिस व्यक्ति को मत देगा उसे 10000 मत प्राप्त होंगे। इस स्थिति में एक संसद सदस्य तथा राज्य विधान मण्डल के एक सदस्य के मत की कीमत एक समान 10000 मतों की होगी। यदि इस भाग में शेष आधे से अधिक आता है तो उसे एक मान लिया जायेगा तथा यदि आधे से कम आता है तो उसकी उपेक्षा कर दी जायेगी।

     मतगणना – राष्ट्रपति पद के किसी उम्मीदवार को निर्वाचित होने के लिए कुल मतों का 50 प्रतिशत मत प्राप्त करना अनिवार्य होता है। प्रत्येक मतदाता को सभी उम्मीदवारों को प्रथम वरीयता, द्वितीय वरीयता तथा तृतीय वरीयता या चतुर्थ वरीयता के मत देने का अधिकार है। संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व द्वारा एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा ऐसे निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होगा। यह प्रणाली निम्न तरीके से काम करती है।

     राष्ट्रपति पद के लिए ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ तथा ‘द’ चार प्रत्याशी है। वैध कुल मत्रों की संख्या जो का गणना द्वारा निकाली जायेगी 50,000 है। राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित होने के लिए उम्मीदवार को 25,001 मत प्राप्त करना होगा।

प्रथम बरोयता में अभ्यर्थियों ने निम्न प्रकार से मत प्राप्त किया :

अ = 15, 000

ब = 15, 000

स = 13, 000

द = 12, 000

कुल = 55,000 मत

    यहाँ किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत मत नहीं मिले अतः द्वितीय वरीयता के मतों की गणना के आधार पर विजयी प्रत्याशी का निर्धारण होगा। यहाँ ‘द’ को सबसे कम मत प्राप्त हुए हैं, उसे पराजित घोषित कर दिया जायेगा तथा ‘द’ के द्वितीय वरीयता प्राप्त मतों को ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ में विभाजित कर दिया जायेगा। ‘द’ को प्राप्त मतों में द्वितीय वरीयता मत ‘अ’ को 6,000, ‘ब’ को 3,000 तथा ‘स’ को 3,000 मत मिले। इन मतों का ‘अ’ को प्राप्त 15,000 + 6000 में जोड़ दिया जायेगा। ‘ब’ के मतों 15,000 3000 तथा ‘स’ को 13,000+ 3000 मत प्राप्त माने जोयेंगे। अब ‘अ’ ‘ब’ तथा ‘स’ को निम्न मत प्राप्त हैं

अ = 21,000

ब = 18,000

स = 16, 000

    परन्तु किसी को भी कुल मत 50,000 का 50 प्रतिशत 25,000 मत प्राप्त नहीं हुआ। ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ में ‘स’ को सबसे कम मत प्राप्त हुआ। अत: उसे पराजित घोषित किया जायेगा तथा ‘अ’ एवं ‘ब’ को ‘स’ को प्राप्त वरीयता के मत प्राप्त हो जायेंगे- यदि ‘स’ के प्राप्त मतों में ‘अ’ का 12,000 तथा ‘ब’ को 4000 मत प्राप्त हुए हों तो अब ‘अ’ तथा ‘ब’ को निम्न मत प्राप्त होंगे-

अ = 21000+ 12000 =  33000

ब =18000 + 4000 = 22000

    अब ‘अ’ को कुल मतों का 50 प्रतिशत 25000 से अधिक मत प्राप्त होने के कारण निर्वाचित घोषित कर दिया जायेगा।

प्रश्न 11 (ख) राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति क्या है? क्या वह कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष है? क्या इस परिप्रेक्ष्य में संविधान के 42 वें संशोधन में कोई परिवर्तन किए गये हैं? स्पष्ट करें।

What is the constitutional position of President of India? Is he real head of executive? Has constitutional 42nd amendment made any change in this regard? explain.

अथवा (or)

क्या भारत का राष्ट्रपति मात्र संवैधानिक प्रमुख है?

Whether the president of India is a mere constitutional head?

उत्तर– राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति (Constitutional Position of Presi. dent)— क्या वह कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष है। भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को स्थिति एक प्रतीकात्मक अध्यक्ष की है। यद्यपि राष्ट्र को सभी कार्यपालक तथा विधायी शक्ति तथा न्यायिक शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है परन्तु वह सांविधानिक प्रावधानों के अनुसार अपनी सभी कार्यपालक, विधायी तथा न्यायिक शक्तियों का प्रयोग मंत्रिमण्डल की सलाह तथा संस्तुति पर हो करेगा। राष्ट्रपति सेना के तीनों अंगों का सर्वोच्च कमाण्डर होता है। संघ को सभी कार्यपालक शक्तियाँ उसी में निहित होती हैं। देश विदेश के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं। वह ‘क्षमादान’ भी कर सकता है। संसद का कोई भी विधेयक उसके हस्ताक्षर के बिना विधि का रूप नहीं ले सकता तथा सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति उसी के हस्ताक्षर तथा उसी के नाम से सम्पादित होती हैं। परन्तु इन सभी कार्यों को वह अपने विवेक से सम्पादित न करके मंत्रिमण्डल की सलाह तथा संस्तुति पर ही करेगा। ऐसा प्रावधान भारतीय संविधान करता है। संविधान का अनुच्छेद 74 यह उपबन्ध करता है कि राष्ट्रपति को अपने कृत्यों का सम्पादन करने हेतु सहायता तथा मंत्रणा के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा। अनुच्छेद 75 यह उपबन्धित करता है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्ति करेगा तथा अन्य मंत्रियों को नियुक्ति वह प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा अनुच्छेद 75 खण्ड (2) के अनुसार मंत्रीगण राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त (During pleasure) या राष्ट्रपति जब तक चाहेगा तब तक अपने पद पर बने रहेंगे। अनुच्छेद 75 खण्ड (3) यह स्पष्ट करता है कि मंत्रि परिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।

     एस० पी० गुप्ता तथा अन्य बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 19 में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि मंत्रिमण्डल द्वारा राष्ट्रपति को दी गई परामर्श न्यायिक जाँच से परे है, परन्तु जिन आधारों पर परामर्श दी गई है उसकी न्यायिक जाँच हो सकती है। यद्यपि यह संवैधानिक प्रावधान है कि राष्ट्रपति को मंत्रिमण्डल की सलाह से काम करना चाहिए परन्तु अनुच्छेद 53 की शब्दावली में यह कहीं उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल की सलाह से बाध्य है। अनुच्छेद 74 खण्ड (2) के प्रावधान इस मत को समर्थन देते हैं जिसके अनुसार इस प्रश्न पर कि कोई मंत्रणा मंत्रियों द्वारा राष्ट्रपति को दी गई है अथवा नहीं, जाँच के विषय से परे हैं। यदि राष्ट्रपति इस मंत्रणा के बिना कार्य करता है तो इस पर आपत्ति नहीं उठायी जा सकती। इस व्याख्या के आधार पर यह कहा सकता है कि राष्ट्रपति कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है। यदि वह चाहे तो तानाशाह बन सकता है। परन्तु यदि हम अपने संविधान की पृष्ठभूमि पर विचार कर संविधान द्वारा अपनाई गई संसदीय शासन प्रणाली की परम्पराओं पर विचार करे तो उपरोक्त मत सही नहीं है। संसदीय शासन प्रणाली का मूल सिद्धान्त यह है कि राष्ट्र का प्रधान, संवैधानिक प्रधान होता है तथा वास्तविक शक्ति जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की मंत्रि-परिषद् में निहित होती है।

     शमशेर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए० आई० आर० 1974 सु० को० 2192 नामक वाद में उच्चतम न्यायालय ने एस० पी० गुप्ता बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 19 नामक मामले में प्रकट किये गये विचारों से भिन्न विचार प्रकट किये थे। एस० पी० गुप्ता नामक मामले में शमशेर सिंह के मामले के निर्णय को उच्चतम न्यायालय ने पलट दिया था। सही स्थिति शमशेर सिंह नामक वाद में दिये गये निर्णय की थी।

     इस विपरीत मत या विचारधारा को समाप्त करने के लिए सन् 1976 में 42वाँ संविधान संशोधन किया गया। 42वें संशोधन द्वारा स्पष्ट कर दिया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य है। इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 74 में राष्ट्रपति ऐसी मंत्रणा के अनुसार कार्य करेगा”- शब्दावली समाविष्ट की गई। यह पदावली स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट कर देती है। इस संशोधन द्वारा राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति के बारे में जो विवाद चल रहा था, उसे समाप्त कर दिया गया। 42वें संशोधन के पूर्व एस० पी० गुप्ता नामक बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन मंत्रिमण्डल के मन में यह सन्देह था कि राष्ट्रपति इस निर्णय का लाभ उठाकर मंत्रिमण्डल की सलाह मानने से इन्कार न कर दें। अतः 42वें संशोधन द्वारा स्थिति स्पष्ट कर दी गई। इस सन्देह को बल तब मिला जब तत्कालीन कार्यवाहक राष्ट्रपति बी० डी० जत्ती ने 42वें संशोधन के पश्चात् मंत्रिमण्डल की सलाह को मानने से इन्कार कर दिया था। 42वें संशोधन के उपबन्ध के कारण यह संकट टल गया। यहाँ कांग्रेसी मंत्रिमण्डल ने 9 विधान सभाओं को भंग करने की राष्ट्रपति को सलाह दी थी तथा मामले की गम्भीरता को समझते हुए आनाकानी के पश्चात् राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिया था।

     44 वाँ संशोधन- सन् 1978 में 44 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 74 के अन्त में एक परन्तुक जोड़ा गया। इस परन्तुक द्वारा राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिमण्डल की सलाह मानने के बिन्दु पर संशोधन किया गया तथा यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति को यह अधिकार होगा कि वह मंत्रिमण्डल द्वारा दी गई सलाह को सामान्य तौर पर माने परन्तु यदि राष्ट्रपति वह मंत्रिमण्डल की सलाह से असहमत है तो वह मंत्रिमण्डल की सलाह को पुनर्विचार के लिए लौटा दे। यदि मंत्रिमण्डल पुनर्विचार के पश्चात् पुनः राष्ट्रपति को सलाह देता है तो राष्ट्रपति उस सलाह को मानने के लिए बाध्य है। अभी सन् 1999 में बाजपेयी मंत्रिमण्डल ने बिहार सरकार को भंग करके बिहार में राष्ट्रपति शासन की सलाह दी थी जिसे राष्ट्रपति ने पुनः विचार के लिए लौटा दिया था। बाजपेयी मंत्रिमण्डल ने पुनर्विचार न कर मामले को ठण्डे बस्ते में डाल दिया था।

      सारांश में यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसका पद महत्वहीन है। वह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। वह शासन संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक निष्पक्ष व्यक्ति होने के नाते मंत्रि-परिषद् के निर्णयों पर काफी प्रभाव डाल सकता है तथा वह मंत्रिमण्डल को उचित सलाह दे सकता है। ये सब बातें बहुत हद तक उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करती हैं।

     42वें तथा 44वें संशोधन के पश्चात् यह सोचना कि राष्ट्रपति एक कठपुतली मात्र है, सत्य नहीं। यद्यपि उसके विशेषाधिकार का क्षेत्र अत्यन्त सीमित हो गया है तथापि ऐसी परिस्थितियाँ हैं जहाँ राष्ट्रपति की शक्ति पर उपर्युक्त संशोधन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है तथा इन मामलों में मंत्रिमण्डल के परामर्श से कार्य करने के लिए वह विधिक रूप से बाध्य नहीं है।

प्रश्न 12. भारत के राष्ट्रपति की कार्यपालिका तथा विधायी शक्तियों की संक्षिप्त विवेचना करें।

Describe in brief the Executive and Legislative Powers of President of India.

उत्तर- राष्ट्रपति की शक्तियाँ (Powers of President)- संविधान द्वारा राष्ट्रपति को प्रदश शक्तियों को हम निम्नलिखित भागों में बाँट सकते हैं –

(1) कार्यपालिकीय शक्ति

(2) सैनिक शक्ति

(3) कूटनीतिक शक्ति,

(4) विधायी शक्तिः

(5) न्यायिक शक्ति,

(6) आपातकालीन शक्ति

(1) कार्यपालिकीय स्थिति (Executive Power)- भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति को वृहद शक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। राष्ट्रपति भारतीय गणतन्त्र का प्रधान है। भारत सरकार की समस्त कार्यपालिकीय कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की जाती है (अनुच्छेद 77 )। वह देश के सभी उच्चाधिकारियों की नियुक्ति करता है। जैसे प्रधानमंत्री, मंत्रिमण्डल के सदस्यों की, उच्चतम तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की, राज्य के राज्यपालों की भारत के महान्यायवादी, भारत के नियन्त्रक महालेखा परीक्षक, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा लोक सेवा आयोग के सदस्यों आदि की। उसे इन उच्च अधिकारियों के पच्युति का भी अधिकार है परन्तु ऐसा उसे विहित (Prescribed) प्रक्रिया के अनुसार ही करना होगा। परन्तु राष्ट्रपति अपनी सभी कार्यपालिक शक्तियों का प्रयोग मंत्रि-परिषद की सलाह तथा संस्तुति के अनुसार ही करेगा।

(2) विधायी शक्ति (Legislative power) – राष्ट्रपति केन्द्रीय विधान मण्डल का एक आवश्यक अंग है। सिद्धान्ततः उसे वृहद विधायी शक्ति प्राप्त परन्तु व्यवहारतः उन शक्तियों का प्रयोग वह मंत्रि-परिषद् के परामर्श से करता है। राष्ट्रपति संसद के सत्र को आहूत करता है तथा सत्रावसान करता है। वह लोकसभा का विघटन कर सकता है। प्रत्येक सत्र के आरम्भ में राष्ट्रपति दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को सम्बोधित करता है जिसमें वह सरकार की नीतियों तथा भावी कार्यक्रमों का विवरण देता है अनुच्छेद 87 (1)। किन्तु यह अभिभाषण राष्ट्रपति का व्यक्तिगत अभिभाषण न होकर मंत्रिमण्डल द्वारा तैयार किया जाता है। वह संसद के किसी सदन को सन्देश भेज सकता है।

     दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात् ही अधिनियम का स्वरूप धारण करता है। यदि कोई विधेयक धन विधेयक नहीं है तो वह उसे अपने सुझाव के साथ पुनः विचारार्थ लौटा सकता है। नये राज्यों के निर्माण तथा वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों या सीमाओं या नाम परिवर्तन के लिए कोई विधेयक राष्ट्रपति की संस्तुति के बिना संसद में पेश नहीं किया जा सकता। व्यापार, वाणिज्य की स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण लगाने वाला राज्य का कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना राज्य विधान सभा में पेश नहीं किया जायेगा। राष्ट्रपति को राज्यसभा के सदस्यों का नाम निर्देशित करने का अधिकार है।

    राष्ट्रपति की अध्यादेश प्रख्यापित करने की शक्ति (Power of President to Issue Ordinance)- राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों में उसकी अध्यादेश जारी करने की शक्ति सबसे महत्वपूर्ण है। संविधान का अनुच्छेद 123 यह प्रावधान करता है कि जब संसद के दोनों सदन सत्र में न हों तथा राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाये कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनमें तुरन्त कार्यवाही करना आवश्यक हो गया है तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर पायेगा जो उसे उक्त परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हो। राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये अध्यादेशों का वही बल और प्रभाव होगा जो संसद द्वारा पारित अधिनियम का प्रत्येक अध्यादेश का जीवन काल छः मास होगा यदि वह जारी होने के छः मास के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित (अनुमोदित) नहीं कर दियां जाता, वह छः मास के पश्चात् स्वयमेव समाप्त हो जायेगा। राष्ट्रपति अपने द्वारा जारी किये गये अध्यादेश को कभी भी समाप्त कर सकता है। राष्ट्रपति उन्हीं विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकता है। जिन पर संसद को विधायन की शक्ति प्राप्त है। यदि राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश ऐसे उपबन्ध करता है जिस पर संसद को विधायी शक्ति नहीं है तो ऐसा अध्यादेश शून्य होगा। इस प्रकार किसी अध्यादेश द्वारा मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 13 (क) के अधीन विधि शब्द के अन्तर्गत अध्यादेश भी सम्मिलित है। एक सदन का सत्र में हीना अध्यादेश जारी करने में बाधक नहीं है क्योंकि कानून बनाने के लिए एक सदन संसद नहीं है। (अनुच्छेद 79, 111) राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करने की औचित्यता को न्यायालय में साबित करने के लिए बाध्य नहीं है। न्यायालय अध्यादेश जारी करने के कारणों की जाँच नहीं कर सकते। लक्ष्मी नारायण बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1950 L.G.V. 32. यदि अध्यादेश जारी करने के उद्देश्य से संसद के सत्र का स्थगन कर दिया जाता है तो यह अवैध नहीं होगा। न्यायालय द्वारा किसी विधि को अवैध घोषित किये जाने की परिस्थिति में स्थिति से निपटने के लिए अध्यादेश जारी किया जा सकता है। अध्यादेश द्वारा विधियों में संशोधन तथा परिवर्तन किया जा सकता है क्योंकि अध्यादेश जारी करने की शक्ति संसद की विधायी शक्ति से सह विस्तीर्ण है। अध्यादेश को नैतिकता के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती परन्तु उसे अस्पष्टता, मनमाना प्रयोग, युक्तियुक्तता तथा जनहित के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। विश्व की किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में इस प्रकार का प्रावधान नहीं है।

     संक्षेप में डॉ० पी० के० त्रिपाठी के शब्दों में कहा जाय तो अध्यादेश संसद के नाम राष्ट्रपति द्वारा लिखी हुई एक विधायी हुण्डी है जो इस विश्वास के साथ लिखी जाती है कि संसद इसका भुगतान कर देगा। ऐसा विश्वास करने का समुचित आधार इसलिए होता है कि अध्यादेश मंत्रि-परिषद् की सहायता तथा सलाह से प्रभावित किया जाता है तथा संसद में मंत्रि-परिषद् को बहुमत प्राप्त होता है।

    भारत का राष्ट्रपति तथा उसका मंत्रिमण्डल (President and its Council of Ministers)– भारतीय संविधान का अनुच्छेद 74 (1) यह उपबन्ध करता है कि उसके कृत्यों का संचालन करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्री है। अनुच्छेद 75(1) के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा। अन्य मंत्रियों को नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा अनुच्छेद 75 (2) के अनुसार मंत्रीगण राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त (during the pleasure) या राष्ट्रपति जब तक आहेगा तब तक पद धारण करेंगे। अनुच्छेद 75 खण्ड (2) के अनुसार मंत्रिमण्डल लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगा। मंत्रीगण तथा प्रधानमंत्री सदन के किसी भी सदन का सदस्य हो सकते हैं। यदि कोई मंत्री या प्रधानमंत्री अपनी नियुक्ति के समय किसी सदन का सदस्य नहीं है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी नियुक्ति की तिथि से छः माह के अन्दर किसी सदन का सदस्य हो जाय। इन्दिरा गाँधी राज्यसभा की सदस्य होते हुए प्रधानमंत्री के पद पर थीं। देवगौड़ा तथा गुजराल अपनी नियुक्ति के समय किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे तथा बाद में सदन की सदस्यता ग्रहण की थी।

    राष्ट्रपति की विवेकीय शक्ति (Discretionary Power of President) – संविधान के कतिपय अनुच्छेदों में राष्ट्रपति का विवेक’ शब्दावली का प्रयोग किया गया है। सामान्यत: विवेक से तात्पर्य अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर काम करने से लगाया जाना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने की छूट प्राप्त है तो यह कहा जायेगा कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार विवेक का अर्थ अपनी निर्णय शक्ि अनुसार स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करना है परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं है। कोई भी व्यक्ति विवेकाधीन शक्ति के अन्तर्गत मनमाने ढंग से अयुक्तियुक्त रूप से कार्य नहीं कर सकता। ‘राष्ट्रपति के विवेक’ शब्दावली की व्याख्या का प्रश्न शमशेर सिंह बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1974 सु० को० 2192 नामक वाद में उठा था। इस मामले में शमशेर सिंह पंजाब राज्य में अधीनस्थ न्यायाधीश के पद पर नियुक्त थे। वे परिवीक्षा (Probation) में चल रहे थे। राज्यपाल के एक आदेश के अन्तर्गत उनको सेवाएँ समाप्त कर दी गई थीं। पदमुक्ति का आदेश विभागीय मंत्री द्वारा जारी किया गया था। अपीलकर्त्ता का यह तर्क था कि संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति और राज्यपाल में वास्तविक कार्यपालिका शक्ति निहित है और वे इसका प्रयोग अपने विवेक से तथा स्वयं करते हैं। इन शक्तियों का प्रत्यायोजन नहीं किया जा सकता। उच्चतम न्यायालन ने यह निर्णीत किया कि अधीनस्थ न्यायालयों में कार्यरत न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति तथा पद मुक्ति करने की शक्ति कार्यपालिका में है जिसका प्रयोग राष्ट्रपति तथा राज्यपाल अपने मंत्रिमण्डल की सलाह, पर करते हैं। वे इनका प्रयोग मंत्रि-परिषद् की सलाह के बिना या उसकी सलाह के विरुद्ध नहीं कर सकते। जहाँ कहीं भी संविधान में राष्ट्रपति का विवेक या राज्यपाल का विवेक शब्दावली का प्रयोग किया गया है उसका अभिप्राय उनके व्यक्तिगत समाधान (Personal satisfaction) से नहीं वरन् मंत्रिपरिषद् के समाधान से है जिसकी सहायता और मंत्रणा पर राष्ट्रपति या राज्यपाल अपनी समस्त शक्तियों और कार्यों का प्रयोग करते हैं। चूँकि मंत्रियों या अधिकारियों का निर्णय राष्ट्रपति या राज्यपाल का ही निर्णय होता है अतः उसे कार्यों का प्रत्यायोजन (Delegation) नहीं कहा जा सकता। उच्चतम न्यायलाय ने इस वाद में सरदारी लाल बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1971 सु० को० 1545 नामक वाद के निर्णय को पलट दिया जिसमें यह निर्णय व्यक्त किया गया था कि राष्ट्रपति अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग अपने व्यक्तिगत समाधान पर करता है उसके विवेकाधीन कार्यों का प्रत्यायोजन (Delegation) नहीं हो सकता।

    परन्तु सन् 1976 में किये गये 42वें संशोधन ने स्थिति स्पष्ट कर दी। इस संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य है परन्तु सन् 1978 में किये गये 44वें संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति को यह अधिकार होगा कि वह मंत्रिमण्डल की सलाह को माने या पुनर्विचार के लिए लौटा दे। परन्तु पुनर्विचार के पश्चात् मंत्रिमण्डल जो सलाह राष्ट्रपति को देता है, उसे स्वीकार करने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है।

प्रश्न 13. भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति को निम्न सन्दर्भों में प्राप्त शक्ति की विवेचना सम्बन्धित वादों की सहायता से करें –

(i) एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की दूसरे उच्च न्यायालय बिना उसकी सहमति के स्थानान्तरण करना।

(ii) एक ऐसे मंत्रिमण्डल को बर्खास्त करना जिसे लोक सभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त है।

(iii) संसद के दोनों सदनों के सत्र प्रारम्भ होने के पूर्व अध्यादेश जारी करना ।

(iv) किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की विवादास्पद आयु का निर्धारण करना ।

With the help of decided cases discuss the power of President of India with reference of following:

(i) The transfer of a judge of High Court against his will.

(ii) To dismiss such cabinet which enjoys the confidence of both the Houses of Parliament.

(iii) To issue ordinance just before begining of sesssion of Parliament.

(iv) To decide the dispute about age of a judge of High Court

उत्तर-(i) क्या राष्ट्रपति एक न्यायाधीश को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में उसकी सहमति (रजामंदी) के बिना स्थानान्तरित कर सकता है – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 222 खण्ड (1) के अनुसार राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करें किसी न्यायाधीश का एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में स्थानान्तरण कर सकता है। यह प्रश्न उच्चतम न्यायालय के समक्ष सर्वप्रथम भारत संघ बनाम सांकल चन्द्र हिम्मत लाल सेठ, ए० आई० आर० 1977 सु० को० 2328 नामक वाद में उठा। इस बाद में सांकल चन्द्र एच सेठ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे। उनका गुजरात उच्च न्यायालय से स्थानान्तरण कर दिया गया था। प्रत्यर्थी ने याचिका के माध्यम से राष्ट्रपति के आदेश को गुजरात उच्च न्यायालय में चुनौती दी। गुजरात उच्च न्यायालय ने बहुमत (2 : 1) से यह निर्णय दिया कि राष्ट्रपति का स्थानान्तरण आदेश इसलिए अवैध नहीं है कि वह प्रत्यर्थी की सहमति से जारी नहीं किया गया है परन्तु इसलिए अवैध है कि राष्ट्रपति ने स्थानान्तरण के लिए भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श नहीं किया था। अपील में उच्चतम न्यायालय ने स्थानान्तरण आदेश के पीछे निजी औचित्य का अभाव पाकर प्रत्यर्थी को वापस गुजरात उच्च न्यायालय में नियुक्त करना स्वीकार किया। अत: उभय पक्षों के मध्य समझौते के परिणामस्वरूप याचिका वापस ले ली गई। इस बाद में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का एक उच्च न्यायालय से दूसरे न्यायालय में स्थानान्तरण के लिए तीन शर्तें निर्धारित थीं –

(1) यह स्थानान्तरण सार्वजनिक हित में होना चाहिए।

(2) राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श किया जाना आवश्यक है।

(1) भारत के मुख्य न्यायाधीश को यह मानकर निर्णय या संस्तुति देनी चाहिए कि वह भारत के राष्ट्रपति तथा प्रश्नगत उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के प्रति समान रूप से कर्त्तव्यबद्ध है।

     एस० पी० गुप्ता बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1982 सु० को० 149 जिसे न्यायाधीश स्थानान्तरण वाद के नाम से जाना जाता है, उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि स्थानान्तरण के पूर्व सम्बन्धित न्यायाधीश से सहमति लेना आवश्यक नहीं है तथा यह भी कि अनुच्छेद 222 (1) दण्ड के रूप में स्थानान्तरण की अनुमति नहीं देता। अत: स्थानान्तरण जनहित में ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार एस० पी० गुप्ता नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने सांकल चन्द के पूर्ववर्ती निर्णय का समर्थन किया।

     सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोशियेशन बनाम भारत संघ, (1993) 4 एस० सी० सी० 441 नामक बाद में भी उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानान्तरण पर उच्चतम न्यायालय द्वारा उक्त वादों में लगाई गई शर्तों को स्वीकार किया तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश के अभिमत को वरीयता दी के० अश्येन रेड्डी बनाम भारत सरकार, (1994) 2 एस० सी० सी० 303 नामक वाद में भी उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय की पुष्टि की। अतः यह कहा जा सकता है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में उसकी सहमति के बिना राष्ट्रपति द्वारा स्थानान्तरण किया जाना अवैध नहीं है बशर्ते यह स्थानान्तरण जनहित में किया गया हो तथा उसके लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लिया गया हो।

उत्तर- (ii) क्या ऐसे मंत्रिमण्डल को बर्खास्त किया जा सकता है जिसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त हो – सन् 1987 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री जैल सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के मध्य बोफोर्स तोप दलाली के मामले को लेकर सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गए थे। उनके मध्य संविधान के अनुच्छेद 74 तथा अनुच्छेद 78 को लेकर भी विवाद था। अनुच्छेद 78 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह प्रशासन सम्बन्धित जानकारी प्रधानमंत्री से माँगे। प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कहा था कि उन्होंने पूरी जानकारी राष्ट्रपति को दी थी जबकि राष्ट्रपति इस तथ्य से इन्कार कर रहे थे। इस आधार पर कहा गया था कि प्रधानमंत्री ने संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना की थी। अतः राष्ट्रपति उन्हें बर्खास्त कर दें।अनुच्छेद 74 के अनुसार, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह पर ही कार्य करता है।

    भारतीय संविधान में इस बारे में ही स्पष्ट उपबन्ध नहीं है कि क्या राष्ट्रपति उस प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर सकता है जिसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त हो परन्तु सभी विधिवेत्ताओं (डायसी तथा जेनिंग्स) की यह राय है कि राष्ट्रपति उस प्रधानमंत्री को बर्खास्त नहीं कर सकता जिसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त हो क्योंकि यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के द्वारा अभिव्यक्त मंत्रिमण्डल की सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य है तथा कोई भी मंत्रिमण्डल राष्ट्रपति को यह सलाह नहीं देगा कि उसे बर्खास्त कर दिया जाय। संयोगवश ज्ञानी जैल सिंह तथा राजीव गाँधी के मध्य उपरोक्त विवाद अपने आप बिना किसी कार्यवाही के समाप्त हो गया।

उत्तर- (iii) संसद के दोनों सदनों के प्रारम्भ होने से पूर्व क्या राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर सकता है- राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करने से सम्बन्धित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 123 के अन्तर्गत है। अनुच्छेद 123 के अनुसार जब संसद के दोनों सदन सत्र में नहीं तथा राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाये कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जिनमें तुरन्त कार्यवाही करना आवश्यक हो तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उक्त परिस्थितियों में अपेक्षित प्रतीत हों।

   इस प्रकार राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी किये जाने के लिए निम्न दो शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं –

(1) संसद के दोनों सदन सत्र में न हों।

(2) राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाय कि ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं कि जिनमें तुरन्त कार्यवाही किया जाना आवश्यक है।

     इस प्रकार यदि ये दोनों शर्तें पूरी हैं तो राष्ट्रपति संसद के सत्र प्रारम्भ होने से पूर्व अध्यादेश जारी कर सकता है। राष्ट्रपति द्वारा उस अध्यादेश के अन्तर्गत वे सभी प्रावधान किये जा सकते हैं जो संसद यदि सदन सत्र में होता तो करती। इस प्रकार राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने की शक्ति संसद की विधायी शक्ति के सहविस्तीर्ण (Coextensive) है। राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गए आदेश को अनैतिकता के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है। अध्यादेश जारी करने की परिस्थितियाँ हैं अथवा नहीं। इसका निर्धारण न्यायालय को नहीं करना है अपितु राष्ट्रपति को करना है। यहाँ तक कि यदि अध्यादेश जारी करने के उद्देश्य से संसद के सत्र का स्थगन कर दिया जाता है तो यह अवैध नहीं होगा।

उत्तर- (iv) क्या किसी न्यायाधीश की विवादास्पद आयु का निर्धारण राष्ट्रपति कर सकता है- उच्च न्यायालय का न्यायाधीश 62 वर्ष तक की उम्र तक अपने पद पर बना रहेगा। इससे पूर्व वह त्यागपत्र के माध्यम से अपना पद त्याग सकता है या उसे उसके पद से हटाया भी जा सकता है।

    यदि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु के बारे में कोई विवाद या प्रश्न उठता है। तो उसे मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा विनिश्चित किया जायेगा तथा ऐसे में राष्ट्रपति का निर्णय अन्तिम होगा। अनुच्छेद 217 (3)

    आनन्द कुमार जैन बनाम कत्तैल भास्करम, (1988) 2 एस० सी० सी० 50 नामक बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु का प्रश्न जब भारत के राष्ट्रपति के हाथ से निकलकर भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय के लिए उन्हें सन्दर्भित कर दिया जाता है तब यह प्रश्न अनुच्छेद 74 के अधीन मंत्रिपरिषद् की सलाह तथा सहायता देने की अधिकारिता से बाहर हो जाता है। इस सम्बन्ध में अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत याचिका जारी नहीं हो सकती।

प्रश्न 14. मंत्रि परिषद् में प्रधानमंत्री की स्थिति तथा उसकी शक्तियों की विवेचना कीजिए।

Discuss the position and powers of the Prime Minister in Council of Ministers?

अथवा (or)

भारत के प्रधानमंत्री पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिए।

Write a critical note on the Prime Minister of India.

उत्तर – प्रधानमंत्री मंत्रि-परिषद का प्रधान होता है और यह मंत्रि-परिषद् राष्ट्रपति के कार्यों के संचालन करने तथा उन्हें मंत्रणा देने में सहायता करती है। मंत्रि-मण्डल (Cabinet) मंत्रि-परषिद् की एक छोटी इकाई है। हमारे संविधान में मंत्रिमण्डल शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है। फिर भी मंत्रिमण्डल का अस्तित्व है। मंत्रि परिषद् में तीन श्रेणी के मंत्री आते हैं

(1) कैबिनेट स्तर के मंत्री

(2) राज्य मंत्री तथा

(3) उपमंत्री

     सभी कैबिनेट मंत्री अपने-अपने विभागों के अध्यक्ष होते हैं परन्तु सभी कैबिनेट मंत्री, मंत्रि परिषद् के सदस्य नहीं होते हैं। मंत्रि परिषद् के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती है और उसी के द्वारा सदस्यों की पदच्युति भी की जाती है। इस प्रकार अपने सहयोगियों के चुनाव में प्रधानमंत्री का निर्णय ही अन्तिम होगा।

प्रधानमंत्री की नियुक्ति – प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है जबकि अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की मंत्रणा पर करने के लिए बाध्य होता है। परन्तु प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति कदाचित ही अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है अर्थात् प्रधानमंत्री की नियुक्ति में वह (राष्ट्रपति) मनमानी नहीं कर सकता है। प्रधानमंत्री लोकसभा के बहुमत दल का नेता होता है तथा उसका विवेकाधिकार एक सुनिश्चित सांविधानिक परिपाटी (Convention) द्वारा परिसीमित है। भारत में ब्रिटिश कैबिनेट प्रणाली को अपनाया गया है जो रूढ़ियों के आधार पर कार्य करती है। मंत्रि परिषद् लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है इसलिए कोई ऐसा ही व्यक्ति प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाना चाहिए जिसे लोक सभा के बहुमत का विश्वास प्राप्त हो। संक्षेप में राष्ट्रपति केवल उसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है जो या तो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो, या जो लोकसभा के बहुमत दल का विश्वास प्राप्त करने की स्थिति में हो। इसका उदाहरण सन् 1984 में जब प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की उग्रवादियों द्वारा हत्या कर दी गयी थी तो कांग्रेस पाटी के वरिष्ठ नेताओं ने श्री राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री नियुक्त करने की सिफारिश की और राष्ट्रपति ने उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त किया क्योंकि श्री राजीव गाँधी को लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त है। अतः राष्ट्रपति द्वारा उनकी नियुक्ति पूर्णतः सांविधानिक है।

प्रधानमंत्री की स्थिति एवं शक्तियाँ – प्रधानमंत्री मंत्रिमण्डल का नेता होता है। मंत्रिमण्डल की उपयोगिता पर सर जान मेरियट ने कहा कि-“मंत्रिमण्डल वह धुरी है जिस पर प्रशासन का चक्र घूमता रहता है।”

    अन्य मंत्रियों की नियुक्ति में प्रधानमंत्री की सलाह– वैसे तो प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है परन्तु अन्य मंत्रियों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री की सलाह पर बाध्य होता है। यह परिपाटी इंग्लैंड में सुस्थापित रूढ़ि से ली गई है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन में प्रचलित सांविधानिक परिपाटियों पर विशेष बल दिया था परन्तु संविधान में इसे स्पष्ट नहीं किया था फलस्वरूप संविधान में कुछ ऐसे उपबन्ध बनाये जिसमें प्रधानमंत्री की सलाह को राष्ट्रपति के लिए आवश्यक समझा गया। ये उपबन्ध निम्नलिखित हैं –

(1) मंत्रिपरिषद लोक सभा के प्रति उत्तरदायी है- मंत्रिपरिषद् लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होती है यदि राष्ट्रपति ऐसी मंत्रिपरिषद् के परामर्श की उपेक्षा करता है जिसको लोक सभा में बहुमत प्राप्त है तो वह त्यागपत्र दे देगी और इस प्रकार राष्ट्र में एक सांविधानिक संकट उत्पन्न हो जाता है। संविधान के अनुसार उसे अपने परामर्श के लिए एक मंत्रि परिषद् को रखना एक बाध्यता है।

(2) महाभियोग का आरोप– यदि राष्ट्रपति ऐसे मंत्रिपरिषद को अपदस्थ कर देता है जिसे लोक सभा में बहुमत प्राप्त है तो मंत्रिमण्डल उसके विरुद्ध महाभियोग का आरोप लगाकर उसे संसद में पारित करके हटा सकता है। इस आधार पर कि राष्ट्रपति संविधान का अतिक्रमण कर रहे हैं।

(3) कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद में निहित होती है – संविधान के संचालन से यह स्पष्ट है कि वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित होती है। न्यायपालिका ने भी अपने निर्णयों में इसी मत का अनुमोदन किया है तथा यह धारित किया है कि हमारे संविधान में संसदीय सरकार प्रणाली को स्वीकार किया गया है। यू० एन० राय बनाम इन्दिरा गाँधी, (ए० आई० आर० 1901 एस० सी० 1002) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि लोक सभा के विघटन हो जाने पर भी मंत्रिपरिषद् समाप्त नहीं होती। मंत्रि परिषद् प्रत्येक दशा में बनी रहती है और राष्ट्रपति को सलाह देती रहती है। लोकसभा के विघटन के पश्चात मंत्रिमण्डल एक पूर्ण मंत्रिमण्डल होता है और वह सभी विषयों पर निर्णय लेने के लिए सक्षम होता है।

      42 वाँ संविधान संशोधन– 42 वे संविधान संशोधन 1976 द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य है। परन्तु 44वाँ संविधान संशोधन 1978 मंत्रिमण्डल के अधिकारों को सीमित करते हुए यह स्पष्ट करता है कि मंत्रिमण्डल द्वारा दी गयी सलाह को सामान्य तौर से माने या अन्यथा, उनकों मंत्रिमण्डल के पुनर्विचार के लिए लौटा दे। किन्तु यदि पुनर्विचार के पश्चात् उसे सलाह दी जाती है तो वह उसे मानने के लिए बाध्य होगा।

    मंत्रिमण्डल की बैठकों का सभापतित्व– प्रधानमंत्री मंत्रिमण्डल का सर्वेसर्वा होता है तथा मंत्रिमण्डल की बैठकों का सभापतित्व करता है। मंत्रिमण्डल की समस्त कार्य विधि पर प्रधानमंत्री का पूर्ण नियन्त्रण होता है। साथ ही प्रधानमंत्री को अपने सहयोगियों के विभिन्न विभागों पर नियन्त्रण रखने में मंत्रिमण्डल सचिवालय तथा प्रधानमंत्री सचिवालय से बहुत अधिक सहायता मिलती है जो प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कार्य करता हैं।

 सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility) – मंत्रिपरिषद् का सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय सरकार का मुख्य आधार है। इंग्लैण्ड में यह सिद्धान्त एक महत्वपूर्ण रूढ़ि पर आधारित है। भारतीय संविधान ने स्पष्ट उपबन्ध द्वारा इस सिद्धान्त को सुरक्षित किया है। अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार मंत्रि परिषद लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ है मंत्रिगण अपने कार्यों के लिए टीम के रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मंत्रिगण एक टीम के रूप में कार्य करते हैं और मंत्रिमण्डल के लिये किये गये सभी निर्णय उसके सदस्यों के संयुक्त निर्णय होते हैं। मंत्रिमण्डल की बैठक में मंत्रियों में किसी विषय पर कितना ही मतभेद क्यों न रहा हो, किन्तु एक बार जब निर्णय ले लिया जाता है तब सभी मंत्रियों को उसे स्वीकार करना होता ह तथा विधानमण्डल में या बाहर उसका समर्थन करना होता है। लार्ड सैलिसबरी ने कहा कि जो भी निर्णय मंत्रिमण्डल में लिया जाता है सभी मंत्रिगण, जो उससे इस्तीफा नहीं दे देते हैं पूर्ण रूप से उत्तरदायी होते हैं। वे बाद में यह नहीं कह सकते कि वहाँ दूसरों के कहने से सहमति दे दी थी परन्तु वास्तव में वह इससे सहमत नहीं हैं। यदि कोई मंत्री प्रधानमंत्री या मंत्रिपरिषद की नीतियों से असहमत है तो उसके लिए त्यागपत्र देने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

     यह प्रधानमंत्री के हाथ में सबसे बड़ा अस्त्र है जिसके माध्यम से वह मंत्रिपरिषद् के अपने सहयोगियों में एकता और अनुशासन बनाये रखता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मंत्रिपरिषद लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि मंत्रिपरिषद् लोक सभा का विश्वास खो देती है, अर्थात् किसी नीति के प्रश्न पर पराजित हो जाती है तो मंत्रिपरिषद् को इस्तीफा देना पड़ता है।

     मंत्रियों की पदच्युति– जिस प्रकार प्रधानमंत्री अन्य मंत्रियों की नियुक्ति में राष्ट्रपति को सलाह देता है उसी प्रकार मंत्रियों की पदच्युति भी प्रधानमंत्री की सलाह के बिना राष्ट्रपति नहीं कर सकता। यह सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त का आवश्यक परिणाम है वस्तुत: सामूहिक उत्तरदायित्व प्रधानमंत्री के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। अतः प्रधानमंत्री को अपने मंत्रियों को चुनने और उन्हें पदच्युत करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। यदि प्रधानमंत्री यह समझता है कि मंत्रिमण्डल में किसी मंत्री की मौजूदगी सरकार की कार्य कुशलता और उसकी नीतियों के लिए अहितकर है तो उसे पदच्युत करने के लिए राष्ट्रपति को सलाह दे सकता है। इस पर डॉ० अम्बेडकर ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति को मंत्रिमण्डल में नहीं रखा जा सकता है, जब प्रधानमंत्री यह कह दे कि उसे निकाल दिया जाय”। इस प्रकार नियुक्ति और पदच्युति दोनों मामलों में मंत्रीगण प्रधानमंत्री के अधीन हैं। प्रधानमंत्री मंत्रिमण्डल के किसी सदस्य को जो उसकी नीतियों से असहमति प्रकट करता हो, पदच्युत कर सकता है। संविधान सभा में बहस के दौरान डॉ० अम्बेडकर ने कहा कि “सामूहिक उत्तरदायित्व प्रधानमंत्री के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। प्रधानमंत्री ही वास्तव में कैबिनेट रूपी मेहराब की आधारशिला है और जब तक हम उस पद का सृजन नहीं करते और पद के अधिकारी को मंत्रियों की नियुक्ति और अपदस्थ करने सांविधानिक अधिकार नहीं देते तब तक सामूहिक उत्तरदायित्व हो ही नहीं सकता।”

    मंत्रियों की संख्या – मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या परिसीमित करने के लिए संविधान में 91 वाँ संशोधन किया गया है। 91वाँ संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा अनुच्छेद 75 (1) के पश्चात् (क) जोड़ा गया। इसके अनुसार, “प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोक सभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।’

प्रश्न 15 मंत्रि-परिषद् (कैबिनेट) का सामूहिक दायित्व क्या है। स्पष्ट करें।

What is the collective responsibility of Cabinet? Explain.

उत्तर- मंत्रि परिषद का सामूहिक उत्तरदायित्व- मंत्रिपरिषद् का सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय सरकार का मुख्य आधार है। इंग्लैण्ड में यह सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण रूढ़ि (Convention) पर आधारित है। भारतीय संविधान ने स्पष्ट उपबन्धों द्वारा इस सिद्धान्त को सुरक्षित किया है। अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है। सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ यह है कि मंत्रिगण अपने कार्यों के लिए टीम के रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी हैं। मंत्रिगण एक टीम के रूप में कार्य करते हैं और मंत्रिमण्डल में लिए गए सभी निर्णय उसके सदस्यों के संयुक्त निर्णय होते हैं। मंत्रिमण्डल की बैठक में मंत्रियों में किसी विषय पर कितना ही मतभेद क्यों न रहा हो, किन्तु एक बार जब निर्णय ले लिया जाता है तब सभी मंत्रियों को इसे स्वीकार करना होगा और विधानमण्डल में या उसके बाहर उसका समर्थन करना होगा। लॉर्ड सैलिसबरी ने कहा है कि जो भी निर्णय मंत्रिमण्डल में लिया जाता है, सभी मंत्रीगण जो उससे मंत्रीगण जो उससे इस्तीफा नहीं दे देते हैं; पूर्णरूप से उत्तरदायी होते हैं और बाद में वे यह नहीं कह सकते हैं कि उन्होनें वहाँ अन्य लोगों के कहने से सहमति दे दी थी, लेकिन वस्तुतः वे उससे सहमत वे नहीं हैं यदि कोई मंत्री प्रधानमंत्री अथवा मंत्रिपरिषद् की नीतियों से असहमत है तो इसके लिए त्यागपत्र देने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। यह प्रधानमंत्री के हाथ में सबसे बड़ा अस्त्र है जिसके माध्यम से वह मंत्रिपरिषद के अपने सहयोगियों में एकता और अनुशासन बनाये रखता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मंत्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है। इसका अर्थ यह है कि यदि मंत्रि परिषद लोक सभा का विश्वास खो देती हैं, अर्थात् किसी नीति के प्रश्न पर पराजित हो जाती है तो मंत्रिपरिषद को इस्तीफा दे देना पड़ना है।

    स्टेट ऑफ मणिपुर बनाम ऑल मणिपुर पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स ट्रांसपोर्टर्स एसोसियेशन, ए० आई० आर० (2007) एन० ओ० सी० 1791 गुवाहाटी के मामले में गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मंत्रियों द्वारा लिये जाने वाले विनिश्चयों में विभागीय तालमेल होना अपेक्षित है। यदि किसी मंत्री द्वारा ऐसा कोई निर्णय लिया जाता है जो वित्त विभाग से सम्बन्धित है तो उसे वित्त विभाग से परामर्श कर लेना चाहिये। वित्त विभाग के परामर्श के बिना वित्त सम्बन्धी लिया गया कोई भी निर्णय आरम्भतः शून्य होगा।

प्रश्न 16. निम्नलिखित का संक्षेप में विवेचन करें –

(1) राज्य विधानमण्डल का निर्माण

(2) उप-राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति

(3) गठबन्धन सरकार दलबदल कानून

Explain in short the following –

(1) Constitution of the State Legislative.

(2) Constitutional Position of Vice-President.

(3) Coalition Government. Anti-defection law.

उत्तर (i) राज्य विधान मण्डल का निर्माण– विधि निर्माण हेतु प्रत्येक राज्य के लिए एक संविधान-मण्डल की व्यवस्था की गयी है। विधान मण्डल का गठन निम्नांकित के मिलकर होता है –

(1) राज्यपाल

(ii) विधान परिषद् एवं

(iii) विधान सभा

     राज्यपाल, विधान मण्डल का एक आवश्यक अंग एवं एक पदेन अंग भी है इसलिए कि –

(i) प्रत्येक राज्यपाल विधान मण्डल का अविभाज्य अंग होता है। वह जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होता है; एवं राज्यपाल के अनुमोदन के बिना कोई भी विधेयक विधि अथवा अधिनियम का स्थान नहीं भारत की संवैधानिक विधि के नहीं ले सकता है। जहाँ तक विधान परिषद् एवं विधान सभा का प्रश्न है सभी राज्यों में ये दोनों सदन नहीं हैं अब विहार महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में द्विसदनीय विधान मण्डल है जबकि अन्य राज्यों में एक-सदनीय है। (अनुच्छेद 168)

    विधान परिषद् स्थायी सदन होता है इसलिए इसे भंग नहीं किया जा सकता जबकि विधान सभा अस्थायी सदन होता है जिसे निर्धारित अवधि से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। विधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन सीधे राज्य की जनता द्वारा किया जाता है।

     विधान परिषदों का सृजन – विधान परिषद् एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं होता। इसके एक तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद निवृत्त होते रहते हैं। इसमें न्यूनतम 40 सदस्य होना आवश्यक है। सदस्यों की अधिकतम संख्या विधान सभा की कुल सदस्य संख्या के एक तिहाई तक हो सकती है।

    विधान परिषद् के सदस्यों का निर्वाचन सीधे जनता द्वारा नहीं किया जाकर विशेष गठित निर्वाचन मण्डलों द्वारा परोक्ष रूप से किया जाता है।

     जैसे कि हम ऊपर देख चुके हैं कि हमारे यहाँ कुछ राज्यों में दो सदनों वाला विधान मण्डल है। विधान परिषद् की उपयोगिता विधान सभा से कम है। कई राज्यों में तो विधान परिषदों को समाप्त कर दिया गया है ठीक इसी आशय की व्यवस्था इस अनुच्छेद में की गयो है।

     संसद इस सम्बन्ध में विधि बनाकर यह व्यवस्था कर सकती है कि –

(1) जहाँ विधान परिषद् नहीं है वहाँ विधान सभा सृजन किया जाये एवं

(ii) जहाँ विधान परिषद् है वहाँ उसका उत्सादन किया जाये।

    इस प्रकार विधान परिषदों के सृजन एवं उत्सादन का अधिकार संसद को प्रदान किया जाये।

    राज्य की विधान सभा का संकल्प आवश्यक है – किसी राज्य में विधान परिषद् का सुजन या उत्सादन उस राज्य की विधान सभा की इच्छा पर निर्भर करता है। विधान-सभा सकल्प पारित करती है और ऐसे संकल्प के पारित हो जाने के बाद ही संसद तत्व सम्बन्धी विधि का निर्माण करती है। संकल्प पारित किये जाने के लिए विधान सभा की कुल सदस्य संख्या का बहुमत एवं उपस्थिति तथा मतदान करने वाले सदस्यों का कम से कम दो तिहाई बहुमत आवश्यक माना गया है।

    विधान सभाओं का गठन– राज्य विधान सभा सर्वाधिक विख्यात एवं महत्वपूर्ण सदन होता है। विधान सभा की न्यूनतम सदस्य संख्या 60 और अधिकतम संख्या 500 है। राज्य के चुनाव क्षेत्रों के वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे मतदान द्वारा विधानसभा के सदस्यों का चुनाव होता है।

उत्तर- (ii) अनुच्छेद 63 से लेकर 71 तक में उप राष्ट्रपति के सम्बन्ध में उपबन्ध किया गया है।

     उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन – अनुच्छेद 63 में कहा गया कि भारत का एक उपराष्ट्रपति भी होगा। उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्य मिलकर आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा करेंगे और ऐसे निर्वाचन में मतदान गूढ़ शलाका द्वारा होगा। राष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्य विधान-मण्डल के सदस्य भी भाग लेते हैं, जबकि उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में केवल संसद के सदस्य हो भाग लेते हैं। ऐसा उसके कार्यों को देखते हुए किया गया है। उसका मुख्य कार्य राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता करना है। उप राष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित किसी विषय का विनिमय संसद विधि बनाकर कर सकती है। उसके निर्वाचन से सम्बन्धित सभी शंकाओं और विवादों की जाँच और विनिश्चय उच्चतम न्यायालय करेगा और उसका निश्चय अन्तिम होगा।

    उप-राष्ट्रपति की अर्हताएँ – उप-राष्ट्रपति की योग्यतायें वही हैं जो राष्ट्रपति की है, सिवाय इसके कि उसे राज्यसभा के लिए चुने जाने की योग्यता होनी चाहिए। वह कोई लाभ का पद धारण नहीं कर सकता है।

    उप-राष्ट्रपति की पदावधि– उप राष्ट्रपति की पदावधि 5-वर्ष को है। किन्तु इस अवधि के पहले ही (a) वह अपने पद से राष्ट्रपति को सम्बोधित करके अपना पद त्याग सकता है।

(b) उसे राज्यसभा के संकल्प द्वारा जिसे सदन के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत ने पारित किया हो तथा जिसे लोक सभा के साधारण बहुमत ने स्वीकृत किया हो, अपने पद से हटाया जा सकता है किन्तु ऐसे संकल्प को प्रस्तावित करने के पूर्व 14 दिन की नोटिस देना आवश्यक है।

    उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन पदावधि की समाप्ति से पहले ही पूर्ण करा लिया जाएगा।

    उप-राष्ट्रपति के कार्य एवं महत्व – उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। उसका सामान्य कार्य राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता करना है। उप-राष्ट्रपति चूँकि राज्यसभा का सदस्य नहीं होता है अतएव उसे मतदान का अधिकार नहीं है किन्तु सभापति के रूप में निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त है संविधान में उप-राष्ट्रपति का महत्व इस नाते हैं कि जब कभी भी राष्ट्रपति का पद किसी कारणवश रिक्त हो जाता है तो वह राष्ट्रपति के कार्यों का तब तक सम्पादन करता है जब तक नये राष्ट्रपति का निर्वाचन नहीं हो जाता। जब उप-राष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है तो उसे राष्ट्रपति की सब शक्तियाँ, उन्मुक्तियाँ, उपलब्धियों, भत्तों तथा विशेषाधिकार का अधिकार प्राप्त होगा।

     सन् 1998 में उपराष्ट्रपति परिलब्धियां तथा पेन्शन (संशोधन विधेयक 1998 द्वारा) उप-राष्ट्रपति की परिलब्धियों को 14,800 रुपये से बढ़ाकर 40,000 रुपये प्रतिमास कर दिया गया है।

उत्तर – (iii) गठबन्धन सरकार दलबदल कानून (Coalition Government : Anti defection law)- गठबन्धन सरकार से तात्पर्य ऐसे सरकार से है जिसमें अनेक दल सम्मिलित हो और उनके बीच एक सामान्य समझ हो जैसे-“कॉमन मिनिमम प्रोग्राम, साझा घोषणापत्र आदि।”

    वर्तमान समय में कोई भी राष्ट्रीय दल जैसे-कांग्रेस, भा०ज०पा०, वामदल अपने बलबूते पर सरकार बना पाने में असमर्थ हैं क्योंकि आवश्यक बहुमत ये दल नहीं जुटा पा रहे हैं अतः इन्हें मजबूरी वश अन्य छोटे दलों व क्षेत्रीय दलों से समझौता करके एक गठबंधन बनाना पड़ रहा है और यही गठबंधन सरकार चला रही है उदाहरण के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA), राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA), संयुक्त मोर्चा आदि।

     केन्द्र में साझा सरकारों की शुरुआत सन् 1979 के लोकसभा चुनाव के पश्चात् हुआ जिसमें जनता दल की सरकार बनी थी। उस सरकार का 27 माह बाद दलबदल के कारण पतन हो गया। सन् 1989 की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में वे ही लोग थे जिन्होंने सन् 1979 में केन्द्र में सरकार का गठन किया था और सरकार नहीं चला पाये थे इससे सिद्ध होता है कि साझा सरकार स्वभावतः एक कमजोर सरकार होती है फिर भी वर्तमान में यही गठबंधन सरकारें देश को चला रही हैं और गठबंधन को मजबूत करने के लिए समय-समय पर प्रयास किये जा रहे हैं जैसे-चुनाव से पूर्व गठबंधन बना लेना और साथ ही दलबदल पर भी संशोधन के जरिये रोक लगाई गई है।

प्रश्न 17. “भारत का संविधान विधायी शक्तियों को दी श्रेणियों में विभाजित करता है – (1) क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से; तथा (2) विधान विषय की दृष्टि से।” इस कथन के सन्दर्भ में भारतीय संविधान के अन्तर्गत विधायी शक्ति का परीक्षण करें। उन विशेष परिस्थितियों का वर्णन करें जिनमें संसद, राज्य सूची में दिये गये विषयों के सम्बन्ध में विधि बनाने के लिए सक्षम हो जाती है।

“The Constitution of India makes two fold distribution of legislative power-(1) With respect to territory; and (2) With respect to subject-matter.” Explain and Illustrate the legislative powers under Indian Constitution with reference to above statement. Discuss those special circumstances where the parliament becomes competent to enact laws on the subject mentioned in state list.

अथवा (or)

भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघ राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्ध का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

Examine critically the legislative relations between the Union and the States under the Indian Constitution.

उत्तर – भारतीय संविधान में राज्य के विभिन्न अंगों में शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त काफी हद तक अपनाया गया है। विधायी शक्तियों का भी विभाजन संघ तथा राज्यों के मध्य है। आमतौर पर भारतीय संविधान विधायी शक्तियों को दो श्रेणियों में विभाजित करता है –

(1) क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से; तथा

(2) विधान की विषय वस्तु की दृष्टि से

(1) क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से विधायी शक्तियों का विभाजन– भारतीय संविधान का अनुच्छेद 245 यह प्रावधान करता है कि संविधान के प्रावधानों के अधीन रहते हुए संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधान मण्डल उस सम्पूर्ण राज्य के अलावा उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा। अनुच्छेद 245 के खण्ड (1) के अनुसार संसद द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण से अमान्य नहीं समझी जायेगी कि वह भारत के राज्य क्षेत्र के बाहर भी लागू होती है। ए० एच० वाडिया बनाम इन्कम टैक्स आयुक्त बम्बई, ए० आई० आर० 1949 फेडरल कोर्ट 18 नामक वाद में फेडरल कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि प्रभुतासम्पन्न विधान मण्डल द्वारा निर्मित किसी विधि को किसी देशीय न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह भारत राज्य क्षेत्र के बाहर भी लागू होती है। ऐसा विधान जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन कर सकता है, विदेशी न्यायालय द्वारा मान्य नहीं किया जा सकता है, उन्हें लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ हो सकती हैं किन्तु ये सब नीति के प्रश्न हैं जिन पर देश के न्यायालयों में विचार नहीं किया जा सकता।

     क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त अनुच्छेद 245 खण्ड (1) के अनुसार किसी राज्य का विधानमण्डल सम्पूर्ण राज्य या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य की विधायी शक्ति का विस्तार राज्य क्षेत्र तक ही सीमित है। परन्तु इस सामान्य नियम का एक अपवाद भी है अर्थात् राज्य द्वारा बनाई गई विधि राज्य क्षेत्र से बाहर लागू हो सकेगी। यदि राज्य तथा उस विषय-वस्तु से कोई सम्बन्ध हो, जिसके ऊपर वह विधि लागू होती है।

     ई० वी० चिन्नैय्या बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० 2005 एस० सी० 162 का मामला सामीप्य के सिद्धान्त पर यह एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सामीप्य के सिद्धान्त को लागू करते समय संविधि के उद्देश्य, क्षेत्र एवं प्रभाव को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

(2) विषय-वस्तु (Subject Matter) की दृष्टि से विधायी शक्ति का विभाजन– संघीय संविधान का सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह भी है कि इसमें संघ तथा राज्य के मध्य शक्तियों का विभाजन रहता है। संघ की विधायिनी संसद तथा राज्य की विधायिनी राज्य विधान मण्डल के मध्य भी विधायी शक्तियों के विभाजन को सुनिश्चित करने के लिए सम्पूर्ण विषय-वस्तुओं का समावेश तीन सूचियों में किया गया है –

(1) संघ सूची

(2) राज्य सूची तथा

(3) समवर्ती सूची।

     अमेरिकी संविधान में सिर्फ केन्द्रीय सरकार की विधायी शक्ति का उल्लेख संविधान में किया गया है तथा अवशिष्ट (शेष) विषयवस्तु पर विधान निर्मित करने की शक्ति राज्य पर छोड़ दी गई है। आस्ट्रेलिया के संविधान ने अमेरिकी संविधान का अनुसरण किया है। कनाडा का संविधान विधायी शक्ति का विभाजन दो श्रेणियों में करता है। संघीय शक्तियाँ तथा प्रान्तीय शक्तियाँ अवशिष्ट शक्तियाँ संघ सरकार को प्रदान की गई हैं।

     भारतीय संविधान में उल्लिखित विधायी कार्यशक्ति का विभाजन विषयवस्तु की दृष्टि से निम्न सूचियों में किया गया है –

(1) संघ सूची (Union List) – संघ सूची में उल्लिखित विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति सिर्फ संसद को है। उस सूची में राष्ट्रीय महत्व तथा राष्ट्रीय विस्तार के विषयों को सम्मिलित किया गया है। जैसे देश की रक्षा, विदेशी सम्बन्ध, युद्ध तथा संधिं, परमाणु ऊर्जा, रेल, वायुमार्ग, समुद्रमार्ग, डाक तार, संचार, विदेशी व्यापार, नागरिकता, जनगणना, मुद्रा, विदेशी ऋण, रिजर्व बैंक, बीमा विनियमन, चेक, वचनपत्र, बाटों तथा मापों का सत्यापन, चलचित्रों का प्रमाणीकरण, आयकर, सीमा शुल्क आदि। इसके अन्तर्गत कुल 97 विषय हैं।

(2) राज्य सूची (State List)— राज्य सूची में उन विषयों का उल्लेख किया गया है जो क्षेत्रीय या प्रादेशिक एवं स्थानीय महत्व के होते हैं। उसमें राज्य को विधि निर्माण की शक्ति है। उसमें कुल 66 विषय हैं। जैसे-पुलिस व्यवस्था, न्याय प्रशासन, जेल, स्थानीय प्रशासन, स्वास्थ्य, स्वच्छता, औषधालय, मादक द्रव्य का उत्पादन, निर्माण करना, परिवहन, क्रय या विक्रय, शिक्षा, कृषि, सिंचाई, वन, सार्वजनिक आमोद-प्रमोद आदि।

(3) समवर्ती सूची (Concurrent List)- समवर्ती सूची में वे विषय सम्मिलित किये गये हैं जो केन्द्रीय महत्व के होते हुए क्षेत्रीय या स्थानीय महत्व के होते हैं। उन पर विधि निर्माण संसद तथा राज्य विधान मण्डल कर सकती है। यदि संघ द्वारा बनाई गई विधि तथा राज्य में बनाई विधि में असंगतता है तो ऐसी दशा में केन्द्रीय विधि ही प्रभावी होगी। समवर्ती सूची में 47 विषयों को सम्मिलित किया गया है। इसमें दण्ड विधि, दण्ड प्रक्रिया, विवाह, संविदायें, न्याय प्रशासन, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय से भिन्न न्याय प्रशासन, दीवानी प्रक्रिया, वन, आर्थिक तथा सामाजिक योजना, जनसंख्या नियन्त्रण तथा परिवार नियोजन, व्यापार संघ, सामाजिक सुरक्षा, विधि वृत्ति, राष्ट्रीय जलमार्ग, मूल्य नियन्त्रण, विद्युत, समाचार पत्र आदि विषय मुख्य हैं।

     42वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में राज्य सूची से शिक्षा को निकालकर समवर्ती सूची में समाविष्ट कर दिया गया जिससे शिक्षा के मामले में एक राष्ट्रीय नीति का निर्धारण हो सके।

    ए० सुभाष बाबू बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3031 के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राज्य दण्ड प्रक्रिया संहिता के सम्बन्ध में विधि बना सकता है।

     अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ (Residuary Legislative Powers) – अनुच्छेद 248 के अनुसार जो विषय संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में उल्लिखित नहीं है उसे अवशिष्ट विषय माना जायेगा तथा अवशिष्ट विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति संसद में अर्थात् केन्द्रीय विधायिनी में होगी। यह पद्धति अमेरिकी, स्विट्जरलैण्ड तथा आस्ट्रेलिया के संविधान से भिन्न है जहाँ अवशिष्ट विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति राज्य सरकारों में है।

     राज्य सूची के विषयों पर संसद को विषय बनाने की शक्ति- सामान्य परिस्थितियों में संघ तथा राज्य के मध्य विधायी शक्ति के पृथक्करण का पालन कठोरता से किया जायेगा परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में यह शक्ति वितरण या तो निलम्बित कर दिया जाता है या केन्द्र को राज्य सूची में उल्लिखित विषयों पर विधान निर्माण की शक्ति प्राप्त हो जाती है। ये परिस्थितियाँ निम्न हैं –

(1) राष्ट्रहित– अनुच्छेद 249 के अनुसार, यदि राज्य सभा 2/3 बहुमत से यह संकल्प पारित कर देती है कि यह आवश्यक है कि राज्य सूची में उल्लिखित विषय पर संसद विधि बनाये तो संसद अनुच्छेद 246 (क) के अधीन उपबन्धित माल और सेवा कर या राज्य सूची में उल्लिखित विषय पर विधि बना सकती है। राज्य सभा का संकल्प सिर्फ एक वर्ष के लिए पारित होगा। परन्तु इस अवधि के समाप्त होने के पूर्व राज्य सभा में प्रत्येक बार एक वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है।

(2) आपात घोषणा– अनुच्छेद 250 के अनुसार जब आपात घोषणा की गई है तो उस आपात अवधि में संसद अनुच्छेद 246 (क) के अधीन उपबन्धित माल और सेवा कर या राज्य सूची में उल्लिखित विषय पर विधि बना सकती है। ऐसी विधि आपात काल को समाप्ति के पश्चात् छः मास के पश्चात् स्वयं निष्प्रभावी हो जायेगी।

(3) राज्य की सहमति से – अनुच्छेद 252 के अनुसार यदि दो या दो से अधिक राज्य विधान मण्डल यह संकल्प पारित कर दे कि राज्य सूची के किसी विषय पर संसद को विधि बनाना वांछनीय है तो संसद उस विषय पर विधि बना सकती है। ऐसी विधि में संशोधन सिर्फ संसद द्वारा किये जायेंगे।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय करारों को प्रभावी करने के लिए विधान – अनुच्छेद 253 के अनुसार संसद अन्तर्राष्ट्रीय करारों को लागू करने के लिए विधि बना सकती है चाहे वह राज्य का विषय ही क्यों न हो। परन्तु ऐसी विधि स्वतः लागू नहीं होती। सन्धियों के कार्यान्वयन के लिए संसदीय विधान आवश्यक होता है।

(5) राज्यों में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाने पर – अनुच्छेद 356 के अनुसार जब राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट पर या अन्यथा यह समाधान हो जाय कि ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि जिसमें राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलाया नहीं जा सकता तो राष्ट्रपति यह घोषित करेगा कि राज्य के विधान मण्डल की शक्तियाँ संसद के अधिकार के द्वारा या संसद के अधीन प्रयोग की जायेंगी।

     इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि संसद को राज्य की सूची में उल्लिखित विषयों पर विधि निर्माण की शक्ति असामान्य परिस्थितियों में मिलती है तथा उस असामान्य परिस्थिति के समाप्त होते ही इस शक्ति के अन्तर्गत निर्मित विधि का प्रभाव समाप्त हो जाता है। यह भी कि इन परिस्थितियों में भी राज्य विधान मण्डल भी इन विषयों पर विधि निर्मित कर सकती है। यदि संसद द्वारा निर्मित विधि तथा राज्य विधान मण्डल द्वारा निर्मित विधि में कोई विरोध या विसंगति होती है तो संसद द्वारा निर्मित विधि अभिभावी होगी।

    इस सम्बन्ध में एक मामला श्रीमती रतनाम्माँ बनाम के० वी० हनुमन्त रेड्डी, ए० आई० आर० (2009) एन० ओ० सी० 1060 कर्नाटक का है। इसमें केन्द्रीय तथा राष्ट्र विधि के बीच असंगतता का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था केन्द्रीय तथा राज्य विधि में असंगतता होने पर केन्द्रीय विधि प्रभावी होगी, यदि अन्यथा कोई उपबन्ध न हो।

प्रश्न 18. किस प्रकार समवर्ती सूची में उल्लिखित किसी विषय पर केन्द्र एवं राज्य विधि के बीच उत्पन्न विवाद को सुलझाया जाता है?

How the conflict between State Law and Union Law on a subject enumerated in concurrent list is resolved?

उत्तर- संघीय संविधान का सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है कि इसमें संघ तथा राज्य के मध्य शक्तियों का विभाजन रहता है। संघ की विधायिनी संसद तथा राज्य की विधायिनी राज्य विधान मण्डल के मध्य भी विधायी शक्तियों के विभाजन को सुनिश्चित करने के लिए सम्पूर्ण विषय-वस्तुओं का समावेश तीन सूचियों में किया गया है

(1) संघ सूची;

(2) राज्य सूची; तथा

(3) समवर्ती सूची।

    अमेरिकी संविधान में सिर्फ केन्द्रीय सरकार की विधायी शक्ति का उल्लेख संविधान में किया गया है तथा अवशिष्ट (शेष) विषयवस्तु पर विधान निर्मित करने की शक्ति राज्य पर छोड़ दी गई है। आस्ट्रेलिया के संविधान ने अमेरिकी संविधान का अनुसरण किया है। कनाडा का संविधान विधायी शक्ति का विभाजन दो श्रेणियों में करता है। संघीय शक्तियाँ तथा प्रान्तीय शक्तियाँ अवशिष्ट शक्तियाँ संघ सरकार को प्रदान की गई हैं।

    समवर्ती सूची में वे विषय सम्मिलित किये गये हैं जो केन्द्रीय महत्व के होते हुए क्षेत्रीय या स्थानीय महत्व के होते हैं। उन पर विधि निर्माण संसद तथा राज्य विधानमण्डल कर सकती है। यदि संघ द्वारा बनाई गई विधि तथा राज्य में बनाई विधि में असंगतता है तो ऐसी दशा में केन्द्रीय विधि प्रभावी होगी। समवर्ती सूची में 47 विषयों को सम्मिलित किया गया है। इसमें दण्ड विधि, दण्ड प्रक्रिया, विवाह, संविदायें, न्याय प्रशासन, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय से भिन्न न्याय प्रशासन, दीवानी प्रक्रिया, वन, आर्थिक तथा सामाजिक योजना, जनसंख्या नियंत्रण तथा परिवार नियोजन, व्यापार संघ, सामाजिक सुरक्षा, विधि वृत्ति, राष्ट्रीय जलमार्ग, मूल्य नियंत्रण, विद्युत, समाचार पत्र आदि विषय मुख्य हैं।

     42वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में राज्य सूची से शिक्षा को निकालकर समवर्ती सूची में समाविष्ट कर दिया गया जिससे शिक्षा के मामले में एक राष्ट्रीय नीति का निर्धारण हो सके।

    ए० सुभाष बाबू बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3031 के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राज्य दण्ड प्रक्रिया संहिता के सम्बन्ध में विधि बना सकता है।

प्रश्न 19. निम्न संवैधानिक सिद्धान्तों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें :

(1) क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त

(2) सारतत्व का सिद्धान्त

(3) आच्छादन का सिद्धान्त

(4) छद्म विधायन का सिद्धान्त

(5) असंगति का सिद्धान्त

Write short notes on the following Constitutional doctrines :

(1) Doctrine of territorial nexus

(2) Doctrine of pith and substance

(3) Doctrine of eclipse

(4) Doctrine of colourable legislation

(5) Doctrine repugnancy.

उत्तर- (1) क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त (Doctrine of Territorial Nexus) – क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 से सम्बन्धित है संविधान का अनुच्छेद 245 संसद तथा राज्य विधानमण्डल को क्षेत्रीय विधायी शक्ति का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 245 का खण्ड (1) यह प्रावधान करता है कि इस संविधान के अधीन रहते हुए संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र के लिए या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकती है तथा किसी राज्य का विधान मण्डल सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा। अनुच्छेद 245 खण्ड (2) के अनुसार संसद द्वारा बनाई गई कोई विधि इस आधार पर अविधिमान्य नहीं समझी जायेगी कि उसका राज्य क्षेत्रातीत प्रवर्तन होगा।

     इसका तात्पर्य यह है कि संसद की विधायी शक्ति सम्पूर्ण देश है तथा राज्य विधान मण्डल की विधायी शक्ति का क्षेत्रीय विस्तार सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र है। इस नियम का एक अपवाद है कि राज्य द्वारा बनाई गई विधि भी राज्य क्षेत्र के बाहर के क्षेत्र में लागू हो सकेगी, यदि बाहरी क्षेत्र तथा उस विषयवस्तु से कोई सम्बन्ध है, जिसके ऊपर यह विधि लागू थी। इस सिद्धान्त को क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त (Doctrine of Territorial Nexus) कहते हैं। इस प्रकार यदि एक राज्य अपने राज्य क्षेत्र के लिए विधि बनाता है परन्तु यदि विधि को विषयवस्तु का सम्बन्ध अन्य क्षेत्रों से भी है जो राज्य क्षेत्र के बाहर है तो क्षेत्रीय सम्पन्नता के सिद्धान्त के अन्तर्गत वह विधि उस राज्य क्षेत्र के बाहर भी लागू होगी जिसके विधान मण्डल द्वारा प्रश्नगत विधि बनाई गई है।

     इस बिन्दु पर बाम्बे राज्य बनाम आर० एम० डी० सी० ए० आई० आर० 1957 सु० को० 699 नामक वाद महत्वपूर्ण है। इस मामले में एक अधिनियम बम्बई राज्य की विधान सभा द्वारा बनाया गया था। इस अधिनियम के अधीन बम्बई राज्य की लाटरी तथा इनामी विज्ञापनों पर कर (tax) लगाने का अधिकार बम्बई राज्य को था। एक समाचार पत्र जो बंगलौर से प्रकाशित होता था, उस पर भी यह कर लगाया गया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि चूँकि समाचार पत्र का प्रसारण (circulation) राज्य में भी था, अतः यह कहा जा सकता है कि अधिनियम की विषयवस्तु लाटरी के विज्ञापन का सम्बन्ध बंगलौर से प्रकाशित समाचार पत्र से भी था। अत: समाचार पत्र पर कर लगाने के लिए उचित क्षेत्रीय सम्बन्ध विद्यमान था। अतः अधिनियम इस आधार पर असंवैधानिक नहीं होगा कि अधिनियम का सम्बन्ध बम्बई राज्य के बाहर बंगलौर से प्रकाशित समाचार पत्र के लाटरी आदि से सम्बन्धित विज्ञापन से था।

     ई० वी० चिन्नैया बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 2005 सु० को० 162 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि क्षेत्रीय सामीप्य के सिद्धान्त को लागू करते समय संविधि के उद्देश्य, क्षेत्र एवं प्रभाव को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    उच्चतम न्यायालय के अनुसार क्षेत्रीय सम्बन्ध के सिद्धान्त (doctrine of territorial nexus) के लागू होने की दो शर्तें हैं –

(1) विषयवस्तु में तथा इस राज्य में जहाँ अधिनियम लागू होता है, वास्तविक सम्बन्ध हो भ्रामक नहीं।

(2) दायित्व जो उस अधिनियम के अन्तर्गत उत्पन्न होता है, उसे सम्बन्ध के प्रसंगानुकूल होना चाहिए। यह तथ्य कि किसी मामले में पर्याप्त सम्बन्ध है या नहीं, प्रत्येक वाद के तथ्य तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।

उत्तर- (2) सारतत्व का सिद्धान्त (Doctrine of Pith and Substance) – जहाँ एक राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि दूसरे विधान मण्डल के क्षेत्र में अतिक्रमण करती है तो यह प्रश्न उठता है कि यदि विधि, उसे निर्मित करने वाले विधानमण्डल की विधायी शक्ति के अन्तर्गत है या नहीं। ऐसी परिस्थिति में विधायी शक्ति का निर्धारण करने के सम्बन्ध में न्यायालयों द्वारा सारतत्व के सिद्धान्त (doctrine of pith and substance) का विकास किया गया। प्रायः अधिनियमों में ऐसे उपबन्ध होते हैं जो आनुषंगिक रूप से (incidentally) दूसरे विधान मण्डल के विधान के विधान विषयों का अतिक्रमण करते हैं। यदि शाब्दिक व्याख्या की जाय तो ऐसे विधायन अवैध हो जायेंगे। किन्तु यदि विधान (अधिनियम) सारवान् रूप से (Substantially) या यदि विधान का वास्तविक उद्देश्य ऐसे विषय से सम्बन्धित है जिस पर वह विधान मण्डल विधि बनाने में सक्षम है तो ऐसे विधायन या अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया जायेगा। भले ही वह दूसरे विधान मण्डल के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विषय पर आनुषंगिक रूप से अतिक्रमण करता है। उस विधान या अधिनियम की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप का पता लगाने के लिए पूरे अधिनियम पर विचार किया जायेगा तथा उसके उद्देश्य और विस्तार तथा उसके उपबन्ध के प्रभाव की जाँच की जायेगी।

     इस बिन्दु पर बम्बई राज्य बनाम बलसारा, ए० आई० आर० 1957 सु० को० 318 नामक वाद उल्लेखनीय है। इस मामले में बम्बई राज्य ने बाम्बे मद्य निषेध अधिनियम अधिनियमित किया जिसके द्वारा राज्य में मादक द्रव्यों को खरीदने तथा रखने का निषेध किया गया था। इस अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह संघ सूची में उल्लिखित विषय “मादक द्रव्यों” के आयात निर्यात पर था अतः यह विधायी क्षेत्र का अतिक्रमण कर बनाया गया अधिनियम होने के कारण असंवैधानिक था। उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि चूँकि अधिनियम का सारतत्व राज्य सूची के विषय से सम्बन्धित था अतः अधिनियम पूर्ण रूप से संवैधानिक था।

     इस प्रकार यदि कोई विधि अधिकार क्षेत्र के बाहर बनाई गई है तो यदि अधिनियम का मारतत्व विधान (अधिनियम) निर्माण करने वाले विधान मण्डल के अधिकार क्षेत्र में है तो ऐसे विधायन को असंवैधानिक नहीं माना जा सकता।

    इस प्रकार न्यायालय सारतत्व के सिद्धान्त उस समय प्रयुक्त करता है जब यह देखता है कि कोई विधि जो किसी सूची के किसी एक विषय से सम्बन्धित है, किसी दूसरी सूची के किसी विषय का अतिक्रमण कर रही है। इस स्थिति में न्यायालय उस विषय की वास्तविक प्रकृति तथा स्वरूप अथवा उसके सारतत्व को जानकर उसकी वैधानिकता का निर्धारण करता है। यदि न्यायालय अपने परीक्षण में पाता है कि विधि अपने सारतत्व में उसी विषय से सम्बन्धित है जिस पर वह निर्मित की गई है मात्र आनुषंगिक ढंग से वह दूसरी सूची के विषय के किसी विषय का अतिक्रमण कर रही है तो वह उस विधि को संवैधानिक उद्घोषित करता है।

उत्तर – (3) आच्छादन का सिद्धान्त (Doctrine of Eclipse)– आच्छादन का सिद्धान्त संविधान के अनुच्छेद 13 खण्ड (1) से सम्बन्धित है। अनुच्छेद 13 खण्ड (1) के अनुसार इस संविधान के लागू होने के ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियाँ उस सीमा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग (भाग 3 मूलाधिकार) के उपबन्धों से असंगत हैं। संविधान लागू होने से पूर्व भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) उपलब्ध नहीं थे। संविधान का अनुच्छेद 13 खण्ड (1) संविधान से पूर्व निर्मित विधियों को शून्य नहीं बनाता। ये विधियाँ यथावत् बनी रहेंगी परन्तु उनका वह अंश अप्रभावी या शून्य होने से निरस्त समझा जायेगा जितना संविधान के भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों से प्रभावित है। संविधान से पूर्व निर्मित विधियाँ उन पर मूल अधिकारों की छाया या ग्रहण की सीमा तक अप्रभावी होंगी। संविधान लागू होने के पश्चात् संविधान से पूर्व लागू विधियों पर मौलिक अधिकारों का ग्रहण (छाया) लग जाता है तथा ये विधियाँ इस ग्रहण (eclipse) या छाया की सीमा तक निष्प्रभावी समझी जायेंगी। अनुच्छेद 13 (1) संविधान पूर्व निर्मित विधियों को पूरी तरह निष्प्रभावी नहीं बनाता परन्तु उनके मूल अधिकारों से प्रभावी होने की सीमा तक निष्प्रभावी बना देता है। ऐसी विधियाँ प्रारम्भ से निष्प्रभावी या शून्य नहीं होतीं परन्तु संविधान पूर्व अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों के निमित्त जीवित रहते हैं। यदि संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान पूर्व प्रवृत्त विधियों पर से छाया या ग्रहण उठा लिया जाता है तो ये विधियाँ जोवित हो उठती हैं।

     उपरोक्त सिद्धान्त को भीखाजी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1955 सु० को० 781 के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है। इस मामले में एक संविधान पूर्व अधिनियम (बरार मोटर यान अधिनियम, 1947) राज्य को मोटर व्यापार को अधिग्रहीत करने की शक्ति प्रदान करता था। अधिनियम जब बना था, विधिमान्य था परन्तु संविधान लागू होने के पश्चात् वह इस आधार पर शून्य हो गया कि वह अनुच्छेद 19 (1) (घ) में प्रदत्त जीविका, पेशा या व्यापार या वाणिज्य करने के मूल अधिकार का अतिक्रमण करता था, परन्तु सन् 1951 में संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 (1) में संशोधन कर राज्य को किसी व्यापार में एकाधिकार सृजित करने की शक्ति दी गई। उच्चतम न्यायालय के अनुसार इस संविधान पूर्व अधिनियम पर संविधान के अनुच्छेद (1) (घ) की छाया या ग्रहण लग गया तथा यह निष्प्रभावी हो गई थी परन्तु ज्यों ही सन् 1951 में संविधान में संशोधन कर उस छाया को दूर कर दिया गया वह विधि पुनर्जीवित हो उठी।

    यह सिद्धान्त संविधान प्रवृत्त होने के पश्चात् निर्मित असंवैधानिक विधि पर लागू नहीं होता। यह सिद्धान्त वहीं प्रयुक्त होता है जहाँ प्रश्नगत विधि निर्माण के समय असंवैधानिकता थी परन्तु पश्चात्वर्ती परिस्थितियों में उत्पन्न अयोग्यताओं के कारण दूषित हो गई हो। यदि कोई विधि अपने निर्माण के समय हो असंवैधानिक हो तो उसे पश्चात्वर्ती संविधान संशोधन द्वारा वैधता प्रदान नहीं की जा सकती।

     सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 728 नामक मामले में उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन अधिनियम, 1951 को अनुच्छेद 19 (1) (घ), 31 (2) तथा 14 एवं अनुच्छेद 301 के अतिक्रमण के आधार पर चुनौती दी गई थी। यह एक संविधान के पश्चात् निर्मित विधि थी। उच्चतम न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि इस असंवैधानिक विधि को किसी संविधान संशोधन द्वारा संवैधानिक नहीं बनाया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने कूली की प्रस्तुत (Constitutional limitation) को उद्धरित किया जो निम्न है – A statute void for unconstitutionality cannot be vitalised by subsequent amendment of the Constitution remaining constitutional objections but must be re-amended.

उत्तर- (4) छद्म विधायन का सिद्धान्त (Doctrine of Colourable Legislation)– हमारा संविधान केन्द्र तथा राज्य विधान मण्डलों के मध्य विधायी शक्तियों का विभाजन करता है। प्रथम अनुसूची के अन्तर्गत उल्लिखित विषयों पर संसद को अधिनियम बनाने का अधिकार है तथा द्वितीय सूची में उल्लिखित विषयों पर राज्य विधान मण्डल विधि बना सकती है। किसी विधि की संवैधानिकता को इस आधार पर भी चुनौती दी जा सकती है कि क्या संसद या राज्य विधान मण्डल ने विधि बनाने में अपनी विधायी शक्तियों का अतिक्रमण तो नहीं किया है। विधायी शक्तियों का अतिक्रमण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से हो सकता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि यद्यपि विधान मण्डल किसी विधि को बनाने में ऊपरी तौर पर (प्रत्यक्षतः) अपनी शक्तियों के भीतर कार्य करता है। इस प्रकार के परोक्ष या अप्रत्यक्ष विधायन को छद्म विधायन कहते हैं। ऐसे मामले में अधिनियम या विधि के ऊपरी प्रारूप का महत्व न होकर महत्व उस अधिनियम के सार (substance) का होता है। ऐसे विधायन से ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि विधान मण्डल ने अपनी विधायी शक्तियों के अन्तर्गत ही कार्य किया है परन्तु यदि विधायन का सार या विधायन के उद्देश्य तथा सार (substance) की जाँच की जाय तो यह विदित होता है कि विधायिका ने उस विषय पर विधि का निर्माण किया है जिस पर विधि बनाने का उसे अधिकार नहीं था। इस प्रकार यदि विधायन की विषयवस्तु सारतः उस विधान मण्डल की शक्ति से बाहर है तो उसका बाह्य स्वरूप उसे न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने से नहीं बचा सकता क्योंकि विधान मण्डल कोई अप्रत्यक्ष या परोक्ष तरीका अपनाकर संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता।

     इस सिद्धान्त का आधार यह है कि जो कार्य विधान मण्डल प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकता वह अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं कर सकता। यह सम्पूर्ण सिद्धान्त सम्बन्धित विधान निर्माता की सक्षमता के इस प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है कि क्या वह विधान मण्डल उस विधान के निर्माण हेतु सक्षम था।

     कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1952 सु० को० 252 नामक वाद इस बिन्दु पर महत्वपूर्ण है। इस मामले में बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 द्वारा जमींदारी की भूमि अधिग्रहीत कर ली गई थी। इस अधिनियम के अन्तर्गत जमींदारों को अधिग्रहण के बदले में प्रतिकर देने की व्यवस्था थीं। इस अधिनियम की धारा 4 (ख) राज्य को अधिकृत करती थी कि वह जमींदारी को उनकी जमींदारी के अधिग्रहण के पूर्व मिलने वाले लगान का आधा हिस्सा बिना क्षतिपूर्ति के स्वयं अवाप्त कर ले। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया क्योंकि इसमें ऊपरी तौर पर यह लगता था कि जमींदारों को प्रतिकर मिल रहा है परन्तु वास्तव में जमींदारों को किसी प्रकार का प्रतिकर प्राप्त नहीं होता था तथा प्रतिकर के अभाव में जमींदारों की भूमि का अधिग्रहण असंवैधानिक था। इस अधिनियम के अनुसार जमीन अधिग्रहण से पूर्व जमींदारों को बकाया लगान पूरा का पूरा राज्य में निहित होना था तथा इसी धनराशि में से आधा जमींदारों को प्रतिकर के रूप में दिया जाना था। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पूरा लेकर उसमें आधा वापस करने का अर्थ है कि कुछ नहीं दिया गया। (Taking of full and giving of half is giving of none)।

     आर० एस० जोशी बनाम अजित मिल्स लिमिटेड, ए० आई० आर० 1977 सु० को० 1279 नामक बाद में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा-छद्मता का तात्पर्य असमता से है। कोई वस्तु छद्ममय तब कही जाती है जब उसे उस रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिस रूप में वह वास्तव में नहीं होती। भारतीय शब्दों में इसे माया कहते हैं। शक्ति विपणन विधिशास्त्र में छद्म क्रियान्वयन अथवा विधायी शक्तियों के साथ छल या संविधान के साथ छल का तात्पर्य यह है कि अक्षमतापूर्ण स्थिति में रहते हुए भी ऐसी विधि का निर्माण करना मानो उसे निर्मित करने की शक्ति उसे थी। यह छद्म विधायन है।

उत्तर – (5) असंगति का सिद्धान्त (Doctrine of Repugnancy)– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 254 के खण्ड (1) एवं (2) में ‘ असंगति’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है- केन्द्र और राज्य की विधियों में असंगति। परन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि वे कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जब केन्द्र और राज्य की विधियों में असंगति स्थिति उत्पन्न हो जाती है और निर्धारण की कसौटी क्या है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा एम० करुणानिधि बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० (1979) एस० सी० 898 के बाद में असंगति’ के निर्धारण के लिए कुछ कसौटियाँ विहित की गई हैं जो इस प्रकार हैं –

(अ) जहाँ दोनों विधियों में प्रत्यक्ष विरोध है अर्थात् एक हाँ कहे तो दूसरी ना

(ब) जब केन्द्रीय और राज्य विधि में सीधी असंगति है जो सुलझायी नहीं जा सकती है। जब केन्द्र और राज्य विधि में कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं है, किन्तु यदि केन्द्र का उद्देश्य किसी पूर्व क्षेत्र को अधिकृत करना है तो राज्य द्वारा उस पर विधायन केन्द्र का विरोधी होगा।

     दीपचन्द्र बनाम उ० प्र० राज्य, ए० आई० आर० (1959) एस० सी० 648 के मामले में यू० पी० ट्रान्सपोर्ट सर्विस (डेवलपमेंट एक्ट, 1955 की विधिमान्यता को चुनौती दी गई थी, जो सरकार को सड़क यातायात के राष्ट्रीयकरण करने के लिए प्राधिकृत करता था। मोटर वेहिकल्स एक्ट, 1939 में राष्ट्रीयकरण के लिए कोई व्यवस्था न होने के कारण ही राज्य को उक्त अधिनियम पारित करना पड़ा था। इसके पश्चात् सन् 1956 में संसद ने मोटर वाहन अधिनियम, 1939 में संशोधन करके राज्यों को सड़क यातायात के राष्ट्रीयकरण करने का प्राधिकार प्रदान कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य का अधिनियम असंवैधानिक है। चूंकि दोनों एक ही विषय पर है और केन्द्रीय विधि इस विषय पर एक पूर्ण विधान है, अत: राज्य विधि विरोधी होने के कारण निष्प्रभावी होगी।

प्रश्न 20. संघ एवं राज्यों के प्रशासनिक (कार्यपालिकीय) शक्तियों को संक्षेप स्पष्ट करें।

Explain in brief the Administrative (Executive) Powers of Centre and States.

उत्तर- संघ एवं राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्ध – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256 से लेकर अनुच्छेद 263 तक में केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्धों या कार्यपालिकीय अधिकारों के बारे में प्रावधान किया गया है। जैसा कि हम जानते हैं कि संघात्मक संविधान दो स्तर की सरकारों की स्थापना करता है –

(1) केन्द्रीय सरकार तथा

(2) राज्य सरकार

      केन्द्रीय (संघीय) सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन रहती है किन्तु संघीय शासन व्यवस्था की शक्ति और सफलता संघ और राज्यों के बीच अधिकतम सहयोग एवं समन्वय पर निर्भर करती है। वस्तुतः केन्द्र और राज्यों में प्रशासनिक सम्बन्धों का समायोजन एक कठिन कार्य होता है। सरकारों में मतभेद की अधिक सम्भावना रहती है। केन्द्र और राज्य अपने-अपने क्षेत्र में प्रभुता सम्पन्न हैं। किन्तु केन्द्र को संविधान में राज्यों की अपेक्षा अधिक कर्त्तव्य सौंपे गये हैं। देश में विधि-व्यवस्था बनाये रखने का उत्तरदायित्व केन्द्रीय सरकार का है। ऐसी स्थिति में यदि केन्द्र को कुछ अधिक शक्ति न प्राप्त हो तो प्रशासन तन्त्र का सुचारू रूप से संचालन नहीं किया जा सकता है। प्रशासकीय कठिनाइयों को दूर करने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में आवश्यक उपबन्धों का समावेश किया है और संसदीय विषयों के प्रशासन के लिए राज्यों के ऊपर आवश्यक नियन्त्रण की शक्ति प्रदान की है। आपातकालीन स्थिति में तो राज्य सरकारें पूर्ण रूप से केन्द्रीय सरकार के अधीन कार्य करती हैं।

    सामान्य परिस्थितियों में भी संविधान राज्यों के ऊपर केन्द्र (संघ) के नियन्त्रण का प्रावधान करता है, जो इस प्रकार है –

(1) संघ द्वारा राज्यों को निर्देश – केन्द्र द्वारा राज्यों को निदेश देने की व्यवस्था संघीय सिद्धान्त के सर्वथा प्रतिकूल है और यह किसी भी परिसंघीय संविधान में नहीं पायो जाती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए ऐसी व्यवस्था को संविधान में समाविष्ट करना उचित समझा। अनुच्छेद 256 के अनुसार, प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जायेगा जिसमें संसद द्वारा बनाई गई विधियों का पालन सुनिश्चित रहे तथा संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को निदेश देने तक विस्तृत होगा, जिसे भारत सरकार उस प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे।

     केन्द्रीय विधियों के अनुपालन में कोई बाधा न उत्पन्न हो, इसलिए केन्द्रीय सरकार को ऐसी शक्ति प्रदान की गयी है।

    अनुच्छेद 277 के अनुसार प्रत्येक राज्य अपनी कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग करेगा जिसमें संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में कोई अड़चन या प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। इस प्रयोजन के लिए केन्द्र राज्यों को आवश्यक निर्देश देगा।

     राज्यों द्वारा केन्द्र के निदेशों की अवहेलना न की जा सके, इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 356 में उपबन्ध बनाया गया है।

(2) (A) संघ के कृत्यों को राज्यों को सौंपना– अनुच्छेद 258 (1) के अधीन संसद (संघ) किसी राज्य सरकार की सहमति से संघ की कार्यपालिका शक्ति से सम्बन्धित किसी विषय को उस सरकार या उसके पदाधिकारियों को सशर्त सौंप सकती है।

अनुच्छेद 258 (2) के अधीन संसद को संघ के विधानों के क्रियान्वयन के लिए राज्य प्रशासन तन्त्र का प्रयोग करने की शक्ति भी है।

(B) राज्य सरकार के कृत्यों को केन्द्रीय सरकार को सौंपना-केन्द्र की तरह राज्य सरकारें भी अपने कृत्यों को संघ सरकार को सौंप सकती हैं। अनुच्छेद 258 (क) यह प्रावधान करता है कि किसी राज्य का राज्यपाल भारत सरकार की सहमति से ऐसे किसी विषय से सम्बन्धित कृत्य जिस पर राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, सशर्त या बिना शर्त के उसे सौंप सकता है।

(3) अखिल भारतीय सेवायें- वैसे तो संघीय संविधान में केन्द्र और राज्यों की अलग-अलग सेवाएँ होती हैं। किन्तु भारतीय संविधान में इन सेवाओं के अतिरिक्त एक संघ और राज्यों के सम्मिलित सेवाओं का भी उपबन्ध है। जिसे ‘अखिल भारतीय सेवाएँ’ कहा जाता है। अनुच्छेद 312 के अन्तर्गत यदि राज्य सभा अपने उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित संकल्प द्वारा यह घोषित कर देती है कि राष्ट्रीय हित में ऐसा करना आवश्यक है तो संसद विधि द्वारा संघ और राज्यों के लिए सम्मिलित एक या अधिक अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन कर सकती है और उन सेवाओं को भर्ती तथा नियुक्त व्यक्तियों की सेवा की शर्तों का विनियमन कर सकती है।

(4) केन्द्रीय अनुदान- संविधान के अन्तर्गत राज्यों की राजस्व के स्रोत अत्यन्त सीमित हैं जबकि नीति निदेशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत उन्हें समाज के उत्थान के बहुत से कार्य करने पड़ते हैं। इन सब कार्यों के लिए उसे प्राप्त होने वाला राजस्व अपर्याप्त होता है। इस प्रकार निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों को अनुदान प्रदान करती है। केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यों के सहायतार्थ अनुदान से दो उद्देश्यों की पूर्ति होती है –

(1) इसके माध्यम से केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों पर नियन्त्रण रखती है। तथा

(2) इसके द्वारा केन्द्र और राज्यों में सहयोग और समन्वय की भावना का सृजन होता है।

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